सनातन धर्म और राज्य
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धर्म एक स्वतंत्र तत्व है, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और परब्रह्म भी।
परब्रह्म अर्थात् यह संसाररूपी विस्तार जिस ब्रह्म का है उसके आधारभूत सर्वस्व का क्रिया कलाप ।
राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा दृढ नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती । धर्म किसी सरिता के प्रवाह की तरह अपनी गतिविधि स्वयं ही है । अपने से इतर न तो उसका कोई लक्ष्य है, न गंतव्य और जब उसके रास्ते में अवरोध आते हैं तो वह उन अवरोधों का सामना अपने तरीके से करता है । उसे हमारी या मनुष्य की भौतिक समृद्धि या विकास से कोई लेना-देना नहीं हो सकता । सुख-भोग की बुद्धि उसके रास्ते में ऐसी ही एक बाधा है और जो मनुष्य यह समझ पाता है कि सरलता से प्रकृति से सामञ्जस्य रखते हुए जीना ही जीवन के सर्वोत्तम को पाने का एकमात्र श्रेयस्कर संभव तरीका है, वह तकनीक का उपयोग भी उसी सीमा के भीतर करता है । तकनीक जीवन को गुणात्मक स्तर पर समृद्ध नहीं कर सकती । मनुष्य तब यह समझता है कि एक मनुष्य के नाते पृथ्वी पर रहते हुए जीवन पर उसका उतना ही अधिकार है जितना किसी भी दूसरे छोटे से छोटे या बड़े से बड़े दूसरे प्राणी का । किन्तु भौतिक विकास ने हमें इतना मुग्ध और विभ्रमित कर दिया है कि हम मनुष्य जाति की अपनी स्वाभाविक प्रकृति-प्रदत्त संख्या से बहुत अधिक संख्या में पैदा हो गए हैं और इसलिए प्रकृति का दोहन अनधिकृत रूप से केवल मनुष्य को सर्वोपरि स्थान देकर कर रहे हैं । किन्तु प्रकृति इसका प्रत्युत्तर देती है और देती रही है । युद्ध, दुर्घटनाओं और मनुष्य द्वारा प्रायोजित व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर किए जानेवाले अपराधों में लाखों मनुष्य प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं । स्वाभाविक रूप से, रोग या वृद्धावस्था में होनेवाली मौतें भी हैं, जो हमारा प्रतिदिन का अनुभव है ।
यह धर्म का स्वाभाविक स्वरूप हुआ, जिससे मार्गदर्शन प्राप्त कर राज्य अपना और प्रजा का कल्याण कर सकता है ।
दूसरी ओर इसी धर्म का विकार भी लोक में प्रायः धर्म समझ लिया जाता है । ऐसा कुछ लोगों की अपनी धर्मेतर वासनाओं को प्रमाद-वश या लोभ, मद आदि से मोहित बुद्धि द्वारा वास्तविक धर्म को धर्म के आवरण में छिपाकर या जानते-समझते हुए भी आलस्यवश समझने के श्रम से बचने और आलस्य आदि के कारण होता है । यह विकार-धर्म मिश्रित और अशुद्ध बुद्धि से युक्त मनुष्यों के लिए कभी-कभी सांसारिक यश, धन और संपत्ति, भूमि आदि पर प्रभुत्व का एक सशक्त साधन बनकर उनके पतित होने का ही कारण होता है ।
वेदविहित धर्म को ग्रहण करने के लिए मनुष्य की पात्रता है कुल से ब्राह्मण होना, द्विजत्व होना, और ब्राह्मणोचित कर्मों द्वारा विवेक वैराग्य आदि षट्-संपत्ति अर्जित करना । ऐसे ब्राह्मण को यदि प्रारब्धवश गृहस्थ-आश्रम भी प्राप्त होता है तो उसे वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान यथासंभव विधिपूर्वक करना चाहिए । यदि उसे गृहस्थ आश्रम नहीं अपनाना, तो उसे तप करना चाहिए, भिक्षा के अन्न से निर्वाह करना चाहिए और अधिकारी व्यक्तियों को धर्म की शिक्षा देना चाहिए । यदि वह गृहस्थ है तो आजीविका के लिए कर्म भी करे, न कि यश, धन, या संपत्ति के संग्रह के लिए ।
कुल के विस्तार के लिए संतान की उत्पत्ति करे और संतान तथा स्त्री का पालन-पोषण करे । किन्तु उसे ऐसे कर्मों से दूर रहना होगा जो ब्राह्मणोचित नहीं हैं या ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध हैं ।
ठीक इसी प्रकार से क्षत्रिय वैश्य और शूद्र वर्ण के मनुष्यों को भी अपने स्वभाव के अनुकूल धर्म का आचरण करना चाहिए । यह बिलकुल संभव है कि परिस्थितिवश इस प्रकार से अपने धर्म का पालन करने में कठिनाइयाँ आएँ किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जानबूझकर धर्म से विपरीत आचरण किया जाए । यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना उचित होगा कि वर्ण का यह विभाजन मनुष्यों के गुण-कर्म (की उनकी जन्मजात प्रवृत्ति) के आधार पर हर मनुष्य स्वयं ही अपने लिए सुनिश्चित कर सकता है, न कि दूसरे लोग या समाज । यदि इसे और अच्छी तरह समझा जाए तो अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का आचरण करते हुए प्रत्येक मनुष्य श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
जहाँ तक आश्रम का प्रश्न है, मोटे तौर पर हर मनुष्य के जीवन में उसकी शारीरिक अवस्था के अनुसार चार ऐसे अंतराल क्रमशः आते हैं, जिन्हें संक्षेप में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहा जाता है । और इसके लिए कोई निश्चित आयु नहीं तय की जा सकती क्योंकि मृत्यु कब होना है इस बारे में कोई नहीं जानता । इसलिए पात्र मनुष्य सीधे ब्रह्मचर्य से संन्यास में भी जा सकता है । किन्तु फिर भी स्वाभाविक प्राप्त हुए आश्रम में रहते हुए मनुष्य के लिए उस धर्म का आचरण करना अपेक्षाकृत कम क्लेश और अधिक सुख और संतोष का कारण होता है ।
