’सोचना’ क्या है ?
दूसरे शब्दों से कहें तो यहाँ यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि ’विचार’ क्या है ?
विचार के अनेक पक्ष हैं । विचार मूलतः तो वाक्यों का कोई क्रम होता है । वाक्य भी शब्दों का कोई क्रम होता है । शब्द स्वयं ध्वनियों का विशिष्ट संयोग और क्रम होता है । इस प्रकार का ’विचार’ श्रव्य या उच्चारण किया जा सकने योग्य वाक्य या वाक्यों का क्रम होता है । इस प्रकार से सुनना तथा बोलना दोनों विचार का मौलिक स्वरूप है । किंतु विशिष्ट शब्दों और उनके क्रम से बने वाक्यों का विशिष्ट सरल अर्थ वह कल्पना है जिसे विचार के इस मूल कार्य से संबद्ध कर ’अर्थ’ की संज्ञा दी जाती है । इस प्रकार विचार सार्थक या निरर्थक या समझ से परे होता है ।
विचार इस प्रकार मूलतः एक ’कार्य’ है जिसका आधारभूत तत्व है ध्वनि और ध्वनियों के अनेक प्रकार तथा उनके संयोजन से बने शब्द, जिन्हें किसी कल्पना से संयुक्त कर उन पर कोई विशेष कल्पना, और उसके माध्यम से ’अर्थ’ आरोपित किया जाता है । मनुष्यों के किसी समूह में इस प्रकार ज्ञात-अज्ञात इतिहास से विचारों के इस प्रयोग को भाषा कहा जाता है । भाषा संवाद है और संवाद भाषा । किंतु भाषा के विकास के साथ साथ एक ही शब्द से अनेक कल्पनाओं को जोड़ा जाना संभव होने के कारण भाषा एक जटिल रूप ले लेती है, वहीं अर्थभ्रम की संभावना होना स्वाभाविक ही है । इसलिए जितनी भाषाएँ विकसित हुईं उनमें परस्पर इतनी भिन्नता है कि किसी एक ही शब्द का अलग-अलग भाषाओं में अलग अलग ’अर्थ’ हो सकता है और होता भी है । यह भी संभव है कि एक शब्द किसी भाषा में सार्थक हो तो वही किसी दूसरी भाषा में अर्थहीन होता हो ।
’सोचना’ वह कार्य है जिसे कोई मनुष्य इस प्रकार प्राप्त, सीखी हुई ’अपनी’ भाषा में ही प्रायः करता है । यह ’सीखना’ भी अभ्यास का ही परिणाम होता है और प्रारंभ में जब कोई शिशु अपनी भाषा के उच्चारणीय अर्थात् बोले जानेवाले तथा सुने जानेवाले रूप को ’सीखता’ है तो उसे उस भाषा के किसी शब्द के ’अर्थ’ की कल्पना नहीं होती किंतु धीरे धीरे किसी कल्पना से वह अपनी उस भाषा के विभिन्न शब्दों को अपनी स्मृति में किसी कल्पना से संबद्ध कर लेता है । यह कल्पना भी मूलतः दृश्य अथवा अनुभव (भावना) के रूप में ’मूर्त’ रूप में होती है किंतु अभ्यास हो जाने पर ’मन’ की ’आदत’ बन जाती है । ’आदत’ होने पर यह अमूर्त भावना के अर्थ में ग्रहण की जाती है ।
जैसे चलना या दौड़ना एक शारीरिक क्रिया है वैसे ही ’सोचना’ मूलतः इस प्रकार की ’आदत’ बन जानेवाली ’मानसिक’ गतिविधि है जो विकसित होकर चलने या दौड़ने जैसी एक लगभग स्वाभाविक क्रिया बन जाती है । किंतु वह ’सोचने’ का एक ही आयाम है । ’सोचने’ के दूसरे भी आयाम हो सकते हैं जहाँ शब्द स्वयं वर्णों या स्वरों या स्वर-वर्णों का कोई विशिष्ट संयोजन होता हो । जैसे संगीत के स्वर जो मूलतः ध्वनि के विशिष्ट कंपन भर होते हैं किंतु उन्हें अलग-अलग क्रम से रखकर कोई धुन बनाई जाती है । इसी प्रकार उनके माध्यम से ’समय’ का परिमाण सुनिश्चित कर ’ताल’ का सृजन किया जाता है । यह भी विचार का एक ’आयाम’ हुआ । ’समय’ जो मूलतः कल्पना है, न कि कोई इन्द्रियग्राह्य भौतिक वस्तु, ’समय’ जो नितान्त अमूर्त तत्व है इस प्रकार ’कलन’ के माध्यम से ’काल’ के रूप में व्यवहार्य प्रतीत होनेवाली वस्तु बन जाता है ।
