श्लोक ५, दशश्लोकी,
श्रीशङ्कराचार्यकृत
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न चैकं तदन्यद्द्वितीयं कुदासीत्
न वा केवलत्वं न च केवलत्वम् ।
न शून्यं नचाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ॥
(श्लोक ५, दशश्लोकी, श्रीशङ्कराचार्यकृत)
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न च एकं तत्-अन्यत्-द्वितीयं कुतः आसीत्
न वा केवलत्वं न च केवलत्वम्
न शून्यं न च-अशून्यं-अद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ॥
--
अर्थ :
’सत्’ तो ’एक’ भी नहीं है (क्योंकि १’एक’ भी कल्पना ही है, ’सत्’ कल्पना नहीं है ।)
तो वह दूसरा अन्य कुछ भी कैसे हो सकता है?
’सत्’ केवल (एकमात्र) नहीं है (और इसलिए) ’केवलत्व’ भी नहीं है ।
’सत्’ शून्य (संख्या या रिक्तता) भी नहीं है क्योंकि संख्या पुनः कल्पना है और रिक्तता अभाव,
(नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः .. गीता अध्याय २, श्लोक १६)
क्योंकि सत् अद्वैत (द्वैतरहित) है । (इसलिए तुम्हीं कहो) कि सर्ववेदान्तसिद्ध उस ’सत्’ का वर्णन मैं कैसे करूँ?
[या, सत् का वर्णन मैं इस तरह से करता हूँ ।]
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śloka 5, daśaślokī, śrīśaṅkarācāryakṛta
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na caikaṃ tadanyaddvitīya kudāsīt
na vā kevalatvaṃ na ca kevalatvam |
na śūnyaṃ na cāśūnyamadvaitakatvāt
kathaṃ sarvavedāntasiddhaṃ bravīmi ||
--
na ca ekaṃ tat-anyat-dvitīyaṃ kutaḥ āsīt
na vā kevalatvaṃ na ca kevalatvam |
na śūnyaṃ na ca aśūnyaṃ-advaikatvāt
kathaṃ sarvavedāntasiddhaṃ bravīmi ||
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(śloka 5, daśaślokī, śrīśaṅkarācāryakṛta)
--
Meaning :
'sat' (Reality) is not 'one' (because 'one' is a number, a concept only),
So, how could one talk about the 'sat' as 'another'?
'sat' is not in isolation, alone, so 'sat' is neither 'only'.
'sat' is not zero in terms of vacuum or a number (0), for 'sat' is existence and not emptiness or vacuum.
(As is said in भग्वद्गीता / bhagvadgītā Chapter2, stanza 16 :
Chapter 2, śloka 16,
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nāsato vidyate bhāvo
nābhāvo vidyate sataḥ |
ubhayorapi dṛṣṭo:'ntast-
vanayostattvadarśibhiḥ ||
--
Again, 0 as number is also a concept only.
'sat' being This Reality, tell me how I should expound This 'sat' which is the True purport and essence अद्वैत / advaita principle of वेदान्त / vedānta ?
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श्रीशङ्कराचार्यकृत
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न चैकं तदन्यद्द्वितीयं कुदासीत्
न वा केवलत्वं न च केवलत्वम् ।
न शून्यं नचाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ॥
(श्लोक ५, दशश्लोकी, श्रीशङ्कराचार्यकृत)
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न च एकं तत्-अन्यत्-द्वितीयं कुतः आसीत्
न वा केवलत्वं न च केवलत्वम्
न शून्यं न च-अशून्यं-अद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ॥
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अर्थ :
’सत्’ तो ’एक’ भी नहीं है (क्योंकि १’एक’ भी कल्पना ही है, ’सत्’ कल्पना नहीं है ।)
तो वह दूसरा अन्य कुछ भी कैसे हो सकता है?
’सत्’ केवल (एकमात्र) नहीं है (और इसलिए) ’केवलत्व’ भी नहीं है ।
’सत्’ शून्य (संख्या या रिक्तता) भी नहीं है क्योंकि संख्या पुनः कल्पना है और रिक्तता अभाव,
(नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः .. गीता अध्याय २, श्लोक १६)
क्योंकि सत् अद्वैत (द्वैतरहित) है । (इसलिए तुम्हीं कहो) कि सर्ववेदान्तसिद्ध उस ’सत्’ का वर्णन मैं कैसे करूँ?
[या, सत् का वर्णन मैं इस तरह से करता हूँ ।]
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śloka 5, daśaślokī, śrīśaṅkarācāryakṛta
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na caikaṃ tadanyaddvitīya kudāsīt
na vā kevalatvaṃ na ca kevalatvam |
na śūnyaṃ na cāśūnyamadvaitakatvāt
kathaṃ sarvavedāntasiddhaṃ bravīmi ||
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na ca ekaṃ tat-anyat-dvitīyaṃ kutaḥ āsīt
na vā kevalatvaṃ na ca kevalatvam |
na śūnyaṃ na ca aśūnyaṃ-advaikatvāt
kathaṃ sarvavedāntasiddhaṃ bravīmi ||
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(śloka 5, daśaślokī, śrīśaṅkarācāryakṛta)
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Meaning :
'sat' (Reality) is not 'one' (because 'one' is a number, a concept only),
So, how could one talk about the 'sat' as 'another'?
'sat' is not in isolation, alone, so 'sat' is neither 'only'.
'sat' is not zero in terms of vacuum or a number (0), for 'sat' is existence and not emptiness or vacuum.
(As is said in भग्वद्गीता / bhagvadgītā Chapter2, stanza 16 :
Chapter 2, śloka 16,
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nāsato vidyate bhāvo
nābhāvo vidyate sataḥ |
ubhayorapi dṛṣṭo:'ntast-
vanayostattvadarśibhiḥ ||
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Again, 0 as number is also a concept only.
'sat' being This Reality, tell me how I should expound This 'sat' which is the True purport and essence अद्वैत / advaita principle of वेदान्त / vedānta ?
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