Friday, 12 July 2019

Thought and Thought-Process

Modes and Models of Thought
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A Thought is a word-structure in a spoken language.
Thus a Thought could be classified under the following categories :
Primitive Thought  -
That is in the formative stage, when a spoken word is associated to an object.
Secondary Thought -
That is in the next stage, when a spoken word is associated to an abstract or real physical object.
Tertiary Thought -
Happens in the third stage, when a Thought that is interchanged with yet another Thought.
This gives us the basis for information and knowledge that could be digitized and stored / distributed in terms of data.
Again, a Thought could be further classified in the following 3 ways :
A Pro-active Thought :
That could be a result of the experience of the physical kind. hunger, thirst, rest, sleep, heat, cold, fatigue are the features of this kind of thought which are though 'felt' only in terms of experience. There are however 'emotions' that are not really 'felt' but evoking out of the responses at the mental level.
This could be again either in terms of :
A Reciprocated response or Provocative one.
A Thought-Process could be triggered out in many ways.
Normally, our Thought-Process is a bundled up mix of all these above-mentioned kinds of Thought.
This further complicates the communication through words.
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In Comparison and Contrast;
The word 'Thoughtless' and 'Thoughtlessness connotes a double meaning.
You could be 'Thoughtless' in the sense when you lack sensitivity, when you are apathetic towards the feelings and lives of others. Or, You are so sensitive towards the life within and around you, in other beings, creatures and animate or inanimate objects, that though being very sensitive, you don't think of translating your sensitivity into words. As a matter of fact you tend to cease thinking itself, and in that state of mind you discard all verbal structures, formations and formulations of Thought in one stroke.
Then though you may write poetry or paint a picture, compose a musical theme, You are just happy in your creativity and you don't even imagine or expect a reward. In the least, -you don't even think of preserving or conserving your spontaneous joy of such creativity. This joy and happiness is not a trivial worldly affair that could be stored or accumulated. Like the fragrance and beauty of a flower, this comes on its own without intimation or invitation and may take leave of you in those moments of creativity, when Thought is absolutely absent and flutters not. This too could be attributed to the 'Thoughtlessness' / 'Thoughtless state' of the mind.
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Thursday, 11 July 2019

समान्तर धर्म

गुरु-पूर्णिमा
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पहली बार वर्ष जब १९८२-८३ के समय मुझे ईश-कृपा का भान तब हुआ जब मैं श्री महर्षि रमण के वचनों का अध्ययन-पठन कर रहा था ।
उनकी शिक्षा और उपदेश का मूल तत्व तो एक पैने नुकीले बाण की तरह पहले ही हृदय (या हृदय-ग्रंथि) को भेद चुका था, किन्तु शिशु के जन्म के बाद भी उसके बड़े होने में समय लगता है, श्री महर्षि रमण की शिक्षाओं और उपदेशों की ज़रूरत मुझे थी और वह मुझे निरंतर प्राप्त होता रहा ।
उनसे बातचीत के मूल-संग्रह (अंग्रेज़ी संस्करण : 'Talks with Sri Raman Maharshi', तथा हिन्दी संस्करण "श्री रमण महर्षि से बातचीत") तथा दूसरी पुस्तकें ("मैं कौन?", "श्री रमण-वाणी" "आत्मानुसन्धान" "तत्वबोध") आदि को पढ़ने के बाद भी मुझे उन ग्रन्थों से निरन्तर वह सब प्राप्त होता रहा, जिसकी समय-समय पर मुझे आवश्यकता होती थी ।
उनकी शिक्षाओं के मूल-संग्रह में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम की विचारधारा के मूल-तत्वों (Tenets) से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनका सन्दर्भ आज के युग में भी अत्यन्त प्रासंगिक है । यह अवश्य है कि धर्म (सनातन धर्म) किस प्रकार इन तीनों ऐतिहासिक परंपराओं का उद्गम है और वे परस्पर किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं इसे सन्तोषजनक रूप से जानने-समझने में मुझे ३५ वर्ष लग गए ।
सबसे पहले मेरी ध्यान बाइबिल की उस उक्ति "आय एम दैट आय एम" पर गया जिसका उल्लेख "श्री रमण महर्षि से बातचीत" के क्रमांक 77, 106, 112, 131, 164, 188, 189, 201, 311, 338, 354, 426, 436, 476, और 609 में पाया जाता है ।
इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि तोराह (हिब्रू बाइबिल), कैथोलिक बाइबिल (ओल्ड तथा न्यू टेस्टामेन्ट) में ’यहोवा’, तथा क़ुरान  में वर्णित ’अल्लाह’ उसी दिव्य सत्ता के भिन्न भिन्न नाम हैं जिसे संस्कृत में ’ईश्वर’ (संज्ञा) तथा ’ईशिता’(क्रिया-विशेषण) कहा गया है । बाइबिल में इसका उल्लेख सीधे, बिल्कुल उसी प्रकार ’मैं’ के प्रयोग के माध्यम से उत्तम पुरुष एकवचन (’मैं’/ 'I') से किया गया है जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने किया है ।
इस प्रकार यह दिव्य सत्ता ही जिसे प्रत्यक्षतः हर कोई अनायास ’मैं’ की अन्तःस्फूर्ति से जानता है, वास्तविक ’यहोवा’ / 'Jehovah', ’अल्लाह’, ’मैं’  तथा ’ईश्वर’ का मूल वास्तविक स्वरूप है । वही एकमात्र ’यहोवा’, ’अल्लाह’, ’मैं’ तथा ’ईश्वर’ धर्म तथा अध्यात्म का सारतत्व है ।
आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने इसका ही उपदेश यहूदी संप्रदाय के प्रथम-पुरुष मूसा (Moses) को दिया, जिसका सीधा तात्पर्य (और व्याकरण के अनुसार अर्थ भी) वही है जिसे हिब्रू भाषा में ’यह्व’ अथवा ’यॉट्-हे-वौ-हे’(Y-H-V-H) से व्यक्त किया जाता है ।
निश्चित ही इसका उल्लेख ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के रूपों में ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर बार बार पाया जाता है । Moses को पर्वत पर झाड़ियों में जिस प्रकाश / अग्नि के दर्शन हुए, ऋग्वेद में उसी अग्नि के ’यह्वः’ तथा ’यह्वी’ के उल्लेख से भी इसमें संशय नहीं हो सकता कि अग्नि ही वह दिव्य सत्ता है जिसका संकेत स्थूल अग्नि के माध्यम से Moses को इंगित किया गया । यहूदी (हिब्रू बाइबिल) के अनुकरण से ही ईसाई बाइबिल (संहिता) अस्तित्व में आया और (जैसा कि पहले कहा गया), जहाँ ’मैं’ के रूप में ’यहोवा’ / Jehovah का वर्णन ’उत्तम पुरुष एकवचन संज्ञा’ ('I') की तरह पाया जाता है ।
इन्हीं दो बाइबिल के अनुकरण से इस्लामी क़ुरान को उसका वर्तमान प्रचलित स्वरूप प्राप्त हुआ ।
क़ुरान के अध्याय 14 खण्ड (अल् इस्र / Exodus) में इसी प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन है, जिसका बाइबिल में यह वर्णन पाया जाता है कि किस प्रकार यहूदी कबीले को मिस्र से बहिष्कृत होने के बाद Moses के नेतृत्व में अपने राज्य की खोज करते समय आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Angel) जाबालि ऋषि (Gabriel), इन्द्र (Metatron) और अग्नि (Light), शिव के ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शन तथा सहायता मिली । वास्तव में ’मिस्र’ / Egypt तथा ’इस्र’ / Isra क्रमशः महेश्वर एवं ईश्वर के ही सज्ञात (cognates) हैं ।
इस ’इस्र’ / Isra के भी पुनः दो रूप हैं :
एक का वर्णन वाल्मिकी-रामायण में एक अत्यन्त पराक्रमी राजा ’इल’ के रूप में भगवान् श्रीराम ने कथा द्वारा अपने अनुज श्री लक्ष्मण से किया है ।
कहने की आवश्यकता नहीं, कि वहाँ राजा ’इल’ को संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर कहा गया है । आर्ष-अङ्गिरा / आर्ष-अङ्गिरस (Arch-Anjel) जाबालि ऋषि (Gabriel) ने ’ईश्वर’ का वर्णन जिस रूप में Moses से किया वह वही आध्यात्मिक ’ईश्वर’ है जिसे यहूदी परंपरा में ’यहोवा’/ 'Jehovah' कहा गया ।
इसे ही उस दिव्य सत्ता (परमेश्वर) का एकमात्र ’नाम’ कहा गया है ।
बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम् नाम अभवत्’ का उल्लेख स्पष्ट प्रमाण है कि ’अहम्’ / ’मैं’ / "I AM THAT I AM" ही एकमात्र परमेश्वर है ।
’ईसर’, ’इस्र’, ’अल्-इस्र’, (इस्र-आलय -इसरायल / Israel) उसी ’ईश्वर’ के लोकभाषाओं में प्रचलित हुए पर्याय हैं । यही ’ईश्वर’ दक्षिण भारत में भगवान् शिव के रूप में आराध्य और पूज्य है, तो इसे ही मालवा, निमाड़ तथा ब्रजभूमि तक में ’ईसर’ एवं ’ईसुर’ के रूप में श्राद्धपक्ष के दिनों में लोक में प्रचलित परंपराओं में ’संजा’ के साथ देखा जा सकता है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ’संजा’ का उद्भव ’सन्ध्या’ में देखते हैं किन्तु स्कन्द-पुराण में जिस संज्ञा का वर्णन सूर्य की पत्नी के रूप में पाया जाता है वह अधिक ग्राह्य है । उसी सूर्य-पत्नी संज्ञा ने सूर्य के ताप से संत्रस्त होकर अपनी एक प्रतिमा छाया निर्मित की और उसे सूर्य के पास छोड़ते हुए यह कहकर पिता (विश्वकर्मा) के घर चली गई कि जब तक तुम पर अत्यन्त विपत्ति न आ जाए तब तक यह रहस्य सूर्यदेव पर खुलने मत देना । सूर्य और संज्ञा से ही यमराज, वैवस्वत् मनु एवं अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox का जन्म हुआ । यह न केवल पौराणिक वर्णन बल्कि खगोल-विज्ञान का सत्य भी है कि अश्विनौ (अश्विनीकुमार) / Equinox - (Equin-oxen) पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा-पथ पर स्थित दो बिन्दु-युग्मों का नाम है जिसे अंग्रेज़ी में Equinox / इक्विनॉक्स तथा Solstice सोल्स्टिस् कहा जाता है । सूर्य से ही ’सौर’ तथा ’सोल’, ’सोलर’ तथा ’सोल्स्टिस्’ 'Solomon', ’सौरमान’, ’सोलोमन’,'सुलेमान’ -- शब्द बने और अश्विनौ या अश्विन्-ऊक्षिण से ’इक्विनॉक्स’/ Equinox बने; -जो दो विषुवों (Equinox तथा मकर और कर्क-संक्रान्तियों (Solstice) के रूप में वेद में वर्णित हैं ।
’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊ’, ’अल् आ ह ऊऽ’, ’अल् आ ह ऊऽऽ’ इत्यादि की विवेचना भी वैदिक ऋचा, मन्त्र, नाम आदि के रूप में की जा सकती है । इस प्रकार ’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽ’ एवं ’अल् आ ह ऊऽऽ’ ईश्वर के ही नाम, मन्त्रात्मक स्वरूप, सूक्ष्म आधिदैविक प्रतिमा (विश्व) तथा स्थूल आधिभौतिक प्रतिमा (दृश्य जगत्) भी हैं ।
’अल्’ शब्द वैसे भी व्याकरण सम्मत ’प्रत्याहार’ भी है जिसका अर्थ वही है जिसे अंग्रेज़ी में ’ऑल’ / 'All' से व्यक्त किया जाता है । ’अलं’ संस्कृत अव्यय पद है जिसका प्रयोग पूर्ण, पूर्ण करने के अर्थ में किया जाता है । अरबी भाषा में यही ’अल्’- ’आर्टिकल’ / उपपद एवं उपाधि की तरह प्रयुक्त होता है  । ’आलम’ शब्द को इसी प्रकार ’स्थिति’ या ’संसार’ ’दुनिया’ के पर्याय की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।
संक्षेप में :
यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम परंपराओं में ’यहोवा’/ 'Jehovah', ’मैं’ नामक ’God’, तथा ’अल्लाह’ को व्यक्तिवाचक सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया जो संसार का एकमात्र स्वामी है और संसार को बनाता-मिटाता है । इससे ’एकेश्वरवाद’ का उद्भव हुआ, जिसे दुर्भाग्यवश ’पूर्ण सत्य’ मान लिया गया ।
’इल’ ऐसा ही एक राजा अवश्य था जो संपूर्ण पृथ्वी का एकमात्र ’ईश्वर’ था, जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 87 में विस्तार से किया गया है, किन्तु वह एकमात्र ’ईश्वर’ इला (पृथ्वी) का पति था / है, न कि परमेश्वर । परमेश्वर, महेश्वर, ईश्वर, परमात्मा तो वह है जिसे बाइबिल में ’यहोवा’ / 'Jehovah' तथा क़ुरान में ’अल्लाह’ कहा गया है । यह सृष्टिकर्ता और सृष्टि भी है । वही,  जिसे बृहदारण्यक उपनिषद् में ’अहम्’ नाम प्राप्त हुआ, जिसका वर्णन गीता में इस प्रकार है :
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०
(अध्याय १०)     
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अधिकारी और पात्र

