यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...
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जिस प्रकार ’लिंग’ शिव की अभिव्यक्ति है, और ’गौ’ धर्म की, वैसे ही ’स्त्री’ शक्ति की अभिव्यक्ति है और ’पुरुष’ पुरुषार्थ की । ये ’प्रतीक’ या चिह्न की बजाय उन निराकार तत्वों का साकार अभिव्यक्त रूप हैं । शक्ति स्वयं किसी आश्रय के अभाव में बिखर जाती है । नारी / स्त्री भी उसी प्रकार पुरुष के आश्रय के बिना अस्तित्वहीन हो जाती है । जैसे पुरुष के कुछ अधिकार और उससे संलग्न उत्तरदायित्व होते हैं वैसे ही स्त्री के भी कुछ जन्मजात अधिकार और दायित्व होते हैं । हम देखते हैं कि पशुओं में और पक्षियों में भी प्रायः किसी भी दल का या ’परिवार’ का मुखिया कोई ’पुरुष’ ही हुआ करता है । कुछ पशु-पक्षी युगल-जीवन भी जीते हैं और हंस जैसे पक्षी तो प्रायः अपने साथी से बिछड़ जाने पर, उसकी मृत्यु हो जाने पर पुनः जोड़ा नहीं बनाते । प्रायः पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होने पर अपनी ऋतु आने पर ही प्रजनन के कार्य में संलग्न होते हैं । मनुष्य ही शायद इसका अपवाद है । झुण्ड में रहनेवाले जानवर, जैसे वानर, गाय-भैंसे, भेड़-बकरियाँ आदि भी इसका अपवाद हुआ करते हैं । वह प्रकृति-प्रदत्त धर्म है । किन्तु जो मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों को जानता-समझता है उसके लिए अपनी काम-प्रकृति को सुव्यवस्थित रखना आवश्यक हो जाता है, चाहे स्त्री हो या पुरुष । वर्ण-व्यवस्था का पालन करनेवाला समाज हो या वर्णरहित समाज हो, यौन-व्यवहार की दृष्टि से पुरुष में सामान्यतः आक्रामकता और स्त्री में समर्पण प्रकृति से ही उन्हें प्राप्त प्रवृत्तियाँ होती हैं । इसलिए जहाँ पुरुष के लिए यह संभव है कि वह नारी से बलपूर्वक यौन-संसर्ग करे, वहीं सभ्य समाज में नारी का यह जन्मजात अधिकार है कि कोई पुरुष उसकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा न कर सके । यह तभी संभव है जब नारी से, चाहे वह बाल, युवा या वृद्ध हो, सम्मान का व्यवहार किया जाए । यदि ऐसा न हो तो ’परिवार’ और ’संबंध’, ’कुल’ और समाज सभी विनष्ट हो जाते हैं । ’वर्ण’ की शुद्धता बनाए रखना भी इसीलिए आवश्यक है क्योंकि हर वर्ण के अपने नियत ’जातिगत’ कर्म होते हैं जिनमें वह सरलता से और अधिक कुशलता से कर सकता है । चूँकि ’जाति’ माता-पिता से प्राप्त ’गुणों’ का एक शुद्ध और सशक्त स्रोत होती है इसलिए उस स्रोत को शुद्ध बनाए रखना हर मनुष्य का दायित्व है । अमर्यादित भोग-बुद्धि को अधिकार माननेवाले न केवल स्वयं नष्ट हो जाते हैं बल्कि संसार को भी विनष्ट कर देते हैं । चार वर्ण और चार आश्रम एक वैज्ञानिक तथ्य है जो एक ओर कर्म और गुणों से अर्थात् मनुष्य की प्रवृत्तियों से निर्धारित होता है वहीं दूसरी ओर यदि उसमें हस्तक्षेप न किया जाए तो मनुष्यमात्र को सर्वोच्च ’श्रेयस्’ की प्राप्ति तक भी ले जाता है । किन्तु जिन ’प्रगतिशील’ लोगों को इसमें ब्राह्मणवाद और उच्च-जाति का दंभ दिखलाई देता है उन्हें चार पुरुषार्थों की कल्पना भी नहीं होती । अमर्यादित धन, बल का संग्रह और भोग ही उनके लिए एकमात्र पुरुषार्थ हुआ करते हैं और इसके परिणाम में स्त्री को ही अधिक कष्ट और क्लेश उठाने पड़ते हैं । स्त्री अपनी रक्षा न तो कर सकती है, न समाज उसे सुरक्षा दे सकता है जब तक कि स्त्री-मात्र को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता, जब तक कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को भोग-दृष्टि से देखते हैं । स्त्री को सहज और स्वाभाविक सुरक्षा केवल उसी स्थिति में प्राप्त हो सकती है, जब वह समाज के प्रति अपने दायित्व को भी समझे, जिसके अन्तर्गत विवाह के द्वारा वंश का विस्तार करना और पति तथा पति के कुल परिवार की यथाशक्ति सेवा करना भी उसका कर्तव्य है ।
