निरुद्देश्य चिंतन
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24 नवंबर 2019 से इस नए स्थान पर रह रहा हूँ।
भू-तल पर 'गुरुकुल' संचालित होता है, जहाँ बच्चों को वैदिक / सनातन धर्म की प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती है।प्रथम तल पर मैं रहता हूँ जहाँ बाहर 15 x 20 फुट की बालकनी है, बड़ा सा ड्रॉइंग-रूम, दो बेड-रूम और अटैच्ड लैट-बाथ भी हैं। ऊपर लम्बी चौड़ी छत। घर के आसपास बहुत बड़े क्षेत्र में दस-बीस मकान और लगभग निर्जन सी सड़कें। दोपहर में गाय-भैंस-बकरियाँ पूरे क्षेत्र में चरती रहती हैं। आसपास एक किलोमीटर तक कोई छोटी-बड़ी दूकान तक नहीं। चाय भी पीना हो तो इतनी दूर तक जाना होता है। मेरे पास न तो वाहन है, न कोई अन्य साधन जिससे मैं अधिक दूर तक जा सकूँ। वैसे भ्रमण के लिए अवश्य ही बहुत अनुकूल स्थान है।
अत्यंत शांतिपूर्ण इस वातावरण में वैसे तो बहुत एकांत है, किन्तु दिन भर में लगभग डेढ़ घंटे के शिक्षा के पाठ के चार अनुष्ठान प्रतिदिन होते हैं और पूजा-आरती भी होते ही हैं।
शाम के समय जब आरती होती है तो जिस प्रकार प्रायः हिन्दू मंदिरों में होता है;
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में प्रीति हो"
का उद्घोष यहाँ भी जोर-शोर से होता है।
इस उद्घोष में उत्साह का होना प्रशंसनीय है, किन्तु उत्साह कब उग्रता में बदल जाता है इस ओर शायद ही ध्यान जाता हो।
भगवान् श्रीराम की जन्म-भूमि के लिए किया गया आंदोलन वास्तव में धर्म की उस मर्यादा में रहकर किया गया जिसके लिए भगवान् श्रीराम को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा जाता है।
"धर्म" क्या है, यह जानना-समझना तो शायद बुद्धिजीवियों के लिए भी कठिन है, किन्तु "अधर्म" क्या है इसे कम पढ़ा-लिखा या अशिक्षित मनुष्य भी आसानी से जान-समझ सकता है।
"हिंसा" अर्थात् निरीह प्राणियों को अनावश्यक पीड़ा देना "अधर्म" है, -यह अनुभव करना किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, भले ही उसे हिंसा-अहिंसा की परिभाषा विस्तार से न मालूम हो।
"अहिंसा" धर्म है इसे जानना-समझना शायद कठिन हो, किन्तु किसी भी प्रकार की "हिंसा" मूलतः "अधर्म" है इसे हर कोई अनायास ही जान सकता है। और दूसरे पर की जानेवाली "हिंसा" वस्तुतः स्वयं के भीतर भी क्रूरता, उद्वेग और असंवेदनशीलता को न सिर्फ पैदा करती है बल्कि उसे और भी बढ़ाती तथा सशक्त करती है। इस प्रकार "हिंसा" अशुभ तथा मनुष्य के आध्यात्मिक पतन का कारण भी है ही।
हिंसक प्राणी भी प्रायः उनके शरीर-धर्म तथा स्वभाव के अनुसार ही परस्पर हिंसा करने के लिए बाध्य होते हैं, न कि मनुष्य की तरह किसी ईर्ष्या-द्वेष या आदर्श आदि से प्रेरित होकर। वे पशु-पक्षी भी भूख के निवारण के लिए या आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा करते हैं। केवल मनुष्य ही उन्मादग्रस्त होने से हिंसा को कभी कर्तव्य कहकर तो कभी अहंकार के नशे में डूबा होने से गौरवान्वित करता है।
इसलिए मनुष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि वह अपनी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा का मार्ग ले। यदि इस स्वाभाविक और आवश्यक हिंसा को धर्म कहा जाए तो वह हुई धर्म की मर्यादा।
मनुष्य की स्थिति में हिंसा-अहिंसा का वर्गीकरण इसी आधार पर होना चाहिए कि दुर्बल या मंद-बुद्धि के कारण अपराध की प्रवृत्ति रखनेवाले पर भी हिंसा करना प्रथमतः अधर्म होगा। किन्तु दुष्ट प्रवृत्ति के मनुष्य को दंड देना ही समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए धर्म होगा, -न कि अधर्म। इसलिए दुर्बल पर आक्रमण करना या उस पर हिंसा करना "धर्म" नहीं हो सकता। किन्तु कई कारणों से जो इस प्रकार की हिंसा की प्रवृत्ति रखते हैं, वे अपनी इस प्रवृत्ति को धार्मिक-स्वतन्त्रता के अधिकार की आड़ में छिपाकर अन्य मतावलंबियों पर आक्रमण और छल-बल से उन्हें अपने मत में मतांतरित करने का प्रयास करते हैं, वे वस्तुतः अधर्म के ही पोषक होते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि प्राणियों में परस्पर भय व्याप्त होता है, जो घृणा तथा अविश्वास बन जाता है। और तब उनमें परस्पर प्रीति कैसे हो सकती है? तब वे सहिष्णु कैसे हो सकते हैं? और उन्हें सहिष्णु क्यों होना चाहिए?
