Monday, 25 December 2017

अग्नि यम शनि और काल

नई वेताल कथा
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राजा विक्रम ने हठ नहीं छोड़ा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा ।
जब उसने शव को कंधे पर रखा तो शव में स्थित वेताल की निद्रा खुल गई !
राजन्! तुम इतना श्रम करते हो, किसलिए? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि परिणाम का विचार किए बिना किए जानेवाले शुभ कर्म भी न केवल अपने लिए बल्कि कभी-कभी संसार के लिए भी अंतहीन शोक और विषाद की श्रंखला बन जाते हैं । तुम्हारे श्रम के परिहार के लिए भविष्य-पुराण की यह कथा सुनो । आज से लगभग दो सहस्र वर्षों बाद की कथा है यह । तुम्हें पता है कि हम लोग (प्रेतात्माएँ) तिर्यक्-दृष्टि संपन्न होते हैं अर्थात् कभी तो हम अतीत को भविष्य की तरह समझने की भूल कर बैठते हैं तो कभी भविष्य को अतीत की तरह समझने की भूल । काल का प्रवाह विलक्षण है, यद्यपि तुम मनुष्यों के लिए यह सीधा अतीत से भविष्य की दिशा में गतिशील प्रतीत होता है, किन्तु काल की अपनी कोई स्वतंत्र गति न होते हुए भी यह प्राणिमात्र के प्रारब्ध के अनुसार यह उसे अनेक विचित्र गतियाँ करता हुआ प्रतीत होता है । वैसे तुम्हारे समय में तो इसका आरंभ हुए कुछ सौ वर्ष बीते हैं । लो कथा सुनो :
"अवज्ञप्ति देश में किसी नृप को इच्छा हुई कि वह मृत्यु के बाद भी इसी शरीर में चिरकाल तक रहता हुआ संसार के सुखों का भोग करता रहे । उसने पुरोहित को इसके लिए आवश्यक कर्मकाण्ड करने का निर्देश दिया । यद्यपि पुरोहित जानता था कि इस प्रकार से राजा की मृत्यु होने के बाद भी वह प्रेत-रूप में दीर्घ-काल तक ऐसा कर सकता है लेकिन यह काल भी उसकी तिर्यक्-दृष्टि से युक्त होने के कारण उसे कभी बहुत अल्प तो कभी बहुत दीर्घ अनुभव हो सकता है और अंततः कभी न कभी भौतिक समय में उसके कक्ष के ध्वस्त होने से समाप्त भी होना ही है, फिर भी उसने तन्त्र के अभिचार-प्रयोग से राजा की इच्छा  पूर्ण करने का निश्चय किया । क्योंकि ऐसा करने में ही उसे उसके कुल का भविष्य भी सुरक्षित और सुखपूर्ण प्रतीत हुआ ।
राजा की मृत्यु के बाद योजना के अनुरूप उसके शव-गृह के कक्ष पर विशाल पर्यामित (पिरामिड) की संकल्पना की गई जो चार स्तरों (फलकों) से चार महाभूतों से होनेवाले किसी भी संभावित संकट से उसकी सुरक्षा कर सके । उसके अपने कक्ष में वह अपने राज्य और प्रजा और उपभोगों की अक्षरशः वैसी ही यथावत् कल्पना कर सकता था जैसा कि उसने जीवन में अपने शासन में किया था । वस्तुतः ययाति ने ही उस राजा के रूप में नया जन्म प्राप्त किया था, लेकिन यह उसे विस्मृत हो चुका था ।
इसलिए भी उसके राज्य का नाम अवज्ञप्ति (ईजिप्ट) था । ईजिप्ट का एक अर्थ ययाति भी है ।
सहस्रों वर्षों तक वहाँ उनके उन पर्यामित (पिरामिड) में रहते हुए किसी समय पृथ्वी पर घूमते अपराध-कर्म करनेवाले कुछ दस्युओं के मन में विचार उठा कि इस विशाल संरचना (ढाँचा) के भीतर अवश्य ही रत्नखचित स्वर्ण-आभूषणों का कोई ख़ज़ाना छिपाकर रखा गया होगा । इस विचार से प्रेरित होकर उन्होंने उसके फलकों को तोड़ना प्रारंभ किया । क्रमशः अनेक वर्षों बाद अनेक स्थानों से उसकी भित्तियाँ टूट-फूट जाने से प्रकृति और भौतिक चार महाभूतों ने शीघ्र ही उस आवास को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया और अवज्ञप्ति (ईजिप्ट) की वह मिश्रित सभ्यता धीरे-धीरे काल का ग्रास हो गई!  किंतु उस नृप की तथा उसके अनेक वंशजों की आत्माएँ जिनके शवों को वहाँ भूमि में दबाया गया था, वे वहाँ से त्रस्त होकर इधर-उधर भटकने लगीं । उनके घोष से आकृष्ट हुए लोगों ने उन्हें घोष की संज्ञा दी जो धीरे-धीरे गोश, गॉड, गॉट्ट में बदलकर उनका पूज्य और आराध्य बन गया ।
