हिन्दुत्व की चुनौती -6
हिन्दुत्व और जे.कृष्णमूर्ति
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क़रीब महीने भर पहले किसी ने ’ट्वीट्’ / tweet किया था :
"बुद्ध 100% हिन्दू थे ।"
उस के प्रत्युत्तर में मैंने ’ट्वीट्’/ tweet किया था :
"...और श्री जे.कृष्णमूर्ति भी ।"
इसे हालाँकि उनके कुछ प्रशंसकों ने पसंद भी किया लेकिन मेरा यह अनुमान लगभग सही सिद्ध हुआ कि न तो जे. कृष्णमूर्ति से संबद्ध और न बुद्ध से संबद्ध कोई व्यक्ति मेरे इस ’ट्वीट्’ से प्रभावित हुआ होगा । यह बिलकुल स्वाभाविक भी था क्योंकि प्रायः बहुत से लोग जो बुद्ध की और जे.कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को लगभग एक जैसा अनुभव करते हैं उन्हें बुद्ध या जे.कृष्णमूर्ति को हिन्दुत्व की धारा में देखे जाने पर ऐतराज हो सकता है । किन्तु यदि हम इन दोनों महापुरुषों के आचरण पर गौर करें तो अनायास स्पष्ट हो जाएगा कि दोनों का ही आचरण जाने-अनजाने भी वैदिक शिक्षा से पूर्णतः सुसंगत था । वे दोनों उपनिषद् की स्थापित परंपरा के अनुसार ’विवेचना’ और चिन्तन-मनन तथा अभ्यास के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किए जाने की शिक्षा देते थे । वे किसी भी अपात्र को न तो शिक्षा देते थे और न दावा करते थे कि वे ही एकमात्र गुरु या पथ-प्रदर्शक हैं । भगवान् बुद्ध की शिक्षा थी अप्प दीपो भव । अर्थात् अपने ही भीतर चेतना का दीप जलाओ । जे. कृष्णमूर्ति सत्य के लिए उत्कंठा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहते थे । और दोनों ही सत्य, ईश्वर या मुक्ति की प्राप्ति के बजाय तथ्य को देखने पर अधिक महत्वपूर्ण कहते थे । सनातन धर्म यही कहता है कि अपात्र को शिक्षा दिया जाना न सिर्फ़ निरर्थक है, बल्कि उसके लिए क्षतिप्रद भी है । और दोनों ही के अनुसार व्यक्ति अपने-आपके ही लिए यथार्थ धर्म क्या है इसका आकलन और निर्धारण कर सकता है । दोनों ही किसी भी पूर्व-मान्यता की सत्यता पर प्रश्न उठाते थे क्योंकि मान्यता और विश्वास मूलतः शाब्दिक विचारमात्र होता है और स्मृति का अंश होता है । स्मृति विचार का संग्रह है और विचार उसे नहीं इंगित करते जिसका वे वर्णन करते हैं । इस प्रकार विचार प्रतीक से अधिक बेहतर तो कदापि नहीं हो सकते । इस प्रकार विचार प्रतीक से बेहतर तो कदापि नहीं हो सकता । वाक्य की पुनरावृत्ति इस ओर ध्यान दिलाने के लिए है कि बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति दोनों ही ’विचार’ के स्वरूप को समझे जाने पर जोर देते हैं । विचार का रूप और आकृति (Form and shape) तो होती है किन्तु उसमें कोई अन्तर्निहित तत्व / सार (essence) नहीं होता । इसलिए विचार के आदान-प्रदान और संग्रह से किसी सारभूत तथ्य का आदान-प्रदान और संग्रह संभव नहीं । और इससे भी अधिक ध्यान दिये जाने योग्य सत्य यह है कि जो विचार एक समय पर तथ्य से सुसंगत प्रतीत होता है, वही विचार अक्षरशः