समावेशी धर्म
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किसी चीज़ का दोषपूर्ण नामकरण जहाँ ऐसी अनेक नई और दुरूह समस्याएँ पैदा करता है जिनका समाधान लगभग असंभव ही होता है, वहीँ किसी वक्तव्य का दूसरी भाषा में अनुवाद इससे भी कई गुना अधिक संभ्रम और संशय, मतभेदों तथा विवादों का कारण होता है।
जैसे भावना को अर्थशास्त्र से नहीं समझा जा सकता और कविता को तर्कशास्त्र से नहीं समझा जा सकता, वैसे ही यह भी इतना ही बड़ा सच है कि यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक तथा हिन्दू जैसी परंपराओं को 'धर्म' की कसौटी पर कदापि नहीं तौला जा सकता। इसलिए 'धर्म' को (अंग्रेज़ी में) religion कहा जाना 'धर्म' के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि यद्यपि जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ अवश्य ही बहुत हद तक वेदसंमत 'धर्म' के निकट हैं और उन्हें 'धर्म' कहा जाना असंगत नहीं है, 'हिन्दू' शब्द 'धर्म' नहीं बल्कि अधिक से अधिक भारतवर्ष के भौगोलिक क्षेत्र में प्रचलित सामाजिक संस्कृति के लिए ही अधिक उपयुक्त है और इसलिए संस्कृति की दृष्टि से उसे अवश्य ही सनातन धर्म की 'वसुधैव-कुटुम्बकम्' पर आधारित उदारतापरक धर्म संभवतः कहा जा सकता है। और जैसे ही उसे 'धर्म' कहा जाता है वैसे ही यद्यपि एक ओर जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ उसमें अनायास घुल-मिल जाती हैं, वहीं दूसरी ओर यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ उससे पानी में तेल की तरह भिन्न और अलग ही रहती हैं और यहाँ तक कि विरोधी (और उससे श्रेष्ठ भी) होने का आग्रह भी करती हैं। यह आग्रह प्रायः इतना प्रबल हो जाता है कि कट्टरता या धर्मान्धता तक पहुँचने लगता है। इस प्रकार हिंदुत्व को 'धर्म' की कसौटी पर रखते ही संस्कृति, यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक विचारधाराएँ और परंपराएँ अनायास ही उसे अपना शत्रु समझ बैठती है। दूसरी और 'नास्तिक', शुद्ध भौतिकवादी जैसे साम्यवादी आदि भी 'सेक्युलर' होने का मुखौटा ओढ़कर हिन्दू-धर्म को और यहाँ तक कि इस बहाने सनातन-धर्म या भारतीयता की भावना तक का भी तिरस्कार और निंदा करते हैं। इस प्रकार 'धर्म' कहे जाते ही 'हिन्दू' नामक सांस्कृतिक भावना / संबोधन दो प्रकार से भारत की अस्मिता पर आघात करने के लिए आधार बन जाता है और यह तथ्य अंततः 'धर्म' को ही क्षति पहुंचाता है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परम्पराएँ ईश्वर की तथा 'एक' ईश्वर की मान्यता का बलपूर्वक आग्रह करती हैं जबकि सनातन धर्म की दृष्टि में 'धर्म' मान्यता नहीं खोज का विषय है और इसलिए व्यक्ति की खोज करने की स्वतन्त्रता और इसके लिए उसका संकल्प किसी भी मान्यता से अधिक महत्वपूर्ण है।
रोचक तथ्य यह है सनातन धर्म की छह प्रधान विवेचनाओं (दर्शन) में से एक साँख्य के आचार्य भी 'ईश्वर' के बारे में कोई निष्कर्षपरक आग्रह नहीं करते। क्योंकि 'ईश्वर' और 'जीव' परस्पर दो सापेक्ष सत्ताएँ हैं और इस प्रकार 'ईश्वर' भी द्वैत के अंतर्गत सीमित हो जाता है। वेदान्त दर्शन और योग दर्शन भी 'ईश्वर' की अवधारणा को 'धर्म' की खोज में एक उपयोगी और सहायक साधन अवश्य स्वीकार करते हैं, और तात्कालिक रूप से द्वैत-सिद्धांत के महत्व को इसीलिए मान्य भी करते हैं किंतु यह भी मानते हैं कि यदि ऐसी किसी परम-सत्ता को स्वीकार किया ही जाए तो वह एकमेव-अद्वितीय है और तब उसके और उसकी उपासना / पूजा / करनेवाले के मध्य न तो कोई भेद रह जाता है न