'सहिष्णुता’
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सम्राट अशोक ने कलिंग-विजय के बाद बौद्ध-धर्म ग्रहण किया ।
कहा जाता है कि कलिंग-विजय में लाखों मनुष्यों के मारे जाने के बाद उसका हृदय-परिवर्तन हुआ । शायद उसे पश्चात्ताप हुआ हो । इतिहासवेत्ता शायद ठीक-ठीक जान बता सकें । इतिहास भी कई-कई झूठ गढ़ता है लेकिन बारीकी से खोजने पर उन झूठों का भांडा भी देर-अबेर फूट जाता है । स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय-चिन्ह में साँची के स्तूप से प्राप्त ’चक्र’ रखा गया ।
कलिंग-युद्ध में जिन लाखों लोगों की मृत्यु हुई, हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं कि वे हिन्दू नहीं थे । अशोक भी जन्म और जाति के आधार पर हिन्दू ही था । भगवान् बुद्ध भी इसी प्रकार हिन्दू ही थे ।
सम्राट अशोक को ’भारत’ ने स्वीकार किया और सम्राट अशोक ने बौद्ध-धर्म को ।
यदि वैदिक-धर्म में पशु-बलि की स्वीकृति हो भी तो क्या प्राणियों की अकारण हिंसा को पाप नहीं माना गया है? क्षत्रियों के लिए दस्युओं और हिंस्र जन्तुओं से प्रजा की रक्षा करना उनके वर्ण का विहित ’धर्म’ था । जिसके लिए ’शिकार’ या अस्त्र-शस्त्र संचालन में सक्षम होना भी स्वाभाविक रूप से ज़रूरी था । क्षत्रियों में अगर ये ’गुण’ थे तो इनसे जुड़ी कुछ अन्य रजोगुणी प्रवृत्तियाँ भी अनिवार्यतः उनमें थीं ही सही । इसलिए क्षत्रियों को धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने के लिए ब्राह्मणों और विशेषकर ऋषि-मुनियों का मार्गदर्शन लेना भी उतना ही आवश्यक था । वे ही क्षत्रिय आपसी संघर्ष में भारत पर विदेशियों आक्रमण के समय परस्पर विरोधी हो गए और भारत में विदेशियों के शासन की नींव उसी काल में पड़ गई । जयचन्द के जमाने से, आम्भि के जमाने तक इसीलिए भारत में धीरे-धीरे सनातन-धर्म लगभग ध्वस्त हो गया । मुग़लों, पठानों, तुर्क़ों आदि ने भी भारतीयों हिन्दुओं की इस कमज़ोरी का भरपूर लाभ लिया और अंग्रेज़ों ने तो अक्षरशः भारत् / हिन्दुत्व की कमर ही तोड़ दी । पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को 16 बार परास्त किया किन्तु कभी उसका पीछा कर उसकी राजधानी तक नहीं पहुंचे । इससे तो चाणक्य की नीति ही सही सिद्ध होती है : दुश्मन को कभी छोटा मत समझो, उसे समूल नष्ट करो । यह वास्तव में बुद्धिमत्ता है । दुष्ट शत्रु के साथ व्यवहार करने का और कोई तरीका नहीं हो सकता । शठं शाठ्यं समाचरेत् । क्या यह ’असहिष्णुता’ है?
अंग्रेज़ीपरस्ती के प्रति सहिष्णुता से आगे बढ़कर वे उनकी चाटुकारिता करने तक से और हिन्दुओं से नफ़रत तक करने तक से पीछे नहीं हटे । उर्दू के माध्यम से मुस्लिम शासकों ने भारत में अरबी और पारसी लिपि को थोपा । नेहरू हिन्दी और भारतीय भाषाओं की अपेक्षा के बजाय अंग्रेज़ी और उर्दू के अधिक हिमायती थे ।
तिब्बती भाषा और लिपि की ब्राह्मी और भारतीय भाषाओं से से समानता यही सिद्ध करती है साँस्कृतिक दृष्टि से तिब्बत भारत का ही बन्धु है, न कि चीन का । किन्तु ’पोटाला’ / ल्हासा के शासकों ने ’बौद्ध-धर्म’ की सहिष्णुता के आदर्श का निर्वाह करने के जोश में शायद इस तथ्य से आँखें मूँद लीं । और पंडित जवाहरलालजी ने अपनी महत्वाकाँक्षाओं के चलते । यह मॆक्मोहन-लाइन किसने खींची?
