अर्जुन-अभिमन्यु-संवाद
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सञ्जय को दिव्यचक्षु प्राप्त था जिससे वह किसी दूरस्थ स्थान की घटना को उसी समय प्रत्यक्ष देख-सुन सकता था किन्तु यह लौकिक सिद्धि थी । अभिमन्यु को दिव्यकर्ण प्राप्त था जिससे वह दूरस्थ ध्वनि तथा बातचीत आदि को सुन सकता था। यह लगभग वैसा ही था जैसा कि आज के युग में ऑडिओ-विडिओ तथा सिर्फ ऑडिओ के माध्यम से हमें भी प्राप्त है।
दोनों को ही दिव्य माध्यम प्राप्त थे जो शुद्धतः आधिभौतिक संसार में कार्य करते थे।
अर्जुन को यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से दिव्यदृष्टि तात्कालिक रूप से प्राप्त हुई थी, किन्तु ऐसी दृष्टि न तो अभिमन्यु को और न सञ्जय को प्राप्त हुई थी।
इसलिए जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता कह रहे थे तो अर्जुन ने जितना सुना, और भगवान् श्रीकृष्ण ने जितना कहा, उसकी ऑडियो-फाइल अभिमन्यु को प्राप्त हो गयी। इसलिए अभिमन्यु ने उसकी ख़ास-ख़ास बातें नोट कर लीं :
अध्याय 1 में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहा :
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32
इसलिए अभिमन्यु को वह संशय प्राप्त न हुआ जो अर्जुन को (मोहित बुद्धि के कारण) हुआ था।
इसलिए युद्ध में जब अभिमन्यु की मृत्यु हुई तो उसे सीधे स्वर्ग प्राप्त हुआ ।
बहुत समय तक वह वहाँ स्वर्ग के आमोद-प्रमोद का उपभोग करता रहा।
इस बीच उसे अपने पिता (और पितृव्यों) के स्वर्गारोहण का ज्ञान हुआ तो वह स्वर्गद्वार पर उनके आगमन की प्रतीक्षा करता रहा।
अर्जुन ने जब स्वर्ग में पुनः अपने पुत्र को सामने पाया तो वह हर्ष-विह्वल हो उठा।
इस सुख की तुलना में स्वर्ग के तमाम उपभोग उसे अत्यंत तुच्छ प्रतीत हो रहे थे।
किन्तु जैसा कि शास्त्रवचन है,
- मनुष्य का कर्म छाया की भाँति सदा उसका पीछा करता है, भले ही समय की रौशनी में वह कभी दिखाई देता है तो कभी अदृश्य रहकर ही ऐसा करता है।
कर्म शुभ-अशुभ (तथा मिश्रित भी) हो सकता है।
कर्म का कारण और परिणाम भी कर्म है और इसलिए मनुष्य जब तक कर्तृत्वबुद्धि से रहित नहीं हो जाता तब तक वह कर्म-चक्र से परिचालित हुआ उसके परिणामों को भोगता रहता है। वह उन कर्मों को पाप अथवा पुण्य कहकर भी उन प्रवृत्तियों से नहीं मुक्त हो पाता जो उसे कर्म से बाँधती हैं।
जब अर्जुन सहजस्थ र स्वस्थचित्त हुआ, तो उसे अपने पुत्र के प्रति गौरव-बोध हुआ।
तब उसकी वे बहुत सी स्मृतियाँ जाग उठीं जिनके कारण अभिमन्यु उसे प्राणों से प्रिय था।
तब अभिमन्यु ने अर्जुन से पूरी गीता कही। वह बोला :
अभिमन्यु उवाच -
"पिताजी! गीता में जो श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं, वह आपको सुनाता हूँ :
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कं।।21
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वम् शोचितुमर्हसि।।30
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।32
(अध्याय 2)
इसलिए आपको और मुझे जो यह दिव्य देह प्राप्त हुए हैं जिनसे हम स्वर्ग में पुनः मिल पाए हैं वह केवल औपचारिक है। आत्मा मिलन-विछोह से रहित, स्मृति और पहचान तक से रहित सत्य है। विस्तार से तो आपने भगवान् श्रीकृष्ण से सुना ही है, फिर भी मैं उनके एक दो वचन और कहूँगा :
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्यार्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27
(अध्याय 2)
