Friday, 30 June 2017

’प्रतिबद्धता’ का प्रश्न

’प्रतिबद्धता’ का प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न है । कोई प्रगति, विकास, के प्रति समर्पित है, कोई हिन्दुत्व के प्रति, कोई इस्लाम के प्रति, कोई सेक्युलरिज़्म के प्रति, तो कोई कम्यूनिज़्म के प्रति । कोई ’राष्ट्रवाद’ के प्रति तो कोई वैश्विक-मानवतावाद के प्रति, कोई साहित्य के प्रति तो कोई धर्म, नैतिकता, अध्यात्म या भौतिकता के प्रति । वास्तव में प्रगति, विकास, इस्लाम, सेक्युलरिज़्म, कम्यूनिज़्म, राष्ट्रवाद, वैश्विक मानवतावाद, साहित्य, धर्म, नैतिकता, ये सारे शब्द अपने आपमें किसी सुनिश्चित तथ्य के रूप में नहीं बल्कि हर एक की उसकी अपनी व्याख्या के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, और तथ्यात्मक रूप से वे किसे इंगित करते हैं यह सदा अनिश्चित ही रहता है । पुनः किसी भी एक शब्द को उठा लें तो आप देखेंगे कि उसके प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता घोषित करनेवाले भी उस शब्द के भिन्न-भिन्न संस्करणों (versions) के प्रति समर्पित होते हैं न कि उस तथ्य के प्रति जिसे शब्द के द्वारा व्यक्त किए जाने का प्रयास वे करते हैं । और चूँकि वास्तव में ये शब्द ऐसे किसी तथ्य के लिए प्रयुक्त ही नहीं किए जा सकते जिसे ’आदर्श’, ’लक्ष्य’ कहा जाता है । क्योंकि ’आदर्श’ और ’लक्ष्य’, ’प्रगति’, ’विकास’ भी पुनः ऐसे ही और कुछ आकर्षक, लुभावने, लेकिन खोखले और अर्थहीन शब्द ही तो हैं । तथ्य की ओर से आँखें मूँदकर किसी शब्द के आकर्षण से मोहित होकर उसके प्रति समर्पित होना, उससे अपना तादात्म्य कर लेना शुद्ध कल्पना-विलास, एक अंतहीन भूल या भूल-भुलैया भी है । शब्द का अपना एक प्रभामंडल होता है और उस प्रभामंडल से संमोहित होकर तथ्य से आँखें फेर लेना मृग-मरीचिका ही सिद्ध होता है ।
जब तक कोई बच्चा है तब तक शब्दों, विचारों की स्पून-फ़ीडिंग किसी हद तक उपयोगी होती है, किंतु यदि कोई स्पून-फ़ीडिंग का ही अभ्यस्त होकर स्पून-फ़ीडिंग और स्पून के प्रति समर्पित हो रहे, तो वह कभी परिपक्व न होकर, अंत तक बच्चा ही रह जाता है । आत्म-निर्भरता यदि सचमुच इतनी महत्वपूर्ण है, तो हमें चाहिए कि इन तमाम शब्दों को डिक्शनरियों में ही रहने दें, इन विचारों को उन विचारकों के ही पास रहने दें और अपने भीतर तथ्य को देखने का जज़्बा और माद्दा पैदा होने दें ।
तथ्य क्या है? हिंसा तथ्य है, ईर्ष्या, भय, आशंका, लोभ, भविष्य की कल्पना और अतीत की स्मृति तथ्य है, जीवन के विविध पहलू  साक्षात तथ्य हैं, रोग, प्रतिद्वन्द्विता, असहिष्णुता, बुढ़ापा, द्वन्द्व / दुविधा, चिन्ता, प्रत्यक्ष-तथ्य हैं । इन तथ्यों की ओर से ध्यान हटाकर किन्हीं आदर्शों, उद्देश्यों, लक्ष्यों, को महान समझकर उनके लिए प्रयत्न करना और संघर्ष करते रहना आकाश के तारे तोड़ने के प्रयास जैसा है ।
चूँकि हममें इतना साहस नहीं और सुविधाभोगी होने से इस बारे में आलस्य तो है ही, इसलिए हम वस्तुतः सुखवादी सुविधाभोगी और पलायनवादी भर हैं । तथ्य से पलायन करने के इच्छुक । यह एक और तथ्य है । और इसलिए भी हम अपने कल्पित वर्तमान में रहने के लिए अभिशप्त हैं ।
तथ्य से आँखें न फेरकर, उसे ध्यानपूर्वक देखते ही वह रूपान्तरित हो जाता है या उसकी व्यर्थता पता चलने पर बस विलीन ही हो जाता है, और हमारे वर्तमान को, हमको भी रूपान्तरित कर देता है ।
--

