6 दिसंबर 2019
विषयानुभव
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ॐ भूः भुवः स्वः
क्रमशः चेतना के विषयीकरण का क्रम है।
'जो है' वह है 'अस्ति' अर्थात् शुद्ध होना मात्र; - जहाँ विषय-विषयी के द्वैत का अभाव है।
ॐ इसी 'अस्ति' की अव्यक्त और व्यक्त समष्टि है।
भूः अर्थात् जो उत्पन्न होता है।
अर्थात्, समष्टि अखंड चेतनारूपी ॐ का प्रथम व्यष्टि-आविर्भाव।
यह व्यष्टि आविर्भाव प्रकट होते ही उसका लोक (भुवः / भुवन / भव) भी वैसे ही व्यक्त हो उठता है जैसे किसी अंकुर के उगते ही उससे दो पत्तियाँ साथ-साथ निकलती हैं। इनमें से एक तो भुवः / भुवन / भव, और दूसरा 'स्व' होता है।
यह हुआ व्यष्टि 'स्व' और उससे संबद्ध उसका जगत। फिर इन दोनों के पारस्परिक संपर्क से अनु-भव अर्थात् भव-रूपी अगला अनुभव होता है।
किसी भी अनुभव के तीन कारक क्रमशः विषय, विषयी और उनके बीच होने वाला संपर्क होते हैं।
हमें जीवन में जो असंख्य अनुभव प्राप्त होते हैं, उनमें से प्रत्येक इसी का कोई भेद होता है।
उनमें से कुछ सरल-साधारण, तो कुछ अपेक्षतया कठिन, जटिल और मिश्रित भी होते हैं जिन्हें सुलझा पाना हमारी सर्वाधिक बड़ी ज़रूरत होती है और जिनके लिए हम मनोवैज्ञानिकों की शरण तक लेने के बारे में सोचने लगते हैं। जीवन असंख्य खतरों से भरा है और हम किसी कटु और दुःखद अनुभव से इस प्रकार त्रस्त हो सकते हैं कि जीते जी उनसे छूटने का रास्ता और संभावना तक नज़र नहीं आती।
बहुत से अनुभव तो ऐसे होते हैं जिन्हें हम किसी से साझा / शेयर कर सकते हैं लेकिन उपरोक्त मानसिक आघात / traumatic अनुभव एक ऐसी समस्या बन जाते हैं जिनका कोई निदान करना लगभग असंभव होता है। भूख-प्यास, शीत या ऊष्णता लगने जैसे और डर, शर्म आदि के अनुभव भी इसी प्रकार सरलता से एक-दूसरे से शेयर किए जा सकते हैं।
सभी प्रकार के शारीरिक संवेदन जैसे कि दृष्टि, गंध, स्पर्श, श्रवण, स्वाद आदि के अनुभव इसी श्रेणी में आते हैं।
पाँच कर्मेन्द्रियों के अनुभव गति और स्पर्श से अधिक संबंधित होते हैं किन्तु उन्हें मन से जोड़ते ही वे मनोवैज्ञानिक प्रकार के हो जाते हैं। शरीर के किसी हिस्से में दर्द होना, थकान या सोकर उठने पर तरो-ताज़ा महसूस करना । ये अनुभव रोमांचक, उत्तेजनापरक या कष्टप्रद भी हो सकते हैं, किन्तु यदि मन उन्हें समस्या न बनाए तो वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। ऐसा ही एक विशिष्ट अनुभव है काम-अनुभव, जो मनुष्यों की स्थिति में प्रायः एक अत्यंत जटिल समस्या बन जाता है, क्योंकि मनुष्य, मन अर्थात् विचारशील होने से जीवन की सरल-स्वाभाविकता को नैतिकता, सामाजिक मूल्यों आदि के कारण वैचारिक मनोवैज्ञानिक स्वरूप दे देता है। भोग, लालसा, भय, दुविधा, ग्लानि, अपराध-बोध, निंदा, दमन तथा मानसिक चिंतन के चलते वह इसे एक ग्रंथि बना लेता है। समाज या मनोवैज्ञानिकों के पास इसका कोई हल शायद ही हो।
गीता, अध्याय 3 का यह श्लोक ऐसी ही समस्या से ग्रस्त लोगों के बारे में है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6
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क्रमशः
विषयानुभव