विज्ञान और गणित इसी प्रकार विभिन्न ’भौतिक-राशियों’ की कल्पना करते हैं और किन्हीं चिह्नों से उन्हें व्यक्त करने का प्रयास करते हैं । ’स्थान’ अवश्य एक इन्द्रियग्राह्य ’कल्पना’ है जिसे शुद्ध भौतिक प्रयोजनों से व्यवहार्य वस्तु की तरह समझा जा सकता है ।
शून्य और एक का विचार भी ऐसा ही एक साधन है जिसके द्वारा ’अंक’ की कल्पना और धारणा ’मन’ के लिए ग्राह्य हो गई, और ’मन’ की इस प्रकार की ग्राह्यता को ’बुद्धि’ कहा गया । शून्य और एक की इस धारणा से जो भाषा बनी उसे ’गणित’ कहा गया ।
इस प्रकार से हम स्थान और ’समय’ की माप अवश्य कर सकते हैं और यद्यपि वह व्यवहार्य भी है, किंतु उस माप की प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध है ।
आशय यह कि गणित और विज्ञान केवल सापेक्ष सत्य हैं परम सत्य नहीं । क्योंकि परम सत्य ’विचार’ नहीं हो सकता, गणित और विज्ञान ’विचार’ से सीमित हैं ।
इस विचार में सर्वाधिक रहस्यमय तत्व है ’मैं’ का विचार और वह भी अन्य सभी ’विचारों’ की भाँति ’मैं’ शब्द की ध्वनि (जो अलग अलग भाषाओं में अलग अलग है) और ’मैं’ से जुड़ी ’कल्पना’ का जोड़ भर है । इस विचार की अन्य विचारों से भिन्न विशेषता यह है कि यद्यपि दूसरे विचारों में किसी शब्द से उसका अर्थ लगभग सुनिश्चित की तरह ग्रहण किया जाता है, इस ’मैं’ के विचार की गतिविधि में इससे जुड़ी कल्पना निरंतर बदलती रहती है । सरल ढंग से कहें, तो ’मैं’ शब्द से जिस वस्तु अथवा भावना को इंगित अथवा अनुभव किया जाता है वह वस्तु अथवा भावना समय समय पर भिन्न-भिन्न होती है । इसलिए स्मृति में यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वास्तव में ’एक’ कोई ऐसी वस्तु है जिसे ’मैं’ शब्द के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । व्यावहारिक रूप से इस शब्द से समय-समय पर भिन्न-भिन्न वस्तुओं, भावनाओं तथा अनुभवों को इंगित अवश्य किया जा सकता है किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि वे अनेक हैं ।
उदाहरण के लिए जब ’मैं आ रहा हूँ’, ’मैं जा रहा हूँ’, ’मैं हँस रहा हूँ’, ’मैं दौड़ / चल रहा हूँ’ आदि वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो इंगित यह होता है कि मेरे शरीर के माध्यम से यह कार्य हो रहा है । यह भी स्पष्ट है कि स्वयं शरीर न तो ऐसा कहता है न कह सकता है ।
दूसरी ओर जब कहा जाता है कि मुझे भूख लगी है, तब इससे भी शरीर में बनी किसी स्थिति के बारे में कहा जाता है ।