कापालिक
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हातिम ताई का अधिकांश बचपन और कैशोर्य कापालिकों के देश में व्यतीत हुआ था ।
बचपन से वह इस अर्थ में ब्रह्मचारी था कि उसकी सभ्यता और संस्कृति में काम-भावना का संबंध दैहिक वृत्ति तक सीमित था । इस अर्थ में विवाह के बाद उसकी पत्नी ने उसके पुत्र-पुत्रियों को जन्म दिया किन्तु उसने कभी काम-भावना को मन का विषय नहीं बनाया । न तो वह काम-अनुभव को स्मृति का और न कल्पना का साधन बनाता था । हमें यह शायद असंभव जान पड़े किन्तु इसका एक कारण यह भी था कि कापालिकों की सभ्यता-संस्कृति में ईश्वर की पूजा भी लिंग-स्वरूप में की जाती थी इसलिए इसे उपहास, निन्दा या मनोरंजन की दृष्टि से देखने की कल्पना तक कर पाना उनके लिए असंभव था ।
वे सभी पुरुष एवं स्त्रियाँ इस दृष्टि से वैसे भी एक-पत्नीव्रत या एक-पतिव्रत का पालन करते थे कि पति या पत्नी वंशवृद्धि का साधन है, और भले ही एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ हों या एक स्त्री के एक से अधिक पति हों, विवाहेतर काम-संबंध रखना उनके लिए अकल्पनीय ही था ।
इस प्रकार कामवृत्ति का ऐसा संस्कार उनके लिए वैसा ही साधारण था जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्ण, पीड़ा अथवा सुख के इन्द्रिय-भोग आदि से गुज़रना और निवृत्त होने के बाद मनोवृत्ति के रूप में उस बारे में कोई कल्पना या स्मृति तक न पैदा हो । हम कह सकते हैं कि यद्यपि उनका शैक्षिक विकास अल्पप्राय था, वे न तो पढ़े लिखे थे, न साहित्य या कलाओं में दक्ष थे, वे तो बस प्रकृति-प्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनायास उस कर्म में प्रवृत्त होते थे जिसकी प्रवृत्ति उस समय उनके शरीर में सक्रिय होती थी ।
एक दृष्टि से वे गीता के उस श्लोक की शिक्षा पर आचरण करते थे, जिसमें कहा गया है :
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इसलिए यद्यपि विवाह नामक संस्था उनके समाज में अवश्य थी किन्तु यह नैतिक-अनैतिक के कठोर नियमों से बँधी नहीं थी ।
शायद ही कोई पुरुष किसी अपनी या पराई स्त्री को भोग की वस्तु की तरह देखता, ऐसा विचार, कल्पना करता था, और न ही कोई स्त्री किसी अपने या पर-पुरुष को इस प्रकार देखती, ऐसा विचार या कल्पना करती थी ।
बहुत संक्षेप में वे काम के मानसिक-स्वरूप से जकड़े हुए न थे । शायद कभी दुर्घटनावश ऐसी स्थिति बन जाती जब इस प्रकार के संयोग घटित हो भी जाते थे तो वे दुःस्वप्न समझकर उसे बस हृदय से भूल जाते थे । न उसकी चर्चा करते, न निन्दा, न उसमें किसी प्रकार का गौरव अनुभव करते, न उसे महिमामण्डित करते, न किसी से ईर्ष्या, प्रतिशोध या अपराध या अपमान अनुभव करते ।
आज के युग में यह कुछ अटपटा और शायद असंभव भी लग सकता है किन्तु जब हम हातिम ताई के उन अनुभवों के बारे में जानेंगे जो उसे कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति में रहते हुए प्राप्त हुए तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि कठोलिकों की सभ्यता और संस्कृति की प्रेरणाएँ किस प्रकार कापालिकों की प्रेरणाओं से कुछ भिन्न थीं ।
कठोलिक
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जैसा कि गिरीश (ग्रीस) देश में ऋषि आचार्य शुक्र के कुल (भृगु-कुल) के प्रभाव में समाज और सभ्यता तथा संस्कृति अपने विकास के चरम पर थी, यह समझना कठिन न होगा कि कठोलिक मनोवृत्ति से उसी प्रकार का व्यवहार करते थे जैसा कि कापालिक शारीरिक वृत्तियों के संबंध में करते थे । उनका भी अलिखित विधान यही था जिसका प्रयोग वे मन पर करते थे । बिल्कुल वही प्रेरणा, जिससे कापालिक देह के स्तर पर भी आचरण करने मात्र से धर्म के अनुकूल चलते हुए परम श्रेयस् (पुरुषार्थ) सिद्ध करते थे । वही प्रेरणा जो मानों उन्हें गीता के इसी श्लोक से मिलती हो ।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥२२
(अध्याय १४)
इस प्रकार देह की वृत्तियों को मन का विषय न बनाते हुए, उन वृत्तियों की निन्दा या प्रशंसा न करते हुए, उनका उपहास, अपराध या गौरव-बोध अनुभव न करते हुए, शरीरधर्म की और मनोधर्म की बाध्यताओं तथा मर्यादाओं को समझकर विवेकपूर्वक वे समस्त मनोवृत्तियों से उदासीन रहते हुए आत्मधर्म की जिज्ञासा और अनुसंधान करते थे ।
इस प्रकार शरीरधर्म और मनोधर्म के मध्य किसी प्रकार की टकराहट प्रायः नहीं होती थी ।
गीता के अध्याय् १४ के उपरोक्त उल्लिखित श्लोक २२ के तुरंत बाद का ही श्लोक इस प्रकार है :
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥२३
जिसकी भूमिका इस अध्याय से पूर्व के अध्याय ९ के निम्नलिखित श्लोक में भी दृष्टव्य है:
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं  तेषु कर्मसु ॥९ 
(अध्याय ९)
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किन्तु कठोलिकों की परंपरा इस दृष्टि से कापालिकों से भिन्न थी कि वे उस निवृत्ति-मार्ग पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे जिससे उनके पूर्व-पुरुष आचार्य
उशना वा वाजश्रवा (उशन् ह वाजश्रवसः सर्ववचसं ददौ -कठोपनिषद्)
 ने अपना सब कुछ विश्वजित यज्ञ के अनुष्ठान के समय दान कर दिया था । और तब उनके पुत्र नचिकेता ने प्रश्न किया था :
"फिर तो आप मेरा भी दान कर देंगे?"
उसके पिता जानते थे कि नचिकेता ने उसके पुत्र के रूप में इस मृत्युलोक में जन्म लिया और जिस दिन भी विधाता ने लिखा होगा, वह उससे पूर्व या वह स्वयं उसके बाद मृत्यु के अधिष्ठाता देवता यम के लोक को प्राप्त होगा । इस अटल सत्य को जानते हुए ही उसने पुत्र से कहा :
"मृत्यवे त्वा ददामीति ॥"
(मृत्युवे त्वा ददामि इति) 
तात्पर्य यह कि ’यह घर, स्त्री, पुत्र, धन, ज्ञान, इत्यादि ’मेरा है’, इस प्रकार का ज्ञान प्रथमतः ’मेरे द्वारा अपने-आपके ज्ञान’ के होने के उपरान्त ही घटित होता है ...’ इस सरल तथ्य के प्रति जागृत होकर विवेकपूर्वक उसने यमराज को वह (पुत्र) दान कर दिया अर्थात् लौटा दिया ।
कापालिक केवल ईश्वर-समर्पण बुद्धि से ’प्रवृत्ति-मार्ग’ पर चलते हुए, सहज और अनायास जीते हुए परम-श्रेयस् की सिद्धि कर लेते थे, जबकि कठोलिक अपेक्षाकृत भिन्न रीति से निवृत्ति-मार्ग (नेति-नेति) पर चलते हुए आत्मानुसन्धान करते थे ।
कठोपनिषद् अवश्य ही उनके सिद्धान्त का आधारभूत ग्रन्थ था ।
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गरुड़ ने हातिम ताई को इस प्रकार इसीलिए चुना कि हातिम ताई दोनों प्रकार की शिक्षाओं के लिए पूर्ण अधिकारी और पात्र था ।
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Tuesday, 9 July 2019

