चतुरानन-पञ्चानन-षडानन-चरित्र
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लप् > प्रलप् > प्रलप्यते, या प्रली > प्रलीयते, या पिल्य > पील्यते > पीलु, या फलति > फलयति, फल्यते से व्युत्पन्न phallus जिससे ग्रीक ’फिलो’ व्युत्पन्न है, जो पैलेस्टिन phalastine का भी उद्गम है, प्रकृति अर्थात् प्रवृत्ति है ।
यही लिंग अर्थात् लक्षण है जगत् के उद्भव का ।
उद्भव का दूसरा जो प्रत्यक्ष चिह्न / लक्षण / लिंग अर्थात् मूल कारण वह है जननेन्द्रिय, यह भी सत्य है कि जननेन्द्रिय का सुख अर्थात् आनंद सर्वाधिक प्रत्यक्ष तथ्य है । प्राचीन से प्राचीन काल में जब मनुष्य ने काम-प्रवृत्ति को निन्दा भय और अपने सुख की प्राप्ति के लिए दूसरों से प्रतिस्पर्धा के रूप में जाना होगा तब उसने यह भी जाना होगा कि जननेन्द्रिय के दो प्रमुख प्रयोजन हैं अपने जैसे जीवों की सृष्टि और इस सृष्टि की प्रक्रिया में अनुभव होनेवाला सुख, जो गौण है । काम-व्यवहार उसके लिए उत्सुकता न रहकर जिज्ञासा बन गया और उसने सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता को किसी महान् लिंग या योनि के रूप में देखा जो सृष्टि का न केवल भौतिक स्थूल वरन् लौकिक (आध्यात्मिक, दैविक) सूक्ष्म (आधिदैविक) ,आत्यन्तिक (ईश्वर / आत्मा) और व्यक्त तथा अव्यक्त कारण और कार्य है । सृष्टि उससे ही सृजित, गतिशील और व्यक्त से अव्यक्त तथा अव्यक्त से व्यक्त रूप लेती रहती है । वैज्ञानिक पदार्थ और ऊर्जा की अविनाशिता का नियम प्रतिपादित करते हैं किंतु वे व्यक्त-अव्यक्त की अविनाशिता पर उतना ध्यान नहीं दे पाते क्योंकि वे खंडित को देखते हैं, अखंडित की अवधारणा उनके लिए कठिन है । व्यक्त-अव्यक्त एक ही अखंडित तत्व के दो रूपों में प्रकट होने की गतिविधि है ।
दूसरी ओर धी धियौ धियः से व्युत्पन्न ’ध्यान’ जो ग्रीक में ṭheo का अर्थात् knowledge का रूप लेता है, धर्म का भी पर्याय है और अन्तःकरण का भी । यह अन्तःकरण जो लिंग या योनि के रूप में शिव तथा शक्ति का निदर्शक है, अन्तःकरण के रूप में स्त्री-प्रधान या पुरुष-प्रधान प्रवृत्ति अर्थात् प्रकृति का दिग्दर्शक भी है, मूलतः छह प्रकार से कार्य करता है ।
१. मनोगत अर्थात् ’वृत्ति’ के रूप में,
२. विचार अथवा स्मृति के रूप में,
३. बुद्धि अथवा निर्णय के रूप में,
इन रूपों में अन्तःकरण का स्व-तत्व अवश्य ही उस ’वृत्ति’ (inspiration), ’विचार’ या ’स्मृति’ (thought and memory), ’बुद्धि’ (intellect) अथवा ’निर्णय’ (decision ) से अभिन्न (प्रतीत) होता है जो पुनः उस अभिन्नता की स्मृति के बल पर ’संकल्प’ (will) का रूप लेकर वैयक्तिक अन्तःकरण के रूप में ’अहंकार’ / ego के रूप में जीव-भाव है ।
४. विषय से एकात्मता अर्थात् ’तादात्म्य’ या एकाकार होने के अर्थ में अपनी ’पहचान’ की तरह,
५. विषय-रहित चेतना के रूप में, और अंतिम :
६. ’ईश्वर’ के रूप में जो मनुष्य में ’जीव-भाव’ का संकल्प है तो सृष्टि में शिव तथा शक्ति और व्यक्त-अव्यक्त में परमात्मा है । ये परस्पर मूलतः अभिन्न हैं और सारा वर्णन औपचारिक और औपाधिक है ।
