समय और संबंध
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गत वर्ष 2019 को दिनांक 24 नवम्बर को यहाँ रात्रि में पहुँचा।
दूसरे दिन सुबह टहलने निकला तो मोड़ पर खड़े ऑटो पर लिखा माइक्रो-ब्लॉग पढ़ा :
"दया ही दुःख का कारण है।"
हाँ, एक नए वक्तव्य से सामना हुआ।
याद आया :
"दया धर्म को मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छाँड़िए जब लग घट में प्रान।।"
यह बन्दा तो क्रांतिकारी लगता है !
पता नहीं किस मनःस्थिति में किस और प्रयोजन से उसने इसे ऑटो की पीठ पर लिखवाया होगा !
बहरहाल उस दिन से आज की सुबह तक इस बारे में गौर करता रहा।
क्या इसका मतलब यह हुआ कि दुष्टता दुःख का निवारण / निराकरण है?
क्या हमें दया और दुष्टता के बीच कोई संतुलन स्थापित करना होगा?
एक ही शब्द 'दया' / 'दुष्टता' हमें विचार की दलदल में धकेल देता है।
विचारवान(?) अवश्य ही इस दुविधा में फँसा हो सकता है,
किन्तु विचारवान(?) ही अवश्य ही इस दलदल से बाहर भी निकल सकता है।
धर्म को दो प्रकार से समझा जा सकता है।
एक है व्यक्तिगत सन्दर्भ से।
दूसरा है सामूहिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में।
व्यक्तिगत स्तर है धर्मक्षेत्र।
सामूहिक स्तर है कुरुक्षेत्र।
विचारवान यदि विचार की पूरी शक्ति नहीं लगाता, तो वह धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र के इस द्वंद्व से बाहर नहीं आ पाता। किन्तु जब वह सुनता है :
"प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ..."
तो वह ठिठककर रुक जाता है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 59 में भगवान् श्रीकृष्ण ने मानों पूरे ग्रन्थ के सार / उपसंहार के रूप में यह कहकर ग्रन्थ की समाप्ति घोषित की है।
इस प्रकार प्रकृति ही नियति है।
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समूह संबंध है और संबंध समूह।
समूह संपर्क है और संपर्क समूह।
व्यवहार और समय एक दूसरे से अभिन्न रहते हुए भी मानों सतत बदलते रहते हैं, क्योंकि व्यवहार और समय मूलतः बौद्धिक निष्कर्ष हैं और बुद्धि स्वयं प्रकृति-प्रदत्त होती है। इसे परिष्कृत करने की प्रेरणा भी प्रकृति से ही पाई जाती है। बुद्धि स्वयं अपने-आपको न तो परिष्कृत कर सकती है न समृद्ध।
इसलिए गायत्री (छन्द) में बुद्धि को 'तत्' / 'वरेण्यं' कहा जाता है।
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सुबह सुबह चाय बनाने जा रहा था।
बर्तनों के बीच से चाय का मग उठाने के प्रयास में बर्तनों की खड़खड़ाहाट की ध्वनि पैदा हुई।
धातुएँ ध्वनि पैदा करती हैं।
संस्कृत में इसीलिए ध्वनि का मूल धातु और धातु का मूल ध्वनि है।
ध्वनि और स्वनि (संगीत) वही है जिससे अंग्रेज़ी का sound / sonic बना है।
[इससे आप अल्ट्रा-सॉनिक बूम / ultrasonic boom) की तुलना कर सकते हैं जहाँ ultrasonic ऑल्ट, संस्कृत के 'अलतः' का और 'boom' 'भूं' का विभ्रंश है। ]
ध्वनियों से वर्ण और वर्णों से शब्द बनाए जाते हैं।
शब्दों से भाषाएँ बनती हैं।
दूसरी ओर भावों और भावनाओं के पुट से यही शब्द विशिष्ट भावनात्मक शब्द बन जाते हैं।
मूल ध्वनियाँ और उनके संयोजन से उत्पन्न होनेवाले वर्ण भी शब्दों का आधार होते हैं।
इस प्रकार मूलतः धातुओं की ध्वनि भाव-निरपेक्ष होते हुए भी उस ध्वनि तथा ध्वनि-समूह से विभिन्न भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और ग्रहण की जाती हैं।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11
(गीता, अध्याय 3)
इसलिए स्कन्द-पुराण तथा श्रीदेवीअथर्वशीर्ष में वर्णो को देवता कहा गया है।
वर्णो को भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त कर मन्त्र तथा वेद व्यक्त होते हैं।
किन्तु इसमें ध्वनि-शास्त्र (phonetics) का आधार तो अपरिहार्यतः अन्तर्हित है ही।
ध्वनि-शास्त्र (phonetics) भी पुनः केवल लेखकीय, वाचागत या दोनों हो सकता है।
लेखकीय / लिपिबद्ध भाव-निरपेक्ष होता है और पाठक उसे अपने भाव से ग्रहण कर सकता है।
किन्तु जब इसका उच्चार अर्थात् जब इसे ध्वनित किया जाता है तो इससे भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और उत्पन्न होते हैं। भाव तथा भावनाओं से विचार; - तथा पुनः विचार से भाव तथा भावनाएँ।
इस प्रकार विचार अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है।
दूसरी ओर केवल तर्क-आधारित (rational) विचार भी वैसे ही अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है जैसे आज का प्रगत-विज्ञान और उन्नत गणित (Advanced Science and Mathematics).