Wednesday, 28 June 2017

विरूपाक्षपञ्चाशिका


Note :This is the 'draft'only. I shall post the edited copy of the same in due course.
विरूपाक्षपञ्चाशिका
--
(त्रयाधिकंपञ्चाशत्)
अहम्
’सोमसूर्याग्निलोचनः’
विरूपाक्ष इति ।
विरूपाणि - विरुद्धस्वरूपाणि लोकविरुद्ध-त्रित्वसंख्या-विशिष्टानि-इति यावत् ; एवं भूतानि अक्षीणि अस्य इति बहुव्रीहिः ; ’बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात्षच्’ इति षच्प्रत्यत्वयः । त्रिलोचन इत्यर्थः । तथा च श्रुतिः  -- ’त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम् ’ इति ।
      ॥ शिवतत्वरहस्यम् ॥
(’बहुव्रीहौ ...’ ५/४/११३ अष्टाध्यायी.)
प्रथमोऽध्यायः
--
गन्धगजसमरसिकायेन्द्राय प्रकटिताद्रियुगसमरः ।
निजसिद्धिबीजमस्मै कथयति पृष्टो विरूपाक्षः ॥१
--
गन्धगज-रसिकाय-इन्द्राय प्रकटित-अद्रियुग-समरः ।
निजसिद्धिबीजम् अस्मै कथयति पृष्टः विरूपाक्षः ॥
--
अर्थ : ऐरावत (गन्धगज) पर आरूढ इन्द्र के सम्मुख दो विशाल पर्वतों (जगत् तथा चैतन्यमूर्ति) के रूप में प्रकट निजसिद्धिबीज विरूपाक्ष से इन्द्र द्वारा प्रश्न किए जाने पर विरूपाक्ष ने कहा :
--
टिप्पणी : गन्ध पृथ्वी तत्व है, इरा पृथ्वी है, इरा > ऐरावत इन्द्र का वाहन है । ग्रन्थ के अंतिम, पचासवें श्लोक में जिस राजा वेन के पुत्र वैन्य का उल्लेख है, वह विष्णु का अवतार है ...
विमतिपदमङ्ग! सर्वं मम चैतन्यात्मनः शरीरमिदम् ।
शून्यपदादीलावधि दृश्यत्वात् पिण्डवत् सिद्धम् ॥२
अर्थ : हे द्वैतबुद्धि से देखनेवाले! शून्य (आकाश) से लेकर संपूर्ण ब्रह्माण्ड के पिण्डवत् दृश्य होने से यह सिद्ध है कि यही मेरा संपूर्ण शरीर और चैतन्य आत्मा है ।
टिप्पणी : यहाँ इन्द्र मनुष्य का ’मन’ है, विरूपाक्ष मनुष्य की सत्यश्चिदात्मा ।
--
सम्पन्नोऽस्मि कृशोऽस्मि स्निह्य२त्करणोऽस्मि मोदमानोऽस्मि ।
प्राणिमि शून्योऽस्मीति च षट्सु पदेष्वस्मिता दृष्टा ॥३
--
सम्पन्नः अस्मि कृशः अस्मि स्निह्यत्-करणः अस्मि मोदमानः अस्मि ।
प्राणिमि शून्यः अस्मि-इति च षट्सु पदेषु-अस्मिता दृष्टा ॥
अर्थ : अस्मिता - (मेरा) अस्तित्व, संपन्नता (ऐश्वर्य, बलशाली), कृश (दुर्बल), स्नेहशील-इन्द्रियों से युक्त, मोदयुक्त, प्राणयुक्त, तथा आकाशवत् शून्य, इन छः पदों में देखा जाता है :
--
विषयशरीरेन्द्रियधीप्राणनिरोधप्रसिद्ध्यदस्मित्वाम् ।
इत्थं चितिमखिलेऽध्वनि धारयतो विश्वदेहत्वम् ॥४
--
विषयशरीर-इन्द्रिय-धी-प्राण-निरोध-प्रसिध्यत्-अस्मित्वाम् ।
इत्थं चितिं अखिले-अध्वनि धारयतः विश्वदेहम् ॥
--
अर्थ : विषय, शरीर, इन्द्रियाँ, बुद्धि, प्राण, और इनका निरोध / निग्रह अस्मित्व (अस्मिता) के होने पर ही संभव होता है, इनके माध्यम से विश्वरूपी अपनी देह को चिति में विभिन्न प्रकार से धारण करता हुआ ...
--
उत्क्रम्य विश्वतोऽङ्गात् तद्भागैकतनुनिष्ठिताहन्तः ।
कण्ठलुठत्प्राण इव व्यक्तं जीवन्मृतो लोकः ॥५
--
उत्क्रम्य विश्वतः अङ्गात् तत्-भाग-एकतनु-निष्ठित-अन्तः ।
कण्ठ-लुठत्-प्राणः इव व्यक्तं जीवन्-मृतः लोकः ॥
--
अर्थ :  विश्व में उत्क्रमित होता हुआ, मृत्युलोक में लौकिक देहधारियों में कण्ठ से लेकर दूसरे विभिन्न संपूर्ण अङ्गों से ’मैं’-रूप में व्यक्त होकर जीवन जीता हूँ ।
--
देहेऽस्मितया यज्जडयोरास्फालनं मिथो बाह्वोः ।
इच्छामात्रेणेत्थं गिर्योरपि तद्वशाज्जगति ॥६
--
देहे-अस्मितया यत्-जडयोः आस्फालनं मिथः बाह्वः ।
इच्छामात्रेण इत्थं गिर्यः अपि तत्-वशात्-जगति ॥
--
अर्थ : देह में अस्मिता की तरह यह जो बाहुओं की तरह से जड-देह तथा अन्तर्यामी चेतन (आत्मा) का आलिङ्गन /  संयोग का परिणाम है, इच्छामात्र से लेकर वाक्-रूप तक भी, उस के ही द्वारा जगत् में ...
--
बिन्दुं प्राणं शक्तिं मन इन्द्रियमण्डलं शरीरं च ।
आविष्य चेष्टयन्तीं धारय सर्वत्र चाहन्ताम् ॥७
--
बिन्दुं प्राणं शक्तिं मनः इन्द्रियमण्डलं च ।
आविष्य चेष्टयन्तीं धारय सर्वत्र च अहन्ताम् ॥७
--
अर्थ : (देह में) बिन्दु, प्राण, शक्ति, मन तथा इन्द्रिय-समूह (आदि सूक्ष्म) एवं (स्थूल) शरीर में आविष्ट (प्रविष्ट और व्याप्त) होकर शक्तियाँ चेष्टायुक्त होती हैं, उन्हें सर्वत्र अहन्ता ही जानो ।
--
ईश्वरता कर्तृत्वं स्वतन्त्रता चित्स्वरूपता चेति ।
एतेऽहन्तायाः किल पर्यायाः सद्भिरुच्यन्ते ॥८
--
ईश्वरता कर्तृत्वं स्वतन्त्रता चित्-स्वरूपता च-इति ।
एते-अहन्तयाः किल पर्यायाः सद्भिः उच्यन्ते ॥
--
अर्थ : ईश्वरत्व (ईशिता), कर्तृत्व, स्वतंत्रता, और चित्-स्वरूपता (चेतना) अर्थात् चित्स्वरूप होना, ज्ञानियों के द्वारा इन सभी को अहन्ता के ही पर्याय (अहन्ता के लिए प्रयुक्त किए जानेवाले अन्य पद) कहा जाता है ।
--
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
--
द्वितीयोऽध्यायः
--
प्रत्यवमर्शात्मासौ
     चितिः स्वरसवाहिनी परा वाग् या ।
आद्यन्तप्रत्याहृत-
     वर्णगणा सत्यहन्ता सा ॥९
--
प्रत्यवमर्श-आत्मा-असौ चितिः स्वरस-वाहिनी परा वाक् या ।
आद्यन्त-प्रत्याहृत-वर्णगणाः सति-अहन्ता सा ॥
अर्थ : (प्रत्यवमर्श - विवेक, सोपपत्तिक स्मरणजन्य ज्ञान; जैसे ’सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवेदिषम् - ’तब मैं सुखपूर्वक सोया, तब मैंने कुछ नहीं जाना’ इस प्रकार का भान होना), वह परा वाक् जो स्वतत्व के रस को ग्रहण करनेवाली विवेकयुक्त आत्मा है, जिसमें आदि से अन्त तक समस्त वर्णगण प्रत्याहृत हुए होते हैं ही वह अहन्ता है ।
--
टिप्पणी :
१-तुलना करें :
श्री दक्षिणामूर्तिस्तोत्र :
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो माया समाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत् सुषुप्तः पुमान् ।
प्राग्स्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६
२- प्राग्स्वाप्सम् इति...
३-प्रत्यभिज्ञायते ...इसलिए यहाँ प्रत्यवमर्श का तात्पर्य है प्रत्यभिज्ञा ।
४- स्व-रसवाहिनी > अङ्गिरसः (अथर्वा-अङ्गिरसः) ....-
--
स्वपरावभासनक्षम-
     आत्मा विश्वस्य यः प्रकाशोऽसौ ।
अहमिति स एक उक्तो-
     ऽहन्ता स्थितिरीदृशी तस्य ॥१०
--
अर्थ : स्व / अहन्ता और पर (अन्यता) को स्पष्ट करने में सक्षम प्रकाशरूपी वह जो विश्व की आत्मा है, वही जो ’अहम्’ के रूप में उत्तम-पुरुष एकवचन की तरह से कही जाती है, उसकी अहन्ता (नामक) स्थिति / वास्तविकता है ।
--
विच्छिन्नाविच्छिन्ने इदमित्यहमित्युभे प्रथे तस्य ।
आभास्याभास्यकतां स्फुटयन्त्यौ चेत्यचित्पदयोः ॥११
--
विच्छिन्न-अविच्छिन्ने इदं अहं इति उभे प्रथे तस्य ।
आभास्य-आभास्यकतां स्फुटयन्त्यौ चेत्य-चित्-पदयोः ॥
अर्थ : विच्छिन्न तथा अविच्छिन्न,  इदं तथा अहं - दोनों ही उसके ही प्रथित (प्रथ् -प्रथ्यते > प्रथम, proto,  प्रकार हैं, जिसे आभास्य तथा आभास्यकता (पदों) के माध्यम से चेत्य तथा चित् इन दो पदों से स्पष्ट किया जाता है ।
टिप्पणी --
१. स्फुटयन् (पुं.-एकवचन) > स्फुटयन्ती (स्त्री.-एकवचन) > स्फुटन्त्यौ (द्विवचन)....
२."श्रीरमण महर्षि से बातचीत, ९ नवंबर, १९३६, क्रमांक २७७.
श्री कोहन : संकल्प क्या है? मेरा अभिप्राय यह है कि इसका पंचकोषों में कहाँ स्थान है?
महर्षि : सर्वप्रथम अहम् वृत्ति उदय होती है । तदुपरान्त अन्य संकल्प । वे ही मन हैं । मन दृश्य है तथा ’मैं’ द्रष्टा है । क्या ’मैं’ के बिना इच्छा हो सकती है? वह ’मैं’ में ही समायी हुई है । अहम् वृत्ति विज्ञानमय कोष है । इच्छा इसी में निहित है ।
श्री भगवान् ने आगे कहा :
अन्नमय कोष स्थूल देह कोष है । प्राण-सहित ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ प्राणमय कोष का निर्माण करती हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन मनोमय कोष बनाती हैं वे ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । मन केवल संकल्पों का बना है । ’इदम्’ दृश्य है तथा ’अहम्’ (मैं) द्रष्टा है; दोनों मिलकर विज्ञानमय कोष बनते हैं ।
---
एकः स आत्मना७सौ न हि क्रमोऽस्तीह देशकालाभ्याम् ।
भेदिनि मिथः स युक्तश्चेस्ये  भेदाश्रयः खलु सः ॥१२
--
एकः सः आत्मन्-असौ न हि क्रमः अस्ति इह देश-कालाभ्याम् ।
भेदिनि मिथः सः युक्तः च अस्ये भेदाश्रयः खलु सः ॥
अर्थ : आत्मन्-असौ, वह एकमेव आत्मा देश और काल के क्रम से रहित है यद्यपि वही पुनः देश और काल इन दोनों के ऐसे आभासी भेद से युक्त (प्रतीत) होते हुए उस भेद का आश्रय भी है ।
--
स्वाङ्गे चिद्गगनात्मनि स्वशक्तिलहरी
     दुग्धोदनिभः स्वशक्तिलहरीणाम् ।
सम्भेदविभेदाभ्यां
     सृजति ध्वंसयति चैष जगत् ॥१३
--
स्व-अङ्गे-चित्-गगन-आत्मनि स्वशक्तिलहरी ।
दुग्धोद-निभः स्वशक्तिलहरीणाम् ॥
--
अर्थ : स्व-अङ्गे चित्-गगन-आत्मनि स्वशक्तिलहरी
दुग्धोद-निभः ( दुग्धोद निभ > दूधदेनेवाली ...’मा’, समान) स्वशक्तिलहरीणाम् ।
सम्भेद-विभेदाभ्याम् सृजति ध्वंसयति च एषः जगत् ॥
--
स्वभाव से ही, दूध देनेवाली गौ की तरह चिदाकाश आत्मा में स्वशक्ति लहरीरूपी उस के परिणामस्वरूप लहरों का प्रसार करती हुई, प्रधान और गौण भेदों के माध्यम से इस जगत् का सदा सृजन और संहरण (संकोच) करती है ।
--
टिप्पणी :
१-क्षीरोद > श्लोक २०,
२-शक्तिवीचि > श्लोक २०,
--
रूपादिपञ्चविषयात्मनि भोग्यहृषीकभोक्तृरूपेऽस्मिन् ।
जगति प्रसरदनन्तस्वशक्तिचक्रा चितिर्भाव्या ॥१४
--
रूपादि-पञ्चविषय-आत्मनि भोग्य-हृषीक-भोक्तृरूपे-अस्मिन् ।
जगति प्रसरत्-अन्त-स्वशक्तिचक्रा चितिः भाव्या ॥
--
अर्थ : इस (आत्मा) में रूप, रस, गंध, स्पर्श, घ्राण आदि पाँच इन्द्रिय-संवेदनों के विषयों का उपभोग भोक्ता की तरह यह आत्मा करता है,
--
टिप्पणी : हृषीक, अनुभोक्ता, विषयिन् विषयी...
हृषीकेश, हृषीकेशव, (वह अनुभवकर्ता जो समस्त यज्ञों का कर्ता भोक्ता और फल पाता है ।)
--
सोमरविवह्निलक्षणभोगेन्द्रियभोक्तृभानपिण्डात्मा ।
बिन्दुर्विमर्शधर्मा षण्णामेकोऽध्वनां प्राणः ॥१५
--
सोम-रवि-वह्नि-लक्षण-भोगेन्द्रिय-भोक्तृभान-पिण्डात्मा ।
बिन्दुः-विमर्शधर्मा षण्णां-एकः अध्वनां प्राणः ॥
--
(भोग्यं सोमलक्षणं पराग्ररूपत्वात् । इन्द्रियाणि रविलक्षणानि पराक्प्रत्यगात्मकत्वात् । भोक्ता वह्निलक्षणः प्रत्यगेकस्वभावत्वात् । एतत्त्रितयात्मकमेव विश्वं ।)
अर्थ : सोम (मन), रवि (आत्मा, चैतन्य, प्रकाश, भास्करः), वह्नि (प्राण)-लक्षणात्मक, कर्म तथा ज्ञान के लक्षणयुक्त भोगेन्द्रियों, तथा भोक्ता और भान के लक्षणो से युक्त पिण्ड, आत्मा, बिन्दु (विन्दु) इन छः गतियों से संलग्न / संयुक्त आत्मा ही एकमात्र विश्वात्मक प्राण है ।
--
व्यक्तं हि पदार्थात्मकमिदं जगन्नित्यमेव तल्लग्नम् ।
शक्त्यात्मकमव्यक्तं तत्रैव पुनर्निमज्जति च ॥१६
--
व्यक्तं हि पदार्थात्मकं इदं जगत्-नित्यं एव तत्-लग्नम् ।
शक्त्यात्मकं-अव्यक्तं तत्र-एव पुनः निमज्जति च ॥
--
(जगदेतद् द्विविधं स्थूलं सूक्ष्मं च । स्थूलं व्यक्तमुच्यते । सूक्ष्मं च शक्तिरुच्यते । तत्र पदार्थात्मकं यदेतद् व्यक्तं जगत् तत् नित्यमेव तल्लग्नं उदयादिदशासु सर्वदा बिन्दुशक्तिलग्नमेव । यत् पुनरव्यक्तं शक्त्यात्मकं, तदपि तत्र निमज्जति । स्थूलतया सूक्ष्मतया वा प्रतीयमानं यद्यावदस्ति जगत्, तत् सर्वं प्रत्यवमर्शात्मकचितिबहिर्भावेन नोपपद्यते जल बहिर्भावेन तरङ्गादिवदिति यावत् ॥१६)
--
अर्थ : यह व्यक्त और नित्य पदार्थात्मक स्थूल और सूक्ष्म जगत् उस प्राण के ही सान्निध्य से तथा शक्तिरूप अव्यक्त भी उसी प्राण से है तथा पुनः उसी में निमज्जित होता है ।
--  
षोडशधैनं नवधा षोढा भिन्दन्त्यथ त्रिधा च बुधाः ।
आधारभेदलक्ष्यं बहुसिद्धिकरं च सेत्स्यन्तः ॥१७
--
षोडशधा-एनं नवधा षोढा भिन्दन्ती-अथ त्रिधा च बुधाः ।
आधारभेदलक्ष्यं बहुसिद्धिकरं च सेत्स्यन्तः ॥
--
अर्थ :
इस (बिन्दु) का चिन्तन तत्वविदों द्वारा भिन्न-भिन्न रीति से सोलह, नौ और छः प्रकार से किया जाता है । इस प्रकार के बहुविध चिन्तन से अनेक प्रकार की (भिन्न-भिन्न) सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
--
टिप्पणी : सिध् > सिध्यति, सेत्स्यति > लृङ् / आशीर्लिङ् अन्य पुरुष बहुवचनं > सेत्स्यन्तः,
--
यस्य विमर्शस्य कणः पदमन्त्रार्णात्मकस्त्रिधा शब्दः ।
पदतत्त्वकलात्मार्थो धर्मिण इत्थं प्रकाशस्य ॥१८
--
यस्य विमर्शस्य कणः पदमन्त्रात्मकः त्रिधा शब्दः ।
पदतत्वकलात्मार्थः धर्मिणः इत्थं प्रकाशस्य ॥
--
(वर्णपदमन्त्रात्मकतया तत्त्वभुवनकलात्मकतया शब्दार्थरूपोऽध्वा)
अर्थ :
शब्द के वर्ण, मन्त्र तथा पद इन रूपों में आत्म-चिन्तन रूपी प्रत्यभिज्ञा उनकी प्रकृति की ही तरह अन्तर्निहित है ।
अर्थ के कला, तत्त्व तथा भुवन इन रूपों में आत्म-चिन्तन रूपी प्रत्यभिज्ञा उनकी प्रकृति की ही तरह अन्तर्निहित है ।
टिप्पणी :
स्वेन विना मृतमण्डम्
     स्वावेशबलेन जीवयन्नेकः ।
मार्ताण्डः परमोऽसौ
     परनभसि न किं त्वया दृष्टः ॥१९
--
स्वेन विना मृतं-अण्डम्
     स्व-आवेशबलेन जीवयन्-एकः ।
मार्ताण्डः परमः असौ
      परनभसि न किं त्वया दृष्टः ॥
--
(*प्रकाशस्य धर्मभूतो यो विमर्शः ... ... ... प्रकाशकत्वात् परमो मार्ताण्डः)
अर्थ :
जिस प्रकार प्रकाश धर्मभूत विमर्श की तरह इस व्यक्त जगत् को आलोकित करता है, उसी प्रकार वही सर्वव्यापी प्रकाश सूर्य को भी आलोकित करता है ।
टिप्पणी :
तुमने देखा कि नहीं कि जिस प्रकार ’स्व’ रूपी बिन्दुमात्र के बिना अंडा मृत / मिट्टी होता है, और उसके आवेश से ही उसमें जीवभाव व्यक्त होता है, वैसे ही पराकाश में स्थित सूर्य को आलोकित करनेवाले प्रकाश (मार्ताण्ड) से ही सूर्य मार्तण्ड होता है ।*
--
चिद्गगनक्षीरोदं स्वयमिच्छामन्दरेण संक्षोभ्य ।
तच्छक्तिवीचिभिरसावुत्थापयतीन्दुमण्डाख्यम् ॥२०
--
चित्-गगनक्षीरोदं  स्वयं-इच्छा-मन्दरेण संक्षोभ्यः ।
तत्-शक्ति-वीचिभिः असौ उत्थापयति-इन्दुमण्डाख्यम् ॥
(स्वयं स्वातन्त्र्येणैव इच्छामन्दरेण ... ... ...अण्डाख्यमिन्दुमुत्थापयति)
--
अर्थ :
वह (चैतन्यरूपी प्रकाश), अपनी स्वतन्त्रता में अपने ही संकल्प से चिदाकाश रूपी क्षीरसागर का उसकी शक्ति-तरंगों रूपी मथानी से मंथन कर, उन शक्ति-ऊर्मियों से अण्ड नामक इन्दु का उत्क्षेप करता है ।
--
टिप्पणी :
१-क्षीरोद > श्लोक १३,
२-शक्तिवीचि > शक्तिलहरी > श्लोक १३
३-यही इन्दु जीव (पिण्ड) में मन तथा विश्व में ब्रह्माण्ड है ।
--
शक्तिर्मायाप्रकृतिः
    पृथ्वीति चतुर्विभागमण्डं यत् ।
यश्च विभागोऽस्य पुन-
     र्बहुधासर्वं स्थितं मयि तत् ॥२१
--
शक्तिः माया-प्रकृतिः
     पृथ्वी-इति चतुर्-विभागं-अण्डं यत् ।
यः च विभागः अस्य पुनः
     बहुधासर्वं स्थितं मयि तत् ॥
--
अर्थ :
शक्ति, माया, प्रकृति और पृथ्वी इन चार विभागों में यह जो अण्ड है, उनमें से प्रत्येक पुनः अनेकविध है, और सब कुछ मुझ (अहम्) में अवस्थित है ।
टिप्पणी :
१ -श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय १४, श्लोक ३ -
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
२ - विष्णु के क्षीरसागर में शेषशायी पर शयन करने और उनकी नाभि (नभ > नाभि) से ब्रह्मा के उत्क्षेपित होने के बाद चतुरानन ब्रह्मा ही वह सृष्टिकर्ता है ....
--
शक्तिर्बिन्दुः ।
(शक्तिर्बिन्दुः । तेनकारणेन शुद्धाध्वलक्षणं कार्यमुपलक्ष्यते, मायया मिश्राध्वात्मकम् प्रकृत्या शुद्धेतरात्मकम्, पृथिव्या स्थूलभोग्यभोगायतनादि । इति चतुर्विभागं यदण्डं यश्चास्य विभागो भुवनादिरूपः, ततः सर्वं मयि स्थितं परस्मिन्नेव प्रकाशे वर्तते । स्थितमिति भूतार्थतायामविवक्षा स्थितेस्त्रैकालिकत्वाद् इति शिवम् ॥२१)
(अर्थ :
शक्ति ही बिन्दु है । अहम् > अहं तथा ॐ > अ उ म् में बिन्दु ही समान है । इसलिए बिन्दु अर्थात् शक्ति को शुद्ध अध्वलक्षण कहकर माया से मिश्रित अध्वात्मक प्रकृति, कार्य को गौण लक्षण कहा गया, और इससे इतर (अन्य) को शुद्ध आत्मा प्रधान लक्षण । पृथ्वी से अभिप्राय है स्थूल भोग और भोगायतन । इस प्रकार से अण्ड का जो चार प्रकार का भेद है, वह भुवन-आदिरूप ’लोक’ है । इससे (स्पष्ट है कि यह) सब-कुछ (जो) मुझ (अहं) में ही अवस्थित है (मेरे ही) परम-प्रकाश के भीतर है ।
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
--
तृतीयोऽध्यायः
--
अहमेकोऽनस्तमित-
     प्रकाशरूपोऽस्मि तेजसां तमसाम् ।
अन्तः स्थितो ममान्त-
     स्तेजांसि तमांसि चैकस्य ॥२२
--
अहं-एको-अनस्तमित-
     प्रकाशरूपः अस्मि तेजसां तमसाम् ।
अन्तः स्थितः ममान्तः
     तेजांसि तमांसि च एकस्य ॥
--
(प्रकाशात्मकोऽहमेक ... ... ...  अनस्तमितप्रकाशरूपो ... प्रकाशात्मकोऽहमेक > तेजांसि ... तमांसि बिन्दुमायादीनां)
अर्थ :
मैं (अहम्) समस्त तेजों में एकमेव अनस्तमित (जो अस्त नहीं होता, स्थिर, नित्य, सनातन, शाश्वत्) प्रकाशरूप हूँ । जिस एक ही मुझ (अहं) में समस्त तेज और तम हैं वह मेरा ही अन्तःस्थल है ।
टिप्पणी :
अनस्तमितम् : स्थिर, नित्य, सनातन, शाश्वत्
अस्तमितम् : अस्थिर, अनिश्चित ........... श्लोक ४०,
--
प्रथमो मध्यम उत्तम इति पुरुषा भेदिनस्त्रयोऽपि मिथः ।
मत्तस्तु  महापुरुषात् प्रत्यवमर्शात्मनो न बहिः ॥२३
--
प्रथमः मध्यमः उत्तमः इति पुरुषाः भेदिनः त्रयः अपि मिथः ।
मत्तः तु महापुरुषात् प्रत्यवमर्शात्मनः न बहिः ॥
--
(प्रथमो मध्यम उत्तम इति त्रयः पुरुषाः ... ... ... महापुरुषान्मत्तो न बहिः ...सः त्वं अहम् ...
अर्थ :
प्रथम (उत्तम), मध्यम तथा अन्य इस प्रकार के अर्थात् ’मैं’ , ’तुम’ तथा ’वह’ आदि सर्वनामरूपी जो तीन पुरुष हैं, वे भी मुझ (अहम्) की ही प्रत्यभिज्ञा से उद्भूत हैं और मुझ महान् आत्मा के ही अन्तर में हैं न कि मुझ (अहम्) से बाहर ।
--
युष्मच्छेषापोहवदहमिति यद्भाति भिन्नमिह रूपम् ।
तदिदं भागविभेदो न त्वहमेकोऽस्मि यन्नित्यम् ॥२४
--
युष्मत्-शेष-अपोहवत्-अहम्-इति यत्-भाति भिन्नम् इह रूपम् ।
तत्-इदं भागविभेदः न तु अहम्-एकः अस्मि यत्-नित्यम् ॥
--
अर्थ : युष्मद् अर्थात् ’तुम’ और शेष अर्थात् अन्य आदि जो मुझसे भिन्न यह / वह के रूप में भासित होते हैं, वह ’इदम्’ के ही भेद हैं न कि मुझ (अहम्) के उस नित्य के जो कि मैं हूँ ।
--
द्यावापृथिवीदेशः कालोऽहो रात्रिरिति ययोः प्रसरः ।
ते भानतिरोधिकृती शक्ती मे भावबृन्दस्य ॥२५
--
द्यावा-पृथिवीदेशः कालः अहः रात्रिः-इति ययोः प्रसरः ।
ते भाननिरोधीकृतिः शक्तिः मे भावबृन्दस्य ॥
--
अर्थ :
आकाश, धरती, स्थानविशेष, काल, दिन और रात्रि इस प्रकार से देश-काल दोनों का जो विस्तार है, वह उन सब प्रकाश (भान) को रोकनेवाली शक्तियों का समूह है, जो मेरी ही शक्तियाँ हैं ।
--
टिप्पणी : इन शक्तियों का विशेष नामभेद अगले श्लोकों में वर्णित है ।
--
धूमावती तिरोधौ
     पुष्टौ ह्लादा च भास्वती भाने ।
क्षोभे च परिस्पन्दा
     व्याप्तौ विभ्वीति शक्तयः पञ्च ॥२६
(धूमावतीति मे शक्तिः प्रथमे , पुष्टौ आप्यायने ह्लादाख्या, अवभासने भास्वती, क्षोभे परिस्पन्दने स्पन्दाख्या, व्याप्तौ विभ्वीति पञ्च मे शक्तयः)
--
धूमावती तिरोधौ
     पुष्टौ ह्लादा च भास्वती भाने ।
क्षोभे च परिस्पन्दा
     व्याप्तौ विभ्वी-इति शक्तयः पञ्च ॥
अर्थ :
तिरोधानरूपी शक्ति धूमावती, पुष्टिरूपी ह्लादा, भानरूपी भास्वती, क्षोभरूपी परिस्पन्दा, व्याप्तिरूपी विभ्वी ये पाँच नामभेद उनके हैं ।
--
धूमावती पृथिव्यां ह्लादाप्सु शुचौ तु भास्वती प्रथते ।
वायौ स्पन्दा विभ्वी नभसि व्याप्तं जगत् ताभिः ॥२७
--
धूमवती पृथिव्यां ह्लादा-अप्सु शुचौ तु भास्वती प्रथते ।
वायौ स्पन्दा विभ्वी नभसि व्याप्तं जगत्- ताभिः ॥
--
धूमावती पृथ्वी में, ह्लादा जल (आप्) में भास्वती शौच / शुचिता अर्थात् ज्वलन या प्रकाश के रूप में अग्नि में, स्पन्दा (या परिस्पन्दा) वायु में तथा विभ्वी नभ (आकाश) में व्याप्त हैं जिनसे यह जगत् अस्तित्वमान होता है ।
अर्थ :
--
निजधर्मिणं प्रकाशं स्वरूपयन्ती प्रकाश्यवर्गस्य ।
शक्तिर्विमर्शरूपा शरीरयत्यखिलमस्य मम ॥२८
--
निजधर्मिणं प्रकाशं स्वरूपयन्ती प्रकाश्यवर्गस्य ।
शक्तिः विमर्शरूपा शरीरयति-अखिलमस्य मम ॥
--
(विमर्शरूपा मम शक्तिः प्रत्यवमर्शरूपिणीयं चितिः ... अखिलं मम शरीरयति)
अर्थ :
प्रकाशित होनेवाले विषयों को रूपाकार देते हुई मेरे निजस्वरूपवाली, चैतन्यस्वरूपा वे शक्तियाँ समस्त भासमान प्रकाश्यवर्ग के स्वरूप को आलोकित  करती हैं । मूलतः विमर्शरूपा (प्रत्यवमर्शरूपा) यही चितिशक्ति मेरे इस पूरे जगत को शरीर का रूप प्रदान करती है ।
--
ज्ञातृज्ञानज्ञेयात्मकमखिलं मद्विमर्शवह्निशिखा ।
दग्ध्वा प्रकाशरूपं शुभ्रं भस्मावशेषयति ॥२९
--
ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ञेयात्मकं-अखिलं मत्-विमर्श-वह्निशिखा ।
दग्ध्वा प्रकाशरूपं शुभ्रं भस्मावशेषयति ॥
--
(भस्म सन्मात्रां विभूतिम्)
अर्थ : विमर्शरूपी इस चितिशक्ति (चेतना) की अग्नि की शिखा जब ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयात्मक इस समस्त को पूर्णतः जला देती है, तो स्वयं शुभ्र शुद्ध भानमात्र स्वरूप में (द्वैतरहित) भस्म की तरह अवशिष्ट रह जाती है ।
--
अकठोरमद्विमर्शज्वालाग्रस्ते तिरोधिमद् भानम् ।
अङ्गारवदिव भस्म प्रथते तत्राणुवर्गस्य ॥३०
--
अकठोरमत्-विमर्शज्वालाग्रस्ते तिरोधिमत् भानम् ।
अङ्गारवत्-इव भस्म प्रथते तत्राणुवर्गस्य ॥
--
अर्थ : किंतु जब ऐसा न होकर क्षीण अवस्था में जब यह ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयात्मक रूप में, द्वैतसहित रहती हुई व्यक्त और अव्यक्त भान की तरह प्रकट और लुप्त होती है, तब यह उसी अणुवर्ग की अंगारवत् भस्म की तरह होती है ।
--
टिप्पणी : अणु अर्थात् जीव, आणवमल अर्थात् जीव का अपने वास्तविक स्वरूप का जन्मजात अज्ञान । अणुवर्ग का तात्पर्य है जीव-समष्टि ।

