देह-मन के द्वंद्व
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अनुभव के जन्म के बाद उसका मूल्यांकन होता है।
ऐतिहासिक और तथाकथित वैज्ञानिक तर्कपद्धति के आधार पर मनुष्य का क्रमशः विकास हुआ।
इस दृष्टि से मूलतः मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है।
मनुष्य नामक इस सामाजिक मनुष्य का धर्म है सामूहिक जीवन।
इसलिए आदिम हो या आधुनिक, मनुष्य का जीवन समाज से जुड़ा है।
मन के धरातल पर मनुष्य में भाषा(ओं) का विकास हुआ। वर्णों के प्रयोग से वस्तुवाचक शब्दों के अर्थ तय किए गए। इसी प्रकार भाव तथा भावनाओं का भी शब्दीकरण हुआ।
तत्पश्चात् शब्दों को पारस्परिक सन्दर्भ देकर भाषा जन्मी।
भाषा के जन्म के बाद शुद्धतः तकनीकी भाषा अस्तित्व में आई और फिर मनुष्य में 'विचार' का उद्भव हुआ।
वस्तुवाचक शब्दों और भाववाचक शब्दों के अर्थ क्रमशः सुनिश्चित और अनिश्चित होते हैं इसलिए जहाँ वस्तुवाचक शब्दों के प्रयोग में कोई दुविधा नहीं होती वहीं भाववाचक शब्द अर्थ से अर्थ की ओर दौड़ते रहते हैं। इस प्रकार 'विचार' नामक एक अत्यंत जटिल यंत्र निर्मित हुआ जिसे भाषा के उन शब्दों पर भी प्रयोग किया जाने लगा जिनकी प्रकृति मूलतः अमूर्त प्रकार की है।
आदि-मानव के समय में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" के आधार पर विभिन्न मानव-समूह अस्तित्व में आए जिनमें से कुछ विचार-प्रधान तो कुछ कर्म-प्रधान थे। कुछ इन दोनों को मिले-जुले रूप में प्रयोग करने लगे। प्रवृत्ति और रुचि-वैभिन्न्य से 'विचार' के शासन से कुछ लोग स्वयं को ब्राह्मण वर्ण से, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य एवं शेष शूद्र वर्ग से संबद्ध इस प्रकार चार समूहों में वर्गीकृत किए गए। यह वर्गीकरण केवल गुण-कर्म के विभाग पर आधारित था, न कि माता-पिता के वंश के आधार पर।
गीता में इस सन्दर्भ में खा गया :
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
इसके बाद ही वैदिक आधार पर इन वर्णों की शुद्धता बनाए रखने के लिए विवाह नामक विधान का पालन किया जाने लगा, और यद्यपि इन वर्णों के बीच व्यतिक्रम होना अपेक्षित था इसलिए गणितीय क्रमचय के सिद्धांत (permutation - combination) को आधार मानकर 4 x 3 अर्थात् 12 उपवर्ण स्वीकार किए गए।
वेद से रहित अन्य मानव-समूहों में इसलिए विवाह नामक अवधारणा शुरू से ही अविद्यमान होने से वे पहले तो बाहु-बल से, फिर शासन-बल से, फिर धन-बल से विवाह के स्वरूप को परंपरा और रूढ़ि के आधार पर स्वीकार करते रहे। स्त्री हो या पुरुष अपने वर्ण में विवाह या अन्य वर्ण में विवाह होने से ये 12 उपवर्ण सुनिश्चित किए गए। यह वर्ण-व्यवस्था का सामाजिक प्रकार हुआ।
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'विचार' अर्थात् मूल्य, नैतिकता-अनैतिकता, परिपाटी, रूढि, आदि के आधार पर मनुष्य-समाज आज के इस वर्त्तमान स्वरुप तक आया। कहना कठिन है कि वर्णों का ऐतिहासिक अर्थ अब भी प्रासंगिक रह सका है।-----
विभिन्न मानव-समूहों के अस्तित्व में आने के बाद परिवार इस प्रकार दो प्रकार से परिभाषित हुआ।
पुरुषवादी / पुरुष के वर्चस्व का आधार प्रायः सभी सभ्यताओं में हावी रहा।
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वैदिक (सभ्यता) में जिसे वैदिक धर्म या सनातन धर्म भी कहा जाता है धर्म को अर्थ, काम और मोक्ष की तरह का एक पुरुषार्थ (जीव को प्रकृति से प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त भूमिका) की तरह परिभाषित किया जाता है इसलिए धर्म वस्तु ही नहीं प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए पशु-धर्म, मनुष्य-धर्म आदि तदनुसार जीव की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इनसे विपरीत या भिन्न प्रकार के आचरण को अधर्म कहा जाता है। धर्म शुभ, अशुभ या मिश्रित हो सकता है। वैदिक वर्णाश्रम धर्म विभिन्न वर्णों में जन्म लिए मनुष्यो का वह शुभ आचरण है जिसका निर्वाह करने पर उन्हें उनके शुभ फल प्राप्त होते हैं। चेतना की उन्नति होने पर मनुष्य (और दूसरे प्राणी भी) 'अर्थ' नामक पुरुषार्थ के लिए पात्र होते हैं। 