Wednesday, 6 December 2017

भूल-भुलैया (कविता)

रहस्य
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काल का यह पथ अनंत,
अतीत में या भविष्य में,
देखो पल में समाया है,
देखो ये कैसी माया है !
अतीत जो केवल स्मृति,
भविष्य कल्पना अनगढ़,
रच देते हैं दोनों मिलकर,
काल का विराट भवन ।
और उस भवन में ही,
होती सृष्टि अनंत-निस्सीम,
जड-जंगम, जगत् जीव,
कितना उनका फ़ैलाव असीम ।
सृष्टा नहीं दिखाई देता,
असीम इस सृष्टि में कहीं,
भूल अवश्य ही है लेकिन,
दर्शक की दृष्टि में ही कहीं ।
इस भूल को भी देख न पाता,
कितना अभागा है वह जीव,
भटकता भूल-भुलैया में,
खोजता फिरता जग में सुख,
और कभी अकारण ही,
कोई दिला देता है ध्यान,
चाहे उसको गुरु कह लो,
या फिर कह लो कृपानिधान,
वह अंजन देता नयनों में,
जिसे आँजकर के प्राणी,
भूल-भुलैया से बाहर आ,
सुख से फिर जीता प्राणी ।
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