मृत्यु से परे
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पहली बात, क्या आप मृत्यु से जुड़े विश्वासों से, तार्किक विवेचनाओं से या उसके प्रति जो उदासीनता आपने अपने भीतर पैदा कर रखी है उससे मुक्त हो सकते हैं ? क्या आप अब उस सबसे मुक्त हो सकते हैं ? क्योंकि यह महत्वपूर्ण है कि किसी आकस्मिक दुर्घटना, या किसी बीमारी से, जो धीरे-धीरे आपको अचेत कर दे होनेवाली ऐसी मृत्यु का इंतज़ार किए बिना जीते-जी, पूरी तरह से सचेत, सक्रिय, स्वस्थ रहते हुए मृत्यु के घर में प्रवेश हो सके । जब मृत्यु आए तो वह ऐसा ही असाधारण क्षण हो, जीने के ही समान, उतना ही सजीव हो । मृत्यु क्या है? निस्सन्देह, जिसे आपने जाना है, यह उस सब का पूर्ण अन्त है । जिसे भी आपने जाना है, उस हर चीज़ का जब तक अन्त नहीं हुआ है, यह मृत्यु नहीं है । अगर आप मृत्यु को पहले से जानते हों तो आप डरेंगे नहीं । लेकिन, क्या आप मृत्यु को जानते हैं ? मतलब यह, कि जीवित रहते हुए ही जिस किसी भी अस्थायी चीज़ को बनाए रखने के लिए जो अन्तहीन संघर्ष आप करते हैं, क्या उसे आप बंद कर सकते हैं, -क्या आप जीवित रहते हुए ही, अज्ञेय को, उस अवस्था को जान सकते हैं, जिसे हम मृत्यु कहते हैं ? मृत्यु के बाद क्या होता है, जिसे आपने किताबों में पढ़ा होता है, या जो शायद असाधारण होता होगा, जिसका आस्वाद लेने, ऐसे उस सुख को अनुभव करने की इच्छा से आपका अचेतन जिस बारे में सोचने के लिए आपको मज़बूर करता है, क्या उन सारे वर्णनों को आप इसी क्षण हटाकर एक ओर रख सकते हैं ? अगर उस अवस्था को अभी अनुभव कर लिया जा सके, तो जीवन और मरण एक समान हैं ।
अतः, मैं जिसने बहुत शिक्षा, ज्ञान प्राप्त किया है, जिसने असंख्य अनुभव प्राप्त किए हैं, जो संघर्षरत है, जो प्रेम करता है, घृणा करता है, -- क्या वह ’मैं’ समाप्त हो सकता है? ’मैं’ उस सबकी संचित स्मृति है, और क्या वह ’मैं’ समाप्त हो सकता है? किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण नहीं, बल्कि जब आप और मैं यहाँ बैठे हैं, क्या इसी समय, उस अन्त को जान सकते हैं ?
तब पाएँगे कि आप तब मृत्यु और निरंतरता (कंटीन्यूटी) के बारे में, -वह चाहे इस संसार में हो, या इसके बाद के किसी संसार में होती हो, उस बारे में, मूर्खतापूर्ण प्रश्न नहीं करते । तब आपको इसका जवाब पता होता है क्योंकि वह जो कि अज्ञेय है, आपके सामने साक्षात प्रकट होगा । तब पुनर्जन्म के और अन्य अनेक भयों की, जीने और मृत्यु के भय की, बूढ़े हो जाने के और दूसरों को आपकी देखभाल करने की तक़लीफ़ देने के डर की, अकेलेपन और निराशा के डर की बक़वास बंद हो जाएगी । ये व्यर्थ शब्द नहीं हैं । जब मन अपने बारे में अपनी निरंतरता (कंटीन्यूटी) की भाषा में सोचना बंद कर देता है, केवल तभी उस अज्ञेय का आविर्भाव होता है ।
जे.कृष्णमूर्ति
६ठी वार्ता, ओक-ग्रोव,
२१ अगस्त १९५५,
(’एज़ वन इज़’ से)
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First of all, can you be free of the beliefs, the rationalities, or the indifference that you have cultivated towards death? Can you be free of all that now? Because what is important is to enter the house of death while living, while fully conscious, active, in health, and not wait for the coming death, which may carry you off instantaneously through an accident, or through a disease that slowly makes you unconscious. When death comes, it must be an extraordinary moment which is as vital as living.. .
What is death? Surely, it is complete cessation of everything that you have known. If it is not the cessation of everything you have known, it is not death. If you know death already, then you have nothing to be frightened of. But do you know death? That is, can you while living put an end to this everlasting struggle to find in the impermanent something that will continue? Can you know the unknowable, that state which we call death, while living? Can you put aside all the descriptions of what happens after death which you have read in books, or which your unconscious desire for comfort dictates, and taste or experience that state, which must be extraordinary, now? If that state can be experienced now, then living and dying are the same.
So, can I, who have vast education, knowledge, who have had innumerable experiences, struggles, loves, hates -- can that 'I' come to an end? The 'I' is the recorded memory of all that, and can that 'I' come to an end? Without being brought to an end by an accident, by a disease, can you and I while sitting here know that end? Then you will find that you will no longer ask foolish questions about death and continuity -- whether there is a world hereafter. Then you will know the answer for yourself because that which is unknowable will have come into being. Then you will put aside the whole rigmarole of reincarnation, and the many fears -- the fear of living and the fear of dying, the fear of growing old and inflicting on others the trouble of looking after you, the fear of loneliness and despondency -- will all have come to an end. These are not vain words. It is only when the mind ceases to think in terms of its own continuity that the unknowable comes into being.