ये तो शारीरिक स्थितियाँ हुईं जिनसे ’मैं’ नामक शब्द को संबद्ध कर दिया जाता है क्योंकि कल्पना में शरीर पर ’मैं’ का अर्थ आरोपित किया जाता है । व्यवहार के लिए यह उपयोगी भी है ही ।
किंतु जब कोई कहता है ’मैं खुश हूँ’, ’मुझे दुःख हो रहा है’ तब वह हृदय में उत्पन्न किसी भावना की अभिव्यक्ति को ’मैं’ से संबद्ध कर लेता है । यह भी व्यावहारिक रूप से आवश्यक भी है और इसका अपना उपयोग है इससे भी इनकार नहीं ।
इसी क्रम में अगली स्थिति वह है जब कोई कहता है ’मुझे चिन्ता हो रही है’ । यह समझना अपेक्षाकृत अधिक कठिन और दुरूह भी है ।
इससे भी शायद अधिक उलझा हुआ वक्तव्य ’मैं सोचता हूँ’ यह है क्योंकि ’सोचने’ की प्रक्रिया मस्तिष्क में होती है और इस प्रकार भूल से ’मस्तिष्क सोच रहा है’ कहने की बजाय ’मैं सोच रहा हूँ’ कह दिया जाता है । स्पष्ट है कि व्यावहारिक रूप से तो ’मैं सोच रहा हूँ’ यही कहना उचित होगा, और ’मस्तिष्क सोच रहा है’ कहने से और अधिक भ्रम होगा । वैसा कहना इसलिए अनावश्यक ही है ।
थोड़ा और आगे चलें तो यह प्रश्न उठता है कि क्या मस्तिष्क स्वतंत्र रूप से ’सोच’ सकता है? क्या मस्तिष्क स्मृति, आदत, और समय-विशेष पर सामने आई परिस्थिति, वस्तु, घटना, विचार, स्थान के अनुसार ही ’सोचने’ के लिए बाध्य नहीं होता?
इस प्रकार मस्तिष्क में भी ’मैं’ नामक कोई स्वतन्त्र कारक (factor) नहीं होता जो अकेला ही ’सोचने’ का कार्य करता हो ।
तो, ’सोचना’ क्या है?
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दूसरे शब्दों से कहें तो यहाँ यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि ’विचार’ क्या है ?
विचार के अनेक पक्ष हैं । विचार मूलतः तो वाक्यों का कोई क्रम होता है । वाक्य भी शब्दों का कोई क्रम होता है । शब्द स्वयं ध्वनियों का विशिष्ट संयोग और क्रम होता है । इस प्रकार का ’विचार’ श्रव्य या उच्चारण किया जा सकने योग्य वाक्य या वाक्यों का क्रम होता है । इस प्रकार से सुनना तथा बोलना दोनों विचार का मौलिक स्वरूप है । किंतु विशिष्ट शब्दों और उनके क्रम से बने वाक्यों का विशिष्ट सरल अर्थ वह कल्पना है जिसे विचार के इस मूल कार्य से संबद्ध कर ’अर्थ’ की संज्ञा दी जाती है । इस प्रकार विचार सार्थक या निरर्थक या समझ से परे होता है ।
विचार इस प्रकार मूलतः एक ’कार्य’ है जिसका आधारभूत तत्व है ध्वनि और ध्वनियों के अनेक प्रकार तथा उनके संयोजन से बने शब्द, जिन्हें किसी कल्पना से संयुक्त कर उन पर कोई विशेष कल्पना, और उसके माध्यम से ’अर्थ’ आरोपित किया जाता है । मनुष्यों के किसी समूह में इस प्रकार ज्ञात-अज्ञात इतिहास से विचारों के इस प्रयोग को भाषा कहा जाता है । भाषा संवाद है और संवाद भाषा । किंतु भाषा के विकास के साथ साथ एक ही शब्द से अनेक कल्पनाओं को जोड़ा जाना संभव होने के कारण भाषा एक जटिल रूप ले लेती है, वहीं अर्थभ्रम की संभावना होना स्वाभाविक ही है । इसलिए जितनी भाषाएँ विकसित हुईं उनमें परस्पर इतनी भिन्नता है कि किसी एक ही शब्द का अलग-अलग भाषाओं में अलग अलग ’अर्थ’ हो सकता है और होता भी है । यह भी संभव है कि एक शब्द किसी भाषा में सार्थक हो तो वही किसी दूसरी भाषा में अर्थहीन होता हो ।
