Monday, 20 January 2020

लिङ्ग-माहात्म्य / String-Theory

शिव-तत्व-विज्ञान
--
स्कन्द पुराण में वर्णन है कि किस प्रकार शिव-लिङ्ग की पूजा इन्द्र से लेकर अग्नि, वायु, आकाश, वरुण, सोम, सुर-असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि करते हैं। फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है!
मूलतः शिव वास्तु-पुरुष हैं।
जिस प्रकार किसी भी वस्तु / स्थान शरीर में उसका अधिष्ठाता देवता उसका स्वामी होता है, उसी प्रकार शिव इस समस्त चराचर विश्व के वास्तु-पुरुष हैं।
जब शिव की प्रतिमा को लिङ्ग कहा जाता है तो वह उस प्रतिमा / वास्तु के वास्तु-पुरुष का द्योतक होता है।
इस प्रकार प्रत्येक प्रतिमा शिव-लिङ्ग ही है, चाहे वह काली, दुर्गा या राधा-कृष्ण आदि की क्यों न हो।
शिव और शक्ति एक ही परमेश्वर की दो अभिव्यक्तियाँ हैं।
जहाँ शिव को पर्वत (मान्धाता, अरुणाचल) आदि रूपों में पर्वत की तरह पूजा जाता है वहीं शक्ति को नदियों तथा भूमि के रूप में। किसी भी देवता की पूजा आराधना करने के लिए उसकी प्रतिमा उपलब्ध न होने पर सुपारी या किसी भी पत्थर आदि में उसकी भावना करते हुए आवाहन एवं प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है।
ऐसा समझा जाता है कि मूर्ति या प्रतिमा की पूजा केवल हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि सम्प्रदायों में ही की जाती है, किन्तु सनातन धर्म से भिन्न मत वाले भी किसी न किसी रूप में किसी स्थान, पर्वत या नदी आदि को पवित्र मानकर उसकी विधिपूर्वक प्रदक्षिणा आदि करते हैं।
अभी तो इस बात पर ध्यान दें कि कोई प्रतिमा स्वयं ही परमेश्वर का लक्षण / लिङ्ग होती है।
जिस प्रकार कोई बालुका-राशि से शिव-लिङ्ग बनाकर उसकी पूजा करता है, तो कोई स्वर्ण, रजत या पत्थर, लकड़ी (काष्ठ) आदि से बनी ऐसी प्रतिमा का पूजन बस उसे नाम कुछ और देकर करता है। यहाँ तक कि पारद के शिव-लिङ्ग की उपासना अत्यंत फलप्रद मानी जाती है।  बाबा अमरनाथ की प्रतिमा हिम-लिङ्ग की होती है।
किसी शिव-क्षेत्र (जैसे तिरुवन्नामलै) के चारों ओर आठ शिवलिङ्ग स्थापित होते हैं।
नव-ग्रहों की पूजा भी केवल शिव-लिङ्ग के स्वरूप में की जाती है।
यहाँ ध्यातव्य है कि लिङ्ग स्वयं एक पिण्ड की तरह होता है।
पिण्ड का अर्थ है संघनित पदार्थ।  किन्तु शिव को ज्योतिर्लिङ्ग की तरह प्रकाश के स्तम्भ-रूप की तरह माना जाता है। कोई संघनित (condensed) पदार्थ (matter) जब एक ढेर के रूप में रखा जाता है तो वह स्वयं ही लिङ्ग की तरह होता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का बल उसके गुरुत्व-केंद्र को निम्नतम बिंदु पर रखते हुए उसे स्थैतिक (static) स्थिति में रखता है।
अब भौतिक-शास्त्र (Physics) के अंतर्गत जिन शक्तियों के स्वरूप और व्यवहार का अध्ययन किया जाता है वे क्रमशः निम्न हैं :
1 गुरुत्वाकर्षण (Gravitation),
2 ताप / ऊष्मा (Heat),
3 ध्वनि (Sound) और प्रकाश  (Light),
4. चुम्बकत्व (Magnetism),
5 विद्युत्-शक्ति (Electricity),
और
6. नाभिकीय शक्ति (Nuclear Power).
उपरोक्त किसी भी शक्ति का क्षेत्र होता है जिसमें उसका बल कार्यशील होता है।
हम जानते हैं कि अंतरिक्ष में जहाँ दो से अधिक ठोस पिण्ड इतने निकट होते हैं कि उनके शक्ति-क्षेत्र (Field) परस्पर स्पर्श करते हैं, तो सर्वाधिक बड़ा पिंड ही शेष पिंडों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसी लिए इस शक्ति / बल को गुरुत्वाकर्षण कहा जाता है।
