भाषा-लक्षण
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स्त्री और पुरुष, पहला स्वभाव है, तो दूसरा चरित्र; पहला पुरुष है, तो दूसरा प्रकृति; व्यक्ति केवल लक्षण है । लक्षण केवल चिह्न अर्थात् लिंग है, इसलिए स्त्रीलिंग और पुंल्लिंग लक्षण हैं । शारीरिक दृष्टि अर्थात् बाह्य-प्रकृति से कोई व्यक्ति स्त्री अथवा पुरुष होता है, मन अथवा चित्त की दृष्टि से स्वभाव और चरित्र में से एक प्रमुख और दूसरा गौण हो सकता है ।
यह सब ईश्वर अर्थात् ईशिता है, जिसका तात्पर्य हुआ अस्तित्व की गतिविधि को संचालित करनेवाली सत्ता ।
पुनः ईश्वर और ईशिता भी प्रथमतः अस्तित्व का स्वभाव है तो दूसरा उसका ही चरित्र । दोनों एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं ।
ईश्वर हो या मनुष्य उसके बाह्य लक्षण से वह नर हो या नारी, उनके अपने अपने कार्य से दोनों में भिन्नता होना स्वाभाविक है ।
उस ईश्वर को भगवान अथवा भगवती भी कहा जाता है ।
उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वताफलम् ।
अर्थवादोपपत्ती च लिंगं तात्पर्यनिर्णये ॥
ये हुए षड्लिंग ।
ऐश्वर्यश्च समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग-इतीरिणा ।
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इस प्रकार ईश्वर / ईशिता की तरह स्त्री हो या पुरुष, उसका और स्वभाव नित्य निर्दोष और निष्कलंक है । दोष या गुण स्वभाव में होता है और शुभ्रता या कलंक चरित्र में ।
इसलिए स्त्री प्रकृति से ही निष्पाप है जबकि पुरुष गुण अथवा दोष से युक्त ।
चूँकि प्रकृति पुरुष पर ही आश्रित है इसलिए उसके शुभ्र या कलंकित होना पुरुष के ही संश्रय का परिणाम भर है ।
स्त्रीवादी या पुरुषवादी चिन्तन या धारणा ’पितृसत्तात्मक’ या ’मातृसत्तात्मक’ परंपरा अपने-आपमें किसी सभ्यता का आधार होता है और कोई भी व्यक्ति समाज या सभ्यता के इस प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है ?
जब तक समाज / परंपरा / सभ्यता को ’धर्म’ कहा जाता है तब तक मनुष्य के जीवन में सामरस्य, सामञ्जस्य और सौहार्द्र होने की आशा कैसे की जा सकती है ?
संक्षेप में, जब तक समाज / परंपरा / सभ्यता को ’धर्म’ के समकक्ष मान लेने की तुष्टिकरण की नीति की भयावहता से आँखें मूँदकर समाज / परंपरा / सभ्यता में केवल बुद्धिजीविता के स्तर पर चर्चाएँ की जाती हैं तब तक हम किसी संतोषजनक स्थायी समाधान की प्राप्ति की आशा कैसे कर सकते हैं ?