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ॐ भूः भुवः स्वः
क्रमशः चेतना के विषयीकरण का क्रम है।
'जो है' वह है 'अस्ति' अर्थात् शुद्ध होना मात्र; - जहाँ विषय-विषयी के द्वैत का अभाव है।
ॐ इसी 'अस्ति' की अव्यक्त और व्यक्त समष्टि है।
भूः अर्थात् जो उत्पन्न होता है।
अर्थात्, समष्टि अखंड चेतनारूपी ॐ का प्रथम व्यष्टि-आविर्भाव।
यह व्यष्टि आविर्भाव प्रकट होते ही उसका लोक (भुवः / भुवन / भव) भी वैसे ही व्यक्त हो उठता है जैसे किसी अंकुर के उगते ही उससे दो पत्तियाँ साथ-साथ निकलती हैं। इनमें से एक तो भुवः / भुवन / भव, और दूसरा 'स्व' होता है।
यह हुआ व्यष्टि 'स्व' और उससे संबद्ध उसका जगत। फिर इन दोनों के पारस्परिक संपर्क से अनु-भव अर्थात् भव-रूपी अगला अनुभव होता है।
किसी भी अनुभव के तीन कारक क्रमशः विषय, विषयी और उनके बीच होने वाला संपर्क होते हैं।
हमें जीवन में जो असंख्य अनुभव प्राप्त होते हैं, उनमें से प्रत्येक इसी का कोई भेद होता है।
उनमें से कुछ सरल-साधारण, तो कुछ अपेक्षतया कठिन, जटिल और मिश्रित भी होते हैं जिन्हें सुलझा पाना हमारी सर्वाधिक बड़ी ज़रूरत होती है और जिनके लिए हम मनोवैज्ञानिकों की शरण तक लेने के बारे में सोचने लगते हैं। जीवन असंख्य खतरों से भरा है और हम किसी कटु और दुःखद अनुभव से इस प्रकार त्रस्त हो सकते हैं कि जीते जी उनसे छूटने का रास्ता और संभावना तक नज़र नहीं आती।
बहुत से अनुभव तो ऐसे होते हैं जिन्हें हम किसी से साझा / शेयर कर सकते हैं लेकिन उपरोक्त मानसिक आघात / traumatic अनुभव एक ऐसी समस्या बन जाते हैं जिनका कोई निदान करना लगभग असंभव होता है। भूख-प्यास, शीत या ऊष्णता लगने जैसे और डर, शर्म आदि के अनुभव भी इसी प्रकार सरलता से एक-दूसरे से शेयर किए जा सकते हैं।
सभी प्रकार के शारीरिक संवेदन जैसे कि दृष्टि, गंध, स्पर्श, श्रवण, स्वाद आदि के अनुभव इसी श्रेणी में आते हैं।
पाँच कर्मेन्द्रियों के अनुभव गति और स्पर्श से अधिक संबंधित होते हैं किन्तु उन्हें मन से जोड़ते ही वे मनोवैज्ञानिक प्रकार के हो जाते हैं। शरीर के किसी हिस्से में दर्द होना, थकान या सोकर उठने पर तरो-ताज़ा महसूस करना । ये अनुभव रोमांचक, उत्तेजनापरक या कष्टप्रद भी हो सकते हैं, किन्तु यदि मन उन्हें समस्या न बनाए तो वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। ऐसा ही एक विशिष्ट अनुभव है काम-अनुभव, जो मनुष्यों की स्थिति में प्रायः एक अत्यंत जटिल समस्या बन जाता है, क्योंकि मनुष्य, मन अर्थात् विचारशील होने से जीवन की सरल-स्वाभाविकता को नैतिकता, सामाजिक मूल्यों आदि के कारण वैचारिक मनोवैज्ञानिक स्वरूप दे देता है। भोग, लालसा, भय, दुविधा, ग्लानि, अपराध-बोध, निंदा, दमन तथा मानसिक चिंतन के चलते वह इसे एक ग्रंथि बना लेता है। समाज या मनोवैज्ञानिकों के पास इसका कोई हल शायद ही हो।
गीता, अध्याय 3 का यह श्लोक ऐसी ही समस्या से ग्रस्त लोगों के बारे में है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6
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क्रमशः
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