रामः शस्त्रभृतामहम्

गीता 
अध्याय 10 
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।31
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शांकरभाष्य में दिया गया अर्थ :
पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियों में दशरथपुत्र राम मैं हूँ, मछली आदि जलचर प्राणियों में मकर नामक जलचरों की जाति-विशेष मैं हूँ, स्रोतों में --नदियों में मैं जाह्नवी -- गङ्गा हूँ।
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एक शस्त्रभृत राम और हैं जिन्हें विष्णु का पाँचवा 'अवतार', 'भार्गव' कहा गया है। 
वे भी शस्त्रभृत (शस्त्रधारी) अवश्य हैं।
रोचक तथ्य यह है कि भगवान् परशुराम एक ओर भृगु-कुल में उत्पन्न होने से ब्राह्मण वर्ण के हैं, जिन्होंने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से रहित कर दिया जबकि भगवान् श्रीराम ने क्षत्रिय-वंश में जन्म लेकर राक्षस-कुल के ब्राह्मण वर्ण के राजा रावण को युद्ध में परास्त किया।
आज भारत में आर्य-द्रविड, हिन्दू-मुसलमान को परस्पर भिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं (और धर्म) का भी कहकर राष्ट्रीय मानस को विखंडित करने का षड्यंत्र चल रहा है। आर्य-द्रविड सभ्यताओं में भिन्न-भिन्न परंपराएँ अवश्य हैं किन्तु वे सनातन-धर्म के ही भिन्न भिन्न प्रकार हैं, - आर्य न तो नस्ल है न जाति । आर्य-अनार्य मनुष्यमात्र में सिर्फ उसकी श्रेष्ठता और सद्गुणों, या दुर्गुणों-अवगुणों से तय होता है।  
इसी प्रकार 'हिन्दू' शब्द को अपनी अस्मिता की पहचान माननेवाले इस तथ्य की जानबूझकर या प्रमादवश भी अवहेलना कर देते हैं कि यह शब्द मूलतः सनातन-धर्म के किसी भी ग्रन्थ में नहीं पाया जा सकता। यह शब्द तो भारत पर इस्लामी आक्रमण और आधिपत्य होने के बाद ही भारत के उन मूल निवासियों के लिए प्रचलित हुआ जो धर्म के रूप में सनातन-धर्म का पालन भिन्न-भिन्न रूपों में करते थे।
हिन्दू-मुसलमान के कृत्रिम विभाजन के बाद इस प्रकार धर्म के आधार पर मुसलमानों ने पाकिस्तान नामक एक इस्लामी देश बना लिया। अब विभाजित भारत जो अगर हिंदुस्तान होता, तो सिर्फ हिन्दुओं का ही होना चाहिए था, -न कि सेक्युलर / धर्मनिरपेक्ष। इस सरल से तथ्य को भीरुता या तुष्टिकरण आदि के कारण अब तक की सरकारें दबाती-छिपाती रहीं जिसमें 'वोट-बैंक' की भी बहुत बड़ी भूमिका थी।
इस प्रकार 1947 के बाद से भारत में उस वर्ग के अधिकारों का लगातार हनन होता रहा जो अपने-आपको 'हिन्दू' कहता है। साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उभर आए जिन्होंने ऐसे 'हिन्दुओं' को राजनैतिक दलों के रूप में संगठित किया और 'हिन्दू-राजनीति' की आधारशिला रख दी।
दूसरी ओर भारत के लगभग सभी मुसलमान इस प्रकार से 'हिन्दुओं' के विरूद्ध संगठित हो गए भले ही ऊपरी तौर से वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, समाजवादी या मुस्लिम-लीग तथा विभिन्न क्षेत्रीय दलों के झंडे तले खड़े हुए हों।
आज भी इस प्रकार से लगभग सभी मुसलमान अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 'धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार' को शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
'हिन्दुओं' में भी एक बड़ा विभाजन तब हुआ जब श्री बी.आर.आंबेडकर ने दलितों के लिए 'नवबौद्ध' आंदोलन प्रारम्भ किया। आज 'जय भीम'-'जय मीम' के नारे से दलितों को भ्रमित करनेवाले जानबूझकर भूल जाते हैं कि काश्मीर में बख़्शी, अब्दुल्ला और मुफ़्ती के शासन में मीम (मुस्लिम) ने दलित वाल्मीकियों को 35 A के ज़रिए किस प्रकार नागरिक और मूलभूत मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा। काश्मीरी पंडितों को 19 जनवरी 1990 से किस प्रकार काश्मीर से पलायन के लिए बाध्य किया क्रूरता से हत्याएँ और बलात्कार किए।
गाँधी और अम्बेडकर दोनों ही 'हिन्दू' शब्द से दिग्भ्रमित हुए और यह समझ ही न सके, कि मूलतः 'हिन्दू' अस्मिता या पहचान का न तो कोई ठोस या वास्तविक आधार है, न बुनियाद।
दूसरी ओर इसी हवा-हवाई शब्द 'हिन्दू' की रेतीली बुनियाद पर अनेक 'हिन्दू' राजनीतिक संगठन बने, खड़े हुए किन्तु उनमें से प्रत्येक केवल बचाव की मुद्रा में है क्योंकि 'हिन्दू' सहिष्णु है। 'हिन्दू' सतत संशयग्रस्त है। 
गीता में कहा गया है :
"... संशयात्मा विनश्यति।"
(अध्याय 4, श्लोक 40) 
इस्लाम को अपने लक्ष्यों के बारे में क़तई कोई संशय नहीं है। 
उनकी क़िताब का हर लफ़्ज़ उन्हें उनकी तात्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या हो, - इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है। इस प्रकार हिन्दू-मुसलमान का यह बेतुका संघर्ष पूरे राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है जिसका लाभ अंततः इस्लाम को ही होना है ऐसा कहना कोरी कल्पना नहीं है।
मुसलमानों से यह उम्मीद करना कि राष्ट्रहित को महत्व देकर वे इस्लाम की शिक्षाओं का पुनरावलोकन करें हमारी मूर्खता और बहुत बड़ी नासमझी भी होगी। क्योंकि उनकी शब्दावली में 'राष्ट्र' जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, बस सिर्फ  'दार-उल-इस्लाम' या 'दार-उल-हर्ब' होता है।
इसलिए हिन्दू-राष्ट्र की बात करना बहुत बड़ी भूल है जो आत्मघात से कम कुछ नहीं है।
यदि इस आधार पर कोई संगठन खड़ा किया जाता है तो ऐसा संगठन बिखरा-बिखरा ही होगा क्योंकि उन्हें एकजुट बनाए रखने के लिए कोई सुनिश्चित, तय लक्ष्य कहीं नहीं है। "इस्लाम के वैश्विक-विश्वव्यापी अन्याय का विरोध" अवश्य ही ऐसा एक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन उसके लिए 'हिन्दू' संगठन रूपी कोई फ़्रेमवर्क / ढाँचा बनाने का मतलब होगा अपने हाथों अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेना।
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वैनतेयश्च पक्षिणाम्