कार्त्स्न्येनाविष्टमिवारण्यपुराद्यग्निना मयापि जगत् ।
चित्रमवधूय भेदं ननु गृह्णात्येकरूपत्वम् ॥३१
--
कार्त्स्न्येन-आविष्टं-इव-अरण्यपुरादि-अग्निना मयापि जगत् ।
चित्रं-अवधूय भेदं ननु गृह्णाति-एकरूपत्वम् ॥
--
अर्थ :
यद्यपि वन तथा नगर इत्यादि सभी में अहम् (मुझ) से संपूर्णतः आविष्ट / ओत-प्रोत है, जैसे उन्हें जलादेनेवाली अग्नि उनमें भेद न करती हुई उनके व्यक्त (चित्ररूप) और उनकी विविधरूपता को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही अहम्  की वह्नि-शिखा उनके अभेदमूल-एकत्व का प्राकट्य है ।
--
टिप्पणी :
१-कृत्स्नं (पूर्ण, संपूर्ण) > कार्त्स्न्य > कार्त्स्न्येन > पूरी तरह से ।
अवधूय > धू (ल्यप्) > उपेक्षा करते हुए, महत्व न देते हुए, या जलाकर,
--
अन्तर्मुखं स्वरूपं ज्ञेयस्य ज्ञानमस्य तु ज्ञाता ।
ज्ञानस्य ज्ञातृतनोश्चितिरेकास्यास्त्वहं नान्यः ॥३२
--
अन्तर्मुखं स्वरूपं ज्ञेयस्य ज्ञानं-अस्य तु ज्ञाता ।
ज्ञानस्य ज्ञातृतनोः-चितिः-एकस्याः तु अहं न-अन्यः ॥
--
चेतना (consciousness) ही ज्ञेय के सापेक्ष-ज्ञान तथा सापेक्ष ज्ञाता की भी अन्तर्निहित सत्यता है  ।
जबकि ज्ञान तथा ज्ञाता की सत्ता में निहित चेतना (विशुद्ध भान) मैं (अहम्) सबकी पारमार्थिक सत्ता ।
(अन्तर्मुखं पारमार्थिकं स्वरूपम्)
अर्थ :
--
अक्रमता मे क्रमिकं ज्ञात्राद्यं सक्रमा क्रमा तु चितिः ।
मद्वद् ज्ञाता ज्ञानं शक्तिरिव त्रितयवद् ज्ञेयम् ॥३३
--
अक्रमता मे क्रमिकं ज्ञातृ-आदि यं सक्रमा क्रमा तु चितिः ।
मत्-वत् ज्ञाता ज्ञानं शक्तिः इव त्रितयवत् ज्ञेयम् ॥
--
(यतो ज्ञाताहं चेति, ज्ञानं शक्तिश्चेति, ज्ञेयं त्रितयं चेति)
--
अर्थ : चूँकि मेरा (अहम् का) क्रमराहित्य है, उसकी ज्ञाता-आदि (ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय तीन) रूपों में क्रमिक (क्रमयुक्त या विशिष्ट क्रम में होनेवाली) प्रतीति उस चेतना की ही अवस्थाएँ हैं, अतएव ज्ञाता, ज्ञान एवं शक्ति इन तीनों प्रकारों में मुझ (अहम्) को ही जाना जाता है ।
टिप्पणी :
१-यतो ज्ञाताहं चेति, ज्ञानं शक्तिश्चेति, ज्ञेयं त्रितयं चेति...
अर्थ : चूँकि ज्ञाता अहम्, ज्ञान शक्ति और ज्ञेय तीनों से युक्त है ...
२ -क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः ॥
(पातञ्जल योगगसूत्र कैवल्यपाद ३२)
अर्थ : जो परिणाम क्षण-क्षण घटित होते हैं किंतु बीत जाने पर ही स्पष्टता से (बुद्धि में) ग्रहण किये जाते हैं उन्हें क्रम कहा जाता है ।
३ -पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति ॥
(पातञ्जल योगगसूत्र कैवल्यपाद ३३)
अर्थ : पुरुष से गुणों का कोई प्रयोजन न होने पर (जब गुण पुरुष से स्वतंत्र अपनी ही प्रकृति में लौट जाते हैं तो यह उनका प्रतिप्रसव कहलाता है जिसे चितिशक्ति की कैवल्य अर्थात् स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना है ।
--
पीतादिषु हि न नीलं
     तेष्वत्र च भाति चाक्षुषं ज्ञानम् ।
न श्रौत्रादिषु तदपि
     ज्ञाता तेष्वत्र चानुगतः ॥३४
--
पीतादिषु हि न नीलं
     तेषु अत्र च भाति चाक्षुषं ज्ञानं ।
न श्रौतृ-आदिषु तदपि
     ज्ञाता तेषु-अत्र च अनुगतः ॥
--
अर्थ : जब पीले रंग की वस्तु देखी जाती है तो नीले आदि अन्य रंग नहीं दिखलाई देते, यह चाक्षुष (इन्द्रिय)-ज्ञान है ।
इसी प्रकार श्रौतृ-आदि से होनेवाला ज्ञान भी (इन्द्रिय)-ज्ञान है, यद्यपि इस प्रकार के ज्ञान में भी ज्ञाता अदृश्य रूप में (अनुगत) अवश्य ही विद्यमान होता है ।
--
ज्ञातारं मां ज्ञानं शक्तिं त्रितयात्मकं पुनर्ज्ञेयम् ।
अविकल्पं भावयतः सोऽहं सा तत् त्रयं तच्च ॥३५
--
ज्ञातारं मां ज्ञानं शक्तिं भावयतः त्रितयात्मकं पुनर्ज्ञेयम् ।
अविकल्पं भावयतः सोऽहं सा तत् त्रयं च तत्-च ॥
--
अर्थ : उसी मुझ ज्ञाता मैं (अहम्) को पुनः ज्ञान, शक्ति और ज्ञेय इन तीन प्रकारों में जाना जाता है ।
विकल्परहित भान में जो वह (अहम् , ज्ञाता) है, वही मैं, विकल्पसहित मैं -अहम् (पुंल्लिंग, ज्ञाता-सापेक्ष), वही शक्ति (सा - स्त्रीलिंग), और वही तत् (नपुंसकलिंग)...
अत्र ’सोऽहं’ ’सा तत्’ ’त्रयं तच्च’)
--
अर्थ :
--
सन्तानान्तरवाहे ज्ञाता व्यावृत्तभासनः क्रमिकः ।
जीवाख्यो मद्योगान्मद्वत् स्यादक्रमाभासः ॥३६
--
सन्तान-अनन्तर-वाहे ज्ञाता व्यावृत्तभासनः क्रमिकः ।
जीवाख्यः मद्-योगात्-मद्-वत् स्याद्-अक्रमाभासः ॥
--
अर्थ : वि आवृत्त भासी ... क्रम आभास तथा तरंग के रूप में एक अन्य ज्ञाता (चिदाभास) क्रमिक रूप में अस्तित्व में आता है । जीव के नाम से विख्यात वह आभास भी क्रम के विलय के साथ मुझ (अहम्) से एकीभूत हुआ ...
टिप्पणी
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
बाल्य-आदिषु जाग्रत आदिषु तथा सर्वासु अवस्थासु अपि
वि आवृत्तासु-अनुवर्तमानम्-अहम्-इति अन्तःस्फुरन्तं सदा ।
(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्)
--
वेद्यं स्वक्रमविद्धां वित्तिमनुप्रविशदङ्गविषयाद्यम् ।
वेदितरि वित्तिमुखतो लीनं तल्लक्षणं भवति ॥३७
--
वेद्यं स्वक्रमविद्धां वित्तिं-अनुप्रविशत्-अङ्ग-विषय-आदि यम् ।
वेदितरि वित्तिमुखतः लीनं तत्-लक्षणं भवति ॥
--
अर्थ : (जीव के नाम से विख्यात वह आभास भी क्रम के विलय के साथ मुझ -अहम् से एकीभूत हुआ ...) वेद्य (जिसे जाना जाता है, ज्ञेय) जो अपने ही क्रम से विद्ध ज्ञाता (बहुवचन) को जानकर जानने (चेतना) के विविध अङ्गों, विषयों आदि में प्रविष्ट हुआ जब जानने की ओर उन्मुख होता है तो ज्ञाता (अहम्) में लीन होकर तत्स्वरूप हो जाता है ।
टिप्पणी :  "वस्तुतः प्रत्येक अनुभव में उस अनुभव का अनुभवकर्ता उदित होता है । स्मृति निरंतरता का भ्रम उत्पन्न करती है । वस्तुतः प्रत्येक अनुभव का अपना अनुभवकर्ता होता है, और निजत्व अथवा एकात्मता की भावना समस्त ’अनुभवकर्ता-अनुभव’ इस प्रकार के संबंधों के मूल में अवस्थित उभयनिष्ठ तत्व के कारण हो पाती है ।"
(अहं ब्रह्मास्मि - श्री निसर्गदत्त महाराज से वार्तालाप, अध्याय १ ’अहं-वृत्ति’ / ’मैं हूँ का भाव)
--
टिप्पणी :
१-वेदितरि > वेदितृ, वेदिता > वेदितरि (सप्तमी विभक्ति, एकवचन)...
--
स्मृत्यनुभवानुसंहतिवशतस्तज्जगदिदं तथा तदिदम् ।
स्वैर्यहमाभासयिता भिन्नं चापोहनेन मिथः ॥३८
--
स्मृति-अनुभव-अनुसंहतिवशतः तत्-जगत्-इदं तथा तत्-इदं ॥
स्वैरि-अहं-आभासयिता भिन्नं च अपोहनेन मिथः ॥
--
अर्थ : स्मृति, संवेदन, अनुभव, के क्रम से मैं (अहम्) अपनी स्वतंत्र स्फूर्ति से स्मृति के माध्यम से इस जगत्, तथा इदं प्रत्यय की प्रत्यक्ष संवेदन की तरह अभिव्यक्ति करता हूँ । और पुनः अपनी ही प्रत्यभिज्ञा से वह ’तत्’ यह ’इदं’ इसकी प्रत्यभिज्ञा भी अहम् / मैं है । आभास उत्पन्न करनेवाली क्षणिक रूप से बनने-मिटनेवाली स्वतंत्र अहंता, और आभास इन दोनों से भिन्न ।
--
टिप्पणी :
स्वैर् > स्वैरि, स्वैरं, ...
--
स्मृतिरनुभवस्य भानं सोऽर्थस्य द्वौ सहानुसन्धानम् ।
त्रितयमपि मां विनैकं क्रमरहितं न घटते विदुषाम् ॥३९
--
स्मृति-अनुभवस्य भानं सः अर्थस्य द्वौ सहानुसन्धानम् ।
त्रितयं-अपि मां विना-एकं क्रमरहितं न घटते विदुषाम् ॥
--
अर्थ : विद्वज्जनों के अनुसार स्मृति का अर्थ है अनुभव का भान रहना, अनुभवसहित अर्थ (विषय) का भान प्रत्यक्ष संवेदन है । आत्म-चिन्तनयुक्त प्रत्यभिज्ञा में दोनों साथ-साथ होते हैं (किन्तु क्रम भी होता है,... ) ये तीनों एक मेरे (अहम् के) विना नहीं होते और मेरे (अहम् के)ही आश्रय से इनका उदय होता है, मैं (अहम्) ही उनके उद्गम का स्रोत है । मैं (अहम्) क्रम के व्यवधान से रहित एकत्वमात्र है ।
--
अस्तमितमर्थजातं भात्वा भिन्नमिव रुद्धतद्भानम् ।
मद्भानैकात्म्येन स्रोत इवाब्धौ स्थितं हि मयि ॥४०
--
अस्तमितं-अर्थजातं भात्वा भिन्नं-इव रुद्ध-तत्-भानम् ।
मद्-भान-एकात्म्येन स्रोत इव-अब्धौ स्थितं हि मयि ॥
--
अर्थ :
वह भान (स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा) जिसके तात्पर्य की अस्पष्टता होने पर जो भेदों से युक्त प्रतीत होता है, मुझ (अहम्) से एकात्मता (का दर्शन) होने पर मुझमें ही अर्थात् स्रोत में वैसे ही समाहित हो जाता है जैसे जल समुद्र में ।
--
टिप्पणी :
१ -अनस्तमितम् : स्थिर, नित्य, सनातन, स्पष्ट, प्रत्यक्ष, अपरोक्ष, शाश्वत्
२ -अस्तमितम् : अस्थिर, अनिश्चित, अप्रत्यक्ष, परोक्ष, ........... श्लोक २२,
३ -यहाँ एक प्रश्न उठता है संस्कृत के विद्वान ही उसे अधिक अच्छी तरह समझ और समझा सकते हैं ।
श्रीमद्भग्वद्गीता :
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
(अध्याय १, श्लोक १०)
तथा
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
(शाङ्कर-भाष्य -अध्याय २, श्लोक २०)
जिसका पाठान्तर :
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
(गीताप्रेस गोरखपुर का अन्वय-संस्करण)
जिनमें अभविता और अभविता का प्रयोग द्रष्टव्य है ।
--
॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥
--
चतुर्थोऽध्यायः
--
मत्स्थमपि भुवनबृन्दं बहिरिव मद् भाति मायया भविनाम् ।
अथ विद्यया भवेद् भवपदिनामन्तर्बहिष्ट्वेन ॥४१
--
मत्-स्थं-अपि भुवनबृन्दं बहिः-इव मद्-भाति  मायया भविनाम् ।
अथ विद्यया भवेत् भवपदिनाम्-अन्तःबहिष्ट्वेन ॥
--
अर्थ : मुझमें ही अवस्थित भुवनत्रयी मेरी माया से अभिभूत होने से संसार के लोगों को बाहर की तरह दिखाई देती है, किंतु मुझे (अहम् को) जानकर वही संसार भीतर-बाहर से मुझ से ही ओतप्रोत / आविष्ट देखा जाता है ।
--
ग्राहकमेवं त्वजडं जडमन्यद् ग्राह्यमस्य यो मनुते ।
मायाविमोहितात्मा २बोध्यः सोऽणुर्भवी सद्भिः ॥४२
--
ग्राहकं एवं तु अजडं जडं-अन्यत् ग्राह्यं अस्य यः मनुते ।
मायाविमोहित-आत्मा बोध्यः सः अणुः भवी सद्भिः ॥
--
अर्थ : इस दृश्य-जगत् को (इन्द्रिय-मन-बुद्धि में) ग्रहण करनेवाला (ज्ञाता) इस प्रकार अ-जड अर्थात् चेतनस्वरूप है, जबकि जिसे ग्रहण किया जाता है वह अन्य (ज्ञेय) जड है, इस प्रकार की जिसकी मान्यता है, वह माया-विमोहित मनुष्य (जीव / मैं रूपी ज्ञाता) स्वरूपतः क्या है इसे जान लिया जाना चाहिए । वही स्वरूपतः श्रेष्ठ बुद्धियुक्त मनुष्यों के द्वारा जाना जाता है ।  
(ग्राहकं एवं तु अजडम् ... ... ग्राह्यं जडम्)
--
जडतात्मिकामिदन्तामथाजडत्वात्मिकामहन्तां च ।
सामानाधिकरण्यादिदमहमिति बुध्यते द्विपदी ॥४३
--
जडतात्मिकां इदन्तां अथ अजडत्वात्मिकां अहन्तां च ।
सामानाधिकरण्यात्-इदं-अहं बुध्यते द्विपदी ॥
--
जिसे जड कहा गया वह ’इदन्ता’ तथा वैसे ही जिसे अ-जड कहा गया वह अहन्ता भी, इन दोनों का एक ही अधिकरण (आधारभूत स्थान) होने से इस प्रकार मनुष्य इस द्विपदी, इन दो पदों (इदं-अहं) के उस अधिकरण (आधारभूत स्थान) को अभेदस्वरूप देखा जाना चाहिए ।
टिप्पणी :
उपदेश-सारम् श्लोक २१,
इदमहंपदाभिख्यमन्वहम् ।
अहमिलीनकेऽप्यलयसत्तया ॥
(अर्थ :-- अहं जिसे जड, ज्ञेय, इदं से पृथक् और भिन्न, अ-जड, ज्ञाता, अहं के रूप में देखा जाता है इस ’अहं’ और इस ’इदं’ पद से इंगित उपाधियों का ’अहम्’ में विलीन होने पर ’अहम्’ अलय-सत्ता की तरह जाना जाता है ।)  
 (अभेदारोपणेन)
--
उद्भविनां केवलया निमग्नमन्तःपदे दृशा भाति ।
मग्नोन्मग्नोभयविधमुन्मया मयि पुनः पूर्णे ॥४४
--
उद्भविनां केवलया निमग्नं-अन्तःपदे दृशा भाति ।
मन-उन्मग्न-उभयविधं-उन्मया मयि पुनः पूर्णे ॥
--
(अभेदप्रतिपत्तिलक्षणं कैवल्यमुद्भवः ...स्वस्वरूपावस्थितिरेवोन्मना)
अर्थ : कैवल्य में इदं, अहम् (सदाशिव-तत्व) में निमग्न / निमज्जित / विलीन / एकात्म हो जाता है,
उन्मन में ’इदं’ को विश्व की तरह देखा जाता है ।
ये दोनों (इदं तथा अहं या निमग्नता तथा उन्मनीभाव) का उद्भव और विलय उस ’अहम्’ से, और उसी में होता है, जो पूर्ण है ।  
--
रविसोमतडिद्वज्राम्बुदबाडवजलधिगिरिगुहारण्यैः ।
दृढभावितात्मभावैर्योगी तत् कर्म निर्वहति ॥४५
--
रवि-सोम-तडित्-वज्र-अम्बुद-बाडव-जलधि-गिरि-गुहा-अरण्यैः
दृढभावित-आत्मभावैः योगी तत्- कर्म निर्वहति ॥
--
अर्थ :
स्वस्वरूपावस्थितिरेवोन्मना ... स्व-स्वरूप में अवस्थित हुआ, उन्मन अवस्था में स्थित योगी,
सूर्य, चन्द्र, तडित्, वज्र, मेघ (इन्द्र), बाडव (वरुण), समुद्र या जलाशय (वरुण) या पर्वतकन्दराओं में आत्मभाव में दृढभाव से (उस उस देवता से प्रेरित) उस विशिष्ट कर्म में संलग्न रहता हुआ, उस कर्म का निर्वाह करता है ।  
...
विश्वात्मकपरिपूर्णपरप्रकाशात्मकस्वरूपादविचलतैव
या देवता यमर्थं करोति तेनार्थिनो दृढं तस्याम् ।
विधृताहङ्कारस्य क्षणेन सोऽर्थः समायाति ॥४६
--
विश्वात्मक-परिपूर्णपर-प्रकाशात्मक-स्वरूपात्-अविचलतः-एव
या देवता यं अर्थं करोति तेन-अर्थिनः दृढं तस्याम् ।
विधृता-अहङ्कारस्य क्षणेन सोऽर्थः समायाति ॥
--
टिप्पणी :
यह स्पष्ट नहीं है कि उपरोक्त श्लोक दो पदों से युक्त है या तीन पदों से युक्त ?
अर्थ : उस विश्वात्मक परिपूर्ण प्रकाशात्मक स्वरूप में ही अविचलित रहता हुआ, वह देवता उस योगी के लिए उस कर्म का जो आशय उसके प्रति प्रकाशित करता है, उस आशय से उसकी दृढता और प्रबल होती है । उस देवता में अहन्ता को दृढता से स्थिर रखने पर उसे उस अर्थ (परमार्थ) की प्राप्ति होती है ।