इस गुरुकुल में तथा अन्य स्थानों पर भी :
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, ... !"
के मन्त्रोच्चार के साथ-साथ :
"प्राणियों में प्रीति हो !"
इस मन्त्र का उद्घोष भी किया जाता है।
स्पष्ट है कि जब ऐसे मन्त्रों (उद्घोषों) का उच्चार इतनी उग्रता और आवेग के साथ ऊँचे से ऊँचे स्वरों में गला फाड़कर किया जाता है कि आसपास के रहनेवालों को असुविधा या कष्ट पैदा करता हो, तो वह 'अहिंसा' नहीं हो सकता।
इसे 'हिंसा' ही कहा जा सकता है।
अब मेरे सामने ये विकल्प हैं :
1. मैं इस बारे में गुरुकुल के व्यवस्थापकों से बातचीत कर उन्हें इस बारे में बतलाऊँ।
शायद उन्हें मेरी बात बुरी न लगे और वे शांतिपूर्वक सुनने को राज़ी हों। और इस बारे में कुछ करें।
2. इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाऊँ।
3. चूँकि मेरे-उनके बीच सीधा-संवाद नहीं है, और मैं नहीं जानता कि कब तक यह क्रम जारी रहेगा, इसलिए मैं तब तक शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करता रहूँ कि शायद कभी ऐसा होगा, और वे स्वयं ही ऊबकर या अन्य कारणों से इस प्रकार की कार्य-संस्कृति में बदलाव लाएँ । यदि मैं उनसे अनुरोध भी करूँ तो भी मैं नहीं कह सकता कि इसे वे किस प्रकार ग्रहण करेंगे। मेरा उनसे न तो कोई विवाद है, न मैं उन्हें कोई उपदेश या सुझाव तक देना चाहूँगा।
किन्तु "न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम्" के अनुसार तो उनसे इस बारे में कुछ न कहना ही शायद अधिक अच्छा होगा। --
जीवन को व्यक्तिगत, सामाजिक या विश्व-दृष्टि से जोड़कर देखें तो जीवन की प्रत्येक समस्या, या कहें तो प्रश्न, एक चुनौती और एक अवसर होता है जो किसी सम्यक् प्रत्युत्तर की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार हर चुनौती एक ऐसा अवसर भी सिद्ध हो सकती है, जिसमें आप अपेक्षित कर्तव्य / दायित्व का निर्वाह कर ऐसा श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जो सबके लिए हितप्रद भी हो।
इस प्रकार वर्तमान स्थिति में हो सकता है कि मैं इस स्थान को छोड़ दूँ, अन्यत्र चला जाऊँ, जो मेरे लिए वैसे अधिक आसान भी है ।
किन्तु इस प्रकार मेरे यहाँ से जाने से क्या यह प्रश्न / समस्या सब के लिए समाप्त हो जाएगी?
हाँ, मेरे लिए अवश्य समाप्त हो जाएगी, किन्तु समाज और राष्ट्र, तथा दूसरे लोगों के लिए समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि मनुष्य सिर्फ जीते रहना ही नहीं, सुखपूर्वक संसार के अनेक भोगों का उपभोग करते हुए हमेशा-हमेशा के लिए जीते रहना चाहता है, और उन सुखों की भोग की मर्यादा का पालन करते हुए शायद यह भी संभव है।
फिर प्रश्न उठता है कि व्यक्तिगत इच्छाओं और परिवार, समाज और व्यवस्थागत सीमाओं के भीतर, उनके बीच ऐसा सामंजस्य और संतुलन बनाए रखना यह कहाँ तक और कितना संभव है?
