One has lived a long life of experience, knowledge, traveled all over the place - God knows why, but one has - and you talk, judge, evaluate so much of all that. And we never inquire what continuity is and what ending is. Is it ending voluntarily something that you hold dear? Are we asking each other that question? Suppose one is greatly attached to a person, or to a conclusion, say historical, dialectical, Marxist - Leninist blah - blah, one is attached to all that like a limpet. Can one voluntarily, easily let go? That is what death means. You don't argue with death. You can't say, "Please give me another couple of days so I can tidy everything up" - it is there at your door.
So can one understand and end that continuity? To us attachment means a great deal. It is the most satisfying common experience - to be attached to the earth, to certain beliefs, dogmas, rituals, habits and so on. One Is greatly attached to a house, to furniture, to a particular habit. Can one become aware of that, and in that awareness end it completely? Not the day after tomorrow, but now as we are sitting here, becoming aware of all that : not the explanations, the descriptions but the fact, the reality of this constant demand for continuity of sex, continuity of possessions, continuity of family, continuity of one's deep experiences, all of that coming to an instant end. That is death.
So not wait for death when you are sixty, eighty, ninety, but live with death now, end life each day. Please, there is something tremendous involved in what the speaker is saying, it is not just a lot of words put together. To live a life that is constantly ending every day, every minute, so there is no continuity of the past or of the future. There is only this ending that is death. And to live that way. Go on, don't think about it, see the truth of it. Thought can create, put together a lot of things, but thought cannot deceive death. So if one realizes the immense significance of living with that ending called death in our daily life, then there is real transformation, real mutation even in the brain cells, because the brain cells carry all our memories, the whole of the past. So can we live that way? Not pretend, not say "I must make an effort" - you don't make an effort to die! Unless you jump off the eighteenth floor and then say, " Well, so far, so good!"
J Krishnamurti
From 'Facing a World in Crisis'
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मनुष्य अनुभवों से भरा दीर्घ जीवन जी चुका होता है, -पता नहीं क्यों दुनिया भर की यात्राएँ उसने कर ली होती हैं, - और आप उस सबके बारे में बातें करते हैं, उस सब की समीक्षा और मूल्याँकन करते हैं । और हम कभी इस बारे में नहीं खोजते कि निरंतरता (कन्टीन्यूटी) क्या है और अन्त (एंडिंग) क्या है । जो आपको प्रिय है उसका अन्त (समाप्ति), क्या आपके लिए स्वैच्छिक जैसा कुछ होता है? क्या यह सवाल हम एक-दूसरे से पूछ रहे हैं? मान लीजिए, आपका किसी व्यक्ति से गहरा लगाव है, या किसी ऐतिहासिक, विवादात्मक, मार्क्सिस्ट या लेनिनिस्ट आदि जैसे किसी निष्कर्ष से -जिससे आदमी जोंक की तरह चिपटा होता है, आपका गहरा जुड़ाव है । क्या उसे आप आसानी से स्वेच्छया छोड़ सकते हैं ? मृत्यु का मतलब यह है । आप मृत्यु से बहस नहीं करते । आप नहीं कह सकते : "कृपया मुझे दो दिनों की मोहलत दो ताकि मैं सब-कुछ ठीक-ठाक कर लूँ ।" -यह तो आपके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई होती है ।
