इच्छा, क्रिया, कर्म, बुद्धि, और प्रयोजन
--
जीवन की पाँच अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि जीवन स्वयं एक अमूर्त वस्तु है किंतु जिन पाँच मुख्य प्रकारों से उसका संवेदन मानसिक रूप में होता है उन्हें इन पाँच शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है । इनमें से प्रथम इच्छा अर्थात् मूल प्रवृत्ति जो क्रिया अथवा कर्म में परिणत होती है उसे सृष्टि का मूल या बीज कह सकते हैं । क्रिया वह है जिसे व्यक्तिगत इच्छा से व्यक्ति कार्यरूप देने की चेष्टा करता है । कर्म वह घटना-क्रम है जिसे विचार द्वारा परिभाषित और विचार-रूप में स्मृति में लिपिबद्ध / अंकित किया जाता है । व्यक्ति, समष्टि और संपूर्ण; अस्तित्व अर्थात् जीवन के भिन्न-भिन्न तात्पर्य हैं ।
बुद्धि का आविर्भाव तब होता है जब इच्छा को पूर्ण करने के लिए जिस क्रिया को किया जाना आवश्यक है उस क्रिया के ज्ञान का प्रकाश चित्त की जडता (अंधकार) में स्फुरित होता है । यह ज्ञान स्वयं भी समष्टि की क्रिया ही है जो व्यक्ति के स्तर पर भिन्न-भिन्न चित्तों में भिन्न-भिन्न अवसरों और स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकारों में प्रकट होता है । यह स्मृति से पहले है, जबकि स्मृति इसके बाद ही प्रारूप (pattern) के रूप में मस्तिष्क में अंकित और संग्रहीत होती है । यह भी सच है कि ज्ञान के उन्मेष के बाद यह स्मृति भी क्रियाओं को प्रभावित करती है ।
क्रिया अर्थात् इच्छा को पूर्ण करने की चेष्टा के स्मृति से प्रभावित होने के बाद ही कार्य का तात्कालिक प्रयोजन तय होता है । यह प्रयोजन भी पुनः ’क्या अच्छा लगता है?’ और ’क्या आवश्यक है?’ इन दो प्रभावों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है । इन दोनों के सामञ्जस्य, द्वन्द्व या कम या अधिक महत्व से ही क्रिया का स्वरूप तय होता है ।
--
धी धियौ धियः
--
चित्त में इनके धारण होने / किये जाने की गतिविधि को धी (बुद्धि जिसका विशिष्ट प्रकार भर है), ध्यान, धारणा, धृति, धा (दधाति / धत्ते) के अर्थ में व्यवहार में प्रयुक्त किया जाता है । यहाँ से हमें एक महत्वपूर्ण दिशा प्राप्त होती है जो शब्द के विभिन्न रूप अर्थात् ’भाषाओं’ के रूप में व्यक्त होने और देश-काल में उनके परिवर्तित होने से संस्कृतियों की विविधता का कारण होती है ।
ग्रीक में और ग्रीक से मिलती-जुलती अंग्रेज़ी में theory, thing, thought, thesis, जैसे शब्द इसी धी के उपजात हैं यह अनुमान लगाना असंगत न होगा । इसी प्रकार premise तथा pattern भी pre-muse तथा पत्-तरम् (pat-taram) के ही उपजात हैं । कला की देवी Muse तथा मुह् धातु जिससे मोह अर्थात् किसी वस्तु को उसके यथार्थ-रूप में न देखते हुए उस पर कोई इच्छा आदि आरोपित कर उस बुद्धि से देखना; भी मूलतः एक ही धातु से बने हैं ।
इस प्रकार भाषाशास्त्रियों द्वारा स्थापित यह अवधारणा कि विभिन्न भाषाएँ किसी एक या किन्हीं दो भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं संदेहास्पद और दोषपूर्ण भी है । इस अवधारणा को स्थापित करने के मूल में भी यही पूर्वाग्रह दिखलाई देता है कि चूँकि संस्कृत सर्वाधिक परिष्कृत और परिमार्जित यहाँ तक कि अभियान्त्रिक तरीके से सृजित भाषा सिद्ध होती है इसलिए कहीं उसे सब भाषाओं का मूल न मान लिया जाए । क्योंकि संस्कृत को श्रेष्ठ और अन्य भाषाओं का मूल स्वीकार करने से अनायास वेद और वेद से जुड़ी विद्या और ज्ञान को भी स्वीकारना होगा जो उन भाषाशास्त्रियों के लिए न केवल असह्य बल्कि उनकी परंपराओं के लिए घातक भी सिद्ध होगा ही । इसी भय से भाषाएँ जिस किसी भी भाषा से निकली हैं वह यद्यपि एक है, लेकिन वह संस्कृत कदापि नहीं है, इस आग्रह (और भय) से संस्कृत और अन्य सारी भाषाओं को उस कल्पित भाषा (PIE) की संतान होने की धारणा को भी अस्तित्व प्रदान किया गया । इस प्रकार (PIE) की कल्पना मिथकीय और मनघड़न्त है किंतु यहाँ उस बारे में कुछ कहना विषय से भटकना होगा ।