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विचारवान मनुष्य का अपनी दुविधा से न उबर पाना ही उसकी नियति और प्रकृति भी है।
इसलिए वह इसी भावना से प्रेरित होकर सतत कार्यरत रहता है।
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गत वर्ष 2019 को दिनांक 24 नवम्बर को यहाँ रात्रि में पहुँचा।
दूसरे दिन सुबह टहलने निकला तो मोड़ पर खड़े ऑटो पर लिखा माइक्रो-ब्लॉग पढ़ा :
"दया ही दुःख का कारण है।"
हाँ, एक नए वक्तव्य से सामना हुआ।
याद आया :
"दया धर्म को मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छाँड़िए जब लग घट में प्रान।।"
यह बन्दा तो क्रांतिकारी लगता है !
पता नहीं किस मनःस्थिति में किस और प्रयोजन से उसने इसे ऑटो की पीठ पर लिखवाया होगा !
बहरहाल उस दिन से आज की सुबह तक इस बारे में गौर करता रहा।
क्या इसका मतलब यह हुआ कि दुष्टता दुःख का निवारण / निराकरण है?
क्या हमें दया और दुष्टता के बीच कोई संतुलन स्थापित करना होगा?
एक ही शब्द 'दया' / 'दुष्टता' हमें विचार की दलदल में धकेल देता है।
विचारवान(?) अवश्य ही इस दुविधा में फँसा हो सकता है,
किन्तु विचारवान(?) ही अवश्य ही इस दलदल से बाहर भी निकल सकता है।
धर्म को दो प्रकार से समझा जा सकता है।
एक है व्यक्तिगत सन्दर्भ से।
दूसरा है सामूहिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में।
व्यक्तिगत स्तर है धर्मक्षेत्र।
सामूहिक स्तर है कुरुक्षेत्र।
विचारवान यदि विचार की पूरी शक्ति नहीं लगाता, तो वह धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र के इस द्वंद्व से बाहर नहीं आ पाता। किन्तु जब वह सुनता है :
"प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ..."
तो वह ठिठककर रुक जाता है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 59 में भगवान् श्रीकृष्ण ने मानों पूरे ग्रन्थ के सार / उपसंहार के रूप में यह कहकर ग्रन्थ की समाप्ति घोषित की है।
इस प्रकार प्रकृति ही नियति है।
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समूह संबंध है और संबंध समूह।
समूह संपर्क है और संपर्क समूह।
व्यवहार और समय एक दूसरे से अभिन्न रहते हुए भी मानों सतत बदलते रहते हैं, क्योंकि व्यवहार और समय मूलतः बौद्धिक निष्कर्ष हैं और बुद्धि स्वयं प्रकृति-प्रदत्त होती है। इसे परिष्कृत करने की प्रेरणा भी प्रकृति से ही पाई जाती है। बुद्धि स्वयं अपने-आपको न तो परिष्कृत कर सकती है न समृद्ध।
इसलिए गायत्री (छन्द) में बुद्धि को 'तत्' / 'वरेण्यं' कहा जाता है।
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सुबह सुबह चाय बनाने जा रहा था।
बर्तनों के बीच से चाय का मग उठाने के प्रयास में बर्तनों की खड़खड़ाहाट की ध्वनि पैदा हुई।
धातुएँ ध्वनि पैदा करती हैं।
संस्कृत में इसीलिए ध्वनि का मूल धातु और धातु का मूल ध्वनि है।
ध्वनि और स्वनि (संगीत) वही है जिससे अंग्रेज़ी का sound / sonic बना है।
[इससे आप अल्ट्रा-सॉनिक बूम / ultrasonic boom) की तुलना कर सकते हैं जहाँ ultrasonic ऑल्ट, संस्कृत के 'अलतः' का और 'boom' 'भूं' का विभ्रंश है। ]
ध्वनियों से वर्ण और वर्णों से शब्द बनाए जाते हैं।
शब्दों से भाषाएँ बनती हैं।
दूसरी ओर भावों और भावनाओं के पुट से यही शब्द विशिष्ट भावनात्मक शब्द बन जाते हैं।
मूल ध्वनियाँ और उनके संयोजन से उत्पन्न होनेवाले वर्ण भी शब्दों का आधार होते हैं।
इस प्रकार मूलतः धातुओं की ध्वनि भाव-निरपेक्ष होते हुए भी उस ध्वनि तथा ध्वनि-समूह से विभिन्न भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और ग्रहण की जाती हैं।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11
(गीता, अध्याय 3)
इसलिए स्कन्द-पुराण तथा श्रीदेवीअथर्वशीर्ष में वर्णो को देवता कहा गया है।
वर्णो को भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त कर मन्त्र तथा वेद व्यक्त होते हैं।
किन्तु इसमें ध्वनि-शास्त्र (phonetics) का आधार तो अपरिहार्यतः अन्तर्हित है ही।
ध्वनि-शास्त्र (phonetics) भी पुनः केवल लेखकीय, वाचागत या दोनों हो सकता है।
लेखकीय / लिपिबद्ध भाव-निरपेक्ष होता है और पाठक उसे अपने भाव से ग्रहण कर सकता है।
किन्तु जब इसका उच्चार अर्थात् जब इसे ध्वनित किया जाता है तो इससे भाव तथा भावनाएँ व्यक्त और उत्पन्न होते हैं। भाव तथा भावनाओं से विचार; - तथा पुनः विचार से भाव तथा भावनाएँ।
इस प्रकार विचार अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है।
दूसरी ओर केवल तर्क-आधारित (rational) विचार भी वैसे ही अपनी ही सीमाओं में बद्ध रह जाता है जैसे आज का प्रगत-विज्ञान और उन्नत गणित (Advanced Science and Mathematics).
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विचारवान मनुष्य का अपनी दुविधा से न उबर पाना ही उसकी नियति और प्रकृति भी है।
इसलिए वह इसी भावना से प्रेरित होकर सतत कार्यरत रहता है।
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