श्रीमद्भग्वद्गीता (śrīmadbhagvadgītā )
अध्याय 10
प्रह्लादस्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥30
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उपरोक्त श्लोक का अंग्रेज़ी लिप्यंतरण, और हिंदी तथा अंग्रेज़ी अर्थ,
मेरे गीता-सन्दर्भ ब्लॉग में देखा जा सकता है।
हातिम ताई ने स्मरणपूर्वक 'नाम' अर्थात् 'देवता' अर्थात् 'मन्त्र' अर्थात् 'प्रतिमा' का शुद्ध रूप इस प्रकार समझ लिया और उसका जप करने लगा कि कापालिकों की परंपरा का उच्चारण उसे विस्मृतप्राय हो गया ।
इसी बीच एक दिन उसे पुनः स्वप्न में गरुड़ के दर्शन हुए जिसने उसे मानवोचित वाणी में सूचना दी कि अब पुनः एक बार मैं तुम्हें लेने आया हूँ ।
इस बार गरुड़ अत्यन्त तेजस्वी आकृति में दिखाई दे रहा था ।
"वैनतेयोऽस्मि"
कहकर गरुड़ उड़ गया और उसी समय हातिम ताई की नींद भी खुल गई किन्तु वह स्वप्न भला वह कैसे भूल सकता था ।
दूसरे दिन उसने आचार्य से स्वप्न कह सुनाया ।
तब आचार्य ने उससे कहा :
"पूर्व-जन्म में अरजा का नाम विनता था जिसका पुत्र था गरुड़ । विनता का पुत्र होने से उसे वैसे ही ’वैनतेय’ नाम प्राप्त हुआ, जैसे इतरा के पुत्र को ’ऐतरेय’ नाम प्राप्त हुआ था । जैसे ऐतरेय में अत्यन्त वैराग्य और मुमुक्षा थे, वैसे ही वैनतेय भी अत्यन्त वैराग्य और मुमुक्षा से युक्त था ।
विनता और दोनों ही को प्रारब्धवश पक्षी-योनि में जन्म लेना पड़ा क्योंकि दोनों में प्राणत्व (वायु) प्रधान था ।
विनता किसी पूर्व-जन्म में हमारे (भृगु) वंश में ही अरजा के नाम से उत्पन्न हुई थी और बाद में उसकी प्रतिष्ठा नभ की तारका के रूप में आचार्य शुक्र के लोक में हुई ।
[इस प्रकार विनता और वीनस (Venus) का, तथा वैनतेय और फ़ीनिक्स (Phoenix) का साम्य दृष्टव्य है।]
प्राण-तत्व होने से उनका संपूर्ण नाश नहीं होता किन्तु प्रकृति और आकृति अवश्य बदलती रहती है ।
वही वैनतेय तुम्हें स्वप्न में दिखाई दिया । इसका फल यह है कि मृत्युलोक में तुम्हारी आयु हो जाने पर तुम्हें शेषशायी भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त होगा । वही तुम्हें वहाँ ले जाएगा ।
वैसे भी संसार के अनित्य सुखों से हातिम ताई का मन भर चुका था इसलिए यह सुनकर वह और अधिक ईश्वर-स्मरण (नाम-स्मरण) करने लगा ।
एक दिन इसी प्रकार नाम-स्मरण करते हुए वह इतना तन्मय हो गया कि उसे देह और संसार का भान तक न रहा तभी उसे देह और संसार के भान से रहित लोक में गरुड़ की आकृति का एक तेज-पुञ्ज दूर से अपनी ओर आता दिखलाई दिया । हातिम ताई उस तेजपुञ्ज में समाकर इस लोक से विदा हो गया ।
तब आचार्य ने उसे समाधि दी, क्योंकि उसे जलाया नहीं जा सकता था और ऐसा करना शास्त्र का भी उल्लंघन होता ।
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हातिम ताई का वैदिक देवता, नाम, मन्त्र, प्रतिमा का वैदिक रूप :
अल् आ ह ।
था, जो वैदिक ऋचा भी हो सकता है । यह वैदिक मन्त्र भी है, और उस ’वैदिक-देवता’ का नाम भी जिसकी प्रतिमा का वर्णन वैसे तो किया जा सकता है किन्तु वह प्रतिमा स्थूल रूप से दृश्य नहीं हो सकती । यद्यपि सूक्ष्म-स्तर पर वह इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य भी अवश्य है । जिसे कापालिकों ने किन्हीं कारणों से बदलकार ’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ कर दिया था, कठोलिक आचार्य की परंपरा में जिसका विधान और प्रयोजन कापालिकों के विधान और प्रयोजन से भिन्न है ।
’अल्’[अलोऽन्त्यस्य १/१/५२]
वैसे भी प्रत्याहार है जो ’अ’ से ’ह’ तक संपूर्ण वर्णों का संक्षेप है ।
पुनः उ वर्ण जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित तीनों प्रकार से उच्चारणीय है इसलिए भी इसका यहाँ सम्यक् प्रकार क्या होगा यह संशय भी है ही ।
ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः
(पाणिनीय -१/२/२७)
उपरोक्त मन्त्र भी यहाँ केवल वर्णों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है और इसे पढ़ने मात्र से इसका वास्तविक ध्वन्यात्मक  वैदिक उच्चारण क्या है
यह जान पाना या वैसा प्रयास करना भी मेरे अधिकार से परे है - यद्यपि मैंने इसे सुना अवश्य है ।
इसलिए भी वेद का अध्ययन और अध्यापन अधिकारी / पात्र द्वारा ही किया जाना चाहिए, न कि अनधिकारी / अपात्र द्वारा ।
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टिप्पणी :
यह कथा  बाइबिल और क़ुरान के समय से पूर्ववर्ती काल की है और उस परिप्रेक्ष्य में नहीं है ।
कृपया इसे बाइबिल और क़ुरान से जोड़कर न देखें।
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Monday, 8 July 2019

Last days of Hatim Tai

हातिम ताई : अन्तिम समय
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ग्रीस (गिरीश) देश में रहते हुए हातिम ताई ने उतनी ही संस्कृत सीखी जितने से वह दूसरे लोगों से अच्छी तरह से बातचीत कर सकता था । वास्तव में उसने स्थानीय प्राकृत भाषा भर सीखी थी जो संस्कृत की सज्ञात -cognate मात्र थी । उसमें जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था उनकी उत्पत्ति संस्कृत के मूल शब्दों से हुई थी ऐसा लग सकता है, किन्तु यह सही नहीं है ।
क्योंकि पूरी धरती पर ही मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली सभी भाषाएँ वाणी के व्याकरण का पालन करती हैं, -न कि संस्कृत के व्याकरण का । किसी भी भाषा का व्याकरण चूँकि ’पौरुषेय’ (मनुष्य-निर्मित) होता है, इसलिए उस भाषा के पर्याप्त विकसित हो जाने के बाद ही प्रचलित रूप से सर्वसामान्य नियमों और रूढ़ियों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है । दूसरी ओर संस्कृत का व्याकरण वेद की ही तरह ’अपौरुषेय’ (ईश्वर-रचित) होने से ईश्वर की ही तरह नित्य और सनातन, शाश्वत और अमर है ।
संस्कृत के इस व्याकरण को यद्यपि इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, कुमार (स्कन्द), शाकटायन, सारस्वत, अपिशल एवं शकल ने अपने-अपने नियमों से अभिव्यक्त किया किन्तु मनुष्य लोक में उनका स्वरूप क्रमशः भौतिक स्थूल और सूक्ष्म विज्ञान (Physical Science- Physics), रसायन स्थूल और सूक्ष्म विज्ञान (Chemistry) इन दो रूपों में इन्द्र द्वारा ही प्रकाशित किया गया । यदु अर्थात् चन्द्र ने स्मृति के आधार पर इसका संकलन किया जो इन्द्रकृत ऐन्द्र-व्याकरण से नितान्त भिन्न रीति से हुआ । इस व्याकरण का ज्ञान सर्वप्रथम देवलोक में बृहस्पति से इन्द्र को प्राप्त हुआ, जबकि (मनुष्य के) मृत्युलोक में चन्द्र को यही ज्ञान सूर्य से प्राप्त हुआ । यद्यपि इन्द्र को अमर कहा जाता है किन्तु ऐसा कहना औपचारिक है । इन्द्र की आयु यद्यपि मनुष्य की आयु से कोटिगुनी अधिक है, किन्तु वह भी अन्ततः परमात्मा में एकीभूत हो जाता है, या पुण्यों के भोग के उपरान्त पुनः मनुष्य की तरह जन्म लेता है । चन्द्र का जन्म उसी तरह पृथ्वी से हुआ जैसे कुमार अर्थात् भौम का हुआ । मृत्युलोक में सूर्य ही इन्द्र है जबकि चन्द्र सूर्य से प्रकाश प्राप्त करता है और भौम स्व-ज्योतित है ।
शाकटायन उन राजाओं, व्यापारियों की भाषा का व्याकरण हुआ जो अनेक रथों से आवागमन अथवा बड़े-बड़े वाहनों / नौकाओं से वस्तुओं आदि का परिवहन (नौवहन -नौका से आना जाना, वहन -- बहना, जिससे अंग्रेज़ी के नेवी, नवल, नेविगेशन -Navy, naval, navigation, nautical आदि शब्द बनते हैं ।) करते हैं ।
सारस्वत ब्राह्मी तथा शारदा लिपियों में लिखी जानेवाली भाषाओं का व्याकरण है जिसका प्रयोग प्रायः उन सभी भाषाओं पर लागू होता है जिन्हें बाँए से दाईं ओर लिखा जाता है । इनमें से कुछ केवल स्वनिक (स्वर-आधारित अर्थात् Phonetic फ़ोनेटिक) तो शेष स्वरलिपि-आधारित (फ़ोनेटिक एवं रूपिम figurative) होती हैं ।
हातिम ताई का भाषा-ज्ञान केवल वाणी (के प्रयोग) -बोलने तक सीमित था ।
यद्यपि उस आश्रम में ताल-पत्र, भोज-पत्र और वस्त्र पर लिखे जानेवाले संस्कृत के अनेक ग्रंथ थे और ब्राह्मी लिपि में लिखी गई अनेक मृत्तिकामुद्राएँ (tablets, टेब्लेट्स) भी थीं, किन्तु वे सब हातिम ताई के लिए किसी उपयोग की नहीं थी । ब्राह्मी में लिखी चित्रलिपि के कुछ संकेतों को वह अवश्य समझ सकता था पर उससे अधिक कुछ नहीं । (इन्हीं वर्णों से बाद में भाषा लिखने की कोणीय-प्रणाली --कोनिकल-क्यूनिक- cuneiform  स्क्रिप्ट--बनी जिसका और विकास होकर फिनीशियन Phoenician-लिपि अस्तित्व में आई । ’अरजा’ के वीनस के रूप में हुए पुनर्जन्म से फ़ीनिक्स -- वीनस - सरस्वती - ब्राह्मी - शारदा -- विनीशियन - फिनीशियन / Phoenician से ही सुमेरियन Sumerian ही उन सारी लिपियों का आधार थी जो प्रागैतिहासिक काल में प्रयुक्त होती थीं और प्रायः सभी को दाएँ से बाएँ लिखा जाता था ।  फ़ीनिक्स (Phoenix) वही गरुड़ है जो मरकर अग्नि में जलकर भस्म होकर पुनः अग्नि से ही जन्म लेता है । संगीत की स्वरलिपि भी इसी लिपि और वर्णों / स्वरों के संकेत पर निर्धारित की गई जिसे ग्रथित / ’गोठिक’ Gothic रूप प्राप्त हुआ । यद्यपि  ग्रथित / ’गोठिक’ Gothic रूप में भाषा को बाएँ से दाएँ लिखा जाता रहा, क्योंकि वही वेद के लिखने की रीति है । वेद का ही एक प्रकार है ’साम’ जो ’सं’ से व्युत्पन्न है और इसी प्रकार संगीत का पर्याय है । इसी ’साम’ की वर्तनी spelling को कठोलिकों ने अपने प्रयोजन से परिवर्तित कर ’Psalm’ के रूप में लिखना प्रारंभ किया किन्तु इससे उच्चारण तथा अर्थ अपरिवर्तित ही रहा । यदि इस समय का युक्तपश्य-न्याय -- juxtapose-- कर काल-निर्धारण करें, तो वह संभवतः महाभारत युद्ध के कुछ सौ वर्षों के बाद का रहा होगा ।)
किन्तु इस बीच हातिम ताई के लिए सर्वाधिक रोमाञ्चक यदि कुछ था तो वह था उसका यज्ञोपवीत-संस्कार जिसमें आचार्य ने उसे एक साथ नाम-दीक्षा तथा मन्त्र-दीक्षा दी थी । जैसा कि किसी भी वैदिक देवता का स्वरूप नाम, मन्त्र, वर्ण (प्राण) और प्रतिमा इन चार प्रकारों में होता है, उसे जो नाम / मन्त्र दिया गया था यद्यपि वह कठोलिक संप्रदाय से उसे प्राप्त हुआ था किन्तु उसे बहुत आश्चर्य तब हुआ था जब उसे स्मरण हुआ कि इसे तो वह कापालिकों के बीच रहते हुए प्रायः सुना करता था । उसे स्मरण करते हुए और उसका उच्च्चारण करते हुए उसने आचार्य से जब प्रश्न किया कि जिसे उसने कापालिकों के बीच प्रायः सुना था क्या यह वही मन्त्र है?
जब उसने इस प्रकार कहते हुए आचार्य से इस मन्त्र के तात्पर्य की जिज्ञासा की तो उन्होंने उससे कहा :
"किसी भी मन्त्र के अर्थ की जिज्ञासा कभी मत करो । तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र का विधान और प्रयोजन होता है । यही उनका महत्व है ।"
तब हातिम ताई ने पूछा :
"मुझे दिए गए मन्त्र का विधान और प्रयोजन क्या है?"
तब आचार्य ने हातिम ताई से मन्त्र का पुनः वैसा ही शुद्ध उच्चारण करने के लिए कहा जैसा कि उनके मुख से इसे उसने सुना था ।
हातिम ताई ने इसे निर्दोष रीति से यथावत् पुनः सुना दिया ।
अब तुम उस मन्त्र को भूल जाओ और पुनः कभी उसका उच्चारण भी मत करना ।
हातिम ताई को तुरंत ही स्पष्ट हुआ कि कापालिकों द्वारा प्रयुक्त किया जानेवाला उच्चार इस मन्त्र से बहुत कुछ मिलता जुलता है, फिर भी थोड़ा सा अलग भी अवश्य है ।
क्या था वह नाम, मन्त्र, देवता और देवता की प्रतिमा?
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--क्रमशः--             