’व्यक्ति’ के इस अन्तःकरण में आत्म-अनात्म की भिन्नता होने की कल्पना के उद्भव के बाद ही ’आत्म-जिज्ञासा’ का आविर्भाव होता है । ’आत्म-जिज्ञासा’ अर्थात् ’आत्मा’ को, स्वयं के यथार्थ रूप को जानने की उत्सुकता और उस हेतु किए जाने वाले उपाय ।
आत्म-विचार भी पुनः आत्म-जिज्ञासा, आत्म-अनुसंधान, आत्म-स्थिति और आत्म-निष्ठा इन चार रूपों में अभिव्यक्त होता है । किंतु जब तक चेतना अर्थात् अन्तःकरण psyche पशु के स्तर पर होता है, वह भावना-प्रधान होता है जो स्थूल भौतिक शरीर तथा सूक्ष्म अंतःकरण (मन) के बीच की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है जो स्थ्होल भी है, सूक्ष्म भी । इसे ऊर्जा या शक्ति कहना उचित होगा । इसे ही प्राण भी कहा जा सकता है । यह भी पुनः जैव दृष्टि से जब यही अन्तःकरण किसी स्त्री या पुरुष शरीर से संबद्ध होने पर स्त्री-प्रकृति-प्रधान या पुरुष-प्रकृति-प्रधान हो सकता है ।
जब अन्तःकरण विचार / वाक् / या मनो-प्रधान होता है तो पुरुषतत्वप्रधान होता है, और भावनाप्रधान होने पर स्त्रीतत्वप्रधान । जब अन्तःकरण निर्णय करने की भूमिका में होता है मननशील, मुनि, मानव अर्थात् मनु है । इसलिए मनु (Manu) / मनुस्मृति के आध्यात्मिक, आधिदैविक, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा लौकिक सन्दर्भ भी हैं किन्तु उनके भिन्न-भिन्न प्रयोजन हैं ।
जब अंतःकरण में आत्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है तब वह आत्म-अनुसंधान में प्रवृत्त हो जाता है ।
एक ही अन्तःकरण क्रमशः कारण, स्थूल, सूक्ष्म और ईश्वर, तथा इसी प्रकार क्रमशः प्रकृति अर्थात् प्रवृत्ति के, पशु के, स्त्री या पुरुष के, मनुष्य या ईश्वर के रूप में विभिन्न रूपों तथा स्तरों पर उन भूमिकाओं में कार्य करता है ।
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मनुष्य के अन्तःकरण के अनुसार उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है । इसलिए पुरुष-प्रधान अन्तःकरण वाले मनुष्य सामान्यतः बौद्धिक अधिक होते हैं, जबकि स्त्रीतत्वप्रधान अन्तःकरण वाले सामान्यतः कवि, कलाकार अधिक होते हैं । किंतु यह विभाजन भी केवल औपचारिक है और अपने अन्तःकरण को जानना-समझना तो नितांत वैयक्तिक कार्य है ।
एक ही व्यक्ति के अन्तःकरण में एक ओर भावनाओं की विविधता तो दूसरी ओर बुद्धियों (चित्त जिसका प्रकट रूप है) की विविधता उनकी पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं का आधार है ।
इसलिए जिसे आध्यात्मिक प्रयास कहते हैं वह बाह्यतः भावना या बुद्धि की विशिष्टता के अनुसार सुनिश्चित की जा सकती है । स्त्री-प्रधान चित्त (बुद्धि जिसका अप्रकट रूप है) की श्रद्धा पुरुषप्रधान चित्त वाले मनुष्य से इस दृष्टि से भिन्न होती है कि जो / जैसे प्रश्न एक के मन (विचार / स्मृति) में उठते हैं वे / वैसे दूसरे के मन में कम उठते हैं । दोनों की अपनी मर्यादा है जिसे वे लाँघते नहीं । कितु जैसा कहा गया मूलतः एक ही अन्तःकरण व्यक्त-अव्यक्त जगत है, इसलिए दोनों उसी अन्तःकरण के प्रकार मात्र हैं ।