इसलिए (सवाल यह है कि), क्या निरंतरता (कन्टीन्यूटी) को समझकर उसका अन्त किया जा सकता है? लगाव हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं । यह सर्वसामान्य, सर्वाधिक संतुष्टिदायी अनुभव होता है - किसी स्थान से लगाव होना, किन्हीं आस्थाओं, रूढ़ियों, परिपाटियों, आदतों इत्यादि से लगाव होना । मकान से, फ़र्नीचर से, किसी ख़ास आदत से । क्या उस बारे में ध्यान जा सकता है और उस जागरूकता से उसकी पूरी तरह समाप्ति हो सकती है ? कल या परसों नहीं बल्कि अभी, जब हम यहाँ बैठे हैं, उस सब के प्रति जागरूक होना : व्याख्याएँ , वर्णन नहीं, बल्कि उस तथ्य के प्रति, सेक्स के लिए उठती सतत माँग, अपने स्वामित्व की चीज़ों की निरंतरता का आग्रह, परिवार की निरंतरता, अपनी गूढ-गहन अनुभूतियों की निरंतरता, उस सबका तत्काल अन्त हो जाना । मृत्यु यह है ।
इसलिए जब आप साठ, अस्सी, नब्बे वर्ष के हो जाएँ तब नहीं, बल्कि अभी ही मृत्यु के साथ जियें, हर दिन जीवन का अन्त करें । देखिए, वक्ता जो कह रहा है उसमें कुछ अत्यन्त गूढ महत्वपूर्ण आशय है, यह केवल कोरा शब्द-बाहुल्य नहीं है ।एक ऐसा जीवन जीना जो नित्य-प्रति, हर मिनट, समाप्त हो रहा है, ताकि न तो अतीत की और न ही भविष्य की निरंतरता रहे । बस यह समाप्ति ही मृत्यु है । और उस तरह से जीने के लिए, आगे बढ़िए, इस बारे में सोच-विचार मत कीजिए, इसमें निहित सत्य को देखिए । सोच-विचार, रच सकता है, बहुत सी चीज़ों को इकट्ठा कर सकता है, लेकिन मौत को धोखा नहीं दे सकता । अतः जिसे हमारी दिन-प्रति-दिन की भाषा में मृत्यु कहा जाता है, अगर कोई उसके आसन्न महत्व को अनुभव कर उस समाप्ति के साथ जी सके, तो एक वास्तविक रूपांतरण होता है, यहाँ तक कि मस्तिष्क की कोशिकाओं में भी एक वास्तविक उत्परिवर्तन होता है, क्योंकि मस्तिष्कीय-कोशिकाएँ हमारी समस्त स्मृतियों को, सारे अतीत को ढोती हैं । तो, क्या हम उस ढंग से जी सकते हैं? बहाना न बनाएँ, यह न कहें "मुझे इसके लिए यत्न करना होगा ।" - मरने के लिए आपको यत्न नहीं करना पड़ता! जबकि यह हो सकता है कि आप अठारहवीं मंज़िल से कूदने के लिए जाएँ और कहें, "अच्छा अंतिम विदा!"
जे.कृष्णमूर्ति
’फ़ेसिंग ए वर्ल्ड इन क्राइसिस’
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So can one understand and end that continuity? To us attachment means a great deal. It is the most satisfying common experience - to be attached to the earth, to certain beliefs, dogmas, rituals, habits and so on. One Is greatly attached to a house, to furniture, to a particular habit. Can one become aware of that, and in that awareness end it completely? Not the day after tomorrow, but now as we are sitting here, becoming aware of all that : not the explanations, the descriptions but the fact, the reality of this constant demand for continuity of sex, continuity of possessions, continuity of family, continuity of one's deep experiences, all of that coming to an instant end. That is death.
So not wait for death when you are sixty, eighty, ninety, but live with death now, end life each day. Please, there is something tremendous involved in what the speaker is saying, it is not just a lot of words put together. To live a life that is constantly ending every day, every minute, so there is no continuity of the past or of the future. There is only this ending that is death. And to live that way. Go on, don't think about it, see the truth of it. Thought can create, put together a lot of things, but thought cannot deceive death. So if one realizes the immense significance of living with that ending called death in our daily life, then there is real transformation, real mutation even in the brain cells, because the brain cells carry all our memories, the whole of the past. So can we live that way? Not pretend, not say "I must make an effort" - you don't make an effort to die! Unless you jump off the eighteenth floor and then say, " Well, so far, so good!"