चूँकि वर्तमान काल में अवर्णों / अनधिकारियों द्वारा भी वेदाध्ययन किया जाने लगा है, और वे अपनी बुद्धि द्वारा जाने-अनजाने वेद का तात्पर्य त्रुटिपूर्ण ग्रहण करते हैं, इसलिए हमें स्पष्ट नहीं हो पाता कि वेद और पुराण आदि कितने विश्वसनीय, सत्य और ग्राह्य हैं । और वेद चूँकि सामान्य मनुष्य के लिए हैं भी नहीं, केवल अधिकारी आचार्य और शिष्य ही उनके अध्ययन के लिए पात्र हैं, वेद से ही स्मृतियों और पुराणों का उद्गम हुआ है, वेद और पुराण की शैली इसलिए मूलतः बहुत भिन्न-भिन्न है । जहाँ वेद समष्टि मनुष्य के संबंध में धर्म क्या है यह स्पष्ट करते हैं, वहीं पुराण कथा और आख्यान द्वारा उसी धर्म की शिक्षा व्यक्ति को देते हैं । किन्तु अस्तित्व के जिन विविध आयामों और दैवी औपाधिक सत्ताओं (देवताओं) के बारे में वेद स्वरूपतः बतलाते हैं वहीं पुराण उनके औपाधिक स्वरूप को अधिक महत्व देते हुए उनके साकार स्वरूप को स्पष्ट करते हैं । ये सभी सत्ताएँ सार्वकालिक सत्य हैं । चाहे शिक्षित हो या अनपढ़, सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं कि स्वयं वेद का अध्ययन करे, या किसी आचार्य को खोजे और उससे सीखे । किन्तु पुराण कोई भी सुन-समझ सकता है और श्रद्धा होने और समय के साथ बुद्धि के परिपक्व और शुद्ध होने पर पुराण के माध्यम से क्रमशः वेदनिहित सत्य तक भी जा सकता है । श्रद्धा होने से यहाँ तात्पर्य है ठीक से समझे बिना पुराण की सत्यता पर शंका न उठाना । और यदि शंका उठती है, तो स्वयं ही या किसी की सहायता से उस शंका का निवारण करना । और यदि वह संतुष्ट नहीं है तो ऐसे मनुष्य को चाहिए कि वह पुराण से कोई आशा न रखे ।
ऐसे भी कुछ महापुरुष हो गए हैं जो समाज-सुधार और धर्म के अपने द्वारा मान्य प्रारूप को समाज पर आरोपित करते हुए पुराणों और स्मृतियों की निन्दा में भी प्रवृत्त हो गए । एक नाम याद आता है स्वामी दयानन्द सरस्वती । स्पष्ट है कि केवल हठवश ही वे पुराणविरोधी हो गए थे । जैसे वे इस्लाम क्रिश्चियनिटी और उनके काल में समाज में प्रचलित अन्य अनेकों पंथों / संप्रदायों / मतों के विरोधी थे, वैसे ही वे पुराणों के भी विरोधी हो गए । यदि आदि शङ्कराचार्य जैसे महापुरुषों ने न केवल शिव या विष्णु, स्कन्द या गणेश, देवी या श्रीराम और श्रीकृष्ण, बल्कि गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों की स्तुति में स्तवन लिखे हैं, तो हम समझ सकते हैं कि पुराण और उनकी सामग्री केवल वाग्विलास और कपोल-कल्पना नहीं हो सकती ।
इस प्रकार ब्राह्मण-धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हो जाती हैं जो एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होती हैं और होती भी हैं क्योंकि उनका आगमन और निगमन दो प्रकार से होता है । वेद का आगमन ईश्वर की सत्ता को अपरिभाषित और अपरिभाषेय की तरह ग्रहण करने से होता है, जबकि पुराण का उस सत्ता को सीमित-भाव से एकमात्र कर्ता और अधिष्ठान के रूप में ग्रहण करने से होता है । जैसे लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई तीनों दीर्घता के मान होते हैं किंतु भौतिक आकाश में तीन आयामों की तरह पृथक्-पृथक् ग्रहण किये जाते हैं । यह औपाधिक औपचारिक और व्यवहार्य सत्य हुआ । यह इन्द्रियग्राह्य है अनुभवगम्य और बुद्धिगम्य है किंतु अनित्यता के दोष से युक्त है । जबकि जो नित्य है वह इन्द्रिय-मन-बुद्धि से अग्राह्य है क्योंकि इन्द्रिय-मन-बुद्धि उस नित्य की ही अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं ।
सामान्य मनुष्य की बुद्धि न तो ईश्वर की सत्ता को परिभाषित कर सकती है न इन्द्रिय-मन-बुद्धि में ग्रहण कर सकती है । इस प्रकार पुनः उस नित्य सत्य के जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है के भी दो प्रकार हो जाते हैं । प्रथम हुआ अज्ञेयवाद जिसका विकास साँख्य और वेदान्त के रूप में हुआ द्वितीय हुआ ’ईश्वरवाद’, अर्थात् उसी नित्य सत्य को जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है की जगत् और जीव के रूपों में अभिव्यक्ति । एक बार उस सत्य को जगत् तथा जीव की सत्ता के अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार कर लिये जाने के बाद उसका नामकरण किया जाना जरूरी हो जाता है । बृहदारण्यक् उपनिषद् के अनुसार : ’अहम्’ तस्य नामाभवत् । उस अधिष्ठाता तत्व का नाम ’अहम्’ हुआ जिसका अर्थ पुनः व्युत्पत्ति के अनुसार ’अ’ व्यञ्जन से ’ह’ व्यञ्जन तक के संपूर्ण वर्णों का विस्तार है । वही व्यवहार और प्रयोग के अर्थ में ’मैं’ होता है । वही भाषा में व्याकरण के अनुसार उत्तम पुरुष होता है जो कि मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष से पूर्व विद्यमान होता है । यद्यपि इन्द्रिय-मन-बुद्धि के अस्तित्व को उससे ही सत्यता प्राप्त होती है किन्तु वह उनसे भी पूर्व है और उनके लिए दुर्बोध, दुरूह, अगम्य भी । रुचि और शुद्ध सरल तथा प्रखर बुद्धि के मनुष्य को यह सब समझना आसान है किन्तु प्रायः मनुष्य इस प्रकार की बुद्धि से युक्त नहीं होते ।