सत्त्वानुरूपा ... (गीता १७, श्लोक ३) के अनुसार सत्त्व यही ’अन्तःकरण’ है जिसकी ’शुद्धि’ स्त्रीप्रधान मनुष्य के लिए अभिप्रेत है तो पुरुषप्रधान के लिए आकलनीय, अनुसंधेय ।
इसी श्लोक की अगली पंक्ति है :
’श्रद्धामयोऽयम् पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥’
इसी ’श्रद्धा’ अर्थात् निष्ठा के दो प्रकार हैं कर्म-निष्ठा और ज्ञान-निष्ठा ।
किसी की दृष्टि में कर्म ही महत्वपूर्ण है इसलिए श्रेष्ठ श्रेयस्कर कर्म ही किया जाना चाहिए । दूसरी ओर ज्ञान-निष्ठा होने पर मनुष्य को यह लगता है कि दूसरों की ही तरह यह शरीर मन वचन तथा इसकी प्रवृत्तियाँ एवं कर्म भी सारतः और प्रकटरूप में भी अतीत का परिणाम होने से इनसे होनेवाले समस्त कृत्य भी परिणाम-मात्र हैं और इसलिए मनुष्य कर्म करने / न-करने के लिए स्वतन्त्र ही नहीं है, इसलिए अपने स्वरूप को, या ’कर्ता’ के वास्तविक स्वरूप / तत्त्व को जानना ही एकमात्र संभव उपाय है जिससे इस ’कर्म’ की दुरत्ययता (गीता अध्याय ७, श्लोक १४) को , जो कि माया ही है, से पार हुआ जा सकता है ।
जिसकी श्रद्धा ’कर्म’ में है उसके लिए ’अभ्यास’ की शिक्षा दी जाती है जो उसके लिए अवश्य ही स्वाभाविक भी होगा । जिसकी श्रद्धा इस सब माया के अधिष्ठान को जानने के लिए उसे प्रेरित करती है उसके लिए ’आत्न-अनुसंधान’ की शिक्षा दी जाती है । किंतु ’श्रद्धा’ या ’निष्ठा’ को बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता । अपने लिए क्या उचित है यह तो हर मनुष्य को स्वयं ही तय करना होगा ।
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लप् > प्रलप् > प्रलप्यते, या प्रली > प्रलीयते, या पिल्य > पील्यते > पीलु, या फलति > फलयति, फल्यते से व्युत्पन्न phallus जिससे ग्रीक ’फिलो’ व्युत्पन्न है, जो पैलेस्टिन phalastine का भी उद्गम है, प्रकृति अर्थात् प्रवृत्ति है ।
यही लिंग अर्थात् लक्षण है जगत् के उद्भव का ।
उद्भव का दूसरा जो प्रत्यक्ष चिह्न / लक्षण / लिंग अर्थात् मूल कारण वह है जननेन्द्रिय, यह भी सत्य है कि जननेन्द्रिय का सुख अर्थात् आनंद सर्वाधिक प्रत्यक्ष तथ्य है । प्राचीन से प्राचीन काल में जब मनुष्य ने काम-प्रवृत्ति को निन्दा भय और अपने सुख की प्राप्ति के लिए दूसरों से प्रतिस्पर्धा के रूप में जाना होगा तब उसने यह भी जाना होगा कि जननेन्द्रिय के दो प्रमुख प्रयोजन हैं अपने जैसे जीवों की सृष्टि और इस सृष्टि की प्रक्रिया में अनुभव होनेवाला सुख, जो गौण है । काम-व्यवहार उसके लिए उत्सुकता न रहकर जिज्ञासा बन गया और उसने सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता को किसी महान् लिंग या योनि के रूप में देखा जो सृष्टि का न केवल भौतिक स्थूल वरन् लौकिक (आध्यात्मिक, दैविक) सूक्ष्म (आधिदैविक) ,आत्यन्तिक (ईश्वर / आत्मा) और व्यक्त तथा अव्यक्त कारण और कार्य है । सृष्टि उससे ही सृजित, गतिशील और व्यक्त से अव्यक्त तथा अव्यक्त से व्यक्त रूप लेती रहती है । वैज्ञानिक पदार्थ और ऊर्जा की अविनाशिता का नियम प्रतिपादित करते हैं किंतु वे व्यक्त-अव्यक्त की अविनाशिता पर उतना ध्यान नहीं दे पाते क्योंकि वे खंडित को देखते हैं, अखंडित की अवधारणा उनके लिए कठिन है । व्यक्त-अव्यक्त एक ही अखंडित तत्व के दो रूपों में प्रकट होने की गतिविधि है ।