टिप्पणी :
अहङ्कार का अर्थ यहाँ अहं-वृत्ति है,
वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिताः ।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः ॥
(उपदेश-सार, श्लोक १८)
--
धारणसङ्ग्रहपाकव्यूहाप्रतिघातलक्षणैर्भूतैः ।
स्वस्वनिविष्टाहन्तैर्योगिन इष्टा क्रिया भवति ॥४७
--
धारण-सङ्ग्रह-पाक-व्यूह-अप्रतिघात-लक्षणैः-भूतैः ।
स्व-स्व-निविष्टा-अहन्तैः-योगिनः इष्टा क्रिया भवति ॥
--
अर्थ : धारण, ग्रहण, पाक (पक्वता), व्यूहन (गठन) अप्रतिघात (अव्याहतप्रसार) क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश के लक्षण हैं । अपनी निज अहन्ता में इन पाँच के माध्यम से योगी के इष्ट (अभीष्ट) कर्म होते हैं ।
टिप्पणी :
धारणलक्षणं भूतं पृथिवी । सङ्ग्रहलक्षणमापः । पाकलक्षणं तेजः । व्यूहोऽवयवसंहननं, तल्लक्षणं वायुः । अप्रतिघातोऽव्याहतप्रसरत्वं तल्लक्षणमाकाशः ।)
--
इति तन्मात्राकर्मज्ञानेन्द्रियमानसास्मिताधीषु ।
अव्यक्ते पुंसि तथा धृतचितिशक्तिश्च तत्कर्मा ॥४८
--
इति तन्मात्रा-कर्म-ज्ञानेन्द्रिय-मानस-अस्मिता-धीषु ।
अव्यक्ते पुंसि तथा धृत-चिति-शक्तिः च तत्-कर्मा ॥
--
अर्थ :
पञ्च तन्मात्राओं, कर्म एवं ज्ञानेन्द्रियों, मन (चेतना) अस्मिता (अहं-वृत्ति) और बुद्धियों इन अव्यक्तों में, तथा पुरुष में ध्यान (चिति, चितिशक्ति) को धारण करता हुआ उस कर्म को करनेवाला (योगी) ...
टिप्पणी :
१ -तन्मात्र : अहंकार से उत्पन्न शब्द तन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र, एवं गन्ध तन्मात्र यह पाँच अविशेष जिनसे पञ्च महाभूत बनते हैं ।
२ -कर्मन् > कर्मा > करनेवाला, राजन् > राजा, शर्मन् > शर्मा, वर्म्मन् > वर्म्मा, ...
--
रागनियत्योः काले विद्याकलयोर्गुहासरस्वत्योः ।
ईशसदाशिवशक्तिषु शिवे च तद्वत् कृताहन्तः ॥४९
--
रागनियत्योः काले विद्याकलयोःगुहा सरस्वत्योः ।
ईश-सदाशिव-शक्तिषु शिवे च तद्वत् कृत-अहंतः ॥
--
अर्थ : इसी प्रकार राग, नियति, काल, विद्या और कला, गुहा और सरस्वती, ईश, सदाशिव तथा शक्ति एवं शिव में भी उसी प्रकार ध्यान (चिति, चितिशक्ति) को धारण करता हुआ, ...
टिप्पणी :
राग : माया का एक क~चुक (आवरण) जिसके द्वारा पूर्णत्व परिच्छिन्न हो जाता है,
नियति : कार्य-कारण द्वारा संकोच (कार्य-कारण की बाध्यता)
काल : क्रमाभास,
विद्या : परिच्छिन्न ज्ञान,
कला : कर्तृत्व, परिमित कर्तृत्व,
गुहा : माया (आवरण और विक्षेपशक्ति)
सरस्वती : शुद्धविद्या,
(गुहा माया, ... ... सरस्वती शुद्धविद्या)
अर्थ :
--
शुकवामदेवयोरपि कृष्णदधीच्योस्तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्मयोगजं खल्वार्षे वैश्वात्म्यमाख्यातम् ॥५०
--
शुक्र-वामदेवयोः अपि कृष्णदधीच्योः तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्म-योगजं खलु आर्षे वैश्वात्म्यं आख्यातम् ॥
--
अर्थ :
शुक, वामदेव, कृष्ण, दधीचि तथा वैन्य के द्वारा जिस भूतात्म-योग का वैश्वात्म्य कहा गया है, उसका ही वर्णन हे इन्द्र! तुम्हारे लिए किया गया ।
--
टिप्पणी : ऋग्वेद मण्डल १०, सूक्तं १४८ में इन्द्र और वैन्य का सन्दर्भ यहाँ उल्लेखनीय है ।
--
कालाग्निकोटिदीप्तां दाहे पाशोच्चयस्य पटु तृप्तौ ।
अमृतौघवृष्टिमूर्तिं स्मर शक्तिं भव गुरुर्जगतः ॥५१
--
कालाग्निकोटिदीप्तां दाहे पाश-उच्चयस्य पटु तृप्तौ ।
अमृत-ओघ-वृष्टि-मूर्तिं स्मर शक्तिं भव गुरुः जगतः ॥
--
अर्थ :
अमृत की घनघोर वृष्टि की तरह बरसती हुई उस शक्ति को स्मरण करो जो कोटि-कोटि ज्वालाओं युक्त काल रूपी अग्नि के समान अज्ञान के बंधन को तोड़ती और जला देती है ।
--
ख्यातिमपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥५२
--
ख्यातिं अपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥
--
अर्थ :
अपूर्ण ज्ञान को उस पूर्ण ज्ञान की सहायता से दृढता से नष्ट करो, और यथासंकल्प अभीप्सित भुवनों का सृजन, परिरक्षण-पालन, विलय अथवा तिरोधान करो ।
--
टिप्पणी :
ख्याति : ज्ञान
--
इति बोधितः स इन्द्रो देवेष्वधिकारमलमपोह्य स्वम् ।
आविष्टशक्तितत्वः शिववदपश्यत् स्वमात्मानम् ॥५३
--
इति बोधितः स इन्द्रः देवेषु-अधिकारं-अलं अपोह्य स्वम् ।
आविष्टशक्तितत्वः शिववत्-अपश्यत्-स्वं-आत्मानम् ॥
--
अर्थ :
इस प्रकार से प्रबोध दिए जाने पर उस इन्द्र ने देवताओं इत्यादि पर अपने स्वामित्व और अधिकार इत्यादि को त्याग कर अपने ही भीतर अपनी ही आत्मा में शिववत् आविष्ट शक्तितत्व के दर्शन किए ।
--
इति चतुर्थोऽध्यायः
--
॥ शिवार्पणमस्तु ॥

© vinayvaidya111@gmail.com
Note :This is the 'draft'only. I shall post the edited copy of the same in due course.
यह सन्दर्भ भी स्मरणार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
ऋग्वेद में ’वेन’....
(ऋग्वेद मंडल १० / १२१)
हिरण्यगर्भ समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
....
(ऋग्वेद मंडल १० / १२२)
वसुं न चित्रमयं हंसं गृणीषे
(ऋग्वेद मंडल १० / १२३)
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
...









   




Sunday, 25 June 2017

मुमुक्षु और मोक्ष

प्रश्न : क्या मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय है?
उत्तर : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये किसी भी प्राणी के जीवन की स्वाभाविक गति है । इनमें से धर्म का अर्थ है वृत्ति या मनोवृत्ति । प्रत्येक प्राणी में बुद्धि के जाग्रत होने पर ही ’मैं’ और ’मेरा संसार’ इस धारणा का उद्भव होता है । यह धारणा शब्दगत न होकर आभास (अहसास) के रूप में होती है और उसे शब्द दिया जाना ज़रूरी है भी नहीं । जैसे भूख-प्यास, शीत-गर्मी आदि का संवेदन हर किसी को अनायास होता है, जैसे निद्रा आते समय पहले ही समझ में आ जाता है कि मुझे नींद आ रही है, और जागने के बाद पता चल जाता है कि अब मैं जाग गया, वैसे ही बिना शब्द के ही आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति प्राणिमात्र में अनायास होती है । इन प्रवृत्तियों का आधार ’वृत्ति’ है । मनुष्य की स्थिति में इस वृत्ति की प्रधानता ही से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की मानसिक अवस्था मनुष्य-मात्र की होती है । बचपन में ब्रह्मचर्य, युवा होने पर गृहस्थ होना, प्रौढ होने पर वानप्रस्थ होना और अन्ततः मृत्यु आने से पहले उस तत्व को जान लेना जो जन्म-मृत्यु से अछूता है, यही जीवन की सार्थकता है । फिर भी गुणों की प्रधानता (न कि जन्म या जाति) के आधार पर जिस मनुष्य की दृष्टि में धर्म के प्रति समझ है और अधर्म क्या है यह भी उसे स्पष्ट है उसके कर्म (न कि जन्म या जाति) के विशिष्ट रुझान के आधार पर उसका वर्ण तय होता है ।
जिस मनुष्य के संस्कार, परिस्थिति या परिवेश इस दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं होते वह भी जाने-अनजाने किसी न किसी वर्ण का होता ही है चाहे वह इस बारे में विचार करे या न करे । धर्म का सरल तात्पर्य है शुभ प्रवृत्ति जिससे अपना और जिसे अपना समझा जाता है, उसे सुख प्राप्त हो । यह सुख आभासी / अनित्य भी हो सकता है और (शायद) नित्य भी ।
शरीर, मन-बुद्धि और वृत्ति और उनके परिपक्व होने के अनुसार स्वाभाविक रूप से हर कोई ऐसा ही कर्म करता  या करना चाहता है जिससे किसी प्रकार का सुख मिले । आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये वृत्तियाँ क्रमशः सुख पाने और दुःख को दूर करने के लिए ही मनुष्य को कर्म करने हेतु प्रेरित करती हैं । संसार के चलने के लिए भी ये ज़रूरी हैं ही ।
किंतु अल्प बुद्धि वाला मनुष्य भी कभी-न-कभी इनके चक्र से पुनः पुनः गुजरते रहने से ऊब जाता है और अंततः इस सब झमेले का मतलब क्या है यह उत्सुकता उसमें पैदा हो सकती है । साधारण मनुष्य तो जीवन में कोई ध्येय तय कर उसके लिए जीवन जीने में ही संतुष्ट हो जाता है, किंतु अल्प बुद्धि वाला भी कभी-न-कभी इस सबसे छूटना कैसे हो, इसका विचार ज़रूर करता है । कोई-कोई अंत तक इस बारे में खोज-बीन करता है और उसे मुमुक्षु कहा जाता है । जो मुमुक्षु होता है उसके लिए मोक्ष-प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय होता है ।
जो जीवन के बहाव में सुख-दुःख उठाता हुआ, चिन्तित, आशान्वित, आशंकित, ईर्ष्या-द्वेष, भय-लोभ, कामना-अपेक्षा, संक्षेप में द्वन्द्व-बुद्धि से प्रेरित होता है, किसी अन्य ध्येय के लिए जीता रहता है, या इस बारे में सोचने की ज़हमत तक नहीं उठाना चाहता ।
उपयोगी सन्दर्भ :
गीता अध्याय 4 श्लोक 13
वर्ण और गुणों की प्रधानता से कर्म की प्रवृत्ति, सृष्टि के विधान में ही है ।   
गीता अध्याय 7 श्लोक 11
'काम' पुरुषार्थ के रूप में संततिक्रम को बनाये रखने का साधन है, न कि अनियंत्रित भोग का ।
--
©vinayvaidya111@gmail.com

Tuesday, 20 June 2017

Eureka ...!

