शारीरिक हो अथवा मानसिक, भावनात्मक हो या स्मृतिगत, वैचारिक हो या विवेचनात्मक, सभी अनुभवों में एक विषयी होता है जिसे विषयानुभव होता है। कोई विषय होता है जिसे अनुभव के रूप में ग्रहण किया जाता है। विषय हो अथवा शुद्धतः दैहिक या इन्द्रिय-अनुभव, क्या वहाँ / तब उसका कोई ऐसा स्वतंत्र अनुभवकर्ता होता है जो सतत और अखंडित, अबाधित होता हो? क्या ऐसा कोई अनुभवकर्ता (जिसे 'मैं' कहा जाता है) केवल एक सुविधाजनक मान्यता ही नहीं है?
एक रोचक तथ्य यह है कि जब तक कोई अनुभव नितांत शुद्ध होता है तब तक वह समस्या नहीं होता, किन्तु जैसे ही 'अनुभवकर्ता' अपने होने का दावा करता है, उसे बुद्धि में और बुद्धि द्वारा ही एक वास्तविक सत्य की तरह अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। बुद्धि मस्तिष्क की वैसी ही शुद्धतः यांत्रिक व्यवस्था / प्रणाली है, जैसे की शरीर की तमाम दूसरी गतिविधियाँ अनायास होती हैं। केवल तभी, जब विचारकर्ता विचार के माध्यम से अपने अस्तित्व की उद्घोषणा करता है, बुद्धि की स्वाभाविक गतिविधि में व्यवधान पैदा हो जाता है। फिर इसी व्यवधान को विचारशीलता की तरह मान्य और गौरवान्वित भी किया जाता है। और शायद इसीलिए यह इतना रोचक है !
अनुभव-मात्र अतीत होता है और अनुभवकर्ता उसकी स्मृति। स्मृति, पहचान और अतीत विचार के ही पर्याय हैं इसलिए एक के अभाव में शेष दोनों नहीं हो सकते। इस प्रकार वर्त्तमान के क्षण में अनुभवकर्ता नामक यह घटना सतत नए और भिन्न रूप में उभरती और विलुप्त होती रहती है किन्तु बुद्धि में इस खंड-खंड सातत्य को एक अखंड सत्ता मान लिया जाता है।
जैसे-जैसे अनुभव मिश्रित और संश्लिष्ट होकर अधिक जटिल हो जाता है, (अपने) अनुभवकर्ता होने की धारणा / मान्यता उतनी ही अधिक दृढ होने लगती है और तब यही अनुभवकर्ता अपने स्वतंत्र अस्तित्व का सत्य प्रतीत होने लगता है। स्मृति, पहचान, विचार और अतीत का कोई सातत्य नहीं होता बल्कि वे ही सातत्य होते हैं जो चेतना को आवरित कर लेते हैं और 'अनुभवकर्ता' 'मैं' की तरह अपने-आपको स्वतंत्र घोषित करता है।चेतना के लुप्त होते ही यह अनुभवकर्ता भी विलुप्त हो जाता है और चेतना के पुनः स्फुरित होते ही घोषित करता है: "मैं अचेत था।"
यदि अनुभवकर्ता अचेत होता तो उसे कैसे पता चल सकता था कि वह अचेत था?
इस प्रकार अनुभवकर्ता के अचेत होने की स्थिति में भी कोई जागृत था; - आधारभूत चेतना जागृत थी जिसमें अनुभव, अनुभवकर्ता और स्मृति परस्पर क्रीडा करते हैं। ये तीनों एक साथ विलुप्त और एक साथ पुनः प्रकट होते हैं और परस्पर अभिन्न और अनन्य भी हैं।
ये सभी स्मृति से ही हैं, और स्मृतिरूप ही हैं।
स्मृति स्वयं ही सातत्य है जबकि चेतना इस सातत्य, अनुभव, अनुभवकर्ता, अतीत, पहचान आदि से नितांत अस्पर्शित होती है ।
फिर व्यक्ति क्या है?
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एक रोचक तथ्य यह है कि जब तक कोई अनुभव नितांत शुद्ध होता है तब तक वह समस्या नहीं होता, किन्तु जैसे ही 'अनुभवकर्ता' अपने होने का दावा करता है, उसे बुद्धि में और बुद्धि द्वारा ही एक वास्तविक सत्य की तरह अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। बुद्धि मस्तिष्क की वैसी ही शुद्धतः यांत्रिक व्यवस्था / प्रणाली है, जैसे की शरीर की तमाम दूसरी गतिविधियाँ अनायास होती हैं। केवल तभी, जब विचारकर्ता विचार के माध्यम से अपने अस्तित्व की उद्घोषणा करता है, बुद्धि की स्वाभाविक गतिविधि में व्यवधान पैदा हो जाता है। फिर इसी व्यवधान को विचारशीलता की तरह मान्य और गौरवान्वित भी किया जाता है। और शायद इसीलिए यह इतना रोचक है !
अनुभव-मात्र अतीत होता है और अनुभवकर्ता उसकी स्मृति। स्मृति, पहचान और अतीत विचार के ही पर्याय हैं इसलिए एक के अभाव में शेष दोनों नहीं हो सकते। इस प्रकार वर्त्तमान के क्षण में अनुभवकर्ता नामक यह घटना सतत नए और भिन्न रूप में उभरती और विलुप्त होती रहती है किन्तु बुद्धि में इस खंड-खंड सातत्य को एक अखंड सत्ता मान लिया जाता है।
जैसे-जैसे अनुभव मिश्रित और संश्लिष्ट होकर अधिक जटिल हो जाता है, (अपने) अनुभवकर्ता होने की धारणा / मान्यता उतनी ही अधिक दृढ होने लगती है और तब यही अनुभवकर्ता अपने स्वतंत्र अस्तित्व का सत्य प्रतीत होने लगता है। स्मृति, पहचान, विचार और अतीत का कोई सातत्य नहीं होता बल्कि वे ही सातत्य होते हैं जो चेतना को आवरित कर लेते हैं और 'अनुभवकर्ता' 'मैं' की तरह अपने-आपको स्वतंत्र घोषित करता है।चेतना के लुप्त होते ही यह अनुभवकर्ता भी विलुप्त हो जाता है और चेतना के पुनः स्फुरित होते ही घोषित करता है: "मैं अचेत था।"
यदि अनुभवकर्ता अचेत होता तो उसे कैसे पता चल सकता था कि वह अचेत था?
इस प्रकार अनुभवकर्ता के अचेत होने की स्थिति में भी कोई जागृत था; - आधारभूत चेतना जागृत थी जिसमें अनुभव, अनुभवकर्ता और स्मृति परस्पर क्रीडा करते हैं। ये तीनों एक साथ विलुप्त और एक साथ पुनः प्रकट होते हैं और परस्पर अभिन्न और अनन्य भी हैं।
ये सभी स्मृति से ही हैं, और स्मृतिरूप ही हैं।
स्मृति स्वयं ही सातत्य है जबकि चेतना इस सातत्य, अनुभव, अनुभवकर्ता, अतीत, पहचान आदि से नितांत अस्पर्शित होती है ।
फिर व्यक्ति क्या है?
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