इसलिए जो लोग उस ईश्वर को स्वीकार तो करते हैं किंतु उसके यथार्थ तत्व के बारे में समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं, या रुचि ही नहीं रखते उनके लिए ईश्वर की एक कार्योपयोगी, कामचलाऊ व्यवहार्य अवधारणा प्रस्तुत की जाती है जो असत्य तो नहीं है किन्तु नित्य भी नहीं है । ईश्वर की उस धारणा और जीव तथा जगत् से उसके संबंध का विस्तार से वर्णन पुराण में पाया जाता है । इसलिए वेद तथा पुराण तर्क का विषय नहीं है बल्कि मनुष्य की पात्रता और ग्रहण-क्षमता के अनुसार हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न रूप से ग्राह्य हैं ।
पुनः वेद और पुराण काल और स्थान का वर्गीकरण भी इसीलिए कुछ भिन्न रीति से करते हैं । वेद देवताओं और अन्य औपाधिक सत्ताओं तथा उनके विशिष्ट स्थानों अर्थात् लोकों का ग्रहण प्रत्यक्षतः करते हैं - जैसे अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, सूर्य, यम, शिव, विष्णु, आदि को तथा उनके विशिष्ट स्थानों को अपरोक्षतःग्रहण किया जाता है, जबकि पुराण में इन्हीं को परोक्षतः, सन्दर्भ रूप में घटनात्मक या वर्णनात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है । वेद और पुराण इस बारे में शंका नहीं करते कि वे विभिन्न देवता और लोक परस्पर सहवर्ती हैं या नहीं । इसलिए मृत्युलोक में रहनेवाले मनुष्यों को यह समझ पाने में कठिनाई होती है कि वे विभिन्न देवता और लोक वास्तव में होते हैं या कल्पना मात्र हैं । जिस प्रकार हमारे चित्त की जागृत, स्वप्न, मूर्च्छा, और निद्रा नामक चार स्थितियाँ अपने अतिरिक्त शेष तीन स्थितियों के विकल्प से ही होती हैं, उसी प्रकार ये सारे देवता और उनके लोक भी हमारे जगत् में दिन-प्रतिदिन अनुभव किए जानेवाले जीवन से विकल्पात्मक होने से ही होते हैं। अतः हमारे मन में यह संशय पैदा होता है कि उनकी यथार्थता कितनी सत्य है ।
ऋषि, मुनि, तपस्वी तत्त्व-जिज्ञासु जो पहले ही से संसार के विषयों और उनसे आभासी रूप से प्राप्त होनेवाले और उनमें प्रतीत होनेवाले सुखों की नित्यता समझ लेने के कारण उन्हें दुःख ही जान लेने के बाद देह तक से उदासीन होकर इस प्रपंच के मूल किसी नित्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं वे इस प्रकार वर्ण से ब्राह्मण ही होते हैं, भले ही अवस्था के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी क्यों न हों।
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धर्म एक स्वतंत्र तत्व है, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और परब्रह्म भी।
परब्रह्म अर्थात् यह संसाररूपी विस्तार जिस ब्रह्म का है उसके आधारभूत सर्वस्व का क्रिया कलाप ।
राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा दृढ नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती । धर्म किसी सरिता के प्रवाह की तरह अपनी गतिविधि स्वयं ही है । अपने से इतर न तो उसका कोई लक्ष्य है, न गंतव्य और जब उसके रास्ते में अवरोध आते हैं तो वह उन अवरोधों का सामना अपने तरीके से करता है । उसे हमारी या मनुष्य की भौतिक समृद्धि या विकास से कोई लेना-देना नहीं हो सकता । सुख-भोग की बुद्धि उसके रास्ते में ऐसी ही एक बाधा है और जो मनुष्य यह समझ पाता है कि सरलता से प्रकृति से सामञ्जस्य रखते हुए जीना ही जीवन के सर्वोत्तम को पाने का एकमात्र श्रेयस्कर संभव तरीका है, वह तकनीक का उपयोग भी उसी सीमा के भीतर करता है । तकनीक जीवन को गुणात्मक स्तर पर समृद्ध नहीं कर सकती । मनुष्य तब यह समझता है कि एक मनुष्य के नाते पृथ्वी पर रहते हुए जीवन पर उसका उतना ही अधिकार है जितना किसी भी दूसरे छोटे से छोटे या बड़े से बड़े दूसरे प्राणी का । किन्तु भौतिक विकास ने हमें इतना मुग्ध और विभ्रमित कर दिया है कि हम मनुष्य जाति की अपनी स्वाभाविक प्रकृति-प्रदत्त संख्या से बहुत अधिक संख्या में पैदा हो गए हैं और इसलिए प्रकृति का दोहन अनधिकृत रूप से केवल मनुष्य को सर्वोपरि स्थान देकर कर रहे हैं । किन्तु प्रकृति इसका प्रत्युत्तर देती है और देती रही है । युद्ध, दुर्घटनाओं और मनुष्य द्वारा प्रायोजित व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर किए जानेवाले अपराधों में लाखों मनुष्य प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं । स्वाभाविक रूप से, रोग या वृद्धावस्था में होनेवाली मौतें भी हैं, जो हमारा प्रतिदिन का अनुभव है ।
यह धर्म का स्वाभाविक स्वरूप हुआ, जिससे मार्गदर्शन प्राप्त कर राज्य अपना और प्रजा का कल्याण कर सकता है ।