मुझे कोई नहीं जानता  .....!
मुझे भी कोई नहीं जानता,
और मुझे तो कोई भी नहीं जानता,
हर कोई बस खुद को जानता है,
ऐसा उसे लगता है,
लेकिन खुद को कोई कहाँ जानता है?
हर कोई बस मान बैठता है कि वह खुद को जानता है,
लेकिन उसका खुद का होना क्या उसकी दुनिया के बिना मुमकिन है?
इसलिए जब तक वह दुनिया को नहीं जानता,
-या कहें ठीक से नहीं जानता,
तब तक वह खुद को आधा-अधूरा, ठीक से, या अच्छी तरह कैसे जान सकता है?
और जिस दुनिया के बारे में उसे लगता है कि वह किसी हद तक जानता है, क्या दुनिया सिर्फ़ उतनी ही है?
और क्या दुनिया के बारे में उसकी राय हर घड़ी बदलती नहीं रहती?
ऐसी बदलती दुनिया में क्या वह खुद भी लगातार बदलते रहने से बच सकता है?
फिर भी उसे कभी खयाल नहीं होता कि मैं बदल रहा हूँ  ।
यहाँ एक पेंच (गुत्थी) है,
यदि ’मैं’ बदल रहा हूँ अर्थात् जिसे पता चल रहा है वही जब बदल रहा हो तो उसे यह कैसे पता चलेगा ?
हाँ यदि ’मैं’ के दो रूप होते हों जिसमें से एक न बदलता हो और दूसरा बदलता हो तो अपने बदलते रूप को जाननेवाला रूप ही जानेगा कि उसका दूसरा रूप बदल रहा है ।
किन्तु यदि यह सब विवेचना (सिरदर्द) न की जाए और बस इतना कहा जाए :
’मुझे कोई नहीं जानता और मुझे तो कोई भी नहीं जानता’
तो क्या यह अपना सही स्टेटस्-अपडेट नहीं होगा?
--
यूरेका ऽऽऽऽऽऽऽ
नया ’अपडेट’
अब जब मुझे समझ में आया कि मेरे अस्तित्व के, मेरे दो पहलू हैं,
एक लगातार बदल रहा है,
दूसरा बिलकुल नहीं बदलता ।
दूसरा बदलनेवाले पहलू को जानता भर है किंतु उसके बदलने में हस्तक्षेप नहीं कर सकता ।
पहला बदल रहा है लेकिन उसे खुद नहीं पता कि वह बदल रहा है,
क्योंकि यदि पता हो तो वह न-बदलनेवाला हो जाएगा, जिसे मूलतः अस्वीकार किया जा चुका है ।
फ़िर भी ’मेरे’ इन दोनों पहलुओं को ’जैसे’ पता चलता है, उस ’जानने’ के भी क्या दो पहलू नहीं हैं?
’मेरे’ बदलनेवाले पहलू का जानना ’जानकारी’ होता है जो लगातार बदलती रहती है पर बदलने की उसकी गतिविधि अचल-अटल चलती रहती है ।
’मेरे’ न-बदलनेवाले पहलू का जानना ’जानकारी’ के रूप में नहीं किसी और तरह का होता है  इसलिए वह वैसा ज्ञान नहीं होता जो बदलता रहता हो ।
’जानकारी’ याददाश्त होती है और ’याददाश्त’ जानकारी ।
दूसरी ओर, याददाश्त पहचान होती है और पहचान याददाश्त ।
जानकारी के अभाव में न तो याददाश्त रह सकती है न पहचान ।
किंतु जो ’जानना’ जानकारी, पहचान और याददाश्त से न तो प्रभावित होता है, न उसे प्रभावित करता है वह ’मेरे’ न-बदलनेवाले पहलू का अभिन्न अंग है ।
--
क्या मैं ’विखंडित-मानसिकता’ से ग्रस्त (schizophrenic) हूँ?
क्या मैं ’अनेक-व्यक्तित्व’ के मनोरोग (multiple personality disorder / split-personality disorder) से ग्रस्त हूँ?
और दुनिया और दुनिया के लोग?
वाकई मैं नहीं जानता...!
--
No one knows me also,
And no one knows me at all.
Every one knows oneself only.
That is, what he thinks.
But who really knows oneself?
Everyone just take it granted that he knows himself.
But could one exist independently, on one's own irrespective of and without the existence of a world?
So, as long as one does not know this world,
Or let us say: doesn't know well this world,
How could one so know oneself partially, incorrectly or correctly?
And what one appears to know about the world, is the whole world that much only?
Again, doesn't one's opinion about this world keeps changing every moment?
In such constantly changing a world, could one avoid getting changed?
Yet one hardly notices 'I'm changing'.
Here is a catch.
If one knows 'I'm changing,
The one who knows this, is he really changing?
If he is changing how could he know?
But wait please!
Let we assume 'I' exists in two forms, two aspects, one of which though keeps changing, the other doesn't.
Then the form that keeps changing is known by the form that never changes.
One the changeable and the other the unchangeable.
The changeable though changes doesn't know that it is changing all the time.
(Because if it knew it will be just of the unchangeable kind.)
The unchangeable though knows that the changeable keeps changing all the time, does not interfere or affect the changeable one.
So, if 'I' could be seen as having these 2 forms, one of the two changes and the other is unchangeable then we can also see there are two forms of knowing one for them each.
But if we don't want to take the trouble of all this, we could just say :
No one knows me also,
And no one knows me at all.  :
--
  Eureka ...!
So now, when I begin to see that 'I' exists in two forms, one is in constant change while another is just changeless, and the changeless though knows the changing, but can never interfere with it or is affected by it in whatsoever manner, is not my 'knowing' / 'knowledge' similarly of two kinds?
The quality of  my 'knowledge' that keeps changing is based upon my information about something.
The quality of my 'knowing' that is changeless is based upon plain, simple perception either through senses or without sense, just of my non-specific 'being' only.
Again knowledge is information, information is knowledge.
There is another such couple memory is recognition and recognition is memory.
Again the two statements imply :
My 'knowing' is none of these.
The 3 couples are but different names of 'knowledge'
'knowing' is never touched by 'knowledge'.
So I could never know myself in terms of knowledge, memory or recognition, though I spontaneously, without effort always know myself in terms of 'knowing'.
--
Am I schizophrenic?
Am I  suffering from multiple personality disorder / split-personality disorder?
And what about the world?
I really can't say.
--
      




Saturday, 17 June 2017

Father's Day

नम इदं पितृभ्यः 
--
अहन् आह्नः पूर्वाह्नो मध्याह्नपराह्नो यः।
न हन्यते हन्यमानो अहानो विहानो तथा ॥
आत्मजो जनकस्तथा पौत्रप्रपौत्ररूपेण ।
कालो एव प्रवर्धते पित्रा कालेनैव प्रवर्धते ॥
--
काल का वह रूप जो प्रतिदिन प्रकट और अस्त होता है न तो (आत्मा) को मारता है, न ही (आत्मा द्वारा) मारा जाता है , पिता-पुत्र के रूप में वह चिरंतन विस्तृत हो रहा ब्रह्म ही है ।
--

Wednesday, 14 June 2017

Identity-Crisis.

Identity-Crisis.
--
One (I?) just wonders if there is such a thing which is called 'the Identity-Crisis'.
What is termed as 'Identity-Crisis' is in fact 'Identification-Crisis' for the identity fails to assume a form which could be claimed as one's identity, which it could 'identify' with one-self.
The habit of 'identification' is not so strong when one is just a kid.
Slowly one acquires the notion of 'I' as distinct from 'it', 'that', 'you', 'he', 'she'.
Then one acquires the notion of 'we'.
And later on the 'me'.
Still 'I' is not so prominent, and one doesn't need or has an urge for 'identifying' one-self.
Only after getting thus forming a formal, vague image of one-self, this idea gets gradually more and more strengthened and becomes so convincing that even to question (the validity of) this does not occur, and so this becomes a habit.
Though one is always aware of one's existence, because this existence, -the true identity is formless and countless too, immeasurable and never 'abstract' like thoughts, emotions or feelings that come and go away, there is no possibility of being aware of this Reality, - the identity of one-self.
Saying 'one-self' too is misleading.
From there rises the idea of being 'some-one', and 'some-one distinct' from 'the others'.
Both these notions 'one-self' or 'me', and 'the others' are acquired and nurtured because of ignorance and negligence only.
Is not getting rid of these false unfounded notions ('me' and 'the others') is enough 'Self-Realization'?
A wrong notion need not be destroyed, rather understanding of its fallacy is enough to remove it.
So to say, ask or claim about how 'Self-Realization' happens is just utterly absurd. 
There is only 'Identification-Crisis'. That too is apparently only.
What to say of 'Identity-Crisis'?
For 'Identity' there is never such a 'Crisis'.
Knowing all 'identifications' as but false / temporary, illusory modes of thinking only, and discarding them is the way to attain the pristine pure state of being the Reality which is without distinctions of any kind.
--

Monday, 12 June 2017

’पता नहीं’ का पता न होना !

’पता नहीं’ का पता न होना !
--
’कठिन समय’ आपकी नहीं,
बल्कि आपके ’विश्वास’ की दृढ़ता की,
’चरित्र’ की गहराई की,
और ’मूल्यों’ के प्रति आपकी निष्ठा की परीक्षा लेते हैं ।
--
उपरोक्त वक्तव्य कितना तर्कसंगत प्रतीत होता है!
हम कितने जल्दी और आसानी से अपने-आपके (या किसी और के) ’विचार’ से  भ्रमित हो जाते हैं!
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता, कि हमें कुछ पता है या नहीं ।
--
क्या ’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ कोई ऐसी वास्तविक वस्तुएँ हैं जिनका भौतिक सत्यापन किया जा सके? और उनकी ’दृढ़ता’,”गहराई’ और ’मूल्य’ भी क्या ऐसी ही धारणाएँ मात्र नहीं है, जिन्हें न तो परिभाषित किया जाना या मापा जाना संभव है ? किंतु प्रथम दृष्टि में हम इस विचार से कितनी जल्दी सहमत हो जाते हैं ।
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता होता कि हमें ठीक से कुछ पता ही नहीं ।
यदि ’शब्दों’ के ज्ञान को ’जानना’ समझा जाए तो हमारे पास असंख्य शब्द हैं, किंतु जीवन के यथार्थ के लिए शब्द तय करना और यह मान बैठना कि हमें इस यथार्थ का ’पता’ है, निरी आत्म-वंचना है । इससे अधिक बुद्धिमान तो वह है जो कहता है :
"मुझे बस इतना पता है कि मुझे पता नहीं ।"
मृत्यु, प्रेम, ईश्वर, जीवन, आदि शब्दों का हम जिस धडल्ले से आत्मविश्वास-पूर्वक प्रयोग करते हैं उनके बारे में अनुमान से अधिक हमारे पास क्या ऐसा कुछ होता है जिसे हम निर्भ्रान्त, संशयरहित होकर उस तरह जानते हैं, जैसे कि हम तमाम भौतिक वस्तुओं को जानते हैं?
--
’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ ’नैतिकता’, ’मृत्यु’, 'मैत्री' ’प्रेम’, 'स्वाश्थ्य', 'शान्ति',  ’ईश्वर’, ’जीवन’, ’समय’, ’सुख’ के बजाय क्या हम ’संदेह’, ’चरित्रहीनता’, ’मूल्यहीनता’, ’अनैतिकता’, ’जन्म’ / ’अपने अस्तित्व’, 'युद्ध', 'रोग', 'बुढ़ापा', 'शत्रुता' ’घृणा’, ’क्रोध’, ’ईर्ष्या’,”दुःख’ आदि को ही, -इन्हें शब्द दिए बिना भी कहीं अधिक बेहतर ढंग से नहीं जानते?
क्या हम सीधे ही इन चीज़ों को समझकर उनके साथ, उनसे हमारे संबंध के बारे में यथोचित व्यवहार नहीं कर सकते?
क्या ’दुःख’ जीवन का एक प्रत्यक्ष यथार्थ नहीं है?
हम ’दुःख’ क्या है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
हम ’दुःख’ क्यों है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
’कौन’ दुःखी है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
--
इस तरह से हम शायद ही कभी सोचते-विचारते हैं, हम तो बस सीखे हुए शब्दों की भूलभुलैया में डूबे रहने को ’चिंतन’ समझते हैं ।
--
हमें पता ही नहीं कि हमें पता तक नहीं !
--

Sunday, 11 June 2017

The not knowing of Not-knowing.

The not knowing of Not-knowing.
--
Not knowing ‘who am I?’,
And Not knowing this Not-knowing,
As my essential bare Reality,
With the arrival of this ephemeral body,
And the consciousness of it,
I was caught into the net of
māyā / prapañca
Who cast upon me the ignorance,
Of My own true Reality,
And forced,
The illusion upon me,
That I am this,
This very body,
And the consciousness of it.
And I am,
The consciousness of the world,
Around me.
Who else could free me,
From this illusion?
Except but my own Beloved,
-But My own very Self?
Except The Kind Guru,
Who is but my own very Self?
And in His infinite mercy,
He did the same.
I was freed of this māyā / prapañca
-Of this wicked ignorance,
And, Of this wile knowledge,
Which was the bondage indeed.
--
न-जानने का न-जानना  
--
'मैं कौन?' इससे अनभिज्ञ,
और इस अनभिज्ञता से भी अनभिज्ञ,
कि यही मेरी अपरिहार्य, नग्न वास्तविकता है,
इस नश्वर देह के आते ही,
और इसकी चेतना के उद्भव के साथ,
मैं माया (प्रपञ्च) के जाल में फँस गया।
जिसने मुझ पर आरोपित किया अज्ञान,
-मेरी अपनी वास्तविकता का अज्ञान,
और मुझ पर यह भ्रम लाद दिया,
कि मैं देह हूँ !
और हूँ,
-इससे सम्बद्ध इसकी चेतना!
और मैं हूँ,
-इसके संसार की चेतना,
जो मेरे इर्द-गिर्द है!
और मुझे इस भ्रम से विमुक्त,
दूसरा कोई कौन कर सकता था,
सिवा मेरे प्रियतम के?
सिवा मेरी अपनी आत्मा के?
सिवा दयालु गुरु के,
और उसकी असीम कृपा के?
जो स्वयं मेरी ही निज आत्मा है!
और यही हुआ।
मैं इस माया (प्रपञ्च) से मुक्त हुआ।
इस दुष्ट अज्ञान से,
और इस कुटिल ज्ञान से,
जो कि था वास्तविक बंधन !
--
 

   

Saturday, 10 June 2017

अर्थ का तात्पर्य :