’सोचना’ वह कार्य है जिसे कोई मनुष्य इस प्रकार प्राप्त, सीखी हुई ’अपनी’ भाषा में ही प्रायः करता है । यह ’सीखना’ भी अभ्यास का ही परिणाम होता है और प्रारंभ में जब कोई शिशु अपनी भाषा के उच्चारणीय अर्थात् बोले जानेवाले तथा सुने जानेवाले रूप को ’सीखता’ है तो उसे उस भाषा के किसी शब्द के ’अर्थ’ की कल्पना नहीं होती किंतु धीरे धीरे किसी कल्पना से वह अपनी उस भाषा के विभिन्न शब्दों को अपनी स्मृति में किसी कल्पना से संबद्ध कर लेता है । यह कल्पना भी मूलतः दृश्य अथवा अनुभव (भावना) के रूप में ’मूर्त’ रूप में होती है किंतु अभ्यास हो जाने पर ’मन’ की ’आदत’ बन जाती है । ’आदत’ होने पर यह अमूर्त भावना के अर्थ में ग्रहण की जाती है ।
जैसे चलना या दौड़ना एक शारीरिक क्रिया है वैसे ही ’सोचना’ मूलतः इस प्रकार की ’आदत’ बन जानेवाली ’मानसिक’ गतिविधि है जो विकसित होकर चलने या दौड़ने जैसी एक लगभग स्वाभाविक क्रिया बन जाती है । किंतु वह ’सोचने’ का एक ही आयाम है । ’सोचने’ के दूसरे भी आयाम हो सकते हैं जहाँ शब्द स्वयं वर्णों या स्वरों या स्वर-वर्णों का कोई विशिष्ट संयोजन होता हो । जैसे संगीत के स्वर जो मूलतः ध्वनि के विशिष्ट कंपन भर होते हैं किंतु उन्हें अलग-अलग क्रम से रखकर कोई धुन बनाई जाती है । इसी प्रकार उनके माध्यम से ’समय’ का परिमाण सुनिश्चित कर ’ताल’ का सृजन किया जाता है । यह भी विचार का एक ’आयाम’ हुआ । ’समय’ जो मूलतः कल्पना है, न कि कोई इन्द्रियग्राह्य भौतिक वस्तु, ’समय’ जो नितान्त अमूर्त तत्व है इस प्रकार ’कलन’ के माध्यम से ’काल’ के रूप में व्यवहार्य प्रतीत होनेवाली वस्तु बन जाता है ।
विज्ञान और गणित इसी प्रकार विभिन्न ’भौतिक-राशियों’ की कल्पना करते हैं और किन्हीं चिह्नों से उन्हें व्यक्त करने का प्रयास करते हैं । ’स्थान’ अवश्य एक इन्द्रियग्राह्य ’कल्पना’ है जिसे शुद्ध भौतिक प्रयोजनों से व्यवहार्य वस्तु की तरह समझा जा सकता है ।
शून्य और एक का विचार भी ऐसा ही एक साधन है जिसके द्वारा ’अंक’ की कल्पना और धारणा ’मन’ के लिए ग्राह्य हो गई, और ’मन’ की इस प्रकार की ग्राह्यता को ’बुद्धि’ कहा गया । शून्य और एक की इस धारणा से जो भाषा बनी उसे ’गणित’ कहा गया ।
इस प्रकार से हम स्थान और ’समय’ की माप अवश्य कर सकते हैं और यद्यपि वह व्यवहार्य भी है, किंतु उस माप की प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध है ।
आशय यह कि गणित और विज्ञान केवल सापेक्ष सत्य हैं परम सत्य नहीं । क्योंकि परम सत्य ’विचार’ नहीं हो सकता, गणित और विज्ञान ’विचार’ से सीमित हैं ।