दूसरी ओर इसी धर्म का विकार भी लोक में प्रायः धर्म समझ लिया जाता है । ऐसा कुछ लोगों की अपनी धर्मेतर वासनाओं को प्रमाद-वश या लोभ, मद आदि से मोहित बुद्धि द्वारा वास्तविक धर्म को धर्म के आवरण में छिपाकर या जानते-समझते हुए भी आलस्यवश समझने के श्रम से बचने और आलस्य आदि के कारण होता है । यह विकार-धर्म मिश्रित और अशुद्ध बुद्धि से युक्त मनुष्यों के लिए कभी-कभी सांसारिक यश, धन और संपत्ति, भूमि आदि पर प्रभुत्व का एक सशक्त साधन बनकर उनके पतित होने का ही कारण होता है ।
वेदविहित धर्म को ग्रहण करने के लिए मनुष्य की पात्रता है कुल से ब्राह्मण होना, द्विजत्व होना, और ब्राह्मणोचित कर्मों द्वारा विवेक वैराग्य आदि षट्-संपत्ति अर्जित करना । ऐसे ब्राह्मण को यदि प्रारब्धवश गृहस्थ-आश्रम भी प्राप्त होता है तो उसे वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान यथासंभव विधिपूर्वक करना चाहिए । यदि उसे गृहस्थ आश्रम नहीं अपनाना, तो उसे तप करना चाहिए, भिक्षा के अन्न से निर्वाह करना चाहिए और अधिकारी व्यक्तियों को धर्म की शिक्षा देना चाहिए । यदि वह गृहस्थ है तो आजीविका के लिए कर्म भी करे, न कि यश, धन, या संपत्ति के संग्रह के लिए ।
कुल के विस्तार के लिए संतान की उत्पत्ति करे और संतान तथा स्त्री का पालन-पोषण करे । किन्तु उसे ऐसे कर्मों से दूर रहना होगा जो ब्राह्मणोचित नहीं हैं या ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध हैं ।
ठीक इसी प्रकार से क्षत्रिय वैश्य और शूद्र वर्ण के मनुष्यों को भी अपने स्वभाव के अनुकूल धर्म का आचरण करना चाहिए । यह बिलकुल संभव है कि परिस्थितिवश इस प्रकार से अपने धर्म का पालन करने में कठिनाइयाँ आएँ किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जानबूझकर धर्म से विपरीत आचरण किया जाए । यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना उचित होगा कि वर्ण का यह विभाजन मनुष्यों के गुण-कर्म (की उनकी जन्मजात प्रवृत्ति) के आधार पर हर मनुष्य स्वयं ही अपने लिए सुनिश्चित कर सकता है, न कि दूसरे लोग या समाज । यदि इसे और अच्छी तरह समझा जाए तो अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म का आचरण करते हुए प्रत्येक मनुष्य श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
जहाँ तक आश्रम का प्रश्न है, मोटे तौर पर हर मनुष्य के जीवन में उसकी शारीरिक अवस्था के अनुसार चार ऐसे अंतराल क्रमशः आते हैं, जिन्हें संक्षेप में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहा जाता है । और इसके लिए कोई निश्चित आयु नहीं तय की जा सकती क्योंकि मृत्यु कब होना है इस बारे में कोई नहीं जानता । इसलिए पात्र मनुष्य सीधे ब्रह्मचर्य से संन्यास में भी जा सकता है । किन्तु फिर भी स्वाभाविक प्राप्त हुए आश्रम में रहते हुए मनुष्य के लिए उस धर्म का आचरण करना अपेक्षाकृत कम क्लेश और अधिक सुख और संतोष का कारण होता है ।
चूँकि वर्तमान काल में अवर्णों / अनधिकारियों द्वारा भी वेदाध्ययन किया जाने लगा है, और वे अपनी बुद्धि द्वारा जाने-अनजाने वेद का तात्पर्य त्रुटिपूर्ण ग्रहण करते हैं, इसलिए हमें स्पष्ट नहीं हो पाता कि वेद और पुराण आदि कितने विश्वसनीय, सत्य और ग्राह्य हैं । और वेद चूँकि सामान्य मनुष्य के लिए हैं भी नहीं, केवल अधिकारी आचार्य और शिष्य ही उनके अध्ययन के लिए पात्र हैं, वेद से ही स्मृतियों और पुराणों का उद्गम हुआ है, वेद और पुराण की शैली इसलिए मूलतः बहुत भिन्न-भिन्न है । जहाँ वेद समष्टि मनुष्य के संबंध में धर्म क्या है यह स्पष्ट करते हैं, वहीं पुराण कथा और आख्यान द्वारा उसी धर्म की शिक्षा व्यक्ति को देते हैं । किन्तु अस्तित्व के जिन विविध आयामों और दैवी औपाधिक सत्ताओं (देवताओं) के बारे में वेद स्वरूपतः बतलाते हैं वहीं पुराण उनके औपाधिक स्वरूप को अधिक महत्व देते हुए उनके साकार स्वरूप को स्पष्ट करते हैं । ये सभी सत्ताएँ सार्वकालिक सत्य हैं । चाहे शिक्षित हो या अनपढ़, सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं कि स्वयं वेद का अध्ययन करे, या किसी आचार्य को खोजे और उससे सीखे । किन्तु पुराण कोई भी सुन-समझ सकता है और श्रद्धा होने और समय के साथ बुद्धि के परिपक्व और शुद्ध होने पर पुराण के माध्यम से क्रमशः वेदनिहित सत्य तक भी जा सकता है । श्रद्धा होने से यहाँ तात्पर्य है ठीक से समझे बिना पुराण की सत्यता पर शंका न उठाना । और यदि शंका उठती है, तो स्वयं ही या किसी की सहायता से उस शंका का निवारण करना । और यदि वह संतुष्ट नहीं है तो ऐसे मनुष्य को चाहिए कि वह पुराण से कोई आशा न रखे ।
