Threshold Consciousness.
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"फिर व्यक्ति क्या है?"
इस वाक्य से मेरे पिछले पोस्ट का समापन हुआ था ।
स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक जो अस्तित्व हमारी जागृत अवस्था में प्रकट होता है और निद्रावस्था में जिसके अभाव के भान का निषेध किसी भी तर्क या अनुभव से नहीं किया जा सकता, वही अस्तित्व 'व्यक्ति' है। इस प्रकार व्यक्ति, अभ्यासों, स्मृतियों, प्रवृत्तियों, संस्कारों, मान्यताओं का एक अत्यंत सुगठित समूह है, जिसकी यह आभासी सत्यता गहरी सुषुप्ति में उस भान / चेतना में लीन हो जाती है, जो कि नितांत निर्वैयक्तिक अधिष्ठान है।
किन्तु इसी स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक निरंतरता में व्यक्ति अपने जैसे दूसरे असंख्य मनुष्यों की तरह एक 'मैं' / 'self' होता है। 'मैं' / ego / 'self ' दो नहीं हो सकते और 'मेरा ego / self ' कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण और विसंगतिपूर्ण यहाँ तक कि हास्यास्पद तथा भ्रामक भी है। 'विचार' / व्यक्ति स्वयं ही यह भ्रम है, और स्वयं ही इस भ्रम का शिकार भी होता है ।
निर्वैयक्तिक भान में ही यह सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिसे व्यक्ति की तरह एक ठोस तथ्य मान लिया जाता है। यह देखना रोचक है कि यद्यपि इस व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और वह भान / चेतना ही वह स्वतंत्र तत्व है जो इसकी तरह न तो बनता-बिगड़ता है न, इसकी तरह जिसका आरम्भ और / या अंत होता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति की अपनी (?) सत्ता ही संदिग्ध है, तो दूसरे अन्य सभी व्यक्तियों की तुलना में कोई अच्छा या बुरा, दुष्ट या साधु, श्रेष्ठ या निकृष्ट, तुच्छ या महान्, आदर्श या साधारण कैसे हो सकता है ?
किन्तु समाज के धरातल पर कोई व्यक्ति उम्र, लिंग, बल, धन, अवसरों जैसे किसी आधार पर किसी दूसरे से भिन्न अवश्य हो सकता है।
व्यक्तियों के समूह से ही समाज उभरता है, समाज से संस्कृति और परंपराएँ तथा रूढ़ियाँ, परिपाटियाँ आदि स्थापित होती हैं, तथाकथित विकारशील धर्म / मत / विश्वास स्थापित होते हैं, और समय आने पर न केवल विलुप्त हो जाते हैं बल्कि उनका नमो-निशान तक बाकी नहीं रहता।
किन्तु भान-रूपी अविकारी निर्वैयक्तिक चेतना -काल में, तथा काल-स्थान से अछूती भी, अव्याहत गतिशील रहती है। यही वह दहलीज है, जहाँ व्यक्ति-चेतना अनायास यद्यपि एक औपचारिक सत्यता की तरह स्वीकार्य तो हो सकती है किन्तु इसे स्वीकार अस्वीकार करनेवाला कोई व्यक्ति कहीं नहीं होता।
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"फिर व्यक्ति क्या है?"
इस वाक्य से मेरे पिछले पोस्ट का समापन हुआ था ।
स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक जो अस्तित्व हमारी जागृत अवस्था में प्रकट होता है और निद्रावस्था में जिसके अभाव के भान का निषेध किसी भी तर्क या अनुभव से नहीं किया जा सकता, वही अस्तित्व 'व्यक्ति' है। इस प्रकार व्यक्ति, अभ्यासों, स्मृतियों, प्रवृत्तियों, संस्कारों, मान्यताओं का एक अत्यंत सुगठित समूह है, जिसकी यह आभासी सत्यता गहरी सुषुप्ति में उस भान / चेतना में लीन हो जाती है, जो कि नितांत निर्वैयक्तिक अधिष्ठान है।
किन्तु इसी स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक निरंतरता में व्यक्ति अपने जैसे दूसरे असंख्य मनुष्यों की तरह एक 'मैं' / 'self' होता है। 'मैं' / ego / 'self ' दो नहीं हो सकते और 'मेरा ego / self ' कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण और विसंगतिपूर्ण यहाँ तक कि हास्यास्पद तथा भ्रामक भी है। 'विचार' / व्यक्ति स्वयं ही यह भ्रम है, और स्वयं ही इस भ्रम का शिकार भी होता है ।
निर्वैयक्तिक भान में ही यह सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिसे व्यक्ति की तरह एक ठोस तथ्य मान लिया जाता है। यह देखना रोचक है कि यद्यपि इस व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और वह भान / चेतना ही वह स्वतंत्र तत्व है जो इसकी तरह न तो बनता-बिगड़ता है न, इसकी तरह जिसका आरम्भ और / या अंत होता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति की अपनी (?) सत्ता ही संदिग्ध है, तो दूसरे अन्य सभी व्यक्तियों की तुलना में कोई अच्छा या बुरा, दुष्ट या साधु, श्रेष्ठ या निकृष्ट, तुच्छ या महान्, आदर्श या साधारण कैसे हो सकता है ?
किन्तु समाज के धरातल पर कोई व्यक्ति उम्र, लिंग, बल, धन, अवसरों जैसे किसी आधार पर किसी दूसरे से भिन्न अवश्य हो सकता है।
व्यक्तियों के समूह से ही समाज उभरता है, समाज से संस्कृति और परंपराएँ तथा रूढ़ियाँ, परिपाटियाँ आदि स्थापित होती हैं, तथाकथित विकारशील धर्म / मत / विश्वास स्थापित होते हैं, और समय आने पर न केवल विलुप्त हो जाते हैं बल्कि उनका नमो-निशान तक बाकी नहीं रहता।
किन्तु भान-रूपी अविकारी निर्वैयक्तिक चेतना -काल में, तथा काल-स्थान से अछूती भी, अव्याहत गतिशील रहती है। यही वह दहलीज है, जहाँ व्यक्ति-चेतना अनायास यद्यपि एक औपचारिक सत्यता की तरह स्वीकार्य तो हो सकती है किन्तु इसे स्वीकार अस्वीकार करनेवाला कोई व्यक्ति कहीं नहीं होता।
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