'अर्थ' का आशय है सार्थकता / उद्देश्यपूर्ण आचरण। इसमें पूर्णता होने पर अर्थात जीवन के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में सफल होने पर, अर्थात् अपनी और परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की रक्षा करने और सुख के साधन उपलब्ध करने पर वंश-वृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति आदि की कामना उत्पन्न होने पर उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक पुरुषार्थ को 'काम' कहा जाता है। इसे प्राप्त कर लेने पर अंततः मनुष्य के मन में जीवन के वास्तविक प्रयोजन को, अमरत्व या इस संसार से उच्चतर वास्तवविकता को जानने-समझने की उत्सुकता या इस नश्वर, अर्थहीन संसार से मुक्ति की आकांक्षा प्रबल होने लगती है। उसे संसार के अनित्य और नश्वर भोगों से वैराग्य हो जाता है। तब वह उस उच्चतर सत्य को जानने के लिए यत्न करता है।
इस प्रकार पुरुषार्थ चार प्रकार का होता है। यद्यपि यह क्रम समझने की दृष्टि से उपयोगी है, योग्य मनुष्य सीधे ही 'मोक्ष-प्राप्ति' नामक पुरुषार्थ में संलग्न हो सकता है।
इसी प्रकार मनुष्य-मात्र के जीवन-क्रम को चार 'आश्रमों' में वर्गीकृत किया जाता है। मोटे तौर पर 25 वर्ष की आयु होने तक पुरुष को ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित होना चाहिए। स्त्री के लिए इस प्रकार का विधान नहीं है क्योंकि स्त्री प्रकृति से ही ब्रह्मचर्य का पालन करती है और उसमें काम की वह आक्रामकता नहीं होती जो पुरुष में होती है। इसलिए इन्द्रिय-संयम के लिए उत्तरदायित्व पुरुष का ही होता है। यह है स्वाभाविक स्थिति।
25 वर्ष की आयु होने पर पुरुष, और षोडशी होने पर स्त्री विवाह के माध्यम से गृहस्थ-आश्रम में आकर गृहस्थ-धर्म का पालन करते हैं और काम का विधान संतानोत्पत्ति के निमित्त होता है न कि भोग के लिए। फिर भी स्वाभाविक काम की निंदा भी नहीं की जाती और जहाँ एक ओर पातिव्रत-धर्म या एकपत्नी-व्रत की प्रशंसा होती है, वहीँ भिन्न-भिन्न समाजों में एक से अधिक विवाह करने की प्रथा भी चल पड़ी। इस विषय पर यहाँ अधिक कुछ कहना अप्रासंगिक होगा।
इस प्रकार वैदिक (सभ्यता) और धर्म के अनुसार, विवाह वह व्यवस्था है जिसमें विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार संपन्न होकर स्त्री को जीवनसंगिनी या अर्द्धांगिनी की तरह स्वीकार किया जाता है।
समाज से सभ्यता बनती है और सभ्यता के अपने सामाजिक नियम आदि होते हैं।
वैदिक सभ्यता / धर्म में इसीलिए विवाह एक अधिकार ही नहीं कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है, न कि भोगवाद की उच्छृंखल स्वच्छंदता।
जैसे ही विवाह को भोगवाद की दृष्टि से देखा जाता है इस व्यवस्था की तमाम गरिमा समाप्त हो जाती है और न केवल मनुष्य बल्कि उसकी भावी पीढियां भी पतन के गर्त में गिर जाती हैं।
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पर चूँकि मनुष्य विचारशील सामाजिक प्राणी है इसलिए वह अपनी भोगवादिता, प्रगतिशीलता, नैतिकता, अनैतिकता आदि के लिए स्वयं ही कोई पैमाना तय कर लेता है और परिपाटियाँ / रूढियाँ भी उसी आधार पर तय कर ली जाती हैं, उन पर रिलिजन की मुहर लगा दी जाती है और भिन्न भिन्न रिलिजन्स में विवाह के भिन्न-भिन्न नियम पाए जाते हैं। यह चमत्कार है 'धृति' (mindset) का, और 'धृति' धर्म से कितनी समान और कितनी अलग है इसे पिछले किसी पोस्ट में लिखा गया है।
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विवाह के अंतर्गत और विवाहेतर संबंधों के बारे में समाज शायद ही कभी किसी अंतिम और निर्णायक निश्चय पर पहुँच सकता है।