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सञ्जय को दिव्यचक्षु प्राप्त था जिससे वह किसी दूरस्थ स्थान की घटना को उसी समय प्रत्यक्ष देख-सुन सकता था किन्तु यह लौकिक सिद्धि थी । अभिमन्यु को दिव्यकर्ण प्राप्त था जिससे वह दूरस्थ ध्वनि तथा बातचीत आदि को सुन सकता था। यह लगभग वैसा ही था जैसा कि आज के युग में ऑडिओ-विडिओ तथा सिर्फ ऑडिओ के माध्यम से हमें भी प्राप्त है।
दोनों को ही दिव्य माध्यम प्राप्त थे जो शुद्धतः आधिभौतिक संसार में कार्य करते थे।
अर्जुन को यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से दिव्यदृष्टि तात्कालिक रूप से प्राप्त हुई थी, किन्तु ऐसी दृष्टि न तो अभिमन्यु को और न सञ्जय को प्राप्त हुई थी।
इसलिए जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता कह रहे थे तो अर्जुन ने जितना सुना, और भगवान् श्रीकृष्ण ने जितना कहा, उसकी ऑडियो-फाइल अभिमन्यु को प्राप्त हो गयी। इसलिए अभिमन्यु ने उसकी ख़ास-ख़ास बातें नोट कर लीं :
अध्याय 1 में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहा :
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32
इसलिए अभिमन्यु को वह संशय प्राप्त न हुआ जो अर्जुन को (मोहित बुद्धि के कारण) हुआ था।
इसलिए युद्ध में जब अभिमन्यु की मृत्यु हुई तो उसे सीधे स्वर्ग प्राप्त हुआ ।
बहुत समय तक वह वहाँ स्वर्ग के आमोद-प्रमोद का उपभोग करता रहा।
इस बीच उसे अपने पिता (और पितृव्यों) के स्वर्गारोहण का ज्ञान हुआ तो वह स्वर्गद्वार पर उनके आगमन की प्रतीक्षा करता रहा।
अर्जुन ने जब स्वर्ग में पुनः अपने पुत्र को सामने पाया तो वह हर्ष-विह्वल हो उठा।
इस सुख की तुलना में स्वर्ग के तमाम उपभोग उसे अत्यंत तुच्छ प्रतीत हो रहे थे।
किन्तु जैसा कि शास्त्रवचन है,
- मनुष्य का कर्म छाया की भाँति सदा उसका पीछा करता है, भले ही समय की रौशनी में वह कभी दिखाई देता है तो कभी अदृश्य रहकर ही ऐसा करता है।
कर्म शुभ-अशुभ (तथा मिश्रित भी) हो सकता है।
कर्म का कारण और परिणाम भी कर्म है और इसलिए मनुष्य जब तक कर्तृत्वबुद्धि से रहित नहीं हो जाता तब तक वह कर्म-चक्र से परिचालित हुआ उसके परिणामों को भोगता रहता है। वह उन कर्मों को पाप अथवा पुण्य कहकर भी उन प्रवृत्तियों से नहीं मुक्त हो पाता जो उसे कर्म से बाँधती हैं।
जब अर्जुन सहजस्थ र स्वस्थचित्त हुआ, तो उसे अपने पुत्र के प्रति गौरव-बोध हुआ।
तब उसकी वे बहुत सी स्मृतियाँ जाग उठीं जिनके कारण अभिमन्यु उसे प्राणों से प्रिय था।
तब अभिमन्यु ने अर्जुन से पूरी गीता कही। वह बोला :
अभिमन्यु उवाच -
"पिताजी! गीता में जो श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं, वह आपको सुनाता हूँ :
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।18
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।19
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कं।।21
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वम् शोचितुमर्हसि।।30
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।32
(अध्याय 2)
इसलिए आपको और मुझे जो यह दिव्य देह प्राप्त हुए हैं जिनसे हम स्वर्ग में पुनः मिल पाए हैं वह केवल औपचारिक है। आत्मा मिलन-विछोह से रहित, स्मृति और पहचान तक से रहित सत्य है। विस्तार से तो आपने भगवान् श्रीकृष्ण से सुना ही है, फिर भी मैं उनके एक दो वचन और कहूँगा :
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्यार्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27
(अध्याय 2)
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