’सहिष्णुता’ किस क़ीमत पर?
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सम्राट अशोक ने कलिंग-विजय के बाद बौद्ध-धर्म ग्रहण किया ।
कहा जाता है कि कलिंग-विजय में लाखों मनुष्यों के मारे जाने के बाद उसका हृदय-परिवर्तन हुआ । शायद उसे पश्चात्ताप हुआ हो । इतिहासवेत्ता शायद ठीक-ठीक जान बता सकें । इतिहास भी कई-कई झूठ गढ़ता है लेकिन बारीकी से खोजने पर उन झूठों का भांडा भी देर-अबेर फूट जाता है । स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय-चिन्ह में साँची के स्तूप से प्राप्त ’चक्र’ रखा गया ।
कलिंग-युद्ध में जिन लाखों लोगों की मृत्यु हुई, हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं कि वे हिन्दू नहीं थे । अशोक भी जन्म और जाति के आधार पर हिन्दू ही था । भगवान् बुद्ध भी इसी प्रकार हिन्दू ही थे ।
सम्राट अशोक को ’भारत’ ने स्वीकार किया और सम्राट अशोक ने बौद्ध-धर्म को ।
यदि वैदिक-धर्म में पशु-बलि की स्वीकृति हो भी तो क्या प्राणियों की अकारण हिंसा को पाप नहीं माना गया है? क्षत्रियों के लिए दस्युओं और हिंस्र जन्तुओं से प्रजा की रक्षा करना उनके वर्ण का विहित ’धर्म’ था । जिसके लिए ’शिकार’ या अस्त्र-शस्त्र संचालन में सक्षम होना भी स्वाभाविक रूप से ज़रूरी था । क्षत्रियों में अगर ये ’गुण’ थे तो इनसे जुड़ी कुछ अन्य रजोगुणी प्रवृत्तियाँ भी अनिवार्यतः उनमें थीं ही सही । इसलिए क्षत्रियों को धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने के लिए ब्राह्मणों और विशेषकर ऋषि-मुनियों का मार्गदर्शन लेना भी उतना ही आवश्यक था । वे ही क्षत्रिय आपसी संघर्ष में भारत पर विदेशियों आक्रमण के समय परस्पर विरोधी हो गए और भारत में विदेशियों के शासन की नींव उसी काल में पड़ गई । जयचन्द के जमाने से, आम्भि के जमाने तक इसीलिए भारत में धीरे-धीरे सनातन-धर्म लगभग ध्वस्त हो गया । मुग़लों, पठानों, तुर्क़ों आदि ने भी भारतीयों हिन्दुओं की इस कमज़ोरी का भरपूर लाभ लिया और अंग्रेज़ों ने तो अक्षरशः भारत् / हिन्दुत्व की कमर ही तोड़ दी । पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को 16 बार परास्त किया किन्तु कभी उसका पीछा कर उसकी राजधानी तक नहीं पहुंचे । इससे तो चाणक्य की नीति ही सही सिद्ध होती है : दुश्मन को कभी छोटा मत समझो, उसे समूल नष्ट करो । यह वास्तव में बुद्धिमत्ता है । दुष्ट शत्रु के साथ व्यवहार करने का और कोई तरीका नहीं हो सकता । शठं शाठ्यं समाचरेत् । क्या यह ’असहिष्णुता’ है?