ऐसे भी कुछ महापुरुष हो गए हैं जो समाज-सुधार और धर्म के अपने द्वारा मान्य प्रारूप को समाज पर आरोपित करते हुए पुराणों और स्मृतियों की निन्दा में भी प्रवृत्त हो गए । एक नाम याद आता है स्वामी दयानन्द सरस्वती । स्पष्ट है कि केवल हठवश ही वे पुराणविरोधी हो गए थे । जैसे वे इस्लाम क्रिश्चियनिटी और उनके काल में समाज में प्रचलित अन्य अनेकों पंथों / संप्रदायों / मतों के विरोधी थे, वैसे ही वे पुराणों के भी विरोधी हो गए । यदि आदि शङ्कराचार्य जैसे महापुरुषों ने न केवल शिव या विष्णु, स्कन्द या गणेश, देवी या श्रीराम और श्रीकृष्ण, बल्कि गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों की स्तुति में स्तवन लिखे हैं, तो हम समझ सकते हैं कि पुराण और उनकी सामग्री केवल वाग्विलास और कपोल-कल्पना नहीं हो सकती ।
इस प्रकार ब्राह्मण-धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हो जाती हैं जो एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होती हैं और होती भी हैं क्योंकि उनका आगमन और निगमन दो प्रकार से होता है । वेद का आगमन ईश्वर की सत्ता को अपरिभाषित और अपरिभाषेय की तरह ग्रहण करने से होता है, जबकि पुराण का उस सत्ता को सीमित-भाव से एकमात्र कर्ता और अधिष्ठान के रूप में ग्रहण करने से होता है । जैसे लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई तीनों दीर्घता के मान होते हैं किंतु भौतिक आकाश में तीन आयामों की तरह पृथक्-पृथक् ग्रहण किये जाते हैं । यह औपाधिक औपचारिक और व्यवहार्य सत्य हुआ । यह इन्द्रियग्राह्य है अनुभवगम्य और बुद्धिगम्य है किंतु अनित्यता के दोष से युक्त है । जबकि जो नित्य है वह इन्द्रिय-मन-बुद्धि से अग्राह्य है क्योंकि इन्द्रिय-मन-बुद्धि उस नित्य की ही अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं ।
सामान्य मनुष्य की बुद्धि न तो ईश्वर की सत्ता को परिभाषित कर सकती है न इन्द्रिय-मन-बुद्धि में ग्रहण कर सकती है । इस प्रकार पुनः उस नित्य सत्य के जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है के भी दो प्रकार हो जाते हैं । प्रथम हुआ अज्ञेयवाद जिसका विकास साँख्य और वेदान्त के रूप में हुआ द्वितीय हुआ ’ईश्वरवाद’, अर्थात् उसी नित्य सत्य को जो निरुपाधिक, अनौपचारिक और अव्यवहार्य भी है की जगत् और जीव के रूपों में अभिव्यक्ति । एक बार उस सत्य को जगत् तथा जीव की सत्ता के अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार कर लिये जाने के बाद उसका नामकरण किया जाना जरूरी हो जाता है । बृहदारण्यक् उपनिषद् के अनुसार : ’अहम्’ तस्य नामाभवत् । उस अधिष्ठाता तत्व का नाम ’अहम्’ हुआ जिसका अर्थ पुनः व्युत्पत्ति के अनुसार ’अ’ व्यञ्जन से ’ह’ व्यञ्जन तक के संपूर्ण वर्णों का विस्तार है । वही व्यवहार और प्रयोग के अर्थ में ’मैं’ होता है । वही भाषा में व्याकरण के अनुसार उत्तम पुरुष होता है जो कि मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष से पूर्व विद्यमान होता है । यद्यपि इन्द्रिय-मन-बुद्धि के अस्तित्व को उससे ही सत्यता प्राप्त होती है किन्तु वह उनसे भी पूर्व है और उनके लिए दुर्बोध, दुरूह, अगम्य भी । रुचि और शुद्ध सरल तथा प्रखर बुद्धि के मनुष्य को यह सब समझना आसान है किन्तु प्रायः मनुष्य इस प्रकार की बुद्धि से युक्त नहीं होते ।
इसलिए जो लोग उस ईश्वर को स्वीकार तो करते हैं किंतु उसके यथार्थ तत्व के बारे में समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं, या रुचि ही नहीं रखते उनके लिए ईश्वर की एक कार्योपयोगी, कामचलाऊ व्यवहार्य अवधारणा प्रस्तुत की जाती है जो असत्य तो नहीं है किन्तु नित्य भी नहीं है । ईश्वर की उस धारणा और जीव तथा जगत् से उसके संबंध का विस्तार से वर्णन पुराण में पाया जाता है । इसलिए वेद तथा पुराण तर्क का विषय नहीं है बल्कि मनुष्य की पात्रता और ग्रहण-क्षमता के अनुसार हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न रूप से ग्राह्य हैं ।
पुनः वेद और पुराण काल और स्थान का वर्गीकरण भी इसीलिए कुछ भिन्न रीति से करते हैं । वेद देवताओं और अन्य औपाधिक सत्ताओं तथा उनके विशिष्ट स्थानों अर्थात् लोकों का ग्रहण प्रत्यक्षतः करते हैं - जैसे अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, सूर्य, यम, शिव, विष्णु, आदि को तथा उनके विशिष्ट स्थानों को अपरोक्षतःग्रहण किया जाता है, जबकि पुराण में इन्हीं को परोक्षतः, सन्दर्भ रूप में घटनात्मक या वर्णनात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है । वेद और पुराण इस बारे में शंका नहीं करते कि वे विभिन्न देवता और लोक परस्पर सहवर्ती हैं या नहीं । इसलिए मृत्युलोक में रहनेवाले मनुष्यों को यह समझ पाने में कठिनाई होती है कि वे विभिन्न देवता और लोक वास्तव में होते हैं या कल्पना मात्र हैं । जिस प्रकार हमारे चित्त की जागृत, स्वप्न, मूर्च्छा, और निद्रा नामक चार स्थितियाँ अपने अतिरिक्त शेष तीन स्थितियों के विकल्प से ही होती हैं, उसी प्रकार ये सारे देवता और उनके लोक भी हमारे जगत् में दिन-प्रतिदिन अनुभव किए जानेवाले जीवन से विकल्पात्मक होने से ही होते हैं। अतः हमारे मन में यह संशय पैदा होता है कि उनकी यथार्थता कितनी सत्य है ।