अपने रूप और आकृति में, शब्दशः भी, किसी अन्य समय में तथ्य को देख पाने में बाधा तक पैदा कर देता है । उदाहरण के लिए ’ईश्वर’ का विचार । ’ईश्वर’ शब्द स्वयं दूसरे ही शब्दों जैसा वर्णों का एक विशिष्ट संयोजन मात्र है । इस शब्द को पढ़ने-सुनने के बाद किसी भी परंपरा में पले बढ़े व्यक्ति के भीतर अपने संस्कारों के अनुसार कोई प्रतिक्रिया होती है । और यह प्रतिक्रिया ’स्मृति’ का ही प्रत्युत्तर होती है । हो सकता है कि इस प्रतिक्रिया के रूप में कोई भावना या भावुकता उद्दीप्त हो उठे, लेकिन वह आवेग विचार की ही गतिविधि है जिसका ’ईश्वर’ नामक वास्तविकता से कोई संबंध नहीं हो सकता । उस ’वास्तविकता’ के साक्षात्कार के लिए ’विचार’ की बाधा को दूर किया जाना पहली आवश्यकता है । ’राष्ट्र’, ’धर्म’, ऐसे ही कुछ और शब्द हैं जिनका रूप और आकृति भर हमारे सामने होते हैं, और शब्द से मोहित होकर उनका सार क्या है इस ओर से हमारा ध्यान तक हट जाता है । शुद्ध भौतिक अर्थों में विचार की प्रासंगिकता और औचित्य तो अनायास ही स्पष्ट है किन्तु जब जीवन के अपेक्षाकृत गहन आयामों के संबंध मे ’विचार’ के यन्त्र का ’अनुप्रयोग’ किया जाता है तो वह अपर्याप्त और असमर्थ भी सिद्ध होता है । विचार शाब्दिक धारणा ही तो होता है, और विश्वास भी इसी का एक और दृढ आग्रह । और लोभ, भय अथवा संशय की मनःस्थिति होने पर ही मनुष्य का मन ’इस’ या ’उस’ विचार से अपने-आपको बाँध लेता है । वह विशिष्ट विचार ही ’विश्वास’ के रूप में मनुष्य की ’ओढ़ी-हुई पहचान’ बन जाता है । उस विश्वास या विचार के इर्द-गिर्द दूसरे संबंधित विचार एक घेरा बना लेते हैं और विश्वास का एक ’समुदाय’ अस्तित्व में आता है । इस समुदाय की अपनी कोई पहचान ही नहीं होती किन्तु इस कल्पित, ओढ़ी हुई पहचान को केन्द्र का स्थान प्राप्त हो जाता है । ’विचार’ के इस ’तथ्य’ पर ध्यान दिया जाना बहुत रोचक भी है और महत्वपूर्ण भी ताकि मनुष्य-मात्र मनुष्य की तरह से, ’विचार’ की इस कारा से, इस सतत यातना से मुक्त हो सके । बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति हमारा ध्यान सीधे ही इस यथार्थ पर ले जाते हैं । बुद्ध दुःख के और दुःख-निरोध के महत्व को समझने की आवश्यकता पर बल देते हैं । वे किसी स्वर्ग या ईश्वर को बीच में नहीं लाते । जे. कृष्णमूर्ति थोड़े और विस्तार से दुःख ही नहीं बल्कि जीवन के अन्य पक्षों के भी समग्र अवलोकन की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं । किन्तु इसलिए वे दोनों वेद-विरोधी या ईश्वर-विरोधी हैं ऐसा अनुमान लगाना पक्षपातपूर्ण निर्णय होगा । वे वेद या ईश्वर की बात इसलिए भी नहीं करते कि जिसे वेद / ईश्वर के प्रति श्रद्धा या आग्रह है, वह उन्हें समझ नहीं सकेगा, और जो वेद / ईश्वर का विरोधी है, या वेद / ईश्वर को नहीं मानता उससे वेद / ईश्वर के बारे में चर्चा करना व्यर्थ है ।
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हिन्दुत्व और जे.कृष्णमूर्ति