--
--
जीवन की पाँच अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि जीवन स्वयं एक अमूर्त वस्तु है किंतु जिन पाँच मुख्य प्रकारों से उसका संवेदन मानसिक रूप में होता है उन्हें इन पाँच शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है । इनमें से प्रथम इच्छा अर्थात् मूल प्रवृत्ति जो क्रिया अथवा कर्म में परिणत होती है उसे सृष्टि का मूल या बीज कह सकते हैं । क्रिया वह है जिसे व्यक्तिगत इच्छा से व्यक्ति कार्यरूप देने की चेष्टा करता है । कर्म वह घटना-क्रम है जिसे विचार द्वारा परिभाषित और विचार-रूप में स्मृति में लिपिबद्ध / अंकित किया जाता है । व्यक्ति, समष्टि और संपूर्ण; अस्तित्व अर्थात् जीवन के भिन्न-भिन्न तात्पर्य हैं ।
बुद्धि का आविर्भाव तब होता है जब इच्छा को पूर्ण करने के लिए जिस क्रिया को किया जाना आवश्यक है उस क्रिया के ज्ञान का प्रकाश चित्त की जडता (अंधकार) में स्फुरित होता है । यह ज्ञान स्वयं भी समष्टि की क्रिया ही है जो व्यक्ति के स्तर पर भिन्न-भिन्न चित्तों में भिन्न-भिन्न अवसरों और स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकारों में प्रकट होता है । यह स्मृति से पहले है, जबकि स्मृति इसके बाद ही प्रारूप (pattern) के रूप में मस्तिष्क में अंकित और संग्रहीत होती है । यह भी सच है कि ज्ञान के उन्मेष के बाद यह स्मृति भी क्रियाओं को प्रभावित करती है ।
क्रिया अर्थात् इच्छा को पूर्ण करने की चेष्टा के स्मृति से प्रभावित होने के बाद ही कार्य का तात्कालिक प्रयोजन तय होता है । यह प्रयोजन भी पुनः ’क्या अच्छा लगता है?’ और ’क्या आवश्यक है?’ इन दो प्रभावों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है । इन दोनों के सामञ्जस्य, द्वन्द्व या कम या अधिक महत्व से ही क्रिया का स्वरूप तय होता है ।
--
धी धियौ धियः
--
चित्त में इनके धारण होने / किये जाने की गतिविधि को धी (बुद्धि जिसका विशिष्ट प्रकार भर है), ध्यान, धारणा, धृति, धा (दधाति / धत्ते) के अर्थ में व्यवहार में प्रयुक्त किया जाता है । यहाँ से हमें एक महत्वपूर्ण दिशा प्राप्त होती है जो शब्द के विभिन्न रूप अर्थात् ’भाषाओं’ के रूप में व्यक्त होने और देश-काल में उनके परिवर्तित होने से संस्कृतियों की विविधता का कारण होती है ।
ग्रीक में और ग्रीक से मिलती-जुलती अंग्रेज़ी में theory, thing, thought, thesis, जैसे शब्द इसी धी के उपजात हैं यह अनुमान लगाना असंगत न होगा । इसी प्रकार premise तथा pattern भी pre-muse तथा पत्-तरम् (pat-taram) के ही उपजात हैं । कला की देवी Muse तथा मुह् धातु जिससे मोह अर्थात् किसी वस्तु को उसके यथार्थ-रूप में न देखते हुए उस पर कोई इच्छा आदि आरोपित कर उस बुद्धि से देखना; भी मूलतः एक ही धातु से बने हैं ।
इस प्रकार भाषाशास्त्रियों द्वारा स्थापित यह अवधारणा कि विभिन्न भाषाएँ किसी एक या किन्हीं दो भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं संदेहास्पद और दोषपूर्ण भी है । इस अवधारणा को स्थापित करने के मूल में भी यही पूर्वाग्रह दिखलाई देता है कि चूँकि संस्कृत सर्वाधिक परिष्कृत और परिमार्जित यहाँ तक कि अभियान्त्रिक तरीके से सृजित भाषा सिद्ध होती है इसलिए कहीं उसे सब भाषाओं का मूल न मान लिया जाए । क्योंकि संस्कृत को श्रेष्ठ और अन्य भाषाओं का मूल स्वीकार करने से अनायास वेद और वेद से जुड़ी विद्या और ज्ञान को भी स्वीकारना होगा जो उन भाषाशास्त्रियों के लिए न केवल असह्य बल्कि उनकी परंपराओं के लिए घातक भी सिद्ध होगा ही । इसी भय से भाषाएँ जिस किसी भी भाषा से निकली हैं वह यद्यपि एक है, लेकिन वह संस्कृत कदापि नहीं है, इस आग्रह (और भय) से संस्कृत और अन्य सारी भाषाओं को उस कल्पित भाषा (PIE) की संतान होने की धारणा को भी अस्तित्व प्रदान किया गया । इस प्रकार (PIE) की कल्पना मिथकीय और मनघड़न्त है किंतु यहाँ उस बारे में कुछ कहना विषय से भटकना होगा ।
--
No comments:
Post a Comment