इस विचार में सर्वाधिक रहस्यमय तत्व है ’मैं’ का विचार और वह भी अन्य सभी ’विचारों’ की भाँति ’मैं’ शब्द की ध्वनि (जो अलग अलग भाषाओं में अलग अलग है) और ’मैं’ से जुड़ी ’कल्पना’ का जोड़ भर है । इस विचार की अन्य विचारों से भिन्न विशेषता यह है कि यद्यपि दूसरे विचारों में किसी शब्द से उसका अर्थ लगभग सुनिश्चित की तरह ग्रहण किया जाता है, इस ’मैं’ के विचार की गतिविधि में इससे जुड़ी कल्पना निरंतर बदलती रहती है । सरल ढंग से कहें, तो ’मैं’ शब्द से जिस वस्तु अथवा भावना को इंगित अथवा अनुभव किया जाता है वह वस्तु अथवा भावना समय समय पर भिन्न-भिन्न होती है । इसलिए स्मृति में यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वास्तव में ’एक’ कोई ऐसी वस्तु है जिसे ’मैं’ शब्द के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । व्यावहारिक रूप से इस शब्द से समय-समय पर भिन्न-भिन्न वस्तुओं, भावनाओं तथा अनुभवों को इंगित अवश्य किया जा सकता है किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि वे अनेक हैं ।
उदाहरण के लिए जब ’मैं आ रहा हूँ’, ’मैं जा रहा हूँ’, ’मैं हँस रहा हूँ’, ’मैं दौड़ / चल रहा हूँ’ आदि वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो इंगित यह होता है कि मेरे शरीर के माध्यम से यह कार्य हो रहा है । यह भी स्पष्ट है कि स्वयं शरीर न तो ऐसा कहता है न कह सकता है ।
दूसरी ओर जब कहा जाता है कि मुझे भूख लगी है, तब इससे भी शरीर में बनी किसी स्थिति के बारे में कहा जाता है ।
ये तो शारीरिक स्थितियाँ हुईं जिनसे ’मैं’ नामक शब्द को संबद्ध कर दिया जाता है क्योंकि कल्पना में शरीर पर ’मैं’ का अर्थ आरोपित किया जाता है । व्यवहार के लिए यह उपयोगी भी है ही ।
किंतु जब कोई कहता है ’मैं खुश हूँ’, ’मुझे दुःख हो रहा है’ तब वह हृदय में उत्पन्न किसी भावना की अभिव्यक्ति को ’मैं’ से संबद्ध कर लेता है । यह भी व्यावहारिक रूप से आवश्यक भी है और इसका अपना उपयोग है इससे भी इनकार नहीं ।
इसी क्रम में अगली स्थिति वह है जब कोई कहता है ’मुझे चिन्ता हो रही है’ । यह समझना अपेक्षाकृत अधिक कठिन और दुरूह भी है ।
इससे भी शायद अधिक उलझा हुआ वक्तव्य ’मैं सोचता हूँ’ यह है क्योंकि ’सोचने’ की प्रक्रिया मस्तिष्क में होती है और इस प्रकार भूल से ’मस्तिष्क सोच रहा है’ कहने की बजाय ’मैं सोच रहा हूँ’ कह दिया जाता है । स्पष्ट है कि व्यावहारिक रूप से तो ’मैं सोच रहा हूँ’ यही कहना उचित होगा, और ’मस्तिष्क सोच रहा है’ कहने से और अधिक भ्रम होगा । वैसा कहना इसलिए अनावश्यक ही है ।
थोड़ा और आगे चलें तो यह प्रश्न उठता है कि क्या मस्तिष्क स्वतंत्र रूप से ’सोच’ सकता है? क्या मस्तिष्क स्मृति, आदत, और समय-विशेष पर सामने आई परिस्थिति, वस्तु, घटना, विचार, स्थान के अनुसार ही ’सोचने’ के लिए बाध्य नहीं होता?
इस प्रकार मस्तिष्क में भी ’मैं’ नामक कोई स्वतन्त्र कारक (factor) नहीं होता जो अकेला ही ’सोचने’ का कार्य करता हो ।
तो, ’सोचना’ क्या है?
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