एक प्रश्न
कुपुत्रो जायेत कश्चित् न क्वचित् कुमाता भवति ...
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जो नारी संतति तो नहीं चाहती किन्तु कामोपभोग का सुख चाहती है और इसलिए उस सुख के फलस्वरूप होनेवाली संभावित संतान को जन्म लेने तक से रोक देती है, क्या वह कुमाता नहीं है? जो मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त किसी भी तरह का सुख तो उठाना चाहता है किंतु उसका मूल्य नहीं चुकाना चाहता, वह यह आशा कैसे कर सकता है कि उसका मन चैन और शांति से रह सकता है? जो उस सुख से जुड़े कष्टों से भागना चाहता है, वह स्वयं से धोखा कर रहा होता है । इसलिए गर्भपात या गर्भनिरोध के कृत्रिम साधनों का प्रयोग अवश्य ही प्रवंचना मात्र है । दूसरी ओर माता और उसकी संतान के प्रेम को प्रेम के सबसे श्रेष्ठ रूप में गौरवान्वित भी किया जाता है । क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि स्त्री और पुरुष संतान चाहने पर ही या संतान को पालने-पोसने में दोनों का समान और संयुक्त उत्तरदायित्व समझने पर ही कामोपभोग करें ? मुझे लगता है कि यह तर्क बहुत कम लोग स्वीकार कर पाएँगे । सवाल पाप या पुण्य, अपराध या निरपराधिता का नहीं बल्कि मानवोचित नैतिकता का और सामाजिक नैतिकता से उसका सामंजस्य कैसे किया जाना चाहिए, अर्थात् मानवोचित नैतिकता / अनैतिकता से अधिक संबंध रखता है । "गर्भ में ’प्राण’ / ’जीवन’ तीन माह या कुछ सप्ताहों बाद आता है", यह कहकर हम इस प्रश्न से भाग नहीं सकते क्योंकि हमें इस बारे में अभी तक वैज्ञानिक रूप से भी असंदिग्ध रूप से कुछ भी स्पष्ट नहीं है ।
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कुपुत्रो जायेत कश्चित् न क्वचित् कुमाता भवति ...
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जो नारी संतति तो नहीं चाहती किन्तु कामोपभोग का सुख चाहती है और इसलिए उस सुख के फलस्वरूप होनेवाली संभावित संतान को जन्म लेने तक से रोक देती है, क्या वह कुमाता नहीं है? जो मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त किसी भी तरह का सुख तो उठाना चाहता है किंतु उसका मूल्य नहीं चुकाना चाहता, वह यह आशा कैसे कर सकता है कि उसका मन चैन और शांति से रह सकता है? जो उस सुख से जुड़े कष्टों से भागना चाहता है, वह स्वयं से धोखा कर रहा होता है । इसलिए गर्भपात या गर्भनिरोध के कृत्रिम साधनों का प्रयोग अवश्य ही प्रवंचना मात्र है । दूसरी ओर माता और उसकी संतान के प्रेम को प्रेम के सबसे श्रेष्ठ रूप में गौरवान्वित भी किया जाता है । क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि स्त्री और पुरुष संतान चाहने पर ही या संतान को पालने-पोसने में दोनों का समान और संयुक्त उत्तरदायित्व समझने पर ही कामोपभोग करें ? मुझे लगता है कि यह तर्क बहुत कम लोग स्वीकार कर पाएँगे । सवाल पाप या पुण्य, अपराध या निरपराधिता का नहीं बल्कि मानवोचित नैतिकता का और सामाजिक नैतिकता से उसका सामंजस्य कैसे किया जाना चाहिए, अर्थात् मानवोचित नैतिकता / अनैतिकता से अधिक संबंध रखता है । "गर्भ में ’प्राण’ / ’जीवन’ तीन माह या कुछ सप्ताहों बाद आता है", यह कहकर हम इस प्रश्न से भाग नहीं सकते क्योंकि हमें इस बारे में अभी तक वैज्ञानिक रूप से भी असंदिग्ध रूप से कुछ भी स्पष्ट नहीं है ।
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