ऋषि, मुनि, तपस्वी तत्त्व-जिज्ञासु जो पहले ही से संसार के विषयों और उनसे आभासी रूप से प्राप्त होनेवाले और उनमें प्रतीत होनेवाले सुखों की नित्यता समझ लेने के कारण उन्हें दुःख ही जान लेने के बाद देह तक से उदासीन होकर इस प्रपंच के मूल किसी नित्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं वे इस प्रकार वर्ण से ब्राह्मण ही होते हैं, भले ही अवस्था के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी क्यों न हों।
संक्षेप में यदि किसी में सतोगुणी प्रवृत्तियाँ अधिक प्रबल हैं तो ब्राह्मण के लिए निर्दिष्ट धर्म पर चलना उसके लिए सरल और स्वाभाविक होगा । इसी प्रकार किसी में रजोगुण की प्रवृत्ति प्रबल है तो उसके लिए क्षत्रिय धर्म का आचरण करना सरल और स्वाभाविक होगा । इसी प्रकार किसी में रजोगुण तथा तमोगुण प्रबल हैं तो उसके लिए वैश्य धर्म अधिक सरल होगा । वैसे ही यदि किसी में तमोगुण सर्वाधिक प्रबल है तो उसके लिए शूद्र के लिए निर्दिष्ट धर्म सर्वाधिक हितकारी होगा ।
गीता के अनुसार यह एक सांकेतिक लक्षण है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण समय समय पर शेष दो गुणों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, जब सतोगुण / सत्वगुण रजोगुण तथा तमोगुण को दबा कर चित्त में व्याप्त होता है तो मनुष्य का मन शान्त, सावधान, और शुभ प्रवृत्तियों से युक्त होता है । रजोगुण का वर्चस्व होने पर संशय, अनिश्चय, राग-द्वेष युक्त, कर्म तथा भोग की प्रवृत्तिवाला, और ऐसे ही दूसरे गुणों से युक्त होता है । तथा तमोगुण का वर्चस्व होने पर चित्त आलस्य, निद्रा, मूढता, भय, दुस्साहस आदि से प्रभावित रहता है ।
(अध्याय 14, श्लोक 10,
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
--
(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
--
भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।)
--
इसी प्रकार संसार में ऐसा कोई नहीं जो इन तीन गुणों से मुक्त हो ।
(अध्याय 18, श्लोक 40,
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
--
(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः ॥)
--
भावार्थ :
पृथ्वी पर, आकाश में अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई कहीं भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणों (के प्रभाव) से मुक्त हो ।)
हम कह सकते हैं कि वर्ण आश्रम का उपरोक्त विभाजन वर्तमान युग में लगभग अव्यावहारिक और अप्रासंगिक सा हो गया है । किन्तु जब हमारे सामने धर्म की प्रवृत्ति का प्रश्न आता है तो हमें किसी ऐसे आधार की आवश्यकता अनुभव होती है जो हमें अपना कर्तव्य-निर्वाह सम्यक् रूप से करने के लिए मार्गदर्शन दे सके ।
इतिहास ने और इतिहासकारों ने धर्म के रूप में हमारे सामने कुछ विकल्प रखे हैं । दूसरी ओर जिस समाज में हमने जन्म लिया है, अर्थात् परिवार की सामाजिक पृष्ठभूमि भी हमें अपने किसी विशिष्ट पारंपरिक धर्म पर चलने का सुझाव देती है । यह धर्म हमें इस प्रकार परंपरा से प्राप्त होता है न कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इस प्रकार से धर्म की विवेचना के द्वारा जानकर । स्पष्ट है कि परंपराएँ दुराग्रहपूर्ण और त्रुटिपूर्ण हो सकती हैं और यदि वे विश्वास पर आधारित हैं तब तो इसकी संभावना अत्यन्त बढ़ जाती है । भिन्न-भिन्न प्रकार के और विविध विश्वास वैचारिक मान्यताएँ ही होती हैं और यद्यपि मनुष्य को ऐसी मान्यताएँ रखने से कोई न तो रोक सकता है न रोकना उचित है । किन्तु जब ऐसे विश्वास इतने दुराग्रहपूर्ण हो जाते हैं कि अपनी मान्यताओं को ही एकमात्र यथार्थ धर्म कहने लगें और उन मान्यताओं से भिन्न प्रकार की मान्यताओं को अधर्म कहने लगें और बलपूर्वक तथा छल-कपट से या बहला फ़ुसलाकर, भय, प्रलोभन या राजनीतिक चालाकियों से अन्य मतावलंबियों को अपने मत में दीक्षित करने लगें तो ऐसे विश्वास, मत स्पष्टतः धर्म के वेष में अधर्म ही होते हैं ।
सनातन धर्म के अनुसार धर्म वस्तु का स्वभाव है जिसका त्याग करना वस्तु के लिए संभव नहीं । इसलिए सनातन धर्म की समझ के अनुसार धर्म के प्रति लोगों को जागरूक तो किया जा सकता है, किन्तु धर्म को आरोपित नहीं किया जा सकता । मनुष्यमात्र को अपना धर्म स्वयं ही खोजना होगा और यदि वह किसी मत या विश्वास में अपने धर्म को देखता भी है तो उसे इसी प्रकार दूसरों के भी अपने मत या विश्वास को उनका अपना धर्म कहने के अधिकार का सम्मान करना होगा । किन्तु इतिहास में, जैसा कि इस लेख के प्रारंभ में ही संकेत किया गया है, राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा ठोस नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती ।