The English Translation is given at the end of this Hindi text.
अर्थ का तात्पर्य :
प्रश्न : क्या कुछ भी निरर्थक नहीं होता?
उत्तर : ’अर्थ’ शब्द का प्रयोग दो तरह से हो सकता है । पहला है वैचारिक तात्पर्य जो पुनः एक विचार (शब्द-समूह) होता है । स्पष्ट है कि यह ’विचार’ पुनः किसी सन्दर्भ से सार्थक या निरर्थक होता है । दूसरा है परिणामसूचक । किसी भी क्रिया का परिणाम होता है । जब इस परिणाम को ध्यान में रखकर क्रिया को नियंत्रित किया जाता है तब क्रिया निरर्थक नहीं होती । किंतु परिणाम शुभ है या अशुभ, अच्छा है या बुरा इस पर ध्यान दिए बिना ही क्रिया / कार्य किया जाता है तो भले ही तात्कालिक रूप से वह लाभप्रद या हानिप्रद दिखाई दे, तो परिणाम सार्थक, निरर्थक या अनर्थकारी ’कुछ भी’ हो सकता है । इसलिए ’कुछ भी’ निरर्थक भी हो सकता है ।
किंतु इसमें बुनियादी कारक-तत्व (factor) है ’कर्ता’ । क्या कर्ता के अभाव में क्रिया / कार्य का होना संभव है?
दूसरा इतना ही या इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण कारक-तत्व (factor) है दृष्टा (observer).
’कर्ता’ के स्वरूप / यथार्थ को जाननेवाला स्वयं न तो क्रिया / कार्य या परिणाम होता है, दूसरी ओर उस जाननेवाले की दृष्टि क्रिया / कार्य या परिणाम पर होती अवश्य है किंतु वह स्वयं उनमें से किसी में हस्तक्षेप न तो करता है, और न कर सकता है । इस तरह क्रिया / कार्य या परिणाम उस दृष्टा द्वारा ’देखे भर’ जाते हैं और वही उनके ’होने’ या न ’होने’ का एकमात्र प्रमाण है । क्रिया / कार्य या परिणाम इस प्रकार ’देखे जानेवाले’ (observed) के रूप में होते हैं ।
क्या ’देखे जानेवाले’ (observed) का ’देखनेवाले (दृष्टा / observer)’ से पृथक् अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है? जबकि ’देखनेवाले (दृष्टा / observer)’ का अस्तित्व प्रमाणित किया जाना तक हास्यास्पद है । यदि उसके अस्तित्व से इनकार या उस पर संदेह भी उठाया जाए, तो यह भी उसके अस्तित्व को ही अनायास सिद्ध करता है, और इस इनकार या संदेह का निराकरण हो जाता है ।
निष्कर्ष : क्रिया / कार्य या परिणाम प्रकृति है जो जड है, दृष्टा का इस प्रकृति से भिन्न लक्षण है, वह (नित्य / सदा) ’चेतन’ है । किंतु ’कर्ता’ विचार है जिसका अस्तित्व सदा संदेहास्पद है । ’मैं’, ’तुम’, ’यह’, ’वह’, ’ये’, ’वे’ आदि विचार हैं, न कि प्रकृति या चेतन (जिसे साङ्ख्य-दर्शन में ’पुरुष’ कहा जाता है ।)
इस प्रकार 'विचाऱ' की भूमिका मध्यवर्ती / माध्यम (interface) की है, जिसकी औपचारिक सत्ता है जिसका उपयोग तो है ही, किंतु उसका स्वरूप स्पष्ट न होने से उसे ही आवश्यकता से अधिक महत्वपूर्ण समझ लिया जाता है।
पुनश्च : चूँकि ’देखनेवाला’(observer) ही ’देखे गए’ / (observed) का आधार और प्रमाण है, और 'देखा गया' (observed) उसका विस्तार, इसलिए बुद्धि में वे यद्यपि ’दो’ प्रतीत होते हैं, वस्तुतः एक ही तत्व के दो पक्ष हैं ।
(the observer is the observed).
यह है 'अद्वैत-दर्शन' !
--  
Sense of the meaning
--
Q: Could anything be absurd?
A: The word ‘Meaning’ is used in two senses.
One is the sense in terms of thought. That is again a thought (set of words) only.
Obviously, this ‘thought’ has a sense, no sense, or it is just absurd in the relevant context only. The other is the sense in terms of the consequence, effect or result. Every action is the cause of an effect. When an action is performed and controlled / regulated with keeping in view this effect, consequence, or result, it is not absurd. But when it is done without seeing that the effect, consequence, or result, may be good or bad, and though may look advantageous or harmful, may have sense, no sense or just absurd in accordance with the relevant context.
So, ‘anything’ could be absurd as well.
But again, here is a core-factor ‘the agency’ – the entity that is responsible for performing the ‘action’, though which is supposed to exist independently apart from the action and act.
Is the happening of ‘action’ may take place in the absence of such an entity / ‘agency’?
Another not this much but far more important core-factor that is also the evidence of any action and its happening is the entity, namely the knowing-consciousness which though is a witness is affected in no way, nor is a part of the action or the happening. Neither is the cause or consequence of the action.
At the same time, it is also true that this entity the know-er or the knowing-consciousness does not, nor can interfere in the way happening takes place. Thus, action / deed or the consequence is only ‘observed’ by that knowing-consciousness which is the only evidence of them.
In this way, action / consequence are only observed by this knowing-consciousness and this itself is their only evidence. So whatever appears to have been done or is being done are in the form of ‘observed’.
Again, does this ‘observed’ has its own independent and separate existence apart from the ‘observer’, -namely this knowing-consciousness? Existence of an ‘observer’ is so obvious that asking for evidence of its existence is just absurd and ridiculous. For this only asserts its existence only. Who doubts the existence of the observer? Who refutes the existence of the observer? Is not this entity its own affirmation?
Conclusion:
Action  / deed or consequence is प्रकृति /  prakṛti, which is the संस्कृत / saṃskṛta ? word and literally means ‘a specific mode of action’. This action is obviously inert and insentient while the knowing-entity is alert and sentient. There is the element of ‘attention’ inevitably associated with the knowing-consciousness. This knowing-consciousness is termed as  पुरुष / puruṣa  in  साङ्ख्य-दर्शन / sāṅkhya-darśana …
Now, does the observed exist in the absence of the observer?
The existence of the observer is evident, but the existence of the observed is dependent on the observer’s existence. And this is in the irreversible order. That is, the existence of the ‘observer’ needs no evidence.
Again, what about the ‘agency’ – the entity that is supposed to conduct the action / deed?
Is not the idea of (existence of) such an entity in ‘thought’ only?
Is not ‘thought’ a medium ever so changing, a flux, a movement that facilitates the contact between the ‘observed’ and the ‘observer’?
Is not the role of ‘thought’ is limited to that of an ‘interface’, - a medium only?
As the observer is the support and evidence of the observed, the later is but an extension of the former.
(the observer is the observed.)    

        

The Ending or The Transcending?

The Ending, or The Transcending?
--
Q: Unfortunately this is so true most of the time.
No one notices your pain, your tears or your sorrow, sadness.
All they notice is your mistakes.
--
A: Even though others notice, they can hardly help you in getting rid of your(?) pain, unless you yourself don’t notice. After all, is not pain, sorrow, suffering always a very personal matter? Unless you don't tell, who can even know your pain, sorrow, suffering except you yourself? And is not there also a proverbial silver-line around the dark cloud? Is not there all hope within one’s own reach to transcend this pain, sorrow, suffering…?
Let us find out.
Is not suffering a call for attention? 
When attended to and dealt with due and proper response, it may possibly end. 
Or, may be, will take its own time. 
Nothing stays.
(Not preaching, just suggesting.)
--
Note :  
"Is not suffering a call for attention?"
Courtesy : Sri Nisargadatta Maharaj
--

Thursday, 8 June 2017

Doubts and the doubter

Doubts and the doubter 
--
Consciousness and the Absolute.
May 1, 1980
--

Q.: But I like to act; I like to work.
M : All these activities go on, but they are only entertainment. The waking and deep sleep states come and go spontaneously. Through the sense of “I”, you spontaneously feel like working. But find out if this sense of “I” is real or unreal, permanent or impermanent.
The “I” which appears is unreal. How unreal it is I have proven. The moment the “I” is proven unreal, who is it who knows the “I” is unreal? This knowledge within you that knows the “I” is unreal, that knowledge which knows change, must itself be changeless, permanent.
You are an illusion, mãyã, an imagination. It is only because I know that I’m unreal that I know you also are unreal. It is not like this : Because I am real, you are unreal. It is like this : Because I am unreal, everything is unreal.
Consciousness depends on the body; the body depends on the essence of food. It is the Consciousness which is speaking now. If the food essence is not present, the body cannot exist. Without the body, would I be able to talk?
Can you do anything to retain this sense of “I”? As it came spontaneously, so will it go. It will not forewarn you by announcing, “I am going tomorrow.”
A doubt has arisen and you are trying to find the solution, but who is it who has this doubt? Find out for yourself.
--
प्रश्नकर्ता : किन्तु कार्यरत रहना, कार्य करते रहना मुझे अच्छा लगता है ।
महाराज : ये सारे क्रिया-कलाप चलते रहेंगे, लेकिन वे मनबहलाव भर हैं। जागना और गहरी निद्रा की अवस्थाएँ अनायास आती-जाती रहती हैं।  "मैं"-भावना के माध्यम से तुम्हें एकाएक कुछ करने की इच्छा होती है।   पता लगाओ कि यह "मैं"-भावना सत्य है या असत्य, स्थायी है या अस्थायी ?
जो "मैं" प्रतीत होता है असत्य है।  यह असत्य कैसे है, इसे मैं प्रमाणित कर चुका हूँ।  जैसे ही "मैं" की असत्यता सिद्ध हो जाती है, कौन है जो जानता है कि "मैं" असत्य है? तुममें स्थित वह ज्ञान जो कि इस "मैं" को असत्य जानता है, वह ज्ञान जो परिवर्तन को जानता है, उसे स्वयं तो अवश्य ही परिवर्तनरहित, स्थायी होना चाहिए।
तुम एक भ्रान्ति हो, माया, एक कल्पना।  चूंकि मुझे पता है की मैं असत्य हूँ इसीलिए मुझे पता है कि तुम भी असत्य हो । और ऐसा नहीं : चूँकि मैं सत्य हूँ इसलिए तुम असत्य।  यह ऐसा है : चूँकि मैं असत्य हूँ सभी-कुछ असत्य है।
चेतना देह पर आश्रित होती है; देह अन्न के सार पर।  यह तो चेतना ही है जो कि अभी बात कर रही है। यदि अन्न का सार विद्यमान न हो तो देह नहीं हो सकती। क्या देह न होने पर मैं बोल सकूँगा ? 
क्या इस "मैं"-भावना को बनाए रखने के लिए तुम कुछ कर सकते हो? जैसे अनायास इसका आगमन हुआ, इसका प्रस्थान भी होगा।  "मैं  जा रही हूँ।" इस प्रकार की घोषणा कर, जाने से पहले यह तुम्हें सचेत तो नहीं करेगी।
एक शंका तुम्हें हुई और अब तुम उसका समाधान ढूँढ रहे हो, किंतु वह कौन है जिसे यह शंका हुई? अपने-आप को जानो !
--    


Talks with Sri Ramana Maharshi: 
1st February, 1939
No. 618
D.: Doubts are always arising. Hence my question.
M.: A doubt arises and is cleared; another arises and that is cleared,
making way for another, and so it goes on. So there is no possibility
of clearing away all doubts. See to whom the doubts arise. Go to their
source and abide in it. Then they cease to arise. That is how doubts are
to be cleared. Atma samstham manah krtva na kinchidapi chintayet.
--
श्री रमण महर्षि से बातचीत
1 फरवरी 1939
क्रमांक 618
भक्त : संशय पुनः पुनः पैदा होते रहते हैं।  अतः मुझे शंका है।
महर्षि : संशय उत्पन्न होता है तथा उसका समाधान कर दिया जाता है; पुनः संशय होता है, उसका भी निवारण कर दिया जाता है जिसका स्थान क्रमानुसार फिर नया संशय ले लेता है।  अतः संशयों का पूर्ण समाधान संभव नहीं।  यह ज्ञात करो कि संशय किसे हुए।  उनके मूल तक पैठकर वहीं अवस्थित हो जाओ।  तब उनकी उत्पत्ति होना समाप्त हो जाएगा।  संशयोच्छेदन का यही मार्ग है।
आत्म-संस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।
--
Remark :
Understanding the subtleties of a language sometimes helps to understand better.
Here, we can see how  कोऽहम्? / ko:'ham? in sanskrita,
/ मी कोण? / mī koṇa? in Marathi,
/ ’मैं कौन?’ / ’maiṃ kauna’ in Hindi,
/ हुं कोण? / હું કોણ? / huṃ koṇa ? in Gujarati,
and
नान् यार्? / நான் யார்? nãn yãr in Tamizh
all lack a supporting verb as is there in English translation :"Who am I?"
In Marathi, in first person, 'मी आहे' second person, 'तू आहे' and third person, 'तो / ती आहे' use the same supporting verb 'आहे' Thus conversation in Marathi is comparatively easy in conveying the exact sense of "I". Because 'मी आहे'  and 'ब्रह्म आहे' at once equate 'I' with  'ब्रह्म' that is the sole purpose of अद्वैत-शिक्षा / advaita-teaching.
In English "Who am I" is rather confusing (at least for me).
The purport of "Who I?" refers to an 'I' that is 'timeless' Reality while "Who am I" refers to a transient time-bound entity 'me'.
The 'timeless' is the implied meaning of 'I' as ब्रह्म / Brahman or "What is?" or "Who is?".
While the 'time-bound', transient 'me' is the apparent (formal) meaning of 'I'.
When the difference between the two meanings is correctly understood, the apparent is realized as a false, though useful in the worldly sense, notion only and is got rid of.
--  


Wednesday, 7 June 2017

वेदविहित वर्णाश्रम-धर्म

वेदविहित वर्णाश्रम-धर्म 
प्रश्न : जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है, उसे क्या खोजना और क्यों खोजना?
एक टिप्पणी : विनय जी, क्या आप इसका उत्तर देना चाहेंगे?
उत्तर :  ’जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है,...’ यदि यह मन, बुद्धि, या इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला कोई प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव न होकर, केवल एक तर्क अर्थात् हज़ारों दूसरे विचारों जैसा एक विचारमात्र है, -कोरा बौद्धिक निष्कर्ष, जिसकी सत्यता या असत्यता से आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, तो उसे आप खोजेंगे ही क्यों और आप इसके लिए बाध्य भी नहीं हैं । आप उस बारे में सोचेंगे भी नहीं । लेकिन यदि यह आपका ऐसा प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव है जिसे ’सिद्ध’ करना भी आपको अनावश्यक, व्यर्थ और हास्यास्पद प्रतीत होता हो, -क्योंकि तब आप उस कण-कण ... से अभिन्न हैं यह आपको अनायास स्पष्ट है, तब भी उसे क्या खोजना और क्यों खोजना? और ’कौन’ खोजेगा, क्योंकि उससे भिन्न क्या दूसरा कोई (कौन) है?
--
वेद और वेदान्त (जो वेद के मौलिक सार-तत्व की ही गंभीर विवेचना है, जिसका प्रयोजन पात्र जिज्ञासुओं और मुमुक्षुओं की शंकाओं का समाधान करना और उन्हें उस तत्व की प्राप्ति के मार्ग पर दृढता प्रदान करना है), की शिक्षा मूलतः अति सरल है । स्त्रियों और अब्राह्मणों के लिए ईश्वर की उपासना अपने मन-बुद्धि को रुचे ऐसे किसी इष्ट के रूप में करना और ब्राह्मणों (अर्थात् जो सीधे ही परमात्मा के बारे में जानना-समझना चाहते हैं और जिन्हें तिनके से लेकर ब्रह्मा तक की नश्वरता अनुभव हो जाने से इहलोक और परलोक (संसार) के समस्त अनित्य और आभासी सुखों से जिनका मोहभंग हो चुका है, और जो किसी ’नित्य’ / अनश्वर तत्व की संभावना और उसे जानने की इच्छा रखते हैं और इस हेतु तप, चिंतन, मनन, निदिध्यासन करने के लिए समर्पित हैं, -अर्थात् जो विवेक-वैराग्य, साधन और मुमुक्षा से युक्त हैं) के लिए आचार्य से दीक्षा लेकर इस हेतु प्रणिपातपूर्वक इसका साधन करना, -वेद के अनुसार ये दो ही मार्ग मनुष्य के लिए श्रेयस्कर हैं ।
यदि किसी मनुष्य की इनमें से किसी में भी रुचि नहीं तो वेद उसे कोई शिक्षा नहीं देते । वह स्वयं ही खोजे और जाने कि उसका कर्तव्य क्या है । 'धर्म' का उपदेश दिया जाता है वह भी 'अधिकारी/ पात्र' द्वारा 'अधिकारी / पात्र' को ही । व्यवसाय और व्यापार की तरह 'धर्म' का प्रचार करना, और लोगों को 'धर्मान्तरण' के लिए प्रोत्साहित करना या भय, प्रलोभन या कुटिलता से  'बाध्य' करना तो सरासर 'अधर्म' है । 
--
--  
 

The words of jñānī...ज्ञानी

Consciousness and the Absolute
The final talks of
Sri Nisargadatta Maharaj :
May 1, 1980
--
Questioner : How does a  jñānī see the world?
Maharaj : A  jñānī   i aware of the origin and the value of consciousness, this beingness, which has spontaneously dawned on him. This same consciousness plays a multitude of roles, some happy, some inhappy; but whatever the roles, the jñānī is merely the seer of them. The roles have no effect on the  jñānī.
All your problems are body-mind problems. Even so, you cling to that body. Since you identify with the body-mind, you follow certain polite modes of expression when you talk. I do not. I might embarrass you; you may not be able to take whjat I say. I have no sense of propriety.
You are bound by your own concepts and notions. Actually, you love only this sense of “I”; you do everything because of this. You are not working for anybody, nor for the nation, but only for this sense of “I” which you love so much.
--
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की संसार के प्रति क्या दृष्टि होती है?
महाराज : ज्ञानी चेतना के स्रोत और मूल्य के प्रति, इस ’होने’ के प्रति जो अनायास ही उस पर प्रकट हुई है, के प्रति जागृत होता है । यही चेतना विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, -कुछ प्रसन्नतायुक्त तो कुछ विषादयुक्त; किंतु जो भी भूमिका हो, ज्ञानी उनका बस दृष्टा भर होता है । उन भूमिकाओं से वह अप्रभावित रहता है ।
तुम्हारी सारी समस्याएँ देह-मन की समस्याएँ हैं । फिर भी तुम उस देह से लिप्त रहते हो । चूँकि तुम देह-मन से स्वयं को अभिन्न मान लेते हो, इसलिए जब तुम बात करते हो, तुम अभिव्यक्ति में कुछ विनम्र तरीकों का पालन करते हो । मैं नहीं करता । मैं तुम्हें विचलित कर सकता हूँ; मैं जो कहता हूँ, हो सकता है कि तुम उसे झेल न सको । मैं शालीनता का आग्रह नहीं रखता
तुम तुम्हारी अपनी धारणाओं और स्वीकारोक्तियों से बद्ध हो । वस्तुतः, तुम्हें बस इस "मैं"-भावना से ही प्यार है; तुम जो कुछ भी करते हो इसीलिए करते हो । तुम जो कुछ भी करते हो वह किसी और के लिए, या राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि केवल इस  "मैं"-भावना के लिए ही करते हो, -जिससे तुम्हें इतना प्यार है ।
--
Talks with Sri Ramana Maharshi
Volume I
15th May, 1935
Talk 1.
A wandering monk (saṃnyāsī) was trying to clear his doubt:
“How to realize that all the world is Brahman / God?”
Maharshi: If you make your outlook that of wisdom, you will find the
world to be God. Without knowing the Supreme Spirit (Brahman),
how will you find His all-pervasiveness?
--
श्री रमण महर्षि से बातचीत
15 मई, 1935.
एक संन्यासी अपनी शंका का समाधान करने का प्रयास कर रहा था :
"यह अनुभूति कैसे हो कि सारा जगत् ही ब्रह्म है?"
महर्षि : यदि तुम्हारी दृष्टि ज्ञानमयी हो जाये तो तुम्हें समग्र संसार ब्रह्म भासित होगा । ब्रह्मज्ञान के बिना तुमको ब्रह्म की सर्वव्यापकता का अनुभव कैसे हो सकता है?
--        
         
           


Tuesday, 6 June 2017

The search : ‘What is?’ and ‘Who is?’