दूसरी ओर धी धियौ धियः से व्युत्पन्न ’ध्यान’ जो ग्रीक में ṭheo का अर्थात् knowledge का रूप लेता है, धर्म का भी पर्याय है और अन्तःकरण का भी । यह अन्तःकरण जो लिंग या योनि के रूप में शिव तथा शक्ति का निदर्शक है, अन्तःकरण के रूप में स्त्री-प्रधान या पुरुष-प्रधान प्रवृत्ति अर्थात् प्रकृति का दिग्दर्शक भी है, मूलतः छह प्रकार से कार्य करता है ।
१. मनोगत अर्थात् ’वृत्ति’ के रूप में,
२. विचार अथवा स्मृति के रूप में,
३. बुद्धि अथवा निर्णय के रूप में,
इन रूपों में अन्तःकरण का स्व-तत्व अवश्य ही उस ’वृत्ति’ (inspiration), ’विचार’ या ’स्मृति’ (thought and memory), ’बुद्धि’ (intellect) अथवा ’निर्णय’ (decision ) से अभिन्न (प्रतीत) होता है जो पुनः उस अभिन्नता की स्मृति के बल पर ’संकल्प’ (will) का रूप लेकर वैयक्तिक अन्तःकरण के रूप में ’अहंकार’ / ego के रूप में जीव-भाव है ।
४. विषय से एकात्मता अर्थात् ’तादात्म्य’ या एकाकार होने के अर्थ में अपनी ’पहचान’ की तरह,
५. विषय-रहित चेतना के रूप में, और अंतिम :
६. ’ईश्वर’ के रूप में जो मनुष्य में ’जीव-भाव’ का संकल्प है तो सृष्टि में शिव तथा शक्ति और व्यक्त-अव्यक्त में परमात्मा है । ये परस्पर मूलतः अभिन्न हैं और सारा वर्णन औपचारिक और औपाधिक है ।
’व्यक्ति’ के इस अन्तःकरण में आत्म-अनात्म की भिन्नता होने की कल्पना के उद्भव के बाद ही ’आत्म-जिज्ञासा’ का आविर्भाव होता है । ’आत्म-जिज्ञासा’ अर्थात् ’आत्मा’ को, स्वयं के यथार्थ रूप को जानने की उत्सुकता और उस हेतु किए जाने वाले उपाय ।
आत्म-विचार भी पुनः आत्म-जिज्ञासा, आत्म-अनुसंधान, आत्म-स्थिति और आत्म-निष्ठा इन चार रूपों में अभिव्यक्त होता है । किंतु जब तक चेतना अर्थात् अन्तःकरण psyche पशु के स्तर पर होता है, वह भावना-प्रधान होता है जो स्थूल भौतिक शरीर तथा सूक्ष्म अंतःकरण (मन) के बीच की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है जो स्थ्होल भी है, सूक्ष्म भी । इसे ऊर्जा या शक्ति कहना उचित होगा । इसे ही प्राण भी कहा जा सकता है । यह भी पुनः जैव दृष्टि से जब यही अन्तःकरण किसी स्त्री या पुरुष शरीर से संबद्ध होने पर स्त्री-प्रकृति-प्रधान या पुरुष-प्रकृति-प्रधान हो सकता है ।
जब अन्तःकरण विचार / वाक् / या मनो-प्रधान होता है तो पुरुषतत्वप्रधान होता है, और भावनाप्रधान होने पर स्त्रीतत्वप्रधान । जब अन्तःकरण निर्णय करने की भूमिका में होता है मननशील, मुनि, मानव अर्थात् मनु है । इसलिए मनु (Manu) / मनुस्मृति के आध्यात्मिक, आधिदैविक, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा लौकिक सन्दर्भ भी हैं किन्तु उनके भिन्न-भिन्न प्रयोजन हैं ।
जब अंतःकरण में आत्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है तब वह आत्म-अनुसंधान में प्रवृत्त हो जाता है ।