Sunday, 7 July 2019

Six stanzas from Gita.

Urge, Will, Desire ... ...
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गीता-सन्दर्भ  
अध्याय 3,
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥36               
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥37
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥38
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥39
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥40
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अध्याय 7,
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥27
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(The above stanzas have been transliterated and translated into English and could be viewed in my Blog on Gita.)
Inattention  (अनवधानता), 
Ignorance - lack of information (अज्ञान), and
Delusion (सम्मोह).
The Last stanza 7/27 refers to the Delusion (सम्मोह) associated with the mind of all creatures without exception. As it is inherent in every-one from the very birth, it causes Desire (इच्छा) and jealousy (द्वेष) as a consequence. No one who is thus born is free from the duo; namely Desire (इच्छा) and jealousy (द्वेष). The far more stronger is the Ignorance (अज्ञान) and the Negligence (प्रमाद) that this Delusion (सम्मोह) is manifest in every-one.
This Power of Delusion (सम्मोह) thus forces one to indulge into the inauspicious tendencies like the of the mind namely the Lust / Greed (काम / लोभ) and Anger (क्रोध).
Lust (काम / लोभ) consists in hope for attaining a profit in the anticipated 'future' which is obviously not at the 'present' moment. This hope is felt like 'pleasure' and the fact that at the very moment the 'profit' that is supposed to be gained in'future' is totally absent even now.
This Inattention (अनवधानता) to, and Ignorance - lack of information (अज्ञान) of the fact, are the two aspects of the Delusion (सम्मोह).
This is how one keeps lost in misery and sorrow in the life.
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Saturday, 6 July 2019

भृगु-जाबालि ऋषि

भृगु-वल्ली
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गिरीश (ग्रीस) नामक जिस देश में गरुड़ ने हातिम ताई को ला छोड़ा था वहाँ वह पूरे जीवन भर रहा ऐसा कह सकते हैं ।
उसने संस्कृत भाषा उतनी ही सीखी, जितनी उसे सिखाई गई थी ।
जैसा कि पूर्व में लिख चुका हूँ उशना (शुक्राचार्य), भृगु तथा भार्गव अर्थात् परशुराम तथा जाबालि ऋषि एक ही परंपरा अर्थात् वैदिक ऋषि-सम्प्रदाय के भिन्न-भिन्न कुलनाम हैं, जिनमें उत्पन्न हुआ या दीक्षित हुआ, इनमें से प्रत्येक होता है । फिर भी उनके कार्य-विशेष से उन्हें भिन्न-भिन्न रूपों में जाना जाता है ।
जैसा कि पूर्व में लिख चुका हूँ वन-मण्डल में अवस्थित उस भूमि पर महर्षि भृगु का आश्रम एवं गुरुकुल था जहाँ वे तैत्तिरीय-आरण्यक के उपनिषद् का अध्यापन करते थे ।
इसी उपनिषद् का उपसंहार ’भुगुवल्ली’ कहा जाता है ।
बहुत समय (सहस्रों वर्षों) तक इस आश्रम की परंपरा काष्ठवत् कठोर रीति से प्रचलित रही इसलिए संभवतः इसे ’कठोलीक’ या ’कठोलिक’ नाम प्राप्त हुआ ।
इसके बाद कालक्रम से इसमें ऋषि-परंपरा के अनुसार विभिन्न ऋषियों ने पात्रता की मर्यादा के अनुसार ’कठोपनिषद्’ का अध्ययन और अध्यापन भी किया होगा ऐसा अनुमान है ।
हातिम ताई के अवसान के बहुत बाद प्रचलित लोकभाषा में इस स्थान का नाम भृगु-वल्ली से बदलकर ’ब्रिज-वैली’ हो गया ।
समुद्र पार से दितिऋक्ष / Dietrich (यह भी शर्मन् / German राजाओं का कुलनाम है) के आक्रमण और आगमन के बाद धीरे-धीरे यह पूरा आश्रम और इसकी परंपरा विलुप्तप्राय हो गई ।
यहाँ उल्लेख्य यह है कि राजा दण्ड के राज्य में स्थित इसी आश्रम में कभी रघुवंश में उत्पन्न राजा ’दण्ड’ का आगमन हुआ जो इस आश्रम का शिष्य था और उसे आचार्य केवल धनुर्वेद की शिक्षा देते थे, न कि अन्य वेदों या वेदाङ्गों की । उसके आगमन के समय भार्गव ऋषि नित्य किए जानेवाले सन्ध्योपासन इत्यादि तथा दूसरे कार्यों से आश्रम में उपस्थित नहीं थे । आश्रम में उनकी परम सुन्दरी कन्या जिसका नाम ’अरजा’ था, के रूप-सौन्दर्य से प्रभावित होकर वह राजा कामावेग से व्याकुल हो उठा और उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध उस पर बलात्कार किया । फिर वह वहाँ से चला गया ।
जब ऋषि आश्रम पर आये और उन्होंने ’अरजा’ को मलिन-मुख रोते हुए पाया तो उससे इसका कारण पूछा ।
तब उसने पूरा वृत्तान्त पिता को कह सुनाया ।
(सन्दर्भ : वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ८०, ८१)
पिता को यह सुनकर क्रोध हुआ और उन्होंने  राजा दण्ड को शाप दिया कि यहाँ अब सतत सात दिनों तक धूलिवर्षा होगी, जिसमें सम्पूर्ण राज्य दबकर भूमि से नीचे चला जाएगा । तब उन्होंने अपनी पुत्री से कहा :
तुम्हारे लिए यहाँ एक सुन्दर सरोवर है जिसके तट पर रहते हुए तुम इस पाप का प्रायश्चित् करो ।
(प्रश्न उठ सकता है कि अरजा ने ऐसा कौन सा पाप किया ?
इसका उत्तर यही हो सकता है कि विधाता समस्त प्राणियों को उनके पाप और पुण्य का फल प्रदान करता है किन्तु वह उचित समय आने पर ही उसे प्राप्त होता है ।)
उसके द्वारा प्रायश्चित् कर लिए जाने के बाद वह पुनः पितृगृह (नभोमण्डल स्थित शुक्र ग्रह) को प्राप्त हुई और अपने वंश में जाने पर उसे 'वंशी'/ 'वीणा'  नाम प्राप्त हुआ । उसे देवी सरस्वती ने कला और संगीत की शिक्षा दी और लोक में लोकभाषा (ग्रीक) में उसे ’वीनस’ नाम प्राप्त हुआ । 
तब अरजा को ऋषि ने आकाश में अपने ही स्थान पर प्रकाशित तारका की तरह अङ्गीकृत किया जो आज भी प्रातः व सन्ध्या समय दृष्टिगोचर होती है ।
यद्यपि विभिन्न कारणों से इस कथा की कल्पना ग्रीस देश से संबद्ध है, और 'वेनिस' / Venice शहर इटली में है, कथासूत्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कथा इटली से संबद्ध है (क्योंकि Venice इटली का शहर है जहाँ इतना बड़ा जल-क्षेत्र है कि नावों से आवागमन होता है ।)
... दूसरी ओर Venus; जिसे ग्रीक भाषा में Aphrodite कहा जाता है,  भृगु या प्रीति से 'फ्रीड' 'प्रीतिं  / Friend और Fri, शुक्र के ही पर्याय / सज्ञात / cognate हो सकते हैं।   
भृगु-जाबाल-ऋषि
Compare : Brigitte - Gabriel 
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Urge, Will, Desire,