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क़रीब महीने भर पहले किसी ने ’ट्वीट्’ / tweet किया था :
"बुद्ध 100% हिन्दू थे ।"
उस के प्रत्युत्तर में मैंने ’ट्वीट्’/ tweet किया था :
"...और श्री जे.कृष्णमूर्ति भी ।"
इसे हालाँकि उनके कुछ प्रशंसकों ने पसंद भी किया लेकिन मेरा यह अनुमान लगभग सही सिद्ध हुआ कि न तो जे. कृष्णमूर्ति से संबद्ध और न बुद्ध से संबद्ध कोई व्यक्ति मेरे इस ’ट्वीट्’ से प्रभावित हुआ होगा । यह बिलकुल स्वाभाविक भी था क्योंकि प्रायः बहुत से लोग जो बुद्ध की और जे.कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को लगभग एक जैसा अनुभव करते हैं उन्हें बुद्ध या जे.कृष्णमूर्ति को हिन्दुत्व की धारा में देखे जाने पर ऐतराज हो सकता है । किन्तु यदि हम इन दोनों महापुरुषों के आचरण पर गौर करें तो अनायास स्पष्ट हो जाएगा कि दोनों का ही आचरण जाने-अनजाने भी वैदिक शिक्षा से पूर्णतः सुसंगत था । वे दोनों उपनिषद् की स्थापित परंपरा के अनुसार ’विवेचना’ और चिन्तन-मनन तथा अभ्यास के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किए जाने की शिक्षा देते थे । वे किसी भी अपात्र को न तो शिक्षा देते थे और न दावा करते थे कि वे ही एकमात्र गुरु या पथ-प्रदर्शक हैं । भगवान् बुद्ध की शिक्षा थी अप्प दीपो भव । अर्थात् अपने ही भीतर चेतना का दीप जलाओ । जे. कृष्णमूर्ति सत्य के लिए उत्कंठा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहते थे । और दोनों ही सत्य, ईश्वर या मुक्ति की प्राप्ति के बजाय तथ्य को देखने पर अधिक महत्वपूर्ण कहते थे । सनातन धर्म यही कहता है कि अपात्र को शिक्षा दिया जाना न सिर्फ़ निरर्थक है, बल्कि उसके लिए क्षतिप्रद भी है । और दोनों ही के अनुसार व्यक्ति अपने-आपके ही लिए यथार्थ धर्म क्या है इसका आकलन और निर्धारण कर सकता है । दोनों ही किसी भी पूर्व-मान्यता की सत्यता पर प्रश्न उठाते थे क्योंकि मान्यता और विश्वास मूलतः शाब्दिक विचारमात्र होता है और स्मृति का अंश होता है । स्मृति विचार का संग्रह है और विचार उसे नहीं इंगित करते जिसका वे वर्णन करते हैं । इस प्रकार विचार प्रतीक से अधिक बेहतर तो कदापि नहीं हो सकते । इस प्रकार विचार प्रतीक से बेहतर तो कदापि नहीं हो सकता । वाक्य की पुनरावृत्ति इस ओर ध्यान दिलाने के लिए है कि बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति दोनों ही ’विचार’ के स्वरूप को समझे जाने पर जोर देते हैं । विचार का रूप और आकृति (Form and shape) तो होती है किन्तु उसमें कोई अन्तर्निहित तत्व / सार (essence) नहीं होता । इसलिए विचार के आदान-प्रदान और संग्रह से किसी सारभूत तथ्य का आदान-प्रदान और संग्रह संभव नहीं । और इससे भी अधिक ध्यान दिये जाने योग्य सत्य यह है कि जो विचार एक समय पर तथ्य से सुसंगत प्रतीत होता है, वही विचार अक्षरशः अपने रूप