अपने-आप को जानना / Knowing one-self -2.
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जब तक ’विचार’ और ’विचारक’ के अस्तित्व को एक ही स्थिति के दो पक्षों के रूप में नहीं समझ लिया जाता, विचार की यातना से मुक्ति संभव नहीं । फिर, हैरानी की बात नहीं कि यह समझ जिस मन / चेतना में संभव होती है, वह यद्यपि ’व्यक्ति’ नहीं रह जाता, लेकिन ’बोधमात्र’ है, यह उसे स्पष्ट हो जाता है । वह "मैं नहीं हूँ" भी नहीं कह सकता, क्योंकि वह स्वयं अपना प्रत्यक्ष प्रमाण होता है ।
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जब तक ’विचार’ और ’विचारक’ के अस्तित्व को एक ही स्थिति के दो पक्षों के रूप में नहीं समझ लिया जाता, विचार की यातना से मुक्ति संभव नहीं । फिर, हैरानी की बात नहीं कि यह समझ जिस मन / चेतना में संभव होती है, वह यद्यपि ’व्यक्ति’ नहीं रह जाता, लेकिन ’बोधमात्र’ है, यह उसे स्पष्ट हो जाता है । वह "मैं नहीं हूँ" भी नहीं कह सकता, क्योंकि वह स्वयं अपना प्रत्यक्ष प्रमाण होता है ।
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