Thursday, 17 December 2015

इतिहास का एक विलुप्तप्राय पृष्ठ -1

इतिहास का एक विलुप्तप्राय पृष्ठ
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क्या प्रगतिशील होने का अर्थ अशालीन, फ़ूहड़ हो जाना है? क्या यह केवल पूरे समाज के लिए और अन्ततः अपने लिए भी घातक सिद्ध नहीं होता? हिंदी और उर्दू के भी उन तमाम साहित्यकारों ने जिन्होंने क्रान्तिकारी होने के नाम पर सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए साहित्य की इस भंगिमा को अपनाया है, वास्तव में पूरे समाज का बहुत अहित किया है । आज हम ’अमेरिकन-इंग्लिश’ को फ़र्राटे से बोलने और लिखने में सफलता में अपनी  शान समझते हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के आवरण में इस प्रकार के लेखन पर आप क्या कहना चाहेंगे?
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समाज के एक ही नहीं पूरे भारतीय और विश्व के हर तबक़े पर, क्या सभी पर नहीं पड़ रहा भारी?
चुप रहना भी एक अभिव्यक्ति है, शालीन, सभ्य... लेकिन पीड़ादायी... दूसरों के लिए भी!
वैसे मेरा इंगित पिछले 50 वर्षों से चले आ रहे सभी लेखन की ओर है । ब्लिट्ज़, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, तथा नवनीत, कहानी, सारिका आदि के जमाने से चला आ रहा है अब तो फ़ेसबुक और दूसरी साइट्स को देखना तक असह्य होने लगा है । यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है ।
पूरा बॉलीवुड मुग़ले-आज़म के जमाने से आज तक... नकली आदर्श, भावनात्मक ब्लैक-मेल नेहरू-गाँधीवाद का महिमामंडन, ...सहिष्णुता के नाम पर तुष्टिकरण, ...
राहुल सांकृत्यायन से लेकर भारत एक खोज तक, सत्य के प्रयोग से 'सर्व-धर्मसमभाव' को औज़ार बनाने तक, गीतांजलि से लेकर राग दरबारी तक, कमलेश्वर और बाबा नागार्जुन, शिवमंगलसिंह सुमन और भी ढेरों नाम हैं... और यही नहीं ओशो जैसे फ़ूहड़ रुझान के छद्म बुद्धिजीवी लोग भी इसका सक्रिय हिस्सा रहे हैं,
इस सबकी शुरुआत तो भारत पर विदेशी आक्रमणों के समय से ही हो गई थी, मोहम्मद गज़नी से इसकाप्रारंभ हुआ ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह एक व्यक्ति की महत्वाकाँक्षा ही जब कलिंग पर सम्राट अशोक ने आक्रमण किया । स्कन्द-पुराण  पढ़ने पर पता चलता है कि कलिंग कितना समृद्ध था और अशोक ने इसीलिए उस पर आक्रमण किया था । यह कहना अनुचित न होगा कि अशोक ने कलिंग पर इसीलिए आक्रमण किया ताकि वह वहाँ के समृद्ध मन्दिरों और लोगों की संपत्ति लूट सके । और इसलिए उसने सनातन आर्य-धर्म कान केवल त्याग किया बल्कि अपनी महत्वाकाँक्षा की धार पैनी करने के लिए बौद्ध धर्म का आश्रय भी ग्रहण किया । ’विजयी’ होने के बाद उसे अपने कृत्य पर दिखावटी पश्चात्ताप हुआ होगा और उसके ’पश्चात्ताप’ को चाटुकारों ने महिमामंडित किया होगा । यहाँ भगवान् बुद्ध की आध्यात्मिक उपलब्धि या उनके अवतार होने के विषय में मेरा कोई मत नहीं है क्योंकि इसे वैज्ञानिक आधार पर सिद्ध / असिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए इस बारे में मेरे द्वारा कुछ कहा जाना वैसे भी  अनधिकृत और अनावश्यक अवांछित होगा । किन्तु सार यह कि अशोक ने बुद्ध को अपनी धन, राज्य, अधिकार और यश-लिप्सा के लिए एक बहुत सक्षम यन्त्र की भाँति इस्तेमाल किया । और ’अशोक महान’ की ख्याति अर्जित की । इस अशोक को ’सम्राट अशोक’ से ’अशोक महान’ बनाया अंग्रेज़ इतिहासकारों ने ताकि भारतभूमि में सनातन-धर्म और बौद्ध-धर्म के बीच मतभेदों का राजनीतिकरण किया जा सके ।
भारत के साँस्कृतिक विखण्डन का प्रारंभ यहीं से हुआ । जहाँ बुद्ध की शिक्षाओं का प्रसार-प्रचार भारत के पूर्व में जापान, थाईलैंड, बर्मा, इन्डोनेशिया और मलयेशिया तक, और दक्षिण में श्रीलंका तक हुआ वहाँ पहले से ही प्रचलित वैदिक धर्म को इससे वैसी क्षति नहीं हुई जैसी कि बौद्ध-धर्म की जन्मस्थली भारत में । किन्तु भारत में इस क्षति का एक प्रमुख कारण अंग्रेज़ इतिहासकारों के द्वारा बुद्ध और अशोक के अनावश्यक महिमामंडन में भी है । जहाँ इस प्रकार भारत में बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म बीच विरोधाभास को हवा दी गयी वहीं इतिहासकारों ने शैव और वैष्णवों के बीच भी ऐसे ही विवादों को प्रक्षेपित किया । संभव है किन्हीं अन्य कारणों से शैव और वैष्णवों के बीच मतभेद रहे हों, किन्तु जिस सशक्त आग्रह से वेद तथा पुराण शिव और विष्णु के एकमेव होने का उल्लेख करते हैं, उससे यही सिद्ध होता है कि यह विवाद इतिहासकारों की सुनियोजित साज़िश के अंतर्गत प्रायोजित एक विचार से अधिक कुछ नहीं था ।

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