धर्मलक्षण और लक्षणधर्म
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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यते ग्रहः।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।।
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उपरोक्त या इससे मिलते जुलते अर्थवाला श्लोक प्रायः भारतीयों की जन्म-पत्रिका में उद्धृत किया जाता है।
संसार और जीव का अधिष्ठान धर्म ही है इसलिए धर्म को प्रथम पुरुषार्थ कहा जाता है। जीवन धर्म का ही विस्तार और फैलाव है जिसमें व्यक्ति-दृष्टि के अनुसार ही विकास और ह्रास, उत्थान और पतन, उत्कर्ष तथा अपकर्ष आदि होते हैं।
जैसे देवी लक्ष्मी भगवान् श्री नारायण का लक्षण हैं, और लक्ष्मण भगवान् श्रीराम का, वैसे ही धर्म के दो स्वरुप हैं प्रधान और गौण। प्रधान वह है जो सबका आधान, अधिष्ठान है, गौण वह है जो यद्यपि प्रधान का ही प्रकार है, किन्तु गुणों की क्रीड़ा है। गुण अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति।
इस प्रकार संसार तथा जीव प्रकृति अर्थात् गुणों की प्रवृत्तियाँ हैं।
चार पुरुषार्थों में से प्रथम धर्म है जिसमें स्थित होना जीव को प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त संस्कार है।
पुरुषार्थरूपी इन्हीं चार भुजाओं से ईश्वर विश्व को संचालित करता है, इसलिए उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है । दूसरी ओर सामान्य जीव को भी पुरुष ही कहा जाता है।
इस प्रकार पुरुष गौण और पुरुषोत्तम प्रधान है।
यह भी एक रोचक सत्य तथा तथ्य भी है कि प्रत्येक पुरुष (अर्थात् मनुष्य-मात्र जो शरीर की दृष्टि से स्त्री अथवा पुरुष या नपुंसक या विलिंग हो) अपने आप का उल्लेख 'मैं' शब्द (अथवा प्रत्यय) के माध्यम से करता है। यह 'मैं' अस्मद्-प्रत्यय होने से अस्मि (हूँ) का लक्षण है।
इसलिए 'अहम्' और 'अहम् अस्मि' एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
इसी प्रकार प्रधान धर्म और गौण धर्म भी एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
किन्तु व्यवहार में इन दोनों के बीच भेदभ्रम हो जाता है।
'अहम्' जो आत्मा अर्थात् ब्रह्म का द्योतक है उसे वैयक्तिक मान लिया जाता है और गौण धर्म को प्रधान धर्म। प्रधान अविकारी (immutable) होता है जबकि गौण गुणों के पारस्परिक संयोग का परिणाम और इसलिए आवश्यक रूप से विकारशील भी।
इसी प्रकार काल और समय यद्यपि एक ही अर्थ के द्योतक हैं, काल (की सत्ता) शाश्वत, अचल सत्य है, जबकि समय, काल का सतत गतिशील लक्षण।
पुनः स्थान और काल भी किसी चेतना पर अवलम्बित होने से स्थान और काल भी चेतना के लक्षण हैं, जबकि चेतना स्वयं अस्तित्व का लक्षण।
इसलिए व्यक्ति-चेतना जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती। चेतना ही व्यक्ति या व्यक्ति-विशेष को, समूह या समष्टि को व्यक्त रूप देती है फिर भी व्यक्ति, समूह और समष्टि से स्वतंत्र है।
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धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यते ग्रहः।
धर्मेण हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः।।
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उपरोक्त या इससे मिलते जुलते अर्थवाला श्लोक प्रायः भारतीयों की जन्म-पत्रिका में उद्धृत किया जाता है।
संसार और जीव का अधिष्ठान धर्म ही है इसलिए धर्म को प्रथम पुरुषार्थ कहा जाता है। जीवन धर्म का ही विस्तार और फैलाव है जिसमें व्यक्ति-दृष्टि के अनुसार ही विकास और ह्रास, उत्थान और पतन, उत्कर्ष तथा अपकर्ष आदि होते हैं।
जैसे देवी लक्ष्मी भगवान् श्री नारायण का लक्षण हैं, और लक्ष्मण भगवान् श्रीराम का, वैसे ही धर्म के दो स्वरुप हैं प्रधान और गौण। प्रधान वह है जो सबका आधान, अधिष्ठान है, गौण वह है जो यद्यपि प्रधान का ही प्रकार है, किन्तु गुणों की क्रीड़ा है। गुण अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति।
इस प्रकार संसार तथा जीव प्रकृति अर्थात् गुणों की प्रवृत्तियाँ हैं।
चार पुरुषार्थों में से प्रथम धर्म है जिसमें स्थित होना जीव को प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त संस्कार है।
पुरुषार्थरूपी इन्हीं चार भुजाओं से ईश्वर विश्व को संचालित करता है, इसलिए उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है । दूसरी ओर सामान्य जीव को भी पुरुष ही कहा जाता है।
इस प्रकार पुरुष गौण और पुरुषोत्तम प्रधान है।
यह भी एक रोचक सत्य तथा तथ्य भी है कि प्रत्येक पुरुष (अर्थात् मनुष्य-मात्र जो शरीर की दृष्टि से स्त्री अथवा पुरुष या नपुंसक या विलिंग हो) अपने आप का उल्लेख 'मैं' शब्द (अथवा प्रत्यय) के माध्यम से करता है। यह 'मैं' अस्मद्-प्रत्यय होने से अस्मि (हूँ) का लक्षण है।
इसलिए 'अहम्' और 'अहम् अस्मि' एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
इसी प्रकार प्रधान धर्म और गौण धर्म भी एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
किन्तु व्यवहार में इन दोनों के बीच भेदभ्रम हो जाता है।
'अहम्' जो आत्मा अर्थात् ब्रह्म का द्योतक है उसे वैयक्तिक मान लिया जाता है और गौण धर्म को प्रधान धर्म। प्रधान अविकारी (immutable) होता है जबकि गौण गुणों के पारस्परिक संयोग का परिणाम और इसलिए आवश्यक रूप से विकारशील भी।
इसी प्रकार काल और समय यद्यपि एक ही अर्थ के द्योतक हैं, काल (की सत्ता) शाश्वत, अचल सत्य है, जबकि समय, काल का सतत गतिशील लक्षण।
पुनः स्थान और काल भी किसी चेतना पर अवलम्बित होने से स्थान और काल भी चेतना के लक्षण हैं, जबकि चेतना स्वयं अस्तित्व का लक्षण।
इसलिए व्यक्ति-चेतना जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती। चेतना ही व्यक्ति या व्यक्ति-विशेष को, समूह या समष्टि को व्यक्त रूप देती है फिर भी व्यक्ति, समूह और समष्टि से स्वतंत्र है।
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