जैसे दिव् > दीव्यते से देवता का उद्भव होता है, वैसे ही घुष् > घुष्यते, घोषयति, उद्घोष से इन प्रेतात्माओं का जो नित्य अतृप्त रहती हैं । देवताओं को उनका अंश यज्ञ के माध्यम से हव्य से प्रदान किया जाता है और वे देवता पृथ्वी पर मनुष्यों और संसार के लिए शुभप्रद होते हैं । पितरों का तर्पण भी इसी प्रकार जल में तिल आदि के पिण्ड के दान से होता है । इन प्रेतात्माओं का किसी विधि से तर्पण न होने से वे येन-केन-प्रकारेण मनुष्यों से बल-पूर्वक भोग ग्रहण करने लगीं ।
मनुष्यों ने भी तब तब मृतकों के दाह-संस्कार और तर्पण आदि का अनुष्ठान करना त्याग दिया और उन्हें भूमिगत कक्षों में सुरक्षित रखने लगे । इस आशा में कि किसी ’न्याय के दिन’ उन्हें अपने कक्षों ’शैयाओं’ से उठाया और उनके आराध्य के सामने न्याय के लिए प्रस्तुत किया जाएगा ।
राजा! तुम्हें मेरी कथा कपोल-कल्पना लग रही होगी किंतु मेरी तिर्यक्-दृष्टि के अनुसार यही सत्य है । तुम्हें स्मरण होगा, शनि ने तुम्हें कैसी पीड़ा दी थी? और शनि की तीसरी दृष्टि भी तिर्यक्-दृष्टि होती है यह भी तुम्हें विदित ही होगा ! शनि, शुक्र और राहु की त्रयी से हम भी संचालित और शासित हैं यह भी तुम्हें पता ही होगा । शुक्र भोग के कारक हैं, शनि विषाद और निराशा के, राहु , केतु के रूप में द्यूत अर्थत् कैतव के, पुनः शुक्र दैत्य-गुरु हैं । यह संयोजन आकस्मिक नहीं है । अवज्ञप्ति के काल से मृतकों को भूमि में नश् > प्रणश् > फ़ना करने अर्थात् दफ़नाने की परंपरा शुरु हुई जिससे मृतकों की मरणोत्तर सद्गति अवरुद्ध हो गई । इससे पहले एक प्रकार की अंत्येष्टि में मृतक की देह को अग्नि में समर्पित किया जाता था, अग्नि से प्रार्थना की जाती थी कि वह मृतक को पितृस् लोक में ले जाए । मृत्यु के बाद वैसे तो मनुष्य यम को प्राप्त होता है किंतु विधिपूर्वक वैसा न होने पर वह अधोलोक में चला जाता है । इसी परंपरा का प्रचलन बाद में भी होता रहा है । शैव सिद्धान्त की दृष्टि से यह युक्तिसंगत है किंतु वैदिक-विधि से भिन्न भी है । शिव पतितपावन हैं और उनके भक्तों के लिए तो यह सर्वथा उपयुक्त है, किंतु उनका भक्त न होने पर मृतक ऐसी गति को प्राप्त होता है जिसका कोई उपचार नहीं है । परंतु वह भी औपचारिक है । तुम्हें यह काल भी बहुत लंबा लग रहा है न!
अवज्ञप्ति से प्रारंभ यह क्रम ऐसा ही दुर्बोध और रहस्यमय है ।
राजन् इस कथा का इसलिए क्या अंत हुआ यह तो मैं तुमसे नहीं कहूँगा क्योंकि अभी तुम्हारे लिए उसका समय नहीं है, किंतु मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि तुम्हारे काल के पैमाने (प्रमाण) पर, इस कथा का क्या संभावित अंत होगा? मुझे पता है, तुम्हें भी शायद ज्ञात होगा कि अवज्ञप्ति (ईजिप्ट) की सभ्यता नष्ट हो चुकी है शिवसंकल्प से उसका अस्तित्व था / है / होता, बनता / मिटता रहता है। यदि जानते हुए भी तुमने उत्तर न दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।"
वेताल के द्वारा प्रश्न किए जाने पर विक्रम ने कहा :
"वेताल यह कथा न तो प्रारंभ हुई न इसका कोई अंत है, यह केवल तुम्हारी वातानुकूलित (वायुतत्वप्रधान) प्रकृति है जो इस सारे प्रपञ्च को तुम्हारे लिए रचती है । और मैं स्वयं भी तुम्हारे लिए ही सही उस प्रपञ्च का एक अंश-मात्र हूँ । काल ही वह प्रपञ्च है और उसका कोई सुनिश्चित अधिष्ठान न होने से अपने अस्तित्व में विद्यमान असंख्य प्राणियों को वह अनंत रूपों में दिखलाई देता है । वे सारे रूप परस्पर सापेक्ष सत्य हैं ...।"
राजा का मौन भंग होते ही वेताल ने शक्ति प्राप्त कर स्वयं को उसकी पकड़ से मुक्त किया और उड़ चला !
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(कल्पित) 
     

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