स्पष्ट है कि हर व्यक्ति की ऐसी अनेक आकांक्षाएँ / इच्छाएँ होती हैं जो दूसरों की इच्छाओं-आकांक्षाओं से टकराती हैं, और यद्यपि कोई अपनी कुछ इच्छाओं की बलि भी दे सकता है, हर कोई ऐसा नहीं कर सकता। काश यह संभव होता !
फिर भी मनुष्य की सर्वाधिक प्रबल आकांक्षा होती है स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने की।
क्या लोभ और भय हमारी ज़रूरत है? क्या अनावश्यक लोभ और भय से हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन भी अधिक विशृंखल, अस्त-व्यस्त नहीं हो जाता ?
क्या सुखों की प्राप्ति भौतिकता के विकास के साथ- साथ हो सकती है?
क्या व्यक्ति का जीवन ही समाज के जीवन में प्रतिफलित नहीं होता?
जब तक लोभ, भय, महत्वाकाँक्षा आदि हैं, तब तक प्रतिस्पर्धा भी अनेक तलों पर, अनेक प्रकारों तथा अनेक स्तरों पर होती ही रहेगी। प्रतिस्पर्धा में सफलता, असफलता, आशा, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अवसाद, विषाद, गर्व, अहंकार, क्रूरता, ग्लानि, उद्विग्नता तथा अपराध-बोध, अविश्वास तथा संदेह आदि भी पैदा होंगे ही। क्षणिक उल्लास और उत्तेजनाएँ भी आएँगे और चले जाएँगे, जो सुख भले ही प्रतीत हों शांति की कीमत देकर प्राप्त होंगे।
मनुष्यों के एक वर्ग में किसी आदर्श या मत के आग्रह के आधार पर भले ही आपसी सहमति हो, उनकी दूसरी अनेक आवश्यकताएँ उनके बीच टकराहटें पैदा करेंगी। और तब परस्पर संवाद और भी अधिक मुश्किल हो जाएगा।
यदि संवाद है तो इस सब पर चर्चा की जा सकती है, और यदि संवाद ही अनुपस्थित है, तो चर्चा निरर्थक होगी। इसलिए यदि कोई पूर्वाग्रह-ग्रस्त है, तो बेहतर है कि वह पहले अपने-आप से, -स्वयं से संवाद कर ले, और पहले अपने पूर्वाग्रह से मुक्ति पा ले ।
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24 नवंबर 2019 से इस नए स्थान पर रह रहा हूँ।
भू-तल पर 'गुरुकुल' संचालित होता है, जहाँ बच्चों को वैदिक / सनातन धर्म की प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती है।प्रथम तल पर मैं रहता हूँ जहाँ बाहर 15 x 20 फुट की बालकनी है, बड़ा सा ड्रॉइंग-रूम, दो बेड-रूम और अटैच्ड लैट-बाथ भी हैं। ऊपर लम्बी चौड़ी छत। घर के आसपास बहुत बड़े क्षेत्र में दस-बीस मकान और लगभग निर्जन सी सड़कें। दोपहर में गाय-भैंस-बकरियाँ पूरे क्षेत्र में चरती रहती हैं। आसपास एक किलोमीटर तक कोई छोटी-बड़ी दूकान तक नहीं। चाय भी पीना हो तो इतनी दूर तक जाना होता है। मेरे पास न तो वाहन है, न कोई अन्य साधन जिससे मैं अधिक दूर तक जा सकूँ। वैसे भ्रमण के लिए अवश्य ही बहुत अनुकूल स्थान है।
अत्यंत शांतिपूर्ण इस वातावरण में वैसे तो बहुत एकांत है, किन्तु दिन भर में लगभग डेढ़ घंटे के शिक्षा के पाठ के चार अनुष्ठान प्रतिदिन होते हैं और पूजा-आरती भी होते ही हैं।
शाम के समय जब आरती होती है तो जिस प्रकार प्रायः हिन्दू मंदिरों में होता है;
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में प्रीति हो"
का उद्घोष यहाँ भी जोर-शोर से होता है।
इस उद्घोष में उत्साह का होना प्रशंसनीय है, किन्तु उत्साह कब उग्रता में बदल जाता है इस ओर शायद ही ध्यान जाता हो।