The search :
‘What is?’ and ‘Who is?’
--
Meanwhile, let us turn a page of the last century.
The year was 1977.
I was a Post-Graduate student in The School of Studies in Mathematics.
Our H.O.D. was Prof. G.S.P.
Though He was on deputation, while the H.O.D. was languishing in jail, courtesy ‘Emergency’.
There were 3 or 4 other Professors who taught us different branches of Mathematics.
Dr.G.S.P. Sir taught us ‘Topology’ and ‘Complex-Analysis', while Dr.P.C. Sir taught ‘Real Analysis’.
Both were ‘D.Sc.’ and each had to his credit, more than 50 research papers published in Advanced Mathematical journals of repute at the international level.
There were few others like Sri Vilas Ranadive, O.P.Pathak, R.S.Katlana, Ms. Saroj Barve. who were Research Scholars.
The students of my batch were not much interested in Mathematics, but were in fact looking forward to for the jobs they could acquire after passing this post-graduate title.
I was not an exception.
The Year was 1983, when some alumni decided to arrange a get-together of the past students of this faculty only.
They were all there. About a 100 in number.
I was sitting in the last two benches with my batch-mates.
The H.O.D. was there. Dr.G.S.P. and Dr.P.C. (I think) were present.
And there was the usual exchange of formalities of such a meet of academicians and Scholars.
I was a petty clerk in a bank and had the good fortune of attending such an ‘event’.
The function was concluded and we enjoyed the party afterwards.
--
We 4 (my batch-mates) and some senior and junior students were in a small group exchanging memories of the school.
One Research Scholar who had been a Professor in I.Sc. Bangalore or in some such institute took the center-stage and started a Lecture.
“I shall tell you in very sharp, crisp and direct words what I experienced here in my times when I had been doing P.G.
As my uncle was a Professor of Archaeology (V.S.Agrawal? पुरातत्व का रोमांस), I lived with him during those days.
And there they used to come to see him.
Mostly in the evenings.

And they discussed many things like politics to religion to University-matters.
I had to look after their refreshment and tea-coffee.
I took best advantage of this chance and noted down some conversations in a note-book which is still somewhere there with my old papers, books...
That fortunate evening, there was a ‘guest’. who, ‘shared’ something so original and extra-ordinary, I felt I wold never come across such wisdom and insight in my whole life.
“Look Sir, There are two approaches that inevitably lead to the Ultimate truth.
The one is the question “What is?” and another is “Who is?”.
A physicist keeps finding out “What is?” and hopes to come upon this Ultimate Reality some day.
This is his ‘faith’. The faith of an intellectual who because of his intellectual audaciousness is adamant though ever in confusion and fails to see that Ultimate Reality could not be ‘objectified’. All speculation and thought about ‘object’ is limited to the thinker who is an escape from his own Reality.
Again like this ‘intellectual’ arrogance, there is an ‘ignorant’ arrogance as well which maintains that ‘faith’ is the only ‘God’ and ‘God’ is but ‘faith’ only. And still insists that only his (version of) faith / God is the Real God. And his sacred book is the only scripture. And his own Messiah the only True Messenger.
The intellectual has a firm ‘faith’ in ‘thought’ and yet he doubts the way of ‘faith’ and laughs at the ‘believer’.
The search in ‘What is’ directs the attention to ‘Whatever that exists’ and ultimately is lost in this search. Then one clings to ‘thought’ and ‘concludes’ the ‘thought’ is the only Ultimate Reality.
The search in ‘Who is’ directs the attention to ‘who-so-ever’ –the conscious entity that perceives the objective existence.
Both these searches either keep one stuck into ignorance of the Ultimate Reality, or just keep him moving in circles.
But rather than the 'faith', the Indian Mind has a practical approach into'What is?' and 'Who is?'.
And emphasis is on 'finding out', 'questioning everything', rather than taking things granted. And that needs maturity of mind.Sincerity, earnestness for accepting whatever is found to be unchanging and immutable in this phenomenal existence that is ever so changing. Readiness to discard whatever seems perishable. And in this search, The Indian mind discovered a word 'ब्रह्मन् / brahman / that is
सत् / sat / that is what is meant by 'What is?'. The Indian mind didn't stop at that . 'What is' is though objective Reality, there is an essential counter-part that is 'Who is'.
'What is' and 'Who is' are one and the same and Unique as The existence and the one who observes this Existence. The observer / the consciousness is ever so indivisible with the 'observed' or 'What is'.
This is what 'Spirituality' that could never be equated with 'religion'.
'Spirituality' relegated to tradition is religion.
And tradition continues to survive and prosper because of 'faith' only.
The 'faith' is its own destruction inherently.
For this 'faith' is ever so a thought / idea and never a fact that could be dealt with a practical approach.
The 'faith' in the existence of a 'God' or the 'faith' that there is no such 'God', are but in thought only.
And caught in this or that thought, the thinker repeatedly asserts with the help of thought only the 'faith'. Though every and any faith could be greatly thought-provoking, keeps the mind captive and captivated in ignorance of  'What is.' and 'Who is.'
Such a mind insists vehemently upon 'faith' and at the collective level this results into the multitudes of 'faiths'. Tradition / Religion smothers the spirit of 'finding out'.
--      
Listening to his extempore speech which though he halted for a minute or few seconds so as to choose a correct word, I was playing the same role of the Butler who clandestinely remembered and noted J.Krishnamurti's informal conversations with the people of His inner circle while ostensibly 'serving' the snacks and food, tea-coffee.
--
'Fall and fall of Religion' started when tradition was overpowered by people, Kings and Emperors in their penchant for power and authority, and deterioration, degeneration followed which dictated and imposed tradition, ethics, morality and religion.
All faiths ride the same boat.
--
This 'religion' of faith was slowly destroying and distorting the tradition of 'dharma' as was practiced all over the globe. There was the  सनातन-धर्म / sanātana-dharma, ब्राह्मण-धर्म / brāhmaṇa-dharma, वर्णाश्रम-धर्म, varṇāśrama-dharma, अब्राह्मण-धर्म, abrāhmaṇa-dharma, all living in harmony with one-another, according to the temperaments and cultures of different societies and races.
Rise of 'Religion' which was basically अब्राह्मण-धर्म, abrāhmaṇa-dharma, though adopted ’यह्वः’ / yahvaḥ, was soon transformed into YHVH > yod-he-vau-he and subsequently was given the status of 'One' God.
Veda has enough evidence how they discovered the Realities of different time-realms and these time-realms are though mutually disjoint and independent of one-another, together constitute the whole picture. Veda prohibit and even dissuade any-one who is not truly deserving and earnest in mind. Veda comprise all knowledge in the essence form though also exhort that the knowledge in terms of thought will lead to deterioration, degeneration and destruction of human mind.
The same thing happened when YHVH > yod-he-vau-he was misinterpreted and that is the kind of
अब्राह्मण-धर्म, abrāhmaṇa-dharma, which was the beginning of the end.
Like-wise अब्राह्मण-धर्म, abrāhmaṇa-dharma, which is correctly pronounced as आब्रह्मन्’ > ābrahman, and means the totality of the manifest (imperatively the father ancient-most of all this 'manifestation') took the tradition of 'Quest into the spiritual' towards freedom of mind / spirit of man. But that undercurrent was soon lost under the religion of tradition.
--
"So what are you coming to or concerned about?"
Some-one interrupted his speech.
"Me? Not at all, I'm just laughing at the collective human stupidity, suicidal ignorance, arrogance of the intellectual or ignorant kind, insensitivity, traditional approach to find out something of consolation or hope but not the Reality. And I don't think man is mature enough, ready and willing to see the things in their right perspective without fear, expectation, ideology, philosophy. 'Thought' is such a futile tool there. And man can't imagine the tyranny of 'thought'. For criticizing some tradition creates enmity and bitterness and adds to the arrogance of the intellectual or the ignorant kind. And intellect could not necessarily be intelligent. The movement of intellect and the Intelligence are so unrelated."
He concluded.
--

,



         
         


Sunday, 4 June 2017

’पाना’ / ’जानना’

’आत्म-ज्ञान’ का यह एक विरोधाभास 
--
सौजन्य : हिन्दी कविता 
--
"आप जिसे ढूँढ रहे हैं
वह आपको ढूँढ रहा है"
इन पंक्तियों में क्या कुछ नहीं छिपा हुआ है? ताउम्र हम भटकते रहते हैं एक तलाश बनी रहती है . स्थापत्य की, काम की, प्रेम की..
आज रविवारीय चर्चा में क्या आप इस पर टिप्पणी करेंगे?
ये बात करनी ज़्यादा महत्वपूर्ण है, जीवन यूँ ही उँगलियों के बीच रेत की मानिन्द फ़िसलता जा रहा है ..
संक्षेप में :
हर कोई अपने-आपको ही तो ढूँढ रहा है !
पर सवाल यह है कि क्या कोई अपने-आप से / अपने आप को खो सकता है कि उसे अपने-आपको तलाशने की ज़रूरत महसूस हो?
समस्या यह है कि यद्यपि हर कोई ’अपने-आप’ को ’जानता’ तो है, किंतु ’दूसरे’ की तरह से ’अपनी’ पहचान होना असंभव है इसलिए ’अपने-आप’ का अपने लिए क्या तात्पर्य है यह स्पष्ट कर लिया जाए तो ....
अपने-आपको ’पाने’ / ’जानने’ के लिए ’दूसरा’ अवश्य ही ’माध्यम’ हो सकता है, लेकिन अपने-आपको ’पाना’ / ’जानना’ अपने ही भीतर होता है, और किसी ’दूसरे’ की तरह, ’दूसरे’ के रूप में कभी नहीं होता । ’आत्म-ज्ञान’ का यह एक विरोधाभास (न कि विसंगति या विडंबना) तो है ही!
--
See below the English translation of the above passage in Hindi.
--
"The one you are searching for,
Is searching you!"
Isn't everything hidden in these lines?
The whole life we keep wondering; A search keeps us eagerly busy in finding out. Of Archaeology, Of Sex, Of Romance, Of Love ....
This Sunday-discussion, would you like to comment upon this?
This is rather important and urgent.
Life is slipping by like the sand from the tightly closed fist, from the fingers that try to hold onto the sand.
--
Summarily :
Isn't every-one (knowingly or unknowingly, consciously or unconsciously) in search of one-self?
But the question is :
Could some-one ever possibly lose one-self / from one-self?
Asking this is not obviously absurd in itself?
Just because it is impossible for anybody to lose one-self / from one-self.
The only problem is :
Though every-one 'knows' one-self, this knowing could not be in the same way as one knows 'the other'. One can never know one-self like one knows 'the other'.
So one needs to understand what one really means by 'one-self'.
In 'knowing' one-self in the true sense, -as a medium'the other' could sure help, But knowing / finding out one-self happens in one-self only, and one 'knows' / 'finds' one-self' never in the form of 'the other', -like 'the other'.
This is obviously the apparent paradox (and not the contradiction) of Self-Realization.
--

Friday, 2 June 2017

भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना

भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना
--
विचार का स्थान जैसा कि प्रायः हर कोई अनायास स्वीकार करता है, प्रकटतः तो मस्तिष्क है जहाँ शब्दों और शब्दपर्यायों का बाज़ार है । शब्द के बदले में शब्द का मोल-भाव किया जाता है और विचार की इस गतिविधि का परिणाम होता है और अधिक शब्दों की अनियंत्रित या सुनियंत्रित अनुशासित भीड़ । व्यवहार के लिए उनका अपना प्रयोजन है किंतु उन्हें हमेशा किसी विकल्प से बदला जा सकता है । जरूरी नहीं कि उन्हें भावनाओं का रंग दिया जाए । शुद्ध गणित या भौतिक-विज्ञान का अध्ययन, प्रोद्यौगिकी, तकनीकी ज्ञान जैसे ’डिजिटल’ या ’सिम्युलेशन’ (simulation) आदि  के प्रयोग और निष्कर्ष शब्द से शब्द की यात्रा है ।
दूसरी ओर भावना हृदय की गतिविधि है जहाँ शब्द कभी काम आते हैं तो कभी किसी काम नहीं आते ।
विचार की ही तरह भावना भी हमारे ध्यान को आकर्षित, मुग्ध, चकित या विस्मित, चंचल, व्याकुल या शान्त करती है । क्या ध्यान और ’मन’ एक ही वस्तु हैं, जब हम अन्यमनस्क होते हैं तो क्या ध्यान खंडित होता है? ’मन’, -जिसे कभी भावना कहा-समझा जाता है, कभी बुद्धि, कभी अहं / स्व अर्थात् अपने पृथक् और स्वतंत्र होने / अस्तित्व का बोध और उसकी सहज स्वीकृति, और विचार, भावना (जिसमें भय, लोभ, ईर्ष्या, उत्साह, शोक, चिन्ता, अवसाद, ऊब, उकताहट, आवेग, -जिसमें विशुद्ध भावनात्मक या विशुद्ध शारीरिक या मिले-जुले प्रभाव, आशा-निराशा, स्मृति और उससे पैदा हुई विभिन्न प्रकार की धारणाएँ तथा कल्पनाएँ भी होती हैं), इन सबका ध्यान से क्या संबंध है? क्या ध्यान जीवन का एक सहजस्फूर्त रंग नहीं है जो ’मन’, विचार, और ’स्व’ के कार्यरत होने या न होने से सदैव अप्रभावित रहता है?  स्कूल की कक्षा १ से विश्वविद्यालय के शिक्षकों से हम सुनते आते हैं :
"तुम्हारा ध्यान कहाँ है?" और हमें उनके प्रश्न को समझने में क्या कभी कठिनाई होती है?
इसलिए ’ध्यान’ या तो होता है, ’कहीं’ होता है, या ’कहीं नहीं’ होता है, -जो शायद सर्वाधिक भयावह स्थिति है । सामान्यतः तो हमारा ध्यान विचारों और भावनाओं से नियंत्रित होता है किंतु फिर भी ध्यान की रश्मि-रेखा उस चट्टान को अनायास भेदकर सदा सामने प्रत्यक्ष रहती है । विचारों और भावनाओं का आग्रह प्रबल होने पर ध्यान की वह रश्मि-रेखा अवश्य ही क्षीण और अदृश्य जैसी हो जाती है किंतु विचारों और भावनाओं का प्रवाह जैसे ही कमज़ोर या कष्टप्रद होने लगता है, ध्यान तत्क्षण ही मुक्ति की राह ढूँढ लेता है । विचार और भावनाएँ हमें कल्पित दुःखों-सुखों आशंकाओं चिन्ताओं, व्यग्रताओं या उत्तेजनाओं में ले जाते हैं जबकि ध्यान उन सबके औचित्य और व्यर्थता को उनकी पूरी नग्नता में प्रकट कर देता है । किंतु ध्यान में एक अवरोध यदि कुछ है तो वह है विचार और भावना से तादात्म्य (identification) . यहाँ एक गूढ प्रश्न उपस्थित होता है कि यह ’तादात्म्य’ (identification) विचार या भावना जैसी कोई अमूर्त वस्तु है या संसार की दूसरी वस्तुओं की तरह इंद्रियग्राह्य (tangible) कोई चीज़?
क्योंकि ’तादात्म्य’ का अर्थ हुआ किसी विचार, भावना या वस्तु से अपने-आपको अभिन्न मान बैठना । दूसरे शब्दों में ’तादात्म्य’ ( identification) एक क्षणिक विचार ही हुआ । पुनः इस विचार में भी ’स्व’ के निरपेक्षतः स्वतंत्र होने की कल्पना भी अनायास जुड़ी होती है ।
क्या ऐसे किसी ’स्व’ की सत्यता है भी?
एक शरीर-विशेष, उसके मस्तिष्क, हृदय और स्मृति की दृष्टि से तो हर मनुष्य (और प्राणी भी) अवश्य ही एक ’जीव’ है जो किसी भी दूसरे ’जीव’ के ही समान है । किंतु ’स्व’ का विचार, भावना, स्मृति और किसी नाम-विशेष, जाति, राष्ट्र, संस्कृति, भाषा, स्थान, 'धर्म' समुदाय से उसे जोड़ने का आग्रह ’तादात्म्य’ है ।
’स्व’ मूलतः मस्तिष्क की एक भ्रान्त कल्पना है यह बात समझकर वह कल्पना यदि मिट जाती है तो ’विचार’ और ’विचार करनेवाला’ एक ही ’स्व’ के दो पहलू हैं यह स्पष्ट हो जाता है, और यही ’तादात्म्य’ का निराकरण भी है । तब व्यावहारिक और औपचारिक रूप से मनुष्य अपने-आपको दूसरों से भिन्न तो समझता है किंतु उनसे अपने-आपको अधिक महत्वपूर्ण या विशिष्ट समझना उसके लिए संभव नहीं रह जाता ।
--                  