Distraction (मनो-विक्षेप) and Conflict. 
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Urge (संस्कार), Will (संकल्प), Desire  (इच्छा), Distraction (मनो-विक्षेप, अन्यमनस्कता), and Conflict (दुविधा, द्वंद्व), Illusion (भ्रम), Delusion (विभ्रम), Doubt (संशय), Ignorance (अज्ञान) and Knowledge (ज्ञान) are all different kind of modes of mind, while Realization (विज्ञान) is the only freedom (their removal), Liberation (मुक्ति).
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Urge (संस्कार), is inherent though latent or becomes active because of the external conditions and situations (of the body, mind and the world). It is none of the rest, though could be attributed to Ignorance (अज्ञान) and Knowledge (ज्ञान).
Will (संकल्प) is no doubt born of the compulsion of choice from the available options.
Desire (इच्छा) is similar to Fear / Apprehension (आशंका, भय), where one is hope and another is aversion.
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Distraction(s) (मनो-विक्षेप) like Conflict(s) (दुविधा, द्वंद्व) are many but in essence are unique as well.
This is how they are looked at.
The core-nature of Distraction (मनो-विक्षेप) is unique in that it is the attention diverted away (ध्यान विचलित होना ) or just the absent-mindedness (अन्यमनस्कता). In both situations the attention gets divided and the not fixed on a single object of attention.
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Urge (संस्कार) again is a tangled knot of memories and the patterns of actions one has gone through in the past. Freedom from the urge is tremendously a big task and here lies the relevance role of effort (प्रयत्न, प्रयास).
Effort (प्रयत्न, प्रयास) is the consequence of attention (ध्यान) that is its own movement.
attention (ध्यान) is the fixing of mind on whatever object that comes into its contact.
Awakening (अवधान) is the alertness that comes up on its own.
attention (ध्यान) is subject to time, place, condition and situation or rather to any of the 3 mental states namely the waking, dream and the dreamless sleep when waking and dream cease to exist.
Awakening (अवधान) is the movement where-in the 3 phases / of mind keep resuming repeatedly in their own turn.
attention (ध्यान) purified becomes the Awakening (अवधान).
Awakening (अवधान) prospers into the Realization (विज्ञान).
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गीता-सन्दर्भ 
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।
(अध्याय 3, श्लोक 41)
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।।
(अध्याय 6, श्लोक 8)
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजं ।।
(अध्याय 18, श्लोक 42)
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It is not through urge, desire, will, or even effort that one attains the Realization, but the clue is in the stanza 3/41 referred to above.
These 3 stanzas however, are supported by the earlier 5 stanzas of the same Chapter 3.
3/36, 3/37, 3/38, 3/39 and 3/40.
Summarily they point out inattentiveness (प्रमाद, अनवधानता) as the foreground where-in grow and breed and develops the evil tendencies like lust (काम) and anger (क्रोध), which destroy the attention  (अवधान) and thus obstruct the way of  Awakening (अवधान) and the Realization (विज्ञान).
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Hope to write on these 5 stanzas in the next post.
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Friday, 5 July 2019

योगो अनिर्विण्ण चेतसा

चेतसा 
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गीता में 'चेतसा' शब्द का प्रयोग 4 स्थानों पर प्राप्त होता है :
तं विद्याद्-दुःखसंयोग-वियोगं योगसञ्जितम् ।
सा निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।23
 (अध्याय 6)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।8
(अध्याय 8)
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।57
(अध्याय 18)
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।72
(अध्याय 18)
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उपरोक्त श्लोकों का हिंदी तथा अंग्रेज़ी अर्थ और लिप्यंतरण मेरे गीता से संबंधित ब्लॉग में देखा जा सकता है। लिंक मेरे प्रोफाइल से भी देख सकते हैं या लेबल 18/72 से भी उपलब्ध है।
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स्वादिगण की उभयपदी धातु चि - 'चिनोति' / 'चीयते' से बने चयन / चुनाव, चुनौती, चयित (चीज़), चैन (आराम, निश्चिन्त हो जाना) आदि शब्द हिंदी में बहुप्रचलित हैं।  वैसे तो इसका संबंध और उद्गम 'चित्' अर्थात् विशुद्ध बोधमात्र से है किन्तु 'निश्चय' के अर्थ में यह 'चुनावरहित' (choice-less) का द्योतक है।  स्पष्ट है कि 'choice' भी 'चयस्' का ही सज्ञात / cognate है।
चेत / चेतना का अर्थ है 'awareness' .
इसे भी अव-ऋ-न्यस् के सज्ञात / cognate की तरह समझा जा सकता है ।
यह चेतना चेत (consciousness) से इस अर्थ में भिन्न है कि कोई चेतन-सत्ता (conscious-entity) ही सचेत (conscious) अथवा अचेत (unconscious) हो सकती है। सोया हुआ मनुष्य भी अचेत (unconscious) हो सकता है और जागृत मनुष्य भी बिना सोए ही, (जैसा कि किसी कमज़ोरी या एकाएक होनेवाले मानसिक आघात से) हो सकता है।
जाग्रति की स्थिति में मनुष्य (या कोई भी चेतन-सत्ता) के द्वारा विचार के आगमन से पूर्व भी 'चुनाव' किया जा सकता है।  जैसा कि सभी प्राणी करते ही हैं।  यह 'चेतन' / चेतन अस्तित्व की स्वाभाविक गतिविधि है जिसे 'प्रवृत्ति' कह सकते हैं।  इससे भी पहले की अवस्था है 'वृत्ति' जिस पर महर्षि पतंजलि ने योग-शास्त्र लिखा है।
इस प्रकार जागृति की स्थिति में प्राणिमात्र किसी न किसी गतिविधि को चुनता है। यहाँ तक तो ठीक है किन्तु मनु की संतानों के पास भाषा-आधारित शब्दों से बनी 'विचार' नामक तकनीक होने से वह वैचारिक आधार पर भी 'चुनाव' करने लगता है।  मैं 'यह' करूँ या 'वह'; मैं 'करूँ' कि न करूँ? --इस प्रकार का विचार उठे इससे पहले ही वह अपने-आपको विचार के धरातल पर दो हिस्सों में बाँट लेता है। वह एक साथ स्वयं को ही किसी क्रिया का विषय एवं कर्ता समझ बैठता है। वह स्वयं ही उस क्रिया का विधेय -predicate और कर्ता / उद्देश्य subject मानने की भूल प्रमादवश (inattentive) होने से कर बैठता है जो विसंगतिपूर्ण है।
'निश्चय'  का अर्थ है चयन करने से पूर्व ही रुककर, विचार द्वारा चुनने की गतिविधि होने से पहले ही सावधान हो जाना।  यही सावधानता (स-अवधान होना) निर्विचार सजगता choice-less awareness है।  'विचार' के द्वारा उठाए जानेवाले समस्त मुद्दे मूलतः प्रमादजन्य होते हैं और सजगता की स्वाभाविक गतिविधि (movement) को अवरुद्ध करते हैं। प्रमाद (inattention) की अपनी एक (या असंख्य) गतिविधियाँ (movements) होती हैं।  सजगता की गतिविधि उससे बिलकुल भिन्न, अचूक और एकमेव (unique) होती है जब विचार की तकनीक को विश्राम मिलता है और फिर जब वह सक्रिय होता है तो उसमें एक नितान्त नई उमंग और तेजस्विता (ताज़गी) होती है।
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Thursday, 4 July 2019

