Monday, 30 November 2015

अश्वत्थ / पुराण-कथा

अश्वत्थ / पुराण-कथा *   
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अश्वत्थ सर्दियों में अद्भुत् दिखलाई देता है ।
अभी सर्दियाँ बस शुरु ही तो हुई हैं ।
परसों सुबह कुँआरी धूप में भ्रमण करते हुए जब उसके समीप पहुँचा तो वह आत्मलीन सा समाधिस्थ था ।
सोच ही रहा था कि एक स्नैप ले लूँ कि उसकी समाधि टूट गई । उसने अन्यमनस्कतापूर्वक मुझे बरज दिया । जैसे पहले यह उत्साह उठा था कि स्नैप ले लूँ, अगले ही क्षण उसके तेवर से समझ गया कि उसे पसन्द नहीं ।
फिर भी यह जानकर प्रसन्नता हुई कि वह मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था ।
"सुनो!"
उसने ही वार्तालाप शुरु किया ।
मैं तो गद्गद् हो उठा ।
’इतने दिनों बाद?’
मैंने खुद से पूछा ।
"संकल्प कोई भी हो, क्लेश का ही कारण होता है । संकल्प उठते ही एक आभासी संकल्पकर्ता अस्तित्व ग्रहण कर लेता है, जो अपने अस्तित्व से सदा अपूर्ण और इस अपूर्णता से खिन्न रहा करता है । वह किसी प्रकार से इस खिन्नता को दूर नहीं कर सकता । क्योंकि वह स्वयं ही खिन्नता होता है । संतुष्टि का अर्थ होगा उसकी मृत्यु, और उसमें उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता । अंततः वह मृत्यु भी चाहता है तो वह खिन्नता की ही पराकाष्ठा होता है । या फिर, उसे इसका आभास हो जाता है कि एक स्रोत है उसका, वह जिसकी लहर मात्र है । लहर मिटे बिना जल से कैसे एक हो सकती है ? संकल्प जानता है कि अपने स्रोत में विलीन हो जाना ही परम संतोष होगा ।"
अश्वत्थ की धाराप्रवाह वक्तृता मेरे लिए नई थी । मेरी ओर बिना देखे वह बोलता रहा :
"सुनो! मैं तुम्हें महर्षि पिप्पलाद की कथा सुनाता हूँ । वे मेरे फलों को खाकर तप में संलग्न थे ।
वे पिछले जन्म में ही आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुके थे किन्तु कुछ पूर्व प्रबल संस्कारों के प्रभाव से समष्टि संकल्प अर्थात् प्रारब्ध के शेष रह जाने से कामना-मुक्त नहीं हो सके थे । प्रातः सायं वे ऋषि याज्ञवल्क्य को नदी-तट या सरोवर की ओर नित्य किए जानेवाले संध्या कर्म हेतु आते-जाते देखते और न जाने कब उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना से उनके चित्त में यह भावना जागृत हुई कि अगले जन्म में ऋषि याज्ञवल्क्य उन्हें पिता के रूप में प्राप्त हों  । दैववश वे इसे भूल भी गए किन्तु दैव पर उनके इस कर्म ने एक संकल्प-रेखा खींच दी थी, इसका उन्हें स्मरण न रहा ।
दूसरी ओर, ऋषि याज्ञवल्क्य को उन महर्षि या उनकी इस भावना / कर्म के बारे में आभास तक नहीं था ।
उस अपने विगत जन्म में  महर्षि पिप्पलाद अत्यन्त वृद्ध, असहाय और दुर्बल होकर अपनी एकाकी कुटिया में या बाहर, ईश्वर-चिन्तन करते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे । अन्न और फल आदि भी त्याग चुके थे और प्यास लगने पर उसकी निवृत्ति के लिए सिर्फ़ गंगा-जल को ईश्वरीय प्रसाद समझकर तिरस्कार न करते हुए ग्रहण करने लगे थे ।
ऐसे ही एक दिन समाधि में बैठे-बैठे उन्होंने उचित समय जानकर संकल्प-पूर्वक देह को त्याग दिया ।
ब्रह्मा की आज्ञा से तब कुछ तीर्थयात्री पथिक उस मार्ग से आए और महर्षि को परम-सत्ता में लीन जानकर उनकी पार्थिव देह को जल में समाधि दी और उनके बैठने के स्थान पर एक लिंग स्थापित कर वहाँ से चल दिए ।