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अनुभव के जन्म के बाद उसका मूल्यांकन होता है।
ऐतिहासिक और तथाकथित वैज्ञानिक तर्कपद्धति के आधार पर मनुष्य का क्रमशः विकास हुआ।
इस दृष्टि से मूलतः मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है।
मनुष्य नामक इस सामाजिक मनुष्य का धर्म है सामूहिक जीवन।
इसलिए आदिम हो या आधुनिक, मनुष्य का जीवन समाज से जुड़ा है।
मन के धरातल पर मनुष्य में भाषा(ओं) का विकास हुआ। वर्णों के प्रयोग से वस्तुवाचक शब्दों के अर्थ तय किए गए। इसी प्रकार भाव तथा भावनाओं का भी शब्दीकरण हुआ।
तत्पश्चात् शब्दों को पारस्परिक सन्दर्भ देकर भाषा जन्मी।
भाषा के जन्म के बाद शुद्धतः तकनीकी भाषा अस्तित्व में आई और फिर मनुष्य में 'विचार' का उद्भव हुआ।
वस्तुवाचक शब्दों और भाववाचक शब्दों के अर्थ क्रमशः सुनिश्चित और अनिश्चित होते हैं इसलिए जहाँ वस्तुवाचक शब्दों के प्रयोग में कोई दुविधा नहीं होती वहीं भाववाचक शब्द अर्थ से अर्थ की ओर दौड़ते रहते हैं। इस प्रकार 'विचार' नामक एक अत्यंत जटिल यंत्र निर्मित हुआ जिसे भाषा के उन शब्दों पर भी प्रयोग किया जाने लगा जिनकी प्रकृति मूलतः अमूर्त प्रकार की है।
आदि-मानव के समय में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" के आधार पर विभिन्न मानव-समूह अस्तित्व में आए जिनमें से कुछ विचार-प्रधान तो कुछ कर्म-प्रधान थे। कुछ इन दोनों को मिले-जुले रूप में प्रयोग करने लगे। प्रवृत्ति और रुचि-वैभिन्न्य से 'विचार' के शासन से कुछ लोग स्वयं को ब्राह्मण वर्ण से, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य एवं शेष शूद्र वर्ग से संबद्ध इस प्रकार चार समूहों में वर्गीकृत किए गए। यह वर्गीकरण केवल गुण-कर्म के विभाग पर आधारित था, न कि माता-पिता के वंश के आधार पर।
गीता में इस सन्दर्भ में खा गया :
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
इसके बाद ही वैदिक आधार पर इन वर्णों की शुद्धता बनाए रखने के लिए विवाह नामक विधान का पालन किया जाने लगा, और यद्यपि इन वर्णों के बीच व्यतिक्रम होना अपेक्षित था इसलिए गणितीय क्रमचय के सिद्धांत (permutation - combination) को आधार मानकर 4 x 3 अर्थात् 12 उपवर्ण स्वीकार किए गए।
वेद से रहित अन्य मानव-समूहों में इसलिए विवाह नामक अवधारणा शुरू से ही अविद्यमान होने से वे पहले तो बाहु-बल से, फिर शासन-बल से, फिर धन-बल से विवाह के स्वरूप को परंपरा और रूढ़ि के आधार पर स्वीकार करते रहे। स्त्री हो या पुरुष अपने वर्ण में विवाह या अन्य वर्ण में विवाह होने से ये 12 उपवर्ण सुनिश्चित किए गए। यह वर्ण-व्यवस्था का सामाजिक प्रकार हुआ।
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'विचार' अर्थात् मूल्य, नैतिकता-अनैतिकता, परिपाटी, रूढि, आदि के आधार पर मनुष्य-समाज आज के इस वर्त्तमान स्वरुप तक आया। कहना कठिन है कि वर्णों का ऐतिहासिक अर्थ अब भी प्रासंगिक रह सका है।-----
विभिन्न मानव-समूहों के अस्तित्व में आने के बाद परिवार इस प्रकार दो प्रकार से परिभाषित हुआ।
पुरुषवादी / पुरुष के वर्चस्व का आधार प्रायः सभी सभ्यताओं में हावी रहा।
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वैदिक (सभ्यता) में जिसे वैदिक धर्म या सनातन धर्म भी कहा जाता है धर्म को अर्थ, काम और मोक्ष की तरह का एक पुरुषार्थ (जीव को प्रकृति से प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त भूमिका) की तरह परिभाषित किया जाता है इसलिए धर्म वस्तु ही नहीं प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए पशु-धर्म, मनुष्य-धर्म आदि तदनुसार जीव की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इनसे विपरीत या भिन्न प्रकार के आचरण को अधर्म कहा जाता है। धर्म शुभ, अशुभ या मिश्रित हो सकता है। वैदिक वर्णाश्रम धर्म विभिन्न वर्णों में जन्म लिए मनुष्यो का वह शुभ आचरण है जिसका निर्वाह करने पर उन्हें उनके शुभ फल प्राप्त होते हैं। चेतना की उन्नति होने पर मनुष्य (और दूसरे प्राणी भी) 'अर्थ' नामक पुरुषार्थ के लिए पात्र होते हैं। 