किन्तु स्त्री हो या पुरुष जब तक मनुष्य अमर्यादित आचरण करता है या करने के लिए बाध्य है, तब तक यह सब कोरा आदर्श स्वप्न भर है । और यहाँ बात आती है ’जीवन-मूल्यों’ की । हर मनुष्य को अपनी ’मर्यादा’ स्वयं ही तय करनी होगी और जब तक वह ’ब्रह्मचर्य-आश्रम’ में है तभी तक वह यह सीख सकता है कि प्रकृति से प्राप्त ’काम-प्रवृत्ति’ का मुख्य प्रयोजन संतानोत्पत्ति है न कि भोग । काम-भोग का सुख तो प्रकृति के द्वारा दिया जानेवाला पारितोषिक है न कि धन या अधिकार की तरह से अर्जित की जानेवाली वस्तु । काम-वृत्ति बिल्कुल नैसर्गिक एक वृत्ति है जिसे उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना मनुष्य भूख-प्यास या निद्रा की आवश्यकता को देता है । जैसे मनुष्य कृत्रिम विधियों से भोजन को प्रसंस्कृत कर, विविध प्रकार से कृत्रिम भूख जगाता है वैसे ही वह अज्ञानवश और संगति के प्रभाव से काम-सुख को कृत्रिम-रूप से भी उद्दीप्त कर सकता है और प्रायः करता भी है । किन्तु कोई भी मनुष्य इस प्रकार से काम-प्रवृत्ति का केवल दास ही बन जाया करता है, उसे स्वयं यह समझ में आने तक बहुत देर हो चुकी होती है । उसके बाद वह पतन से पतन की ओर अग्रसर होता है और अन्ततः समाप्त हो जाता है । पशु-पक्षी भी अपनी मृत्यु के समय प्रायः उससे कहीं बेहतर स्थिति में हुआ करते हैं । ऐसा मनुष्य, भले ही उसकी सामाजिक उपलब्धियाँ जैसे यश, धन-संपत्ति या सामाजिक प्रतिष्ठा कितनी भी क्यों न हो बस एक व्यर्थता,यहाँ तक कि घोर विषाद, अवसाद या मनोयन्त्रणा अनुभव करते हुए किसी ऊँचे अस्पताल में, या विपन्न, दयनीय स्थिति में किसी ’अपने’ तक से दूर अकेला दम तोड़ देता है । उसे यह भी नहीं पता होता, कल्पना तक नहीं हो सकती है, कि मृत्यु के बाद उसकी आत्म कहाँ और किस दशा में होगी । किन्तु जिस मनुष्य को मनुष्य जीवन के चार ’पुरुषार्थों’, श्रेयस्कर प्रयोजनों के थोड़ी भी कल्पना है वह अपनी काम-भावना का दास न होकर उससे किसी हद तक मुक्त होकर जीवन के श्रेयस्कर लक्ष्यों के लिए प्रयास करेगा । यदि वह इतना जानता है कि वेद-विहित चार आश्रम मनुष्यमात्र को, अवर्ण हो या सवर्ण, समय आने पर अवश्य ही प्राप्त होते हैं और उन आश्रमों में अधिकतम सुखी कैसे रहा जा सकता है, दुःखों और क्लेशों को कैसे कम से कम किया जा सकता है और मृत्यु आने पर संभवतः उसे भी अपने लिए सर्वाधिक हितकारी और शुभ कैसे बनाया जा सकता है तो उसका जीवन धन्य हो जाता है । यदि समाज मनुष्य-मात्र को इस प्रकार से जीने के अवसर प्रदान करता है तो वह समाज अवश्य ही अधिकतम सुखी हो सकता है ।
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चलते-चलते एक प्रश्न :
क्या हिन्दू / सनातन / वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी 'धर्म' / रिलिजन में इस सब के बारे में कोई चिन्तन है? क्या वहाँ इस सब पर सोचा जाता है ?