हैहय वंश

हैहय वंश 
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हय-हय अर्थात् हैहय वंश में क्रमशः तुरंग, त्वरक और कुत्वरक हुए जिन्हें आज हैदर, तुर्क़ और क़ुर्द / कुर्द जातियों के रूप में जाना जाता है ।
तुर्क़ से ही क़ुर्द की व्युत्पत्ति; संभवतः अरबी / हिब्रू आदि लिपियों के विलोमक्रम (-बाँए से दाँए लिखे जाने) के प्रभाव से भी हो सकती है । 
जहदजहद (-जहत्-अजहत्-) न्याय
जैसे कुन्तलः (कुन्ती के पिता का कुल) कुन्तल (कु तल - कुंतल -तल वार - वार अर्थात् आघात करना - तलवार) धारी होने से कुन्तल कहे जाते हैं, - वैसे ही हैहय / हयहय भी हय (अश्व) धारी होने से हयहय कहे जाते हैं ।
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सूर्यवंश

वंशावलियाँ
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१. सूर्यवंश
अदिति से भगवान् भास्कर के जन्म (प्रकाश) के पश्चात् ही संसार के दृश्य-स्वरूप का उद्भव हुआ जिसमें भगवान् भास्कर स्थूल रूप से रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता से युक्त हैं । भगवान् भास्कर की धर्मयुक्त अर्द्धाङ्गिनी ’संज्ञा’ (यथार्थ ज्ञान, ज्ञाति) जो अनभिव्यक्त होकर सूक्ष्म और कारणरूप में भी उनके साथ नित्य विद्यमान रहती हैं, ने रजोगुण प्रधान काल और धर्म के देवता यमराज को जन्म दिया, जो समस्त चराचर भूतप्राणियों के गत अतीत, क्रियमाण, प्रारब्ध एवं भावी भविष्य के नियन्ता और मृत्यु के भी अधिष्ठाता देवता हैं ।
भगवान् सूर्य के अत्यधिक तेज को असह्य अनुभव कर किसी समय संज्ञा ने अपनी छाया-प्रतिमा बनाई और उसे सूर्य के पास छोड़कर पिता विश्वकर्मा के घर लौट आई, छाया से सावर्णि मनु (एमानुएल), शनि तथा तापी नदी उत्पन्न हुए । एक दिन सूर्य के संज्ञा से उत्पन्न पुत्र यमराज ने देखा कि उनकी माता (जो छाया के रूप में थी और यह रहस्य न जानने के कारण जिसे यमराज इस रूप में भी संज्ञा समझते थे), शनिदेवता, सावर्णि मनु एवं तापी को तो प्यार-दुलार से रखती थी किन्तु उनकी उपेक्षा करती थी तो उन्होंने क्रोध से छाया पर पैर से आघात किया और छाया ने उन्हें शाप दिया तो वे पिता के पास पहुँचे और उनसे माता के इस व्यवहार की बात कही । तब भगवान् सूर्य को सन्देह हुआ और उन्होंने छाया से पूछा :
"लगता है कि तू वास्तव में संज्ञा नहीं कोई और है, सच-सच बता तू कौन है?
तब छाया ने संज्ञा से प्राप्त अनुज्ञा के अनुसार सत्य निवेदित किया और विलीन हो गई ।
तब से छाया समस्त भूत-प्राणियों के हृदय में रहने लगी ।
सूर्य से उसके तीन पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः अहंकार, मद एवं मोह हुआ ।
उधर जब भगवान् सूर्य को ज्ञात हुआ कि संज्ञा उसके पिता विश्वकर्मा के घर चली गई है तो वे उसकी खोज करते हुए वहाँ पहुँचे । तब (भगवान् ब्रह्मा के पुत्र) विश्वकर्मा ने उन्हें बताया कि किस प्रकार संज्ञा वहाँ आई थी और किस प्रकार उन्होंने उसे :
"स्त्री का स्थान तो पति के घर में ही होता है"
कहकर लौटा दिया था और वह वहाँ से वापस चली गई ।
तब भगवान् सूर्य पुनः उसे खोजते हुए उस वन में पहुँचे जहाँ वह अश्विनी (घोड़ी) के रूप में विचरण कर रही थी ।
उसी अश्विनी (नक्षत्र) से चन्द्र की कालगणना का आरंभ हुआ ।
अश्विनी से भगवान् सूर्य को दो पुत्र अश्विनीकुमार प्राप्त हुए (अश्विनौ) जो क्रमशः विषुव (Equinox) तथा संक्रान्ति (Solstice) के रूप में वर्ष भर खगोल में विचरण करते हुए भी पृथ्वी पर जीवन को संभव करते हुए ऋतुओं और ओषधियों के देवता हैं ।
इसी प्रकार स्थूल रूप में पृथ्वी पर हैहय वंश का जन्म हुआ जिसके प्रथम पुरुष ही हयग्रीव के नाम से जाने जाते हैं । इसी वंश में उत्पन्न हुए क्षत्रिय अश्वमेध के अश्व के रूप में चुने जाते हैं और ऐसे ही अश्व अर्जुन के उस रथ में जुते थे जिसका प्रयोग उसने महाभारत के उस युद्ध में किया था जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण उनके सारथि थे ।
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(आगे और है अगली पोस्ट में ....)  

Wednesday, 3 July 2019

धीरज, धरम, मीत, अरु नारी ...

धर्मयुद्ध, राजनीति, धर्म, भारत  
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धर्म के बारे में राजनीति से प्रेरित बुद्धिजीवियों की दृष्टि 'राजसी' प्रकार की होती है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 29, 30, 31 तथा 32 में धृति-विषयक 'धर्म' के सात्त्विक, राजसी और तामसी प्रकारों को स्पष्ट किया गया है।
मनुष्य-जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से धर्म प्रथम है।
धर्म का अर्थ है जीवन की प्रेरक शक्ति जो जीवमात्र का प्रकृतिप्रदत्त स्वभाव है।
जीवन जीने की अदम्य चाह, जीवन को बचाने और संरक्षित करने, फैलने-फूलने की प्रवृत्ति ही शरीर-धर्म है। प्राणिमात्र में यह जन्मजात होती ही है।  इसी प्रवृत्ति से उसमें भूख-प्यास, जागृति-निद्रा आदि पैदा होते हैं। इसी प्रवृत्ति से इच्छा-द्वेष, राग-भय भी पैदा होते हैं। यही अर्थ (लाभ), काम -संतति की चाह, कामना तथा अंततः मुक्ति / मोक्ष ' ईश्वर-प्राप्ति में फलित होती है।  
सुखानुशयी रागः।।7  
दुःखानुशयी द्वेषः।।8 
(पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद) 
इस प्रकार सुख-दुःख (जैसे प्रतीत होते हैं) उनसे जुड़ाव होने की या दूरी होने की भावना प्राणिमात्र में जन्मजात होती है। पर्याप्त जीवन जी चुकने के बाद ही उसे स्पष्ट हो पाता है कि सभी विषय सदा (नित्य) सुखद या दुःखद नहीं हो सकते। तब वह भिन्न-भिन्न तरीकों से जीवन में अधिकतम सुख कैसे पाया जाए और दुःख को कैसे न्यूनतम किया जाए इसका प्रयत्न करने लगता है। चूँकि वह इस सत्य से अनभिज्ञ होता है कि सुख और दुःख परस्पर अविच्छिन्न हैं इसलिए उसे सुख-दुःख की दुविधा से मुक्त नहीं हो पाता।
बुद्धिजीवी भी चाहे वह राजनीतिक हो या राजनीति से दूर रहनेवाला हो, इस दुविधा का शिकार होता है।
जैसा कि ऊपर कहा गया, गीता में 'बुद्धि की भिन्नता के कारण पैदा हुई धृति' (-धर्म की समझ) भी तीन प्रकार की कही गयी है जो इस प्रकार है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ।।29
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
[उपरोक्त श्लोकों के अंग्रेजी लिप्यंतरण और हिंदी तथा अंग्रेजी अर्थ को देखना चाहें तो मेरे ही गीता-विषयक ब्लॉग  https://geetaasandarbha.blogspot.com / में देख सकते हैं।]
भारतवर्ष पर विदेशियों ने 700 वर्षों से अधिक समय तक राज्य किया।
वर्ष 1947 में हमारे देश के शासन की बागडोर हमारे हाथों में आई।
देश के स्वघोषित राजनीतिज्ञ भाग्य-विधाताओं ने राष्ट्र के विभाजन की कीमत पर यह सौदा किया।
मुसलमानों को पाकिस्तान दिया गया, जबकि हिन्दुओं को भारतवर्ष की शेष भूमि हस्तांतरित की गयी।
पाकिस्तान ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित किया और इस प्रकार उसे इस्लामिक राष्ट्र की पहचान दी, जबकि भारत (की सरकार) ने देश को हिन्दू-राष्ट्र घोषित करने से परहेज़ किया।
पाकिस्तान का निर्माण और भारत को हिन्दू-राष्ट्र की पहचान न दिया जाना, दोनों घटनाएँ मुस्लिमों के तुष्टिकरण (appeasement) के ही दो पक्ष हैं ।
इसके बाद पाकिस्तान अपने देश में धीरे-धीरे मुसलमानों के अतिरिक्त दूसरे हर समुदाय का दमन करता रहा जबकि वर्ष 1986 में भारत ने स्वयं को संवैधानिक रूप से भी 'धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी' घोषित कर दिया।
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार के आधार पर अपने धर्म का प्रचार करने छूट सभी धर्मों के लोगों को दी गयी।किन्तु इस 'नीति' में इस तथ्य की जान-बूझकर या लापरवाही तथा असावधानी से उपेक्षा कर दी गयी कि यद्यपि भारत ने हिन्दू-मुस्लिम दो पृथक राष्ट्रों की मान्यता स्वीकार कर ली थी, पाकिस्तान के लिए यह विभाजन एक और बड़े कुचक्र की भूमिका था।
जिन्ना का दो राष्ट्रों का सिद्धान्त इस्लाम के  'दार-उल-इस्लाम' तथा 'दार-उल-हर्ब' के उसूल पर आधारित था जिसकी बुनियाद इस मान्यता और लक्ष्य से प्रेरित है कि पूरे विश्व को ही अंततः इस्लाम के शासन के दायरे में लाना है। जो स्थान / देश इस्लामिक हैं उन्हें  'दार-उल-इस्लाम' का हिस्सा माना जाता है जहाँ यह लक्ष्य प्राप्त हो गया, लेकिन जो स्थान / देश इस्लामिक नहीं हैं उन्हें 'दार-उल-हर्ब' कहा गया; -याने 'वे शत्रुदेश' जिनसे तब तक युद्ध करना है जब तक कि वहाँ इस्लामिक राज्य का शासन स्थापित नहीं हो जाता।
भारत में और दुनिया भर में इस्लाम का दो राष्ट्रों का सिद्धांत यही है जिससे आम हिन्दू तो क्या बड़े बड़े राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी भी अनभिज्ञ हैं या अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं ताकि तात्कालिक रूप से 'हिन्दू-मुस्लिम भाई चारा', 'गंगा-जमनी तहजीब', और 'मिली-जुली संस्कृति' (composite-culture) का जोर-शोर से दावा करते हुए हिन्दुओं को मूर्ख बनाया जा सके, और वे छद्म रूप से मदरसों और राजनीति के माध्यम से 'दार-उल-इस्लाम' के लिए मुसलमानों को तैयार करते रहें। 'जेहाद' इस्लाम के पाँच बुनियादी उसूलों में से एक है जिसकी शिक्षा प्रत्येक मुसलमान को दी जाती है। जब तक इस्लाम में 'जेहाद' को उचित माना जाता है, काफ़िर, जेहाद, जिज़िया तथा धिम्मी जैसे शब्द इस्लाम का हिस्सा हैं, तब तक तब तक इस्लाम से कोई समझौता किया जाना राष्ट्र के लिए घोर विनाश का कारण है।
यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि जो राष्ट्र अपने आपको इस्लामिक कहते हैं उन तमाम राष्ट्रों में भी आपस में और अपने-अपने देश के भीतर भी परस्पर घमासान हिंसक युद्ध बदस्तूर जारी हैं।
इस स्थिति में एक औसत आम भारतीय के लिए क्या करना श्रेयस्कर है ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे !
यही आज सभी भारतीयों और विशेष रूप से हिन्दुओं के लिए एक गंभीर चुनौती है।
निष्कर्ष यही है कि या तो मिट जाओ, या यद्ध करो, या इस्लाम को भारतवर्ष के और दूसरे भी सभी गैर-इस्लामिक देशों के लिए राष्ट्रहित के लिए जिस किसी प्रकार से संभव हो सके, अनुकूल बनाओ।
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यही वास्तविक आपद्धर्म है जो धर्मसंकट को दूर कर सकता है।
यह 'जेहाद' नहीं धर्मयुद्ध है।   
गोस्वामी तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आती है :
धीरज धरम मीत अरु नारी।
आपत्काल परखिए चारी।। 
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Setting the Records Straight