'अर्थ' का आशय है सार्थकता / उद्देश्यपूर्ण आचरण। इसमें पूर्णता होने पर अर्थात जीवन के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में सफल होने पर, अर्थात् अपनी और परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की रक्षा करने और सुख के साधन उपलब्ध करने पर वंश-वृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति आदि की कामना उत्पन्न होने पर उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक पुरुषार्थ को 'काम' कहा जाता है। इसे प्राप्त कर लेने पर अंततः मनुष्य के मन में जीवन के वास्तविक प्रयोजन को, अमरत्व या इस संसार से उच्चतर वास्तवविकता को जानने-समझने की उत्सुकता या इस नश्वर, अर्थहीन संसार से मुक्ति की आकांक्षा प्रबल होने लगती है। उसे संसार के अनित्य और नश्वर भोगों से वैराग्य हो जाता है। तब वह उस उच्चतर सत्य को जानने के लिए यत्न करता है।
इस प्रकार पुरुषार्थ चार प्रकार का होता है। यद्यपि यह क्रम समझने की दृष्टि से उपयोगी है, योग्य मनुष्य सीधे ही 'मोक्ष-प्राप्ति' नामक पुरुषार्थ में संलग्न हो सकता है।
इसी प्रकार मनुष्य-मात्र के जीवन-क्रम को चार 'आश्रमों' में वर्गीकृत किया जाता है। मोटे तौर पर 25 वर्ष की आयु होने तक पुरुष को ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित होना चाहिए। स्त्री के लिए इस प्रकार का विधान नहीं है क्योंकि स्त्री प्रकृति से ही ब्रह्मचर्य का पालन करती है और उसमें काम की वह आक्रामकता नहीं होती जो पुरुष में होती है। इसलिए इन्द्रिय-संयम के लिए उत्तरदायित्व पुरुष का ही होता है। यह है स्वाभाविक स्थिति।
25 वर्ष की आयु होने पर पुरुष, और षोडशी होने पर स्त्री विवाह के माध्यम से गृहस्थ-आश्रम में आकर गृहस्थ-धर्म का पालन करते हैं और काम का विधान संतानोत्पत्ति के निमित्त होता है न कि भोग के लिए। फिर भी स्वाभाविक काम की निंदा भी नहीं की जाती और जहाँ एक ओर पातिव्रत-धर्म या एकपत्नी-व्रत की प्रशंसा होती है, वहीँ भिन्न-भिन्न समाजों में एक से अधिक विवाह करने की प्रथा भी चल पड़ी। इस विषय पर यहाँ अधिक कुछ कहना अप्रासंगिक होगा।
इस प्रकार वैदिक (सभ्यता) और धर्म के अनुसार, विवाह वह व्यवस्था है जिसमें विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार संपन्न होकर स्त्री को जीवनसंगिनी या अर्द्धांगिनी की तरह स्वीकार किया जाता है।
समाज से सभ्यता बनती है और सभ्यता के अपने सामाजिक नियम आदि होते हैं।
वैदिक सभ्यता / धर्म में इसीलिए विवाह एक अधिकार ही नहीं कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है, न कि भोगवाद की उच्छृंखल स्वच्छंदता।
जैसे ही विवाह को भोगवाद की दृष्टि से देखा जाता है इस व्यवस्था की तमाम गरिमा समाप्त हो जाती है और न केवल मनुष्य बल्कि उसकी भावी पीढियां भी पतन के गर्त में गिर जाती हैं।
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पर चूँकि मनुष्य विचारशील सामाजिक प्राणी है इसलिए वह अपनी भोगवादिता, प्रगतिशीलता, नैतिकता, अनैतिकता आदि के लिए स्वयं ही कोई पैमाना तय कर लेता है और परिपाटियाँ / रूढियाँ भी उसी आधार पर तय कर ली जाती हैं, उन पर रिलिजन की मुहर लगा दी जाती है और भिन्न भिन्न रिलिजन्स में विवाह के भिन्न-भिन्न नियम पाए जाते हैं। यह चमत्कार है 'धृति' (mindset) का, और 'धृति' धर्म से कितनी समान और कितनी अलग है इसे पिछले किसी पोस्ट में लिखा गया है।
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विवाह के अंतर्गत और विवाहेतर संबंधों के बारे में समाज शायद ही कभी किसी अंतिम और निर्णायक निश्चय पर पहुँच सकता है।
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