भारत में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उदय के साथ एक गलत परम्परा यह आरंभ हुई कि ’धर्म’ को राज्य का आश्रय प्राप्त हुआ । पहले धर्म की गतिविधि स्वतन्त्र रूप से उसके अपने नियमों से होती थी और शासक मार्गदर्शन के लिए धर्माचार्यों के पास जाया करते थे । धर्माचार्य विवेक-वैराग्यपूर्ण जीवन जीते थे और राज्य तथा संपत्ति, भोगों और यश की कामना को तुच्छ समझते थे । किन्तु बुद्ध के काल में राज्याश्रय प्राप्त होने पर (बौद्ध) धर्म ’प्रचार’ की वस्तु बन गया । एक दृष्टि से इसमें भी कोई दोष नहीं था क्योंकि बौद्ध धर्म में भी उन्हें ही दीक्षित किया जाता था जो इसकी ओर आकर्षित थे, जो इस धर्म के मूल सिद्धान्तों में धर्म की झलक देखते थे, जो इससे मार्गदर्शन पाते थे । इस तरह से इसमें किसी को बलपूर्वक अपने मत में दीक्षित करने का विचार कदापि नहीं था । दूसरे अर्थ में यह वस्तुतः ब्राह्मणोचित धर्म ही था और साँख्य-दर्शन के अधिक निकट था । किन्तु जो लोग किन्हीं भी कारणों से वेद के धर्म को ग्रहण नहीं कर सकते थे, और ’पौराणिक धर्म’ जिनके लिए बिल्कुल नया था, उनमें से अनेक ऐसे थे जिन्हें बौद्ध धर्म में सम्यक् और श्रेयस्कर जीवन जीने की ध्येय-सिद्धि के लिए अनेक मार्गदर्शक शिक्षाएँ दिखलाई देती थीं ।
और आज भी धर्म को वैज्ञानिक आधार पर समझने के लिए उत्सुक अनेक वैज्ञानिक और दार्शनिक, विचारक बौद्ध धर्म में मनुष्य के भविष्य की आशा देखते हैं ।
किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बौद्ध धर्म उन आततायियों और आक्रमणकारियों से अपनी या अपने मतानुयायियों की रक्षा करने में असमर्थ है, जो अपने ही विश्वास / मत को एकमात्र वास्तविक धर्म कहते हैं और तलवार के द्वारा अपना मत सारी दुनिया पर लादना चाहते हैं । सनातन धर्म न तो दूसरे पर अपना मत बलपूर्वक आरोपित करने को उचित मानता है, न किसी के द्वारा बलपूर्वक अपना मत आरोपित किए जाने पर उसका प्रतिकार न करने को । यहाँ क्षात्र धर्म का महत्व समझा जा सकता है । यदि प्रजा में दुर्जन और अपराधी न भी हों तो भी जंगली एवं हिंस्र पशुओं तथा अपराध से आजीविका चलानेवाले दस्युओं आदि का दमन किया जाना एक अपरिहार्य आवश्यकता है । और यह शासक का कर्तव्य है कि वह इसके लिए शक्ति का प्रयोग करे । बौद्ध धर्म के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है । यदि सभी बौद्ध भिक्षु बन जाएँ तो कृषि और पशुपालन कौन करेगा? और क्या वह व्यावहारिक रूप से कभी संभव है?
इसलिए राज्य को सम्यक् धर्म का आश्रय लेना होगा, न कि धर्म को अपने ’प्रचार’ और प्रसार के लिए राज्य की शक्ति का ।
और जो ’धर्म’ राज्य की शक्ति का आश्रय लेता है वह राज्य का, तथा अंततः पूरे संसार का विनाश कर देता है ।
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गीता के अनुसार यह एक सांकेतिक लक्षण है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण समय समय पर शेष दो गुणों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, जब सतोगुण / सत्वगुण रजोगुण तथा तमोगुण को दबा कर चित्त में व्याप्त होता है तो मनुष्य का मन शान्त, सावधान, और शुभ प्रवृत्तियों से युक्त होता है । रजोगुण का वर्चस्व होने पर संशय, अनिश्चय, राग-द्वेष युक्त, कर्म तथा भोग की प्रवृत्तिवाला, और ऐसे ही दूसरे गुणों से युक्त होता है । तथा तमोगुण का वर्चस्व होने पर चित्त आलस्य, निद्रा, मूढता, भय, दुस्साहस आदि से प्रभावित रहता है ।
(अध्याय 14, श्लोक 10,
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
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(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।)
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इसी प्रकार संसार में ऐसा कोई नहीं जो इन तीन गुणों से मुक्त हो ।
(अध्याय 18, श्लोक 40,
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
पृथ्वी पर, आकाश में अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई कहीं भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणों (के प्रभाव) से मुक्त हो ।)
इतिहास ने और इतिहासकारों ने धर्म के रूप में हमारे सामने कुछ विकल्प रखे हैं । दूसरी ओर जिस समाज में हमने जन्म लिया है, अर्थात् परिवार की सामाजिक पृष्ठभूमि भी हमें अपने किसी विशिष्ट पारंपरिक धर्म पर चलने का सुझाव देती है । यह धर्म हमें इस प्रकार परंपरा से प्राप्त होता है न कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इस प्रकार से धर्म की विवेचना के द्वारा जानकर । स्पष्ट है कि परंपराएँ दुराग्रहपूर्ण और त्रुटिपूर्ण हो सकती हैं और यदि वे विश्वास पर आधारित हैं तब तो इसकी संभावना अत्यन्त बढ़ जाती है । भिन्न-भिन्न प्रकार के और विविध विश्वास वैचारिक मान्यताएँ ही होती हैं और यद्यपि मनुष्य को ऐसी मान्यताएँ रखने से कोई न तो रोक सकता है न रोकना उचित है । किन्तु जब ऐसे विश्वास इतने दुराग्रहपूर्ण हो जाते हैं कि अपनी मान्यताओं को ही एकमात्र यथार्थ धर्म कहने लगें और उन मान्यताओं से भिन्न प्रकार की मान्यताओं को अधर्म कहने लगें और बलपूर्वक तथा छल-कपट से या बहला फ़ुसलाकर, भय, प्रलोभन या राजनीतिक चालाकियों से अन्य मतावलंबियों को अपने मत में दीक्षित करने लगें तो ऐसे विश्वास, मत स्पष्टतः धर्म के वेष में अधर्म ही होते हैं ।