भगवान् श्रीराम की जन्म-भूमि के लिए किया गया आंदोलन वास्तव में धर्म की उस मर्यादा में रहकर किया गया जिसके लिए भगवान् श्रीराम को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा जाता है।
"धर्म" क्या है, यह जानना-समझना तो शायद बुद्धिजीवियों के लिए भी कठिन है, किन्तु "अधर्म" क्या है इसे कम पढ़ा-लिखा या अशिक्षित मनुष्य भी आसानी से जान-समझ सकता है।
"हिंसा" अर्थात् निरीह प्राणियों को अनावश्यक पीड़ा देना "अधर्म" है, -यह अनुभव करना किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, भले ही उसे हिंसा-अहिंसा की परिभाषा विस्तार से न मालूम हो।
"अहिंसा" धर्म है इसे जानना-समझना शायद कठिन हो, किन्तु किसी भी प्रकार की "हिंसा" मूलतः "अधर्म" है इसे हर कोई अनायास ही जान सकता है। और दूसरे पर की जानेवाली "हिंसा" वस्तुतः स्वयं के भीतर भी क्रूरता, उद्वेग और असंवेदनशीलता को न सिर्फ पैदा करती है बल्कि उसे और भी बढ़ाती तथा सशक्त करती है। इस प्रकार "हिंसा" अशुभ तथा मनुष्य के आध्यात्मिक पतन का कारण भी है ही।
हिंसक प्राणी भी प्रायः उनके शरीर-धर्म तथा स्वभाव के अनुसार ही परस्पर हिंसा करने के लिए बाध्य होते हैं, न कि मनुष्य की तरह किसी ईर्ष्या-द्वेष या आदर्श आदि से प्रेरित होकर। वे पशु-पक्षी भी भूख के निवारण के लिए या आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा करते हैं। केवल मनुष्य ही उन्मादग्रस्त होने से हिंसा को कभी कर्तव्य कहकर तो कभी अहंकार के नशे में डूबा होने से गौरवान्वित करता है।
इसलिए मनुष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि वह अपनी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा का मार्ग ले। यदि इस स्वाभाविक और आवश्यक हिंसा को धर्म कहा जाए तो वह हुई धर्म की मर्यादा।
मनुष्य की स्थिति में हिंसा-अहिंसा का वर्गीकरण इसी आधार पर होना चाहिए कि दुर्बल या मंद-बुद्धि के कारण अपराध की प्रवृत्ति रखनेवाले पर भी हिंसा करना प्रथमतः अधर्म होगा। किन्तु दुष्ट प्रवृत्ति के मनुष्य को दंड देना ही समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए धर्म होगा, -न कि अधर्म। इसलिए दुर्बल पर आक्रमण करना या उस पर हिंसा करना "धर्म" नहीं हो सकता। किन्तु कई कारणों से जो इस प्रकार की हिंसा की प्रवृत्ति रखते हैं, वे अपनी इस प्रवृत्ति को धार्मिक-स्वतन्त्रता के अधिकार की आड़ में छिपाकर अन्य मतावलंबियों पर आक्रमण और छल-बल से उन्हें अपने मत में मतांतरित करने का प्रयास करते हैं, वे वस्तुतः अधर्म के ही पोषक होते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि प्राणियों में परस्पर भय व्याप्त होता है, जो घृणा तथा अविश्वास बन जाता है। और तब उनमें परस्पर प्रीति कैसे हो सकती है? तब वे सहिष्णु कैसे हो सकते हैं? और उन्हें सहिष्णु क्यों होना चाहिए?
इस गुरुकुल में तथा अन्य स्थानों पर भी :
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, ... !"
के मन्त्रोच्चार के साथ-साथ :
"प्राणियों में प्रीति हो !"
