Friday, 27 December 2019

व्यवसायात्मिका बुद्धि (गीता -2/41, 2/44, 10/36, 10/38)

जय पराजय
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[यह पोस्ट पिछले पोस्ट द्युति / द्यूति का sequel / consequent है।]
गीता अध्याय 10 के दो श्लोक याद आते हैं :
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।36
तथा,
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।38
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'व्यवसाय' क्या है इसे समझने के लिए गीता के ही अध्याय 2 के निम्न दो श्लोक दृष्टव्य हैं :
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41
तथा,
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४
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