J. Krishnamurti
Sixth Talk in the Oak Grove,
August 21, 1955,
From: As One Is, pp. 103-104
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पहली बात, क्या आप मृत्यु से जुड़े विश्वासों से, तार्किक विवेचनाओं से या उसके प्रति जो उदासीनता आपने अपने भीतर पैदा कर रखी है उससे मुक्त हो सकते हैं ? क्या आप अब उस सबसे मुक्त हो सकते हैं ? क्योंकि यह महत्वपूर्ण है कि किसी आकस्मिक दुर्घटना, या किसी बीमारी से, जो धीरे-धीरे आपको अचेत कर दे होनेवाली ऐसी मृत्यु का इंतज़ार किए बिना जीते-जी, पूरी तरह से सचेत, सक्रिय, स्वस्थ रहते हुए मृत्यु के घर में प्रवेश हो सके । जब मृत्यु आए तो वह ऐसा ही असाधारण क्षण हो, जीने के ही समान, उतना ही सजीव हो । मृत्यु क्या है? निस्सन्देह, जिसे आपने जाना है, यह उस सब का पूर्ण अन्त है । जिसे भी आपने जाना है, उस हर चीज़ का जब तक अन्त नहीं हुआ है, यह मृत्यु नहीं है । अगर आप मृत्यु को पहले से जानते हों तो आप डरेंगे नहीं । लेकिन, क्या आप मृत्यु को जानते हैं ? मतलब यह, कि जीवित रहते हुए ही जिस किसी भी अस्थायी चीज़ को बनाए रखने के लिए जो अन्तहीन संघर्ष आप करते हैं, क्या उसे आप बंद कर सकते हैं, -क्या आप जीवित रहते हुए ही, अज्ञेय को, उस अवस्था को जान सकते हैं, जिसे हम मृत्यु कहते हैं ? मृत्यु के बाद क्या होता है, जिसे आपने किताबों में पढ़ा होता है, या जो शायद असाधारण होता होगा, जिसका आस्वाद लेने, ऐसे उस सुख को अनुभव करने की इच्छा से आपका अचेतन जिस बारे में सोचने के लिए आपको मज़बूर करता है, क्या उन सारे वर्णनों को आप इसी क्षण हटाकर एक ओर रख सकते हैं ? अगर उस अवस्था को अभी अनुभव कर लिया जा सके, तो जीवन और मरण एक समान हैं ।
अतः, मैं जिसने बहुत शिक्षा, ज्ञान प्राप्त किया है, जिसने असंख्य अनुभव प्राप्त किए हैं, जो संघर्षरत है, जो प्रेम करता है, घृणा करता है, -- क्या वह ’मैं’ समाप्त हो सकता है? ’मैं’ उस सबकी संचित स्मृति है, और क्या वह ’मैं’ समाप्त हो सकता है? किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण नहीं, बल्कि जब आप और मैं यहाँ बैठे हैं, क्या इसी समय, उस अन्त को जान सकते हैं ?
तब पाएँगे कि आप तब मृत्यु और निरंतरता (कंटीन्यूटी) के बारे में, -वह चाहे इस संसार में हो, या इसके बाद के किसी संसार में होती हो, उस बारे में, मूर्खतापूर्ण प्रश्न नहीं करते । तब आपको इसका जवाब पता होता है क्योंकि वह जो कि अज्ञेय है, आपके सामने साक्षात प्रकट होगा । तब पुनर्जन्म के और अन्य अनेक भयों की, जीने और मृत्यु के भय की, बूढ़े हो जाने के और दूसरों को आपकी देखभाल करने की तक़लीफ़ देने के डर की, अकेलेपन और निराशा के डर की बक़वास बंद हो जाएगी । ये व्यर्थ शब्द नहीं हैं । जब मन अपने बारे में अपनी निरंतरता (कंटीन्यूटी) की भाषा में सोचना बंद कर देता है, केवल तभी उस अज्ञेय का आविर्भाव होता है ।
जे.कृष्णमूर्ति
६ठी वार्ता, ओक-ग्रोव,
२१ अगस्त १९५५,
(’एज़ वन इज़’ से)
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First of all, can you be free of the beliefs, the rationalities, or the indifference that you have cultivated towards death? Can you be free of all that now? Because what is important is to enter the house of death while living, while fully conscious, active, in health, and not wait for the coming death, which may carry you off instantaneously through an accident, or through a disease that slowly makes you unconscious. When death comes, it must be an extraordinary moment which is as vital as living.. .
What is death? Surely, it is complete cessation of everything that you have known. If it is not the cessation of everything you have known, it is not death. If you know death already, then you have nothing to be frightened of. But do you know death? That is, can you while living put an end to this everlasting struggle to find in the impermanent something that will continue? Can you know the unknowable, that state which we call death, while living? Can you put aside all the descriptions of what happens after death which you have read in books, or which your unconscious desire for comfort dictates, and taste or experience that state, which must be extraordinary, now? If that state can be experienced now, then living and dying are the same.
So, can I, who have vast education, knowledge, who have had innumerable experiences, struggles, loves, hates -- can that 'I' come to an end? The 'I' is the recorded memory of all that, and can that 'I' come to an end? Without being brought to an end by an accident, by a disease, can you and I while sitting here know that end? Then you will find that you will no longer ask foolish questions about death and continuity -- whether there is a world hereafter. Then you will know the answer for yourself because that which is unknowable will have come into being. Then you will put aside the whole rigmarole of reincarnation, and the many fears -- the fear of living and the fear of dying, the fear of growing old and inflicting on others the trouble of looking after you, the fear of loneliness and despondency -- will all have come to an end. These are not vain words. It is only when the mind ceases to think in terms of its own continuity that the unknowable comes into being.
J. Krishnamurti
Sixth Talk in the Oak Grove,
August 21, 1955,
From: As One Is, pp. 103-104
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