On a voyage within.
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When I had started this blog, the main reason for writing was to keep a record of my own 'study';
or, rather a 'स्वाध्याय' in the Vedanta-parlance.
In the last three years I did a 'study' / 'पाठ' of  the वाल्मीकि-रामायण / Valmiki-Ramayana, which deals with many and various aspects of 'Creation', History, Archaeology, Astronomy, Astrology, Science, Environment, Ayurveda and of course the Spiritual and Religious aspects of life.
The six schools of approaching the core Reality / ब्रह्मविद्या (-call it Brahman, Self, Truth, God, The Existential) are the way what they call the paramArtha / परमार्थ or parAvidyA / पराविद्या.
मुण्डकोपनिषद्  1 / 1 / 3, 4 and 5 describes this in the following words :
"शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।।"
In the answer to the question asked by शौनक / shounaka,
अङ्गिरा / angira replied :
"तस्मै स होवाच।  द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ।।"
To be frank, I would like to say that though I had gone through this text a few times earlier in the last so many years, after having did the study of the वाल्मीकि-रामायण / Valmiki-Ramayana, something or some-one as if whispered in my ears :
शौनक / shounaka is John,
महाशाल / mahAshAla is Michel, Macaulay,
अङ्गिरा / angira is Angel,
(आर्ष / ArSh is Arch) 
Likewise;
गर्ग / गार्ग्य is George,
अगस्त्य is Augustus ...
पुलस्त्य / पुलिश is Paul,
आर्ष अङ्गिरा  / Arch-Angel
जाबालि-ऋषि / Gabriel 
Looked as if I was being taught and indoctrinated into yet another meaning of the Veda.
"वेद /Veda" as described in मुण्डकोपनिषद्  1 / 1 / 3, 4 and 5 as above, however say :
All knowledge that is perishable is called अपराविद्या / aparAvidyA, while the knowledge that is imperishable is called पराविद्या...।
In the beginning I ignored this inner voice but when it kept pouring upon me many such secrets, I was not a fool to discard the same as a mental fancy.
पातञ्जल योग-सूत्र अध्याय 4 (कैवल्यपाद)
pAtanjal yoga-sutra chapter 4 (kaivalya-pAda)
begins with the aphorism (सूत्र) :
"जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः ।।1 "
The various spiritual powers (सिद्धयः) come to man by birth, medicine, mantra, penance / austerities that are the result of समाधि (deep contemplation).
So I convinced myself, this is happening because of any of the above-said reasons.
There is however another explanation as well:
देवताऽनुग्रहः प्रारब्धः संकल्पमपि दृष्टव्यः।
But no doubt I had some rational approach towards understanding how the tenets of सनातन-धर्म / sanAtana-Dharma were revealed to me and that helped me decode the significance and the truth behind the origin of the Western Religions.
I had already known quite some 10 years ago why the Exodus of the people of Jehovah happened.
This was what आर्ष-अङ्गिरा जाबालि (Arch-Angel Gabriel) suggested ... !
some 3 months ago I again came across How आर्ष-अङ्गिरा जाबालि (Arch-Angel Gabriel) helped Prophet Moses when He with His tribe was forced to leave the land of प्ररोह / Pharaoh.
They had committed 2 sins.
Namely :
They were told that the Emperor  'ईश्वर इल' /  'Il' was though the God Supreme on the Whole Earth, it is not the Whole truth; and they in their ignorance rejected the Supreme God परमेश्वर That rules over the Whole World and the Whole Existence. They should not shun and denounce 'idolatry'; (the practice of worshiping a 'God' in the form of an idol).
The next was they ate beef. Killed cow.
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Yesterday only my inner voice told me :
"Israel" is but 'Il-Ishvara',
So I realized 'Isra' is but cognate of 'Ishvara' and the word 'Israel' is another linguistic transformation / variation of 'Il-Ishvara' (Chapter 'al-isra' in Koran).
In the evening I found out the confirmation while going through, what is there about Exodus in Koran.
I was always very much interested in "Exodus" (Chapter 3:14, psalm) .
This was because I had read about this in my Guru Sri Ramana's Talks.
This was also immensely important for me because
Maurice Frydman (Who wrote 'I AM THAT'; an English Translation of Sri Nisargadatta Maharaj)
was a Jew and had talked about this.
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I tried to write about how the 3 Western Religions (namely : Jew, Christianity / Catholicism and Islam) have roots in Veda, obviously this is unacceptable to many people for their own reasons.
But now I'm fully convinced all my work and research has reached the completion and I think I have nothing more to seek.
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The above is my interpretation and view.
I don't claim how far my approach is right or wrong.
I don't think this should attract discussion or argument.
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Monday, 1 July 2019

The Psyche

आज की रचना :
कच्चित् दृक्चित् दृग्चितः कच्चित् तथा च पश्चितः।
कश्चिद् दृष्टा क्वचिद् भोक्ता कर्ता सोऽहं साक्षि-सन्।।
दृक्चित् पूर्वचित्तथा पश्चितमेव च पश्यचित्।
साक्षी सन् प्राक्चित् तत्र भोक्ता कर्ता प्रतीयते।। * 
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गीता में  कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग पहली बार अध्याय 6 में इस प्रकार किया गया है :
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38
अर्थ : अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछते हैं :
"हे महाबाहो! वह आश्रयरहित और ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओर से भ्रष्ट होकर क्या छिन्न-भिन्न हुए बादल की भाँति नष्ट हो जाता है अथवा नष्ट नहीं होता?"
(गीता शांकरभाष्य से)  ;
इसी प्रकार गीता में  कच्चित् (कोई) शब्द का प्रयोग दूसरी तथा तीसरी बार अध्याय 18 में इस प्रकार
किया गया है :
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।72
अर्थ :  भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं :
"हे पार्थ! क्या तूने मुझसे कहे हुए इस शास्त्र को एकाग्रचित्त से सुना, सुनकर बुद्धि में स्थिर किया ? अथवा सुना-अनसुना कर दिया ?
हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता--चित्त का मूढ़भाव सर्वथा नष्ट हो गया, जिसके लिए कि तेरा यह शास्त्रश्रवण--विषयक परिश्रम और मेरा वक्तृत्वविषयक परिश्रम हुआ है।
(गीता शांकरभाष्य से)
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 *(श्लोकबद्ध करने का प्रयास किया है,यदि कोई त्रुटि हो तो विद्वज्जन कृपया परिमार्जन कर लें।)
अज्ञानजनित मोह--स्वाभाविक अविवेकता :
गीता अध्याय 7 का यह श्लोक यहाँ प्रासंगिक है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।27
अर्थ : हे भारत ! हे अर्जुन ! इच्छा-द्वेष-जन्य द्वन्द्व-निमित्तक मोह के द्वारा मोहित हुए समस्त प्राणी, हे परंतप ! जन्मकाल में--उत्पन्न होते ही मूढभाव में फँस जाते हैं ।
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[दृष्टव्य है कि 'Psyche' पश्यचित् का ही सज्ञात / सज्ञाति / cognate है। ]
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