’वह’ कौन है, ’मैं’ कौन?
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कौन बसता है इस बस्ती में,
कौन छोड़ देता इसको,
राज़ अगर तुम जानो तो,
सब-कुछ मिल जाए जीवन में ।
कौन बसता है यहाँ पर,
इस ’जड’ में इस ’चेतन’ में,
उसे जान लो यदि पहले,
संदेह न होगा फिर मन में ।
जो जड-चेतन में बसता है,
जड बन जड रह जाता है,
होता है जड में अवतरित,
फिर से चेतन कहलाता है ।
वह चेतन लेकिन फिर से,
जड से ऊपर उठ जाता है,
और वही चेतन फिर से,
जग में उज्जड कहलाता है ।
जड का जड ही रह जाना,
जड का चेतन कहलाना,
उस उज्जड का स्वांग है,
चेतन का यह चेतन होना,
उज्जड का ही अर्द्धांग है,
चेतना अर्धांगिनी उसकी,
उसका ही स्वामी चेतन,
जड-चेतन होकर भी दोनों,
होते इक-दूजे से अभिन्न ।
ना कोई बसता है यहाँ,
ना ही उजडता है कोई,
जो बसता शक्ति में शिव में,
उसे जानता वह सोई।
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कौन बसता है इस बस्ती में,
कौन छोड़ देता इसको,
राज़ अगर तुम जानो तो,
सब-कुछ मिल जाए जीवन में ।
कौन बसता है यहाँ पर,
इस ’जड’ में इस ’चेतन’ में,
उसे जान लो यदि पहले,
संदेह न होगा फिर मन में ।
जो जड-चेतन में बसता है,
जड बन जड रह जाता है,
होता है जड में अवतरित,
फिर से चेतन कहलाता है ।
वह चेतन लेकिन फिर से,
जड से ऊपर उठ जाता है,
और वही चेतन फिर से,
जग में उज्जड कहलाता है ।
जड का जड ही रह जाना,
जड का चेतन कहलाना,
उस उज्जड का स्वांग है,
चेतन का यह चेतन होना,
उज्जड का ही अर्द्धांग है,
चेतना अर्धांगिनी उसकी,
उसका ही स्वामी चेतन,
जड-चेतन होकर भी दोनों,
होते इक-दूजे से अभिन्न ।
ना कोई बसता है यहाँ,
ना ही उजडता है कोई,
जो बसता शक्ति में शिव में,
उसे जानता वह सोई।
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टिप्पणी : उत्-जड > जो जडता से उठ गया अर्थात् अपने नित्य शुद्ध चैतन्य होने के सत्य को जान लिया ।
शक्ति > जड है किंतु चेतन के आशय से ही उसका अस्तित्व और पहचान है, जिसे भूलवश प्रकृति की तरह ’अपने’ से भिन्न समझ लिया जाता है । जो चेतन उसे इस प्रकार भिन्न की तरह जानता है वह ’जीव’ है । जब इसी जीव को यह बोध हो जाता है कि शक्तिरूपा प्रकृति उससे स्वरूपतः अभिन्न है तो उसे अपने ही भीतर, या स्वयं को ही उसमें व्याप्त अनुभव कर धन्य हो जाता है ।
2. हरिवंशराय ’बच्चन’ : नीड़ का निर्माण फिर
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शक्ति > जड है किंतु चेतन के आशय से ही उसका अस्तित्व और पहचान है, जिसे भूलवश प्रकृति की तरह ’अपने’ से भिन्न समझ लिया जाता है । जो चेतन उसे इस प्रकार भिन्न की तरह जानता है वह ’जीव’ है । जब इसी जीव को यह बोध हो जाता है कि शक्तिरूपा प्रकृति उससे स्वरूपतः अभिन्न है तो उसे अपने ही भीतर, या स्वयं को ही उसमें व्याप्त अनुभव कर धन्य हो जाता है ।
2. हरिवंशराय ’बच्चन’ : नीड़ का निर्माण फिर
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