Thursday, 1 June 2017

विचार, ध्यान, तादात्म्य और चेतना

विचार, ध्यान, तादात्म्य और चेतना
--
विचार से कौन अनभिज्ञ है? व्यावहारिक रूप से हर कोई ’विचार’ से किसी न किसी रूप से परिचित होता है । प्रायः कहा जाता है  :
’मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
इस तरह यह स्पष्ट है कि ’विचार’ की गतिविधि को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव और ग्रहण किया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि यह किसी ’चेतन-सत्ता’ अर्थात् प्राणी पर ही लागू होता है किसी जड वस्तु पर नहीं । यहाँ केवल मनुष्य के ही संदर्भ में कहा जा रहा है । मनुष्येतर प्राणियों (के मन) में विचार की क्या भूमिका होती होगी इस बारे में अभी हमारे पास पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं, किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि ’अनुभव’ नामक संवेदन उन्हें भी होता ही होगा, जिसकी तीव्रता भी हर किसी की ’चेतना’ की ग्रहण-क्षमता और उसके परिवेश तथा बाह्य क्रियाओं आदि के अनुसार कम-अधिक, गहन या सतही होती होगी । इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार से ’चेतना’ नामक वस्तु के अस्तिव से इनकार नहीं किया जा सकता । एक प्रश्न यह भी है कि क्या 'संवेदन' और 'चेतना' दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं? क्या वे ही वस्तु के दो नाम नहीं ? पुनः ’चेतना’ किसी ’जीवित’ वस्तु, - जिसे ’जीव’ कह सकते हैं के परिप्रेक्ष्य में, तथा ’जीव’ किसी ऐसी चेतना की विद्यमानता से ही इस प्रकार परिभाषित हो सकते हैं । संक्षेप में ’चेतना’, ’जीव’ और ’जीवन’ को एक-दूसरे से बाँटकर नहीं देखा जा सकता ।
जहाँ इनमें से कोई एक होगा, शेष दोनों भी अवश्य होंगे ।
विचार की गतिविधि मनुष्य में जिस प्रकार होती है, वह कुछ यूँ है । विचार वैसे तो आता / जाता है, या उसे सोचा जाता है, या उस पर ’अपना’ स्वामित्व घोषित किया जाता है, या अनायास उसे ’अपना’ मान्य कर लिया जाता है । विचार के इन सभी रूपों से हर कोई कम या अधिक लुब्ध, आकर्षित, भयभीत या त्रस्त भी होता है, और इस प्रकार विचार कुछ करने / न-करने के लिए प्रेरित, उत्साहित, या बाध्य भी कर सकता है । इस सबके अतिरिक्त विचार का एक रूप वह भी है जिसमें  ’अन्यमनस्क’ होते हुए उस विचार से न तो लिप्त होते हैं न उसे महत्व ही देते हैं और उस पर ध्यान जाते ही कभी-कभी उसकी उपेक्षा कर देते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि ’ध्यान’ या किसी वस्तु के प्रति चेतना का जागृत होना, विचार से एक नितान्त भिन्न प्रकार की वस्तु है जो पुनः किसी चेतना के ही संबंध में अर्थ रखता है ।
चेतना की यह जागृति जो किसी प्रयास से नहीं होती, और जिस पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं किया जा सकता या तो हमारे लिए महत्वपूर्ण होती है या उस बारे में हम शायद ही कभी गौर करते हैं ।
ध्यान जो क्रिया नहीं बल्कि इस प्रकार की जागृति-मात्र है, जिसमें विचार की गतिविधि कभी होती हुई जान पड़ती है, तो इस अनुभव की सूक्ष्मता की अनदेखी कर,
'मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
ऐसा कह दिया जाता है  । किंतु ऐसा भी प्रत्यक्षतः तभी कहा जा सकता है, जब कोई और हो जिससे कि बात हो रही हो । जब ऐसा ही बिना किसी अन्य की उपस्थिति में अपने ही मन में कहा जाता है तो वह भी पुनः विचार ही है, न कि ध्यान ।
विचार और ध्यान को इस दृष्टि से समझने के बाद प्रश्न उठता है कि विचार से तादात्म्य क्यों पैदा होता है? कोई विचार क्यों आकर्षित, विकर्षित, लुब्ध या क्षुब्ध करता है, क्यों वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, और उसे ’अपना’ क्यों कहा जाता है? इसी प्रकार कोई विचार क्यों श्रेष्ठ, निकृष्ट, हीन, निंदित, गर्हित, त्याज्य, या निषिद्ध समझा जाता है और या तो उसे गौरवान्वित किया जाता है, उसकी बस उपेक्षा कर दी जाती है या वह उद्विग्न और उद्वेलित कर देता है? यह तो तय है कि यदि विचार हमारे 'ध्यान' को खींचकर मुग्ध कर देता है, तो ही 'तादात्म्य' घटित होता है ।
ध्यान के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि ध्यान 'संकल्प-पूर्वक' नहीं होता ।
उदाहरण के लिए, जब मैं इस पोस्ट को एडिट कर रहा था तब अचानक बिजली चली गई ।  तब मैंने झटपट इसे सेव और क्लोज़ किया, सिस्टम बंद किया, और दूसरे कार्य में लग गया ।
यू.पी.एस. 'टूँ-टूँ' करता रहा ।
पहले भी चूँकि कई बार ऐसा हो चुका है कि फिर ध्यान नहीं रहा कि बिजली कब आई और 'टूँ-टूँ' कब बंद हुआ । 
क्योंकि ध्यान हट जाने से  'टूँ-टूँ' के होते रहने से ध्यान उस पर न रहकर किसी दूसरी ओर जुड़ गया ।
इसलिए अब मैं बिजली चली जाने पर कोई लाइट ऑन कर देता हूँ और बिजली आते ही वह लाइट मेरा ध्यान अनायास आकर्षित करता है, जिससे मुझे 'टूँ-टूँ' के बंद हो जाने का ध्यान नहीं रखना होता ।
ऐसा ही एक उदाहरण है जब किसी के फ़ोन की प्रतीक्षा होती है तो फोन पर निरंतर ध्यान रखना कठिन होता है, जबकि फ़ोन की घंटी बजते ही हमारा ध्यान स्वतः ही उस ओर आकर्षित हो जाता है  ।
ध्यान अर्थात् संवेदन का उस विशिष्ट दिशा या वस्तु पर लगना ऐसी गतिविधि नहीं है जिसका संकल्प (will) से कोई संबंध हो और जिसके लिए प्रयास हो सके ।  जबकि विचार सप्रयास या स्वतः / अनायास किन्तु स्मृति से ही होता है और उस पर हमारा ध्यान है या नहीं यह एक बहुत भिन्न बात है । यदि स्मृति नहीं तो विचार नहीं, यदि विचार नहीं तो स्मृति नहीं । ध्यान स्मृति और विचार से नितांत भिन्न चेतना की दिशा और आयाम है ।
एक ही विचार अलग-अलग स्थान और परिस्थिति में अनुकूल या प्रतिकूल क्यों हो जाता है?
इस प्रकार विचार के यथार्थ का अन्वेषण किए जाने पर यह समझना आसान है कि विचार, ध्यान और तादात्म्य (identification) में परस्पर क्या रिश्ता है ।
अब उपर्युक्त विवेचन में यदि हम ’विचार’ शब्द को ’भावना’ से प्रतिस्थापित करें,
तो इसे यह शीर्षक दे सकते हैं :                    
’भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना’
इस बारे में फिर कभी ...
--

‘The What is?’ and ‘The Who is?’

‘The What is?’ and ‘The Who is’
--
The Discovery of The Supreme Reality is a timeless movement in Consciousness, without a beginning and an end. Simply because beginning and end pertain to time. Still there has been a traditional approach and a non-traditional approach as well.
As The Supreme Reality has always been available to, and attained by the earnest, deserving seekers irrespective of individual’s race, cast, clan, sex, occupation, and also of one’s intellectual, emotional, temperamental, traditional or non-traditional mind-set, but only upon his deepest urge that may have been trigered by one or numerous reasons in one.
As the urge to find out and reach, to attain the core of existence is latent in all creatures, but in expression not so conspicuous, traditions came into being which overpowered this urge in the individual and ...
This timeless movement of  Consciousness in Consciousness itself and beyond is what is the essential nature of the whole existence manifest or not so manifest.
The word  ‘timeless’ is though an approximate translation, does not convey the sense so exactly as is expressed by the word सनातन धर्म / sanātana-dharma .
How the language of man evolved and took turns in various ways is beautifully explained in
  श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam / and  ऋग्वेद / ṛgveda .
This may be noted that there is a language of man that evolves and dissolves in ‘time’, there is also a language of man that is timeless in itself. ‘Timeless’ in the sense as said above as
सनातन धर्म / sanātana-dharma.
The two sources cited above, namely श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam / and  ऋग्वेद / ṛgveda,  at first sight seem to be a repetition and one is inadvertantly inclined to believe that one of the two is prior to another.
This is how we fail to see that वेद / Veda is not a ‘book’ or ‘text’ that was ‘written’ in ‘time’, at a perticular point, but is the description of the ‘timeless’ itself also.
To understand in a better way, let us compare the evolution of Science. The ‘Laws’ that are discovered in Science hold universly and timelessly, in whatever spoken / written language they are expressed in the language of man.
So language and time are no barrier in functioning of those laws.
This is called  वेद-विधानम् / veda-vidhānam .. in the perspective of  वेद / Veda.
The very incidence that is described in the two aforesaid texts has the same origin in ‘timelessness’ that is
 सनातन धर्म / sanātana-dharma.
.. The gist is :
The Language that is as preliminarily an expression of sounds, is comprised of aggregates of different phonemes that constitute the ‘word’.
This ‘phoneme’ is not only the sound but energy that is fire.
Let us take a detour here.
sound (sonal / sonic), fire (spirit), create the ‘word’.
This ‘Fire’ is the First Reality / Spirituality that is at the root of this whole manifest (and what we call non-manifest, -potential).
This First Reality known by man is present though ‘timelessly’, we say it ‘the First’ because of our notion of time in terms of earlier and later. This notion is but hypothetical and we can’t imagine this not the Ultimate truth / Reality.
The Evolution of Species is on the other hand a movement / process ‘in time’ that is subject to our above notion of time.
Now the narration of the 2 texts.
Man used to speak the language that is spoken by animals.
This language that is the consequence of phonemes and subsequent ‘word’ was though useful in day-to-day living to some extent, was not as much pure and immaculate as the sounds (which are as fire and word) are in the first place.
  वेद / Veda and  वेद-विधानम् / veda-vidhānam .. maintain and rule that these sounds are the essential manifest Cosmic entities endowed with consciousness as well.
In a single word these entities are called देवता / devatā .
And there is categorical discription of all them that forms
the वर्ण-मातृका / varṇa-mātṛkā,  ‘Matrix of letters’.
Thus we have a firm support where-upon the language has foundation.
The narration tells:
In the first place देवता / devatā  -the वर्ण-मातृका / varṇa-mātṛkā,  ‘Matrix of letters’ created ‘अदिति / aditi’ Who was a Concious entity Herself like these देवता / devatā devatā  -the वर्ण-मातृका / varṇa-mātṛkā,. who Created Her.
And than  ‘अदिति / aditi’ in turn created ‘ देवता / devatā  -the वर्ण-मातृका / varṇa-mātṛkā,  in their purest and immaculate form, -which again resulted in a ‘language’ that is the speech and is spoken by these
 ‘ देवता / devatā’.
This tells us more about the ‘timeless-nature’ of a language.
अदिति / aditi
श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam :
--
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः
...
अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये ।
...
वेदोऽहमवेदोऽहम् ...
...
ते देवा अब्रुवन् -
...
देवीं वाचमजनयन्त ...
...
सरस्वतीमदितिं ...
...
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष
...
तां देवा अन्वजायान्त ...
--
--
om̐ sarve vai devā devīmupatasthuḥ
..
ahaṃ brahmābrahmaṇī veditavye
...
vedo:'hamavedohaṃ ...
..
te  devā abruvan ...
...
devīṃ vācamajanayanta ...
...
sarasvatīmaditiṃ ...
...
adirhyajaniṣṭa dakṣa ...
...
tāṃ devā anvajāyanta ...
--
Thus, the legend of अदिति / aditi and the evolution of language at two levels namely ‘in time’ and ‘irrespective’ of ‘time’ are two independent phenomena.
While वेद / Veda and   ‘ देवता / devatā’ are Timeless Reality, have been encrypted in written form as Veda – the texts and ‘देवता / devatā’  as sounds of standard form and wavelength, vibrations that are the very bricks and foundation of the phenomenal existence.
This is the essence of  सनातन धर्म / sanātana-dharma, known to a few from the very beginning and was handed down to next generations in different epochs of the history of human-civilization.
ऋषि / ṛṣi were the link that was kept intact and is still working though only a few have direct access to this wisdom. This is the Traditional approach also known as सनातन धर्म / sanātana-dharma,
Then in some remote past deterioration in this tradition occurred and gained prevalence.
  यह्वः / yahva in Veda serves as an evident example and clue to let us see how Tradition modified the whole perspective and the concept of The Supreme Reality as ‘one’ or ‘more than one’ entered and developed in time.

श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam / and  ऋग्वेद / ṛgveda maintain that this Supreme Reality is ‘One’ as well as ‘many’, and does not stop at that but also points out that this Supreme Reality is as well शून्या-अशून्या, śūnyā-aśūnyā and has the quality of Zero  and non-Zero as well.
The Wisdom of ऋषि / ṛṣi  of  श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam / and  ऋग्वेद / ṛgveda knew that Zero and non-zero, ‘one’ and ‘many’ are but mathematical notions only while The Supreme Reality is not a subject to intellect / notion. 
The Wisdom of ऋषि / ṛṣi  of  श्रीदेवीअथर्वशीर्षम् / śrīdevīatharvaśīrṣam / and  ऋग्वेद / ṛgveda knew that Zero and non-zero, ‘one’ and ‘many’ are but mathematical notions only while The Supreme Reality is not a subject to intellect / notion. The key-points
“अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये ।
ahaṃ brahmābrahmaṇī veditavye”  explain in nut-shell how Tradition evolved and took two distinct and quite opposite paths that became contradictory in time.
The two Traditions thus branched out from the Core respectively into :
 ब्राह्मण-धर्म / वर्णाश्रम-धर्म / सनातन-धर्म
brāhmaṇa-dharma / varṇāśrama-dharma / sanātana-dharma, and
अब्राह्मण-धर्म (The Tradition of Abraham).
यह्वः / yahva in Veda serves as an evident example and clue to let us see how Tradition modified the whole perspective and the concept of The Supreme Reality as ‘one’ or ‘more than one’ entered and developed in time.
YHVH
...
Authority thus relegated this urge to tradition as religion and spirituality to spiritualism and spirit-ism.
--
Next >>>
Part-2 :‘The What is?’ and ‘The Who is?’
--