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जिस प्रकार ’लिंग’ शिव की अभिव्यक्ति है, और ’गौ’ धर्म की, वैसे ही ’स्त्री’ शक्ति की अभिव्यक्ति है और ’पुरुष’ पुरुषार्थ की । ये ’प्रतीक’ या चिह्न की बजाय उन निराकार तत्वों का साकार अभिव्यक्त रूप हैं । शक्ति स्वयं किसी आश्रय के अभाव में बिखर जाती है । नारी / स्त्री भी उसी प्रकार पुरुष के आश्रय के बिना अस्तित्वहीन हो जाती है । जैसे पुरुष के कुछ अधिकार और उससे संलग्न उत्तरदायित्व होते हैं वैसे ही स्त्री के भी कुछ जन्मजात अधिकार और दायित्व होते हैं । हम देखते हैं कि पशुओं में और पक्षियों में भी प्रायः किसी भी दल का या ’परिवार’ का मुखिया कोई ’पुरुष’ ही हुआ करता है । कुछ पशु-पक्षी युगल-जीवन भी जीते हैं और हंस जैसे पक्षी तो प्रायः अपने साथी से बिछड़ जाने पर, उसकी मृत्यु हो जाने पर पुनः जोड़ा नहीं बनाते । प्रायः पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होने पर अपनी ऋतु आने पर ही प्रजनन के कार्य में संलग्न होते हैं । मनुष्य ही शायद इसका अपवाद है । झुण्ड में रहनेवाले जानवर, जैसे वानर, गाय-भैंसे, भेड़-बकरियाँ आदि भी इसका अपवाद हुआ करते हैं । वह प्रकृति-प्रदत्त धर्म है । किन्तु जो मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों को जानता-समझता है उसके लिए अपनी काम-प्रकृति को सुव्यवस्थित रखना आवश्यक हो जाता है, चाहे स्त्री हो या पुरुष । वर्ण-व्यवस्था का पालन करनेवाला समाज हो या वर्णरहित समाज हो, यौन-व्यवहार की दृष्टि से पुरुष में सामान्यतः आक्रामकता और स्त्री में समर्पण प्रकृति से ही उन्हें प्राप्त प्रवृत्तियाँ होती हैं । इसलिए जहाँ पुरुष के लिए यह संभव है कि वह नारी से बलपूर्वक यौन-संसर्ग करे, वहीं सभ्य समाज में नारी का यह जन्मजात अधिकार है कि कोई पुरुष उसकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा न कर सके । यह तभी संभव है जब नारी से, चाहे वह बाल, युवा या वृद्ध हो, सम्मान का व्यवहार किया जाए । यदि ऐसा न हो तो ’परिवार’ और ’संबंध’, ’कुल’ और समाज सभी विनष्ट हो जाते हैं । ’वर्ण’ की शुद्धता बनाए रखना भी इसीलिए आवश्यक है क्योंकि हर वर्ण के अपने नियत ’जातिगत’ कर्म होते हैं जिनमें वह सरलता से और अधिक कुशलता से कर सकता है । चूँकि ’जाति’ माता-पिता से प्राप्त ’गुणों’ का एक शुद्ध और सशक्त स्रोत होती है इसलिए उस स्रोत को शुद्ध बनाए रखना हर मनुष्य का दायित्व है । अमर्यादित भोग-बुद्धि को अधिकार माननेवाले न केवल स्वयं नष्ट हो जाते हैं बल्कि संसार को भी विनष्ट कर देते हैं । चार वर्ण और चार आश्रम एक वैज्ञानिक तथ्य है जो एक ओर कर्म और गुणों से अर्थात् मनुष्य की प्रवृत्तियों से निर्धारित होता है वहीं दूसरी ओर यदि उसमें हस्तक्षेप न किया जाए तो मनुष्यमात्र को सर्वोच्च ’श्रेयस्’ की प्राप्ति तक भी ले जाता है । किन्तु जिन ’प्रगतिशील’ लोगों को इसमें ब्राह्मणवाद और उच्च-जाति का दंभ दिखलाई देता है उन्हें चार पुरुषार्थों की कल्पना भी नहीं होती । अमर्यादित धन, बल का संग्रह और भोग ही उनके लिए एकमात्र पुरुषार्थ हुआ करते हैं और इसके परिणाम में स्त्री को ही अधिक कष्ट और क्लेश उठाने पड़ते हैं । स्त्री अपनी रक्षा न तो कर सकती है, न समाज उसे सुरक्षा दे सकता है जब तक कि स्त्री-मात्र को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता, जब तक कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को भोग-दृष्टि से देखते हैं । स्त्री को सहज और स्वाभाविक सुरक्षा केवल उसी स्थिति में प्राप्त हो सकती है, जब वह समाज के प्रति अपने दायित्व को भी समझे, जिसके अन्तर्गत विवाह के द्वारा वंश का विस्तार करना और पति तथा पति के कुल परिवार की यथाशक्ति सेवा करना भी उसका कर्तव्य है ।