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इसी आधार पर भाषा भी एक तो स्वभाव है दूसरा चरित्र ।
’सर्वत्र विभाषा गोः’ से स्पष्ट है कि मनुष्य की भाषा का उद्गम किसी एक भाषा से न होकर भिन्न-भिन्न स्थानों पर ’स्वभाव’ और ’चरित्र’ के पारस्परिक संयोजन से हुआ । इसलिए भाषा मुख्यतः प्राकृत है । एक अथवा अनेक से विलक्षण । इसे ही परिमार्जित रूप में प्राप्त कर वेद-भाषा (संस्कृत) का उद्भव हुआ । चूँकि इसमें पूर्व-पर (पहले और पश्चात्) का संबंध नहीं है इसलिए भी दोनों मूलतः स्वतंत्र हैं । इस सन्दर्भ में देवी-अथर्वशीर्ष के प्रमाण पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है ।
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स्त्री और पुरुष, पहला स्वभाव है, तो दूसरा चरित्र; पहला पुरुष है, तो दूसरा प्रकृति; व्यक्ति केवल लक्षण है । लक्षण केवल चिह्न अर्थात् लिंग है, इसलिए स्त्रीलिंग और पुंल्लिंग लक्षण हैं । शारीरिक दृष्टि अर्थात् बाह्य-प्रकृति से कोई व्यक्ति स्त्री अथवा पुरुष होता है, मन अथवा चित्त की दृष्टि से स्वभाव और चरित्र में से एक प्रमुख और दूसरा गौण हो सकता है ।
यह सब ईश्वर अर्थात् ईशिता है, जिसका तात्पर्य हुआ अस्तित्व की गतिविधि को संचालित करनेवाली सत्ता ।
पुनः ईश्वर और ईशिता भी प्रथमतः अस्तित्व का स्वभाव है तो दूसरा उसका ही चरित्र । दोनों एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं ।
ईश्वर हो या मनुष्य उसके बाह्य लक्षण से वह नर हो या नारी, उनके अपने अपने कार्य से दोनों में भिन्नता होना स्वाभाविक है ।
उस ईश्वर को भगवान अथवा भगवती भी कहा जाता है ।
उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वताफलम् ।
अर्थवादोपपत्ती च लिंगं तात्पर्यनिर्णये ॥
ये हुए षड्लिंग ।
ऐश्वर्यश्च समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग-इतीरिणा ।
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इस प्रकार ईश्वर / ईशिता की तरह स्त्री हो या पुरुष, उसका और स्वभाव नित्य निर्दोष और निष्कलंक है । दोष या गुण स्वभाव में होता है और शुभ्रता या कलंक चरित्र में ।
इसलिए स्त्री प्रकृति से ही निष्पाप है जबकि पुरुष गुण अथवा दोष से युक्त ।
चूँकि प्रकृति पुरुष पर ही आश्रित है इसलिए उसके शुभ्र या कलंकित होना पुरुष के ही संश्रय का परिणाम भर है ।
स्त्रीवादी या पुरुषवादी चिन्तन या धारणा ’पितृसत्तात्मक’ या ’मातृसत्तात्मक’ परंपरा अपने-आपमें किसी सभ्यता का आधार होता है और कोई भी व्यक्ति समाज या सभ्यता के इस प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है ?
जब तक समाज / परंपरा / सभ्यता को ’धर्म’ कहा जाता है तब तक मनुष्य के जीवन में सामरस्य, सामञ्जस्य और सौहार्द्र होने की आशा कैसे की जा सकती है ?
संक्षेप में, जब तक समाज / परंपरा / सभ्यता को ’धर्म’ के समकक्ष मान लेने की तुष्टिकरण की नीति की भयावहता से आँखें मूँदकर समाज / परंपरा / सभ्यता में केवल बुद्धिजीविता के स्तर पर चर्चाएँ की जाती हैं तब तक हम किसी संतोषजनक स्थायी समाधान की प्राप्ति की आशा कैसे कर सकते हैं ?
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इसी आधार पर भाषा भी एक तो स्वभाव है दूसरा चरित्र ।
’सर्वत्र विभाषा गोः’ से स्पष्ट है कि मनुष्य की भाषा का उद्गम किसी एक भाषा से न होकर भिन्न-भिन्न स्थानों पर ’स्वभाव’ और ’चरित्र’ के पारस्परिक संयोजन से हुआ । इसलिए भाषा मुख्यतः प्राकृत है । एक अथवा अनेक से विलक्षण । इसे ही परिमार्जित रूप में प्राप्त कर वेद-भाषा (संस्कृत) का उद्भव हुआ । चूँकि इसमें पूर्व-पर (पहले और पश्चात्) का संबंध नहीं है इसलिए भी दोनों मूलतः स्वतंत्र हैं । इस सन्दर्भ में देवी-अथर्वशीर्ष के प्रमाण पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है ।
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