हमारे सौर-मण्डल में भी यही सिद्धांत काम करता है।
यदि विज्ञान की अधुनातन अवधारणाओं पर ध्यान दें तो कहा जाता है कि इस भौतिक संसार का प्रारम्भ किसी Big-Bang से हुआ था। इस प्रकार संसार का समस्त द्रव्य (matter) जो पहले कभी संघनित- रूप  (condensed form) में था, विस्फोट के बाद सभी दिशाओं में भागने लगा। 'सभी' का तात्पर्य है न केवल उत्तर, दक्षिण पूर्व और पश्चिम बल्कि ऊर्ध्व (ऊपर) और अधो (नीचे की) दिशाओं में भी; -यद्यपि अंतरिक्ष में ऊपर-नीचे कहना अर्थहीन है।
इस प्रकार वह पिण्ड जिसे 'सूर्य' कहा जाता है, उसके आसपास के अपेक्षाकृत छोटे पिण्ड जिन्हें क्रमशः बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, और शनि आदि ग्रह भी विभिन्न दिशाओं में जा रहे थे किन्तु सूर्य के अपेक्षाकृत प्रबल गुरुत्वाकर्षण में फँसकर वैसे ही उसके इर्द-गिर्द परिक्रमा करने लगे जैसे किसी अदृश्य डोरी से सूर्य से बँधे हों।
जैसे किसी डोरी में एक पत्थर बाँधकर उसे तेजी से घुमाया जाए तो वह डोरी से बँधा होने से दूर नहीं जा सकता किन्तु डोरी में तनाव का बल उसे एक घेरे / वृत्त में परिक्रमा के लिए बाध्य कर देता है।
[इस बारे में पहले कभी इसी ब्लॉग में लिख चुका हूँ कि सौरमण्डल (देवलोक) चपटा है, और त्रिशंकु को किस प्रकार ऋषि विश्वामित्र ने इस चपटे तल से बाहर स्थापित किया।
प्रमाण वाल्मीकि-रामायण से उद्धृत किए हैं।
इस प्रकार धरती / 'संसार' गोल हो या नहीं यह भिन्न-भिन्न प्रकार से तय किया जा सकता है, किन्तु चपटा अवश्य है।]
विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्द-गिर्द जिस प्रकार परिक्रमा करते हैं वह मानों एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरी पर बँधे सात पत्थरों को तेजी से घुमाने की तरह है।  वे सभी एक ही सतह (plane) में होंगे।
इस प्रकार हमें गुरुत्वाकर्षण-बल की एक स्ट्रिंग-थ्योरी प्राप्त होती है।
न सिर्फ सौरमंडल के ग्रह बल्कि उन ग्रहों के उपग्रह / चन्द्रमा भी इसी प्रकार अपने-अपने ग्रह के चारों ओर घूमते रहने के लिए बाध्य हैं।
शिव-लिङ्ग इस प्रकार जिस तत्व, पदार्थ, धातु, पत्थर, पारद, सोना, बालुका या काष्ठ से बना होता है उसी पदार्थ को आकर्षित करता है।  यह विचारणीय है कि पारद-शिवलिङ्ग की महिमा इतनी अधिक क्यों है।
चूँकि पारे में प्रायः सभी धातुएँ घुलकर amalgam बनाती हैं इसलिए पारद शिवलिङ्ग अवश्य ही सभी धातुओं अर्थात् मूल्यवान धातुओं को भी आकर्षित करेगा।  और इसलिए इसकी उपासना का यह फल हो सकता है।
मूल प्रश्न है भावना का।
प्रसंगवश एक लघुकथा प्रस्तुत है :
सृष्टि हो जाने के बाद अदिति से 'भावना' (emotions and feelings) का जन्म हुआ और इसी प्रकार दिति से विचार  (intellect) का जन्म हुआ।
उन दोनों के मिलने पर उनके पुत्र संकल्प का जन्म हुआ।
इसलिए संकल्प में भावना और विचार दोनों पाए जा सकते हैं किन्तु यह इस पर भी निर्भर करता है कि वे किस अनुपात में हैं।
--   
परसों ही किसी से फ़ोन पर इस बारे में बतला रहा था कि इस तथ्य का रोचक वर्णन मुण्डकोपनिषद् में किस तरह किया गया है :
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि
तथाक्षरात्सम्भवन्तीह  विश्वम्।।७
(मुण्डक १, खण्ड १)
--       

                       

       


No comments:

Post a Comment