एक ही अन्तःकरण क्रमशः कारण, स्थूल, सूक्ष्म और ईश्वर, तथा इसी प्रकार क्रमशः प्रकृति अर्थात् प्रवृत्ति के, पशु के, स्त्री या पुरुष के, मनुष्य या ईश्वर के रूप में विभिन्न रूपों तथा स्तरों पर उन भूमिकाओं में कार्य करता है ।
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मनुष्य के अन्तःकरण के अनुसार उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है । इसलिए पुरुष-प्रधान अन्तःकरण वाले मनुष्य सामान्यतः बौद्धिक अधिक होते हैं, जबकि स्त्रीतत्वप्रधान अन्तःकरण वाले सामान्यतः कवि, कलाकार अधिक होते हैं । किंतु यह विभाजन भी केवल औपचारिक है और अपने अन्तःकरण को जानना-समझना तो नितांत वैयक्तिक कार्य है ।
एक ही व्यक्ति के अन्तःकरण में एक ओर भावनाओं की विविधता तो दूसरी ओर बुद्धियों (चित्त जिसका प्रकट रूप है) की विविधता उनकी पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं का आधार है ।
इसलिए जिसे आध्यात्मिक प्रयास कहते हैं वह बाह्यतः भावना या बुद्धि की विशिष्टता के अनुसार सुनिश्चित की जा सकती है । स्त्री-प्रधान चित्त (बुद्धि जिसका अप्रकट रूप है) की श्रद्धा पुरुषप्रधान चित्त वाले मनुष्य से इस दृष्टि से भिन्न होती है कि जो / जैसे प्रश्न एक के मन (विचार / स्मृति) में उठते हैं वे / वैसे दूसरे के मन में कम उठते हैं । दोनों की अपनी मर्यादा है जिसे वे लाँघते नहीं । कितु जैसा कहा गया मूलतः एक ही अन्तःकरण व्यक्त-अव्यक्त जगत है, इसलिए दोनों उसी अन्तःकरण के प्रकार मात्र हैं ।
सत्त्वानुरूपा ... (गीता १७, श्लोक ३) के अनुसार सत्त्व यही ’अन्तःकरण’ है जिसकी ’शुद्धि’ स्त्रीप्रधान मनुष्य के लिए अभिप्रेत है तो पुरुषप्रधान के लिए आकलनीय, अनुसंधेय ।
इसी श्लोक की अगली पंक्ति है :
’श्रद्धामयोऽयम् पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥’
इसी ’श्रद्धा’ अर्थात् निष्ठा के दो प्रकार हैं कर्म-निष्ठा और ज्ञान-निष्ठा ।
किसी की दृष्टि में कर्म ही महत्वपूर्ण है इसलिए श्रेष्ठ श्रेयस्कर कर्म ही किया जाना चाहिए । दूसरी ओर ज्ञान-निष्ठा होने पर मनुष्य को यह लगता है कि दूसरों की ही तरह यह शरीर मन वचन तथा इसकी प्रवृत्तियाँ एवं कर्म भी सारतः और प्रकटरूप में भी अतीत का परिणाम होने से इनसे होनेवाले समस्त कृत्य भी परिणाम-मात्र हैं और इसलिए मनुष्य कर्म करने / न-करने के लिए स्वतन्त्र ही नहीं है, इसलिए अपने स्वरूप को, या ’कर्ता’ के वास्तविक स्वरूप / तत्त्व को जानना ही एकमात्र संभव उपाय है जिससे इस ’कर्म’ की दुरत्ययता (गीता अध्याय ७, श्लोक १४) को , जो कि माया ही है, से पार हुआ जा सकता है ।
जिसकी श्रद्धा ’कर्म’ में है उसके लिए ’अभ्यास’ की शिक्षा दी जाती है जो उसके लिए अवश्य ही स्वाभाविक भी होगा । जिसकी श्रद्धा इस सब माया के अधिष्ठान को जानने के लिए उसे प्रेरित करती है उसके लिए ’आत्न-अनुसंधान’ की शिक्षा दी जाती है । किंतु ’श्रद्धा’ या ’निष्ठा’ को बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता । अपने लिए क्या उचित है यह तो हर मनुष्य को स्वयं ही तय करना होगा ।
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