किन्तु स्त्री हो या पुरुष जब तक मनुष्य अमर्यादित आचरण करता है या करने के लिए बाध्य है, तब तक यह सब कोरा आदर्श स्वप्न भर है । और यहाँ बात आती है ’जीवन-मूल्यों’ की । हर मनुष्य को अपनी ’मर्यादा’ स्वयं ही तय करनी होगी और जब तक वह ’ब्रह्मचर्य-आश्रम’ में है तभी तक वह यह सीख सकता है कि प्रकृति से प्राप्त ’काम-प्रवृत्ति’ का मुख्य प्रयोजन संतानोत्पत्ति है न कि भोग । काम-भोग का सुख तो प्रकृति के द्वारा दिया जानेवाला पारितोषिक है न कि धन या अधिकार की तरह से अर्जित की जानेवाली वस्तु । काम-वृत्ति बिल्कुल नैसर्गिक एक वृत्ति है जिसे उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना मनुष्य भूख-प्यास या निद्रा की आवश्यकता को देता है । जैसे मनुष्य कृत्रिम विधियों से भोजन को प्रसंस्कृत कर, विविध प्रकार से कृत्रिम भूख जगाता है वैसे ही वह अज्ञानवश और संगति के प्रभाव से काम-सुख को कृत्रिम-रूप से भी उद्दीप्त कर सकता है और प्रायः करता भी है । किन्तु कोई भी मनुष्य इस प्रकार से काम-प्रवृत्ति का केवल दास ही बन जाया करता है, उसे स्वयं यह समझ में आने तक बहुत देर हो चुकी होती है । उसके बाद वह पतन से पतन की ओर अग्रसर होता है और अन्ततः समाप्त हो जाता है । पशु-पक्षी भी अपनी मृत्यु के समय प्रायः उससे कहीं बेहतर स्थिति में हुआ करते हैं । ऐसा मनुष्य, भले ही उसकी सामाजिक उपलब्धियाँ जैसे यश, धन-संपत्ति या सामाजिक प्रतिष्ठा कितनी भी क्यों न हो बस एक व्यर्थता,यहाँ तक कि घोर विषाद, अवसाद या मनोयन्त्रणा अनुभव करते हुए किसी ऊँचे अस्पताल में, या विपन्न, दयनीय स्थिति में किसी ’अपने’ तक से दूर अकेला दम तोड़ देता है । उसे यह भी नहीं पता होता, कल्पना तक नहीं हो सकती है, कि मृत्यु के बाद उसकी आत्म कहाँ और किस दशा में होगी । किन्तु जिस मनुष्य को मनुष्य जीवन के चार ’पुरुषार्थों’, श्रेयस्कर प्रयोजनों के थोड़ी भी कल्पना है वह अपनी काम-भावना का दास न होकर उससे किसी हद तक मुक्त होकर जीवन के श्रेयस्कर लक्ष्यों के लिए प्रयास करेगा । यदि वह इतना जानता है कि वेद-विहित चार आश्रम मनुष्यमात्र को, अवर्ण हो या सवर्ण, समय आने पर अवश्य ही प्राप्त होते हैं और उन आश्रमों में अधिकतम सुखी कैसे रहा जा सकता है, दुःखों और क्लेशों को कैसे कम से कम किया जा सकता है और मृत्यु आने पर संभवतः उसे भी अपने लिए सर्वाधिक हितकारी और शुभ कैसे बनाया जा सकता है तो उसका जीवन धन्य हो जाता है । यदि समाज मनुष्य-मात्र को इस प्रकार से जीने के अवसर प्रदान करता है तो वह समाज अवश्य ही अधिकतम सुखी हो सकता है ।
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चलते-चलते एक प्रश्न :
क्या हिन्दू / सनातन / वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी 'धर्म' / रिलिजन में इस सब के बारे में कोई चिन्तन है? क्या वहाँ इस सब पर सोचा जाता है ?
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