और आकृति में, शब्दशः भी, किसी अन्य समय में तथ्य को देख पाने में बाधा तक पैदा कर देता है । उदाहरण के लिए ’ईश्वर’ का विचार । ’ईश्वर’ शब्द स्वयं दूसरे ही शब्दों जैसा वर्णों का एक विशिष्ट संयोजन मात्र है । इस शब्द को पढ़ने-सुनने के बाद किसी भी परंपरा में पले बढ़े व्यक्ति के भीतर अपने संस्कारों के अनुसार कोई प्रतिक्रिया होती है । और यह प्रतिक्रिया ’स्मृति’ का ही प्रत्युत्तर होती है । हो सकता है कि इस प्रतिक्रिया के रूप में कोई भावना या भावुकता उद्दीप्त हो उठे, लेकिन वह आवेग विचार की ही गतिविधि है जिसका ’ईश्वर’ नामक वास्तविकता से कोई संबंध नहीं हो सकता । उस ’वास्तविकता’ के साक्षात्कार के लिए ’विचार’ की बाधा को दूर किया जाना पहली आवश्यकता है । ’राष्ट्र’, ’धर्म’, ऐसे ही कुछ और शब्द हैं जिनका रूप और आकृति भर हमारे सामने होते हैं, और शब्द से मोहित होकर उनका सार क्या है इस ओर से हमारा ध्यान तक हट जाता है । शुद्ध भौतिक अर्थों में विचार की प्रासंगिकता और औचित्य तो अनायास ही स्पष्ट है किन्तु जब जीवन के अपेक्षाकृत गहन आयामों के संबंध मे ’विचार’ के यन्त्र का ’अनुप्रयोग’ किया जाता है तो वह अपर्याप्त और असमर्थ भी सिद्ध होता है । विचार शाब्दिक धारणा ही तो होता है, और विश्वास भी इसी का एक और दृढ आग्रह । और लोभ, भय अथवा संशय की मनःस्थिति होने पर ही मनुष्य का मन ’इस’ या ’उस’ विचार से अपने-आपको बाँध लेता है । वह विशिष्ट विचार ही ’विश्वास’ के रूप में मनुष्य की ’ओढ़ी-हुई पहचान’ बन जाता है । उस विश्वास या विचार के इर्द-गिर्द दूसरे संबंधित विचार एक घेरा बना लेते हैं और विश्वास का एक ’समुदाय’ अस्तित्व में आता है । इस समुदाय की अपनी कोई पहचान ही नहीं होती किन्तु इस कल्पित, ओढ़ी हुई पहचान को केन्द्र का स्थान प्राप्त हो जाता है । ’विचार’ के इस ’तथ्य’ पर ध्यान दिया जाना बहुत रोचक भी है और महत्वपूर्ण भी ताकि मनुष्य-मात्र मनुष्य की तरह से, ’विचार’ की इस कारा से, इस सतत यातना से मुक्त हो सके । बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति हमारा ध्यान सीधे ही इस यथार्थ पर ले जाते हैं । बुद्ध दुःख के और दुःख-निरोध के महत्व को समझने की आवश्यकता पर बल देते हैं । वे किसी स्वर्ग या ईश्वर को बीच में नहीं लाते । जे. कृष्णमूर्ति थोड़े और विस्तार से दुःख ही नहीं बल्कि जीवन के अन्य पक्षों के भी समग्र अवलोकन की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं । किन्तु इसलिए वे दोनों वेद-विरोधी या ईश्वर-विरोधी हैं ऐसा अनुमान लगाना पक्षपातपूर्ण निर्णय होगा । वे वेद या ईश्वर की बात इसलिए भी नहीं करते कि जिसे वेद / ईश्वर के प्रति श्रद्धा या आग्रह है, वह उन्हें समझ नहीं सकेगा, और जो वेद / ईश्वर का विरोधी है, या वेद / ईश्वर को नहीं मानता उससे वेद / ईश्वर के बारे में चर्चा करना व्यर्थ है ।
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