इसके कुछ ही दिनों बाद ऋषि याज्ञवल्क्य जब नित्य संध्या कर्म करने बाद अपनी कुटिया पर आए तो उन्होंने बरसों से बिछड़ी अपनी बहन को द्वार पर खड़ा पाया । इस बीच उनके माता-पिता की मृत्यु कुछ समय पूर्व हो चुकी थी जिसका पता याज्ञवल्क्य को नहीं था क्योंकि वे बचपन में ही गृह छोड़कर गुरुकुल में रहने लगे थे, और फिर घर नहीं लौट सके थे । किन्तु माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी वह अविवाहित छोटी बहन अकेले ही भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन करती हुई तपस्या और तीर्थाटन करती रही और संयोगवश यहाँ आ पहुँची थी ।
जब ऋषि ने बहिन को देखा तो वे भाव-विह्वल हो उठे, दोनों परस्पर गले मिले और तब ऋषि को अपने माता-पिता की मृत्यु के बारे में ज्ञात हुआ ।
दूसरे दिन ऋषि ने यथोचित पितृ-तर्पण आदि किया और अपनी बहन के लिए अपनी कुटिया की समीपवर्ती एक पुरानी कुटिया को स्वच्छ कर उसके लिए रहने हेतु व्यवस्थित कर दिया ।  वे प्रायः हर रोज ही एक-दूसरे से मिलते थे और कुशल-मंगल पूछते । दोनों बस तपस्वी और परस्पर अपरिचित दो मनुष्यों की तरह अपनी-अपनी तप-साधना में संलग्न रहते । कभी कभी तो कई कई दिनों तक भी उनके बीच बात तक नहीं हो पाती थी । तब एक दिन दैववश वे ही पथिक याज्ञवल्क्य की कुटिया पर आ पहुँचे और उनसे चर्चा के दौरान उन्होंने याज्ञवल्क्य से उन तपस्वी के बारे में जिज्ञासा की । याज्ञवल्क्य उन तपस्वी को वैसे तो जानते थे किन्तु दोनों में कभी कोई वार्तालाप नहीं हुआ था । इस बीच उनकी बहिन वहाँ आ पहुँची । उसे कुछ स्मरण हुआ तो उसने बताया, हाँ मैं कुछ समय उन तपस्वी के सान्निध्य में उनकी सेवा मे संलग्न थी, फिर वहाँ से आगे चली गई । उसने यह भी बताया कि वे वृद्ध तपस्वी उसकी सेवा से बहुत प्रसन्न थे और उसे माता कहते थे । एक बार तो उन्होंने अपना यह भाव भी उसके समक्ष रखा था कि यदि दैव ने चाहा तो वे उसे माता के रूप में किसी जन्म में प्राप्त करेंगे । ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी अन्तर्दृष्टि से इस पूरे वृत्तान्त को देख लिया पर उन्होंने इस विषय को महत्व नहीं दिया और वे मौन रहे ।
दो-तीन वर्षों के बाद एक रात्रि ऋषि ने कोई कामुक स्वप्न देखा जिससे उनका वीर्य स्खलित हो गया और निद्रा से जागने के पश्चात उन्होंने रात्रि में स्नान करना उचित न जानकर उस अशुद्ध वस्त्र को कुटिया से बाहर थोड़ी दूर फेंक दिया । दूसरा अधोवस्त्र लपेटा और सो गए । भोर होने से पहले ही रोज की तरह उठे और स्नान आदि के लिए नदी की ओर जा रहे थे । वे अपने उस वस्त्र को खोज रहे थे जिसे उन्होंने रात्रि में फेंक दिया था । क्योंकि उनके पास अधिक वस्त्र नहीं थे इसलिए उसे ही स्वच्छकर प्रयोग किया जा सकता था ।
तभी उनकी बहन वहाँ आ पहुँची । उसने ऋषि से पूछा कि वे क्या ढूँढ रहे हैं? तब ऋषि ने रात्रि की घटना उसे सुनाई । सुनते ही वह कटे वृक्ष की भाँति धरती पर गिर पड़ी । ऋषि ने उससे पूछा ’क्या हुआ?’ तब उसने रोते-रोते कहा कि वह रजस्वला थी और रात्रि में अधिक स्राव होने से व्याकुल होकर कोई वस्त्र ढूँढ रही थी जिसे वह कमर पर लपेट सके, और जब बाहर आई तो उसे एक वस्त्र पड़ा दिखलाई दिया जिसे उसने तुरंत ही अपनी कटि पर लपेट लिया था ।
ऋषि यह सुनकर स्तब्ध रह गए और अपनी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने क्षणमात्र में समझ लिया कि महषि पिप्पलाद के मन में उन्हें पिता के रूप में तथा उनकी बहन को माता के रूप में प्राप्त करने का जो संकल्प था वही इस पाप-काया में उनके जन्म लेने के लिए दैववश फलीभूत होनेवाला है । उन्होंने संयत होकर बहन से कहा :
दैव कितना कुशल है ! इसलिए मनुष्य को न तो शुभ न अशुभ संकल्प करना चाहिए । तपस्वी को तो कदापि नहीं । और जैसे ही कोई संकल्प उठे, उसे ज्ञानाग्नि में हवन कर देना चाहिए ।