सनातन धर्म के अनुसार धर्म वस्तु का स्वभाव है जिसका त्याग करना वस्तु के लिए संभव नहीं । इसलिए सनातन धर्म की समझ के अनुसार धर्म के प्रति लोगों को जागरूक तो किया जा सकता है, किन्तु धर्म को आरोपित नहीं किया जा सकता । मनुष्यमात्र को अपना धर्म स्वयं ही खोजना होगा और यदि वह किसी मत या विश्वास में अपने धर्म को देखता भी है तो उसे इसी प्रकार दूसरों के भी अपने मत या विश्वास को उनका अपना धर्म कहने के अधिकार का सम्मान करना होगा । किन्तु इतिहास में, जैसा कि इस लेख के प्रारंभ में ही संकेत किया गया है, राज्य व्यावहारिक संसार का एक आयाम मात्र है -एक भौतिक सत्ता, जो औपचारिक और व्यावहारिक महत्व तो रखती है किन्तु उसी धर्म नामक शक्ति से संचालित होता है और उस पर ही आश्रित होने से संवर्धित, समृद्ध होता है । धर्म की वे जड़ें यद्यपि दिखलाई नहीं देतीं, किन्तु यदि राज्य उन जड़ों से विच्छिन्न हो जाता है तो विनाश की ओर अग्रसर होने लगता है ।
जब तक राज्य धर्म पर बाह्य रूप से भी आश्रित होता है और उसके मार्गदर्शन से अपना कार्य-व्यापार करता है, अर्थात् शासक यदि यथार्थ धर्म, अधर्म तथा विधर्म भी क्या है इसे अपने विवेक से, अथवा धर्म को जाननेवाले उन महापुरुषों, ऋषियों मुनियों और तपस्वियों से जिज्ञासा कर जानकर समझ लेता है, जो स्वयं विवेकशील और संसार की अनित्यता और तुच्छता को समझकर वैराग्य-बुद्धि से संपन्न हो जाने से नित्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तब तक राज्य और शासक को धर्म के रूप में ऐसा ठोस नैतिक आधार उपलब्ध होता है जिस पर वह एक सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर प्रजा का पालन और सुरक्षा कर सके, उन्हें समृद्ध कर सके । किन्तु यह समृद्धि केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और भोग-विलास का विकास नहीं हो सकती ।
भारत में बुद्ध और बौद्ध धर्म के उदय के साथ एक गलत परम्परा यह आरंभ हुई कि ’धर्म’ को राज्य का आश्रय प्राप्त हुआ । पहले धर्म की गतिविधि स्वतन्त्र रूप से उसके अपने नियमों से होती थी और शासक मार्गदर्शन के लिए धर्माचार्यों के पास जाया करते थे । धर्माचार्य विवेक-वैराग्यपूर्ण जीवन जीते थे और राज्य तथा संपत्ति, भोगों और यश की कामना को तुच्छ समझते थे । किन्तु बुद्ध के काल में राज्याश्रय प्राप्त होने पर (बौद्ध) धर्म ’प्रचार’ की वस्तु बन गया । एक दृष्टि से इसमें भी कोई दोष नहीं था क्योंकि बौद्ध धर्म में भी उन्हें ही दीक्षित किया जाता था जो इसकी ओर आकर्षित थे, जो इस धर्म के मूल सिद्धान्तों में धर्म की झलक देखते थे, जो इससे मार्गदर्शन पाते थे । इस तरह से इसमें किसी को बलपूर्वक अपने मत में दीक्षित करने का विचार कदापि नहीं था । दूसरे अर्थ में यह वस्तुतः ब्राह्मणोचित धर्म ही था और साँख्य-दर्शन के अधिक निकट था । किन्तु जो लोग किन्हीं भी कारणों से वेद के धर्म को ग्रहण नहीं कर सकते थे, और ’पौराणिक धर्म’ जिनके लिए बिल्कुल नया था, उनमें से अनेक ऐसे थे जिन्हें बौद्ध धर्म में सम्यक् और श्रेयस्कर जीवन जीने की ध्येय-सिद्धि के लिए अनेक मार्गदर्शक शिक्षाएँ दिखलाई देती थीं ।
और आज भी धर्म को वैज्ञानिक आधार पर समझने के लिए उत्सुक अनेक वैज्ञानिक और दार्शनिक, विचारक बौद्ध धर्म में मनुष्य के भविष्य की आशा देखते हैं ।
किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बौद्ध धर्म उन आततायियों और आक्रमणकारियों से अपनी या अपने मतानुयायियों की रक्षा करने में असमर्थ है, जो अपने ही विश्वास / मत को एकमात्र वास्तविक धर्म कहते हैं और तलवार के द्वारा अपना मत सारी दुनिया पर लादना चाहते हैं । सनातन धर्म न तो दूसरे पर अपना मत बलपूर्वक आरोपित करने को उचित मानता है, न किसी के द्वारा बलपूर्वक अपना मत आरोपित किए जाने पर उसका प्रतिकार न करने को । यहाँ क्षात्र धर्म का महत्व समझा जा सकता है । यदि प्रजा में दुर्जन और अपराधी न भी हों तो भी जंगली एवं हिंस्र पशुओं तथा अपराध से आजीविका चलानेवाले दस्युओं आदि का दमन किया जाना एक अपरिहार्य आवश्यकता है । और यह शासक का कर्तव्य है कि वह इसके लिए शक्ति का प्रयोग करे । बौद्ध धर्म के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है । यदि सभी बौद्ध भिक्षु बन जाएँ तो कृषि और पशुपालन कौन करेगा? और क्या वह व्यावहारिक रूप से कभी संभव है?
इसलिए राज्य को सम्यक् धर्म का आश्रय लेना होगा, न कि धर्म को अपने ’प्रचार’ और प्रसार के लिए राज्य की शक्ति का ।
और जो ’धर्म’ राज्य की शक्ति का आश्रय लेता है वह राज्य का, तथा अंततः पूरे संसार का विनाश कर देता है ।
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