J Krishnamurti
From 'Facing a World in Crisis'
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मनुष्य अनुभवों से भरा दीर्घ जीवन जी चुका होता है, -पता नहीं क्यों दुनिया भर की यात्राएँ उसने कर ली होती हैं, - और आप उस सबके बारे में बातें करते हैं, उस सब की समीक्षा और मूल्याँकन करते हैं । और हम कभी इस बारे में नहीं खोजते कि निरंतरता (कन्टीन्यूटी) क्या है और अन्त (एंडिंग) क्या है । जो आपको प्रिय है उसका अन्त (समाप्ति), क्या आपके लिए स्वैच्छिक जैसा कुछ होता है? क्या यह सवाल हम एक-दूसरे से पूछ रहे हैं? मान लीजिए, आपका किसी व्यक्ति से गहरा लगाव है, या किसी ऐतिहासिक, विवादात्मक, मार्क्सिस्ट या लेनिनिस्ट आदि जैसे किसी निष्कर्ष से -जिससे आदमी जोंक की तरह चिपटा होता है, आपका गहरा जुड़ाव है । क्या उसे आप आसानी से स्वेच्छया छोड़ सकते हैं ? मृत्यु का मतलब यह है । आप मृत्यु से बहस नहीं करते । आप नहीं कह सकते : "कृपया मुझे दो दिनों की मोहलत दो ताकि मैं सब-कुछ ठीक-ठाक कर लूँ ।" -यह तो आपके दरवाज़े पर आ खड़ी हुई होती है ।
इसलिए (सवाल यह है कि), क्या निरंतरता (कन्टीन्यूटी) को समझकर उसका अन्त किया जा सकता है? लगाव हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं । यह सर्वसामान्य, सर्वाधिक संतुष्टिदायी अनुभव होता है - किसी स्थान से लगाव होना, किन्हीं आस्थाओं, रूढ़ियों, परिपाटियों, आदतों इत्यादि से लगाव होना । मकान से, फ़र्नीचर से, किसी ख़ास आदत से । क्या उस बारे में ध्यान जा सकता है और उस जागरूकता से उसकी पूरी तरह समाप्ति हो सकती है ? कल या परसों नहीं बल्कि अभी, जब हम यहाँ बैठे हैं, उस सब के प्रति जागरूक होना : व्याख्याएँ , वर्णन नहीं, बल्कि उस तथ्य के प्रति, सेक्स के लिए उठती सतत माँग, अपने स्वामित्व की चीज़ों की निरंतरता का आग्रह, परिवार की निरंतरता, अपनी गूढ-गहन अनुभूतियों की निरंतरता, उस सबका तत्काल अन्त हो जाना । मृत्यु यह है ।
इसलिए जब आप साठ, अस्सी, नब्बे वर्ष के हो जाएँ तब नहीं, बल्कि अभी ही मृत्यु के साथ जियें, हर दिन जीवन का अन्त करें । देखिए, वक्ता जो कह रहा है उसमें कुछ अत्यन्त गूढ महत्वपूर्ण आशय है, यह केवल कोरा शब्द-बाहुल्य नहीं है ।एक ऐसा जीवन जीना जो नित्य-प्रति, हर मिनट, समाप्त हो रहा है, ताकि न तो अतीत की और न ही भविष्य की निरंतरता रहे । बस यह समाप्ति ही मृत्यु है । और उस तरह से जीने के लिए, आगे बढ़िए, इस बारे में सोच-विचार मत कीजिए, इसमें निहित सत्य को देखिए । सोच-विचार, रच सकता है, बहुत सी चीज़ों को इकट्ठा कर सकता है, लेकिन मौत को धोखा नहीं दे सकता । अतः जिसे हमारी दिन-प्रति-दिन की भाषा में मृत्यु कहा जाता है, अगर कोई उसके आसन्न महत्व को अनुभव कर उस समाप्ति के साथ जी सके, तो एक वास्तविक रूपांतरण होता है, यहाँ तक कि मस्तिष्क की कोशिकाओं में भी एक वास्तविक उत्परिवर्तन होता है, क्योंकि मस्तिष्कीय-कोशिकाएँ हमारी समस्त स्मृतियों को, सारे अतीत को ढोती हैं । तो, क्या हम उस ढंग से जी सकते हैं? बहाना न बनाएँ, यह न कहें "मुझे इसके लिए यत्न करना होगा ।" - मरने के लिए आपको यत्न नहीं करना पड़ता! जबकि यह हो सकता है कि आप अठारहवीं मंज़िल से कूदने के लिए जाएँ और कहें, "अच्छा अंतिम विदा!"
जे.कृष्णमूर्ति
’फ़ेसिंग ए वर्ल्ड इन क्राइसिस’
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