तुम जानती हो वे तपस्वी तुम्हें माता के रूप में और मुझे पिता के रूप में प्राप्त करने की कामना से मोहित हो गए थे, और उन्हें इस बारे में स्मरण ही नहीं था कि तपस्वी को कामनाओं से कदापि मोहित नहीं होना चाहिए, क्योंकि तपस्वी की कामनाएँ संकल्प का रूप ले लेती हैं जिन्हें पूर्ण करने के लिए दैव भी बाध्य हो जाता है । उन्हें आभास तक कैसे होता कि हम दोनों भाई बहन हैं? यदि उन्हें जरा भी आभास या कल्पना होती तो वे कदाचित् सतर्क हो जाते । किन्तु अहा दैव ! अरे विधाता । अच्छा अब तुम उस शिशु को उसके जन्म लेते ही पीपल के वृक्ष तले छोड़ देना । और वहाँ से बहुत दूर चली जाना । विधाता ही उसकी रक्षा करेगा ।
समय आने पर उस स्त्री ने अपने नवजात शिशु (पिप्पलाद) को मेरी छाया तले रख दिया और मुझे और दिशाओं को, धरती और नभ को प्रणाम कर वहाँ से चली गई । "
अश्वत्थ यह कहकर चुप हो गया । उसकी पत्तियों से झरती ओस की बूँदों से मैंने जाना कि वह रो रहा था ।
पिप्पलाद एक नन्हें शिशु की भाँति मेरी छाया में  लेटा था और मैं उसका धर्मपिता था । उसके लिए मुझे भी संकल्पों से बँधना ही था । किसी वन्य पशु की उस पर दृष्टि न पड़ती, यदि पड़ती भी तो वह उसे दुलारकर चला जाता, बकरियाँ और गौएँ उसे स्तनपान करा जातीं, वनदेवी उसे ऊष्णता देती, ...।
और धीरे धीरे बड़े होते होते उसकी अपनी स्मृति जाग उठी और वह अपने ब्राह्मणोचित गुण-कर्मों में प्रवृत्त हो उठा ।
अपनी सहज प्रज्ञा से उसने यह भी जान लिया कि वह याज्ञवल्क्य और उनकी बहन की संतान है, इसलिए वह घोर पाप लेकर जन्मा है । यज्ञकर्म और अभिचार कर्म में कुशल होने से उसने यज्ञकुण्ड में ’कृत्या’ का आवाहन किया और उसे आज्ञा दी कि वह याज्ञवल्क्य को मार डाले । कृत्या याज्ञवल्क्य के पीछे उन्हें खाने के लिए दौड़ रही थी और याज्ञवल्क्य उससे अपनी रक्षा की आशा से पहले राजा जनक, फिर दूसरे राजा, फिर देवताओं , चन्द्र, सूर्य, ऋषियों और इन्द्र की भी शरण में गए परंतु कोई उनकी रक्षा करने में समर्थ न था । फिर वे ब्रह्मा और अंततः शिव के पास गए, जो अपनी समाधि में डूबे थे । जब उन्होंने याज्ञवल्क्य को द्वार पर देखा तो उनसे कुशल पूछी । ऋषि बोले : मेरे पुत्र ने कृत्या को जागृत कर मुझे खा जाने के लिए भेजा है । भगवान् शंकर ने पल भर में ही पूरा वृत्तान्त समझकर ऋषि को अभयदान दिया और कृत्या को शान्त कर वापस पिप्पलाद के पास भेज दिया । जब कृत्या महर्षि पिप्पलाद के पास पहुँची और उन्हें शंकर के पास जाने के लिए कहा तो पिप्पलाद भगवान् शंकर की सेवा में प्रस्तुत हो गए ।
"प्रभो आपने स्मरण किया, मैं तो धन्य हो गया ..."
महर्षि भगवान् के चरणों की वंदना कर रहे थे ।
"पिप्पलाद!  ऋषि और उनकी बहन पर तुम्हारा क्रोध करना सर्वथा अनुचित है । प्रमादवश तुमने स्वयं ही उन्हें माता-पिता के रूप में प्राप्त करने की इच्छा की थी और तुम्हारे संकल्प के आगे दैव को भी झुकना पड़ा । अब तुम निष्पाप हो ।"
अश्वत्थ इतना कहकर पुनः आँखें बंद कर अन्तर्लीन हो उठा । पल भर बाद बोला :
"इसलिए तुम्हें चाहिए कि कौतूहलवश भी कामना के वशीभूत कभी मत होओ । मन को मोहित करनेवाली सभी कामनाएँ अन्ततः विनाशकारी सिद्ध होती हैं ।"
मैंने दोनों हाथ जोड़कर अश्वत्थ को प्रणाम किया और अपने घर की दिशा में आगे बढ़ गया ।
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(*सन्दर्भ : पंकज प्रकाशन सतघड़ा मथुरा से प्रकाशित श्री नर्मदापुराण अध्याय 42)       

   

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