इस मन्त्र का उद्घोष भी किया जाता है।
स्पष्ट है कि जब ऐसे मन्त्रों (उद्घोषों) का उच्चार इतनी उग्रता और आवेग के साथ ऊँचे से ऊँचे स्वरों में गला फाड़कर किया जाता है कि आसपास के रहनेवालों को असुविधा या कष्ट पैदा करता हो, तो वह 'अहिंसा' नहीं हो सकता।
इसे 'हिंसा' ही कहा जा सकता है।
अब मेरे सामने ये विकल्प हैं :
1. मैं इस बारे में गुरुकुल के व्यवस्थापकों से बातचीत कर उन्हें इस बारे में बतलाऊँ।
शायद उन्हें मेरी बात बुरी न लगे और वे शांतिपूर्वक सुनने को राज़ी हों। और इस बारे में कुछ करें।
2. इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाऊँ।
3. चूँकि मेरे-उनके बीच सीधा-संवाद नहीं है, और मैं नहीं जानता कि कब तक यह क्रम जारी रहेगा, इसलिए मैं तब तक शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करता रहूँ कि शायद कभी ऐसा होगा, और वे स्वयं ही ऊबकर या अन्य कारणों से इस प्रकार की कार्य-संस्कृति में बदलाव लाएँ । यदि मैं उनसे अनुरोध भी करूँ तो भी मैं नहीं कह सकता कि इसे वे किस प्रकार ग्रहण करेंगे। मेरा उनसे न तो कोई विवाद है, न मैं उन्हें कोई उपदेश या सुझाव तक देना चाहूँगा।
किन्तु "न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम्" के अनुसार तो उनसे इस बारे में कुछ न कहना ही शायद अधिक अच्छा होगा। --
जीवन को व्यक्तिगत, सामाजिक या विश्व-दृष्टि से जोड़कर देखें तो जीवन की प्रत्येक समस्या, या कहें तो प्रश्न, एक चुनौती और एक अवसर होता है जो किसी सम्यक् प्रत्युत्तर की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार हर चुनौती एक ऐसा अवसर भी सिद्ध हो सकती है, जिसमें आप अपेक्षित कर्तव्य / दायित्व का निर्वाह कर ऐसा श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जो सबके लिए हितप्रद भी हो।
इस प्रकार वर्तमान स्थिति में हो सकता है कि मैं इस स्थान को छोड़ दूँ, अन्यत्र चला जाऊँ, जो मेरे लिए वैसे अधिक आसान भी है ।
किन्तु इस प्रकार मेरे यहाँ से जाने से क्या यह प्रश्न / समस्या सब के लिए समाप्त हो जाएगी?
हाँ, मेरे लिए अवश्य समाप्त हो जाएगी, किन्तु समाज और राष्ट्र, तथा दूसरे लोगों के लिए समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि मनुष्य सिर्फ जीते रहना ही नहीं, सुखपूर्वक संसार के अनेक भोगों का उपभोग करते हुए हमेशा-हमेशा के लिए जीते रहना चाहता है, और उन सुखों की भोग की मर्यादा का पालन करते हुए शायद यह भी संभव है।
फिर प्रश्न उठता है कि व्यक्तिगत इच्छाओं और परिवार, समाज और व्यवस्थागत सीमाओं के भीतर, उनके बीच ऐसा सामंजस्य और संतुलन बनाए रखना यह कहाँ तक और कितना संभव है?
स्पष्ट है कि हर व्यक्ति की ऐसी अनेक आकांक्षाएँ / इच्छाएँ होती हैं जो दूसरों की इच्छाओं-आकांक्षाओं से टकराती हैं, और यद्यपि कोई अपनी कुछ इच्छाओं की बलि भी दे सकता है, हर कोई ऐसा नहीं कर सकता। काश यह संभव होता !
फिर भी मनुष्य की सर्वाधिक प्रबल आकांक्षा होती है स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने की।
क्या लोभ और भय हमारी ज़रूरत है? क्या अनावश्यक लोभ और भय से हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन भी अधिक विशृंखल, अस्त-व्यस्त नहीं हो जाता ?
क्या सुखों की प्राप्ति भौतिकता के विकास के साथ- साथ हो सकती है?
क्या व्यक्ति का जीवन ही समाज के जीवन में प्रतिफलित नहीं होता?
जब तक लोभ, भय, महत्वाकाँक्षा आदि हैं, तब तक प्रतिस्पर्धा भी अनेक तलों पर, अनेक प्रकारों तथा अनेक स्तरों पर होती ही रहेगी। प्रतिस्पर्धा में सफलता, असफलता, आशा, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अवसाद, विषाद, गर्व, अहंकार, क्रूरता, ग्लानि, उद्विग्नता तथा अपराध-बोध, अविश्वास तथा संदेह आदि भी पैदा होंगे ही। क्षणिक उल्लास और उत्तेजनाएँ भी आएँगे और चले जाएँगे, जो सुख भले ही प्रतीत हों शांति की कीमत देकर प्राप्त होंगे।
मनुष्यों के एक वर्ग में किसी आदर्श या मत के आग्रह के आधार पर भले ही आपसी सहमति हो, उनकी दूसरी अनेक आवश्यकताएँ उनके बीच टकराहटें पैदा करेंगी। और तब परस्पर संवाद और भी अधिक मुश्किल हो जाएगा।
यदि संवाद है तो इस सब पर चर्चा की जा सकती है, और यदि संवाद ही अनुपस्थित है, तो चर्चा निरर्थक होगी। इसलिए यदि कोई पूर्वाग्रह-ग्रस्त है, तो बेहतर है कि वह पहले अपने-आप से, -स्वयं से संवाद कर ले, और पहले अपने पूर्वाग्रह से मुक्ति पा ले ।
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