Tuesday, 31 December 2019

भूत-विद्या का दोहरा सच

दृष्टि-सृष्टि और सृष्टि-दृष्टि
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दो लघु हास्यकथाएँ :
1 . वह बच्चा बहुत खुश था।
पड़ौसी ने पूछा :
"तुम इतने खुश क्यों हो?"
"आज मेरे घर भाई होने वाला है।"
"तुम्हें कैसे पता?"
"पिछली बार मम्मी को पेटदर्द हुआ था तो मम्मी को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था और जब वह हॉस्पिटल से लौटी तो बहन को लेकर आई थी। आज पापा को पेटदर्द हो रहा है।"
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2. "तुम्हारी मम्मी हॉस्पिटल से घर आ गयी?"
"हाँ आ गयी !"
"तो वो किसे लेकर आई? भाई को लेकर, या बहन को लेकर?"
"अभी पता नहीं है, अभी तो उसने कपड़े भी नहीं पहने हैं।  जब उसे पहना दिए जाएँगे तो पहचान लूँगा कि वह भाई है या बहन है !"
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कपड़ों से पहचान बनती है।
सृष्टि का समय कैसे तय करें ?
क्या सृष्टि होने के बाद 'समय' अस्तित्व में आया, या समय के अस्तित्व में आने के बाद सृष्टि हुई ?
किसी हद तक यह सवाल मुर्गी पहले थी या अंडा पहले था जैसा है।
यह फिर भी एक मौलिक प्रश्न है जहाँ से दर्शन-शास्त्र में मत-वैभिन्न्य प्रारम्भ होता है।
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सृष्टि की ही तरह सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठता है।
किन्तु एक बात तय और अत्यंत प्रकट सत्य भी है कि दृष्टि और सृष्टि अन्योन्याश्रित हैं।
एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता।
इसलिए उपरोक्त सत्य को 'युगपत्-सृष्टि' कहा जाता है।
इस 'युगपत्-सृष्टि' के अंतर्गत 'भूत' शब्द का तात्पर्य दो तरीकों से सन्दर्भ के अनुसार स्पष्ट किया जाता है।
एक वह भूत जो संस्कृत 'भू -- भवति' से बना भूत अर्थात् अतीत काल के अर्थ में प्रयुक्त होता है; - और इस प्रकार 'समय' को भूत-काल, वर्तमान-काल तथा भविष्य-काल के रूप में व्यावहारिक सत्य के रूप में समझा और व्यक्त किया जाता है। स्पष्ट है कि ऐसा 'समय' कल्पना के रूप में किसी चेतन-सत्ता / मनुष्य आदि जीवों द्वारा ही कल्पना के अंतर्गत अप्रत्यक्ष सत्य माना जाता है जिसे उस तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा-सुना या अनुभव किया जा सकता है जैसे कि तमाम दूसरी चीजों को इन्द्रियों द्वारा देखा-सुना या अनुभव किया जा सकता है।  इस प्रकार का 'समय' बुद्धिगम्य तो हो सकता है किन्तु इन्द्रियगम्य नहीं हो सकता।
दूसरी और भूत का काल-विशेष से रहित अर्थ है वह तमाम इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष अस्तित्व जिसे वैज्ञानिक तथा गणितीय प्रमाणों से सत्य की तरह ग्रहण किया जाता है। किन्तु फिर एक प्रश्न उठता है कि क्या चेतना इस प्रकार की कोई वस्तु है जो इन्द्रियगम्य अथवा बुद्धिगम्य हो सकती हो?
अपने आप का बोध न तो कोई इन्द्रियगम्य और न कोई बुद्धिगम्य तथ्य है।
अपने आप का बोध मूलतः केवल भान (apperception) है जो बोध (perception) के अभाव में तथा उससे भी पहले से (विद्यमान होता) है।
यह भान वह निःशब्द प्रत्यय (perception) है जो अविकारी (immutable) होता है, जबकि बोध हमेशा केवल इन्द्रियगम्य अथवा बुद्धिगम्य या दोनों का मिला-जुला रूप होता है।
इस बोध-रहित भान (awareness) को भी उस प्रकार से 'भूत' कहा और प्रयुक्त किया जाता है, जैसा कि गीता-उपनिषद् आदि ग्रंथों में दृष्टव्य है।
इस प्रकार 'भूत' तथा भूत-चेतना 'निरुपाधिक' है, जबकि जीव तथा जीव के अर्थ में 'भूत' शब्द का प्रयोग शरीर-विशेष से युक्त ऐसी आधिभौतिक सत्ता के लिए किया जाता है जो 'अपने आप' को संसार / जगत में पैदा हुए व्यक्ति-विशेष (individual entity) की तरह ग्रहण करती है। 
उसके अस्तित्व को स्वीकार किए जाते ही सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि 'होने' के 'समय' को उससे भिन्न एक और स्वतंत्र सत्ता की तरह ईश्वर की तरह स्वीकार करने का प्रश्न पैदा हो जाता है।
ऐसा ईश्वर तथा समय भी न तो इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष और प्रकट सत्य है, न बुद्धिगम्य प्रत्यक्ष और प्रकट अनुभव या निष्कर्ष। किन्तु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि सृष्टि (जैसा कि नित्य स्वप्रमाणित तथ्य है), कोई बेतरतीब, अराजक, अवैज्ञानिक आधार रहित गतिविधि (function) है।
यद्यपि सृष्टि जैसी प्रतीत होती है वह उसका लक्षण है और लक्षण के अर्थ में सतत परिवर्तनशील है, 'जिसे' वह इस प्रकार से 'प्रतीत' होती है, वह 'दृष्टा' स्वयं सतत अविकारी (immutable) और अविनाशी (indestructible, imperishable) होते हुए भी मन, बुद्धि, इन्द्रियों तथा जीवनयुक्त किसी शरीर से संबद्ध होने पर सोपाधिक व्यक्ति-विशेष की तरह 'भूत' कहलाता है।
इस प्रकार जीवित होते हुए या मन, बुद्धि, इन्द्रियों तथा शरीर के नष्ट होने पर भी वह नष्ट नहीं होता।
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