फिर भी भारत ने सम्राट अशोक को ’अशोक-महान’ कहा और कलिंग (उत्-कल) में उसके द्वारा किए गए नर-संहार को क्षमा कर दिया । क्या यह ’सहिष्णुता’ नहीं है? भारत ने साँची के स्तूप के चार सिंहों की जिस प्रतिमा को और उस प्रतिमा के बीच स्थित चक्र को अपने राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अभिषिक्त किया वह निश्चित ही ’सर्व-धर्म-समादर’ का ही द्योतक है । ’सिंह’ (शेर) और ’वृषभ’ (बैल) वैसे तो वैदिक प्रतीक के रूप में भी देखे जा सकते हैं किन्तु वे परस्पर अवैर का भाव भी प्रदर्शित करते हैं । स्पष्ट है कि बैल तो सिंह पर आक्रमण करने से रहा, क्योंकि उसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं हो सकती । वह तो शेर से अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता । उसकी रक्षा तो क्षत्रिय ही करेगा । इसलिए सिंह पर नियंत्रण के लिए क्षत्रिय का होना भी जरूरी है । अशोक क्षत्रिय था । फिर उसने बौद्ध-धर्म क्यों स्वीकार किया? क्या यह बुनियादी भूल नहीं थी ? हो सकता है न भी किया हो, केवल भगवान्-बुद्ध के प्रति समर्पित रहा हो, उनका आदर करता रहा हो । जो भी हुआ हो, बौद्ध-धर्म के कारण हिन्दू न तो क्षत्रिय रह पाये न पूरी तरह से भिक्षु ही हो पाये ।
सामाजिक-धर्म के रूप में बौद्ध-धर्म अपनी रक्षा कैसे कर सकता है? समाज के स्तर पर तो ’क्षात्र’ या ’क्षत्रिय’-धर्म का पालन करनेवाला ही होना चाहिए । कमज़ोर के ’सहिष्णु’ होने का कोई अर्थ ही नहीं है । वह तो बाध्य है सहिष्णु होने के लिए । इसलिए सहिष्णुता, अहिंसा का पाठ आक्रामक को सिखाया जाना चाहिए, न कि आक्रान्त को ।
पंडित नेहरू ने ’सेक्युलरिस्म’ की अपनी ’समझ’ में या अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव से इरादतन भी पहले पाकिस्तान के रूप में भारत के एक बड़े भूखण्ड पर से हिन्दुओं को बेदख़ल किया, फिर जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से को पाकिस्तान के नियन्त्रण में जाने दिया और बाद में तिब्बत पर चीन को आधिपत्य कर लेने दिया ।सामाजिक-धर्म के रूप में बौद्ध-धर्म अपनी रक्षा कैसे कर सकता है? समाज के स्तर पर तो ’क्षात्र’ या ’क्षत्रिय’-धर्म का पालन करनेवाला ही होना चाहिए । कमज़ोर के ’सहिष्णु’ होने का कोई अर्थ ही नहीं है । वह तो बाध्य है सहिष्णु होने के लिए । इसलिए सहिष्णुता, अहिंसा का पाठ आक्रामक को सिखाया जाना चाहिए, न कि आक्रान्त को ।
अंग्रेज़ीपरस्ती के प्रति सहिष्णुता से आगे बढ़कर वे उनकी चाटुकारिता करने तक से और हिन्दुओं से नफ़रत तक करने तक से पीछे नहीं हटे । उर्दू के माध्यम से मुस्लिम शासकों ने भारत में अरबी और पारसी लिपि को थोपा । नेहरू हिन्दी और भारतीय भाषाओं की अपेक्षा के बजाय अंग्रेज़ी और उर्दू के अधिक हिमायती थे ।
भारत कभी ’राजनैतिक’ विस्तारवाद का पक्षधर नहीं रहा । हाँ साँस्कृतिक रूप से सदैव भारतीय-संस्कृति सबका स्वागत करती रही और अफ़गानिस्तान से सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक यदि भारत की भाषा और संस्कृति के पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं तो यह इसी बात का प्रमाण है कि भारत (पर्याय से हिन्दू) न सिर्फ़ ’सहिष्णु’ हैं बल्कि सब को विश्व-बन्धुत्व की भावना से प्रेम करते हैं ।
प्रसंगवश :तिब्बती भाषा और लिपि की ब्राह्मी और भारतीय भाषाओं से से समानता यही सिद्ध करती है साँस्कृतिक दृष्टि से तिब्बत भारत का ही बन्धु है, न कि चीन का । किन्तु ’पोटाला’ / ल्हासा के शासकों ने ’बौद्ध-धर्म’ की सहिष्णुता के आदर्श का निर्वाह करने के जोश में शायद इस तथ्य से आँखें मूँद लीं । और पंडित जवाहरलालजी ने अपनी महत्वाकाँक्षाओं के चलते । यह मॆक्मोहन-लाइन किसने खींची?
’सहिष्णुता’ किस क़ीमत पर?
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