कोई 'पारस्परिक' संबंध। और इस 'ईश्वर' को किसी मान्यता से व्यक्ति-रूप में मानना भी उसे आधिदैविक देवता का स्वरुप प्रदान कर देता है इसलिए उस विशिष्ट देवता की उपासना उस परम-सत्ता के आविष्कार और साक्षात्कार के लिए एक साधन अवश्य हो सकती है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ भी यद्यपि ईश्वर को 'एक' मानने पर बल देती हैं किंतु उनमें से प्रत्येक का यह आग्रह भी होता है कि उनके द्वारा जिस ईश्वर को संसार और समस्त जीवन का स्वामी कहा जाता है वही एकमात्र वास्तविक ईश्वर है, जबकि शेष सभी परंपराओं के ईश्वर अवास्तविक हैं।
इस प्रकार से परंपराओं के बीच की विभिन्न मान्यताओं को न तो सत्य सिद्ध किया जा सकता है न प्रमाणित ही किया जा सकता है।
सनातन धर्म इस बात पर बल देता है कि 'धर्म' हर मनुष्य / समुदाय की अपनी आवश्यकता के अनुसार उसे खोजना होता है और 'धर्म' उसे किसी दूसरे के द्वारा प्रदान नहीं किया जा सकता। अपनी अपनी 'पात्रता' / 'अधिकार' के अनुसार ही कोई भी मनुष्य अपने यथार्थ 'धर्म' को खोज सकता है और 'ईश्वर' तथा 'धर्म' के संबंध में सबके लिए कोई एक पैमाना तय नहीं किया जा सकता।
इसलिए समावेशी धर्म किसी दूसरे की मान्यता पर न तो आक्रमण करता है, न उसे सत्य या असत्य कहता है।
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किसी चीज़ का दोषपूर्ण नामकरण जहाँ ऐसी अनेक नई और दुरूह समस्याएँ पैदा करता है जिनका समाधान लगभग असंभव ही होता है, वहीँ किसी वक्तव्य का दूसरी भाषा में अनुवाद इससे भी कई गुना अधिक संभ्रम और संशय, मतभेदों तथा विवादों का कारण होता है।
जैसे भावना को अर्थशास्त्र से नहीं समझा जा सकता और कविता को तर्कशास्त्र से नहीं समझा जा सकता, वैसे ही यह भी इतना ही बड़ा सच है कि यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक तथा हिन्दू जैसी परंपराओं को 'धर्म' की कसौटी पर कदापि नहीं तौला जा सकता। इसलिए 'धर्म' को (अंग्रेज़ी में) religion कहा जाना 'धर्म' के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि यद्यपि जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ अवश्य ही बहुत हद तक वेदसंमत 'धर्म' के निकट हैं और उन्हें 'धर्म' कहा जाना असंगत नहीं है, 'हिन्दू' शब्द 'धर्म' नहीं बल्कि अधिक से अधिक भारतवर्ष के भौगोलिक क्षेत्र में प्रचलित सामाजिक संस्कृति के लिए ही अधिक उपयुक्त है और इसलिए संस्कृति की दृष्टि से उसे अवश्य ही सनातन धर्म की 'वसुधैव-कुटुम्बकम्' पर आधारित उदारतापरक धर्म संभवतः कहा जा सकता है। और जैसे ही उसे 'धर्म' कहा जाता है वैसे ही यद्यपि एक ओर जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ उसमें अनायास घुल-मिल जाती हैं, वहीं दूसरी ओर यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ उससे पानी में तेल की तरह भिन्न और अलग ही रहती हैं और यहाँ तक कि विरोधी (और उससे श्रेष्ठ भी) होने का आग्रह भी करती हैं। यह आग्रह प्रायः इतना प्रबल हो जाता है कि कट्टरता या धर्मान्धता तक पहुँचने लगता है। इस प्रकार हिंदुत्व को 'धर्म' की कसौटी पर रखते ही संस्कृति, यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक विचारधाराएँ और परंपराएँ अनायास ही उसे अपना शत्रु समझ बैठती है। दूसरी और 'नास्तिक', शुद्ध भौतिकवादी जैसे साम्यवादी आदि भी 'सेक्युलर' होने का मुखौटा ओढ़कर हिन्दू-धर्म को और यहाँ तक कि इस बहाने सनातन-धर्म या भारतीयता की भावना तक का भी तिरस्कार और निंदा करते हैं। इस प्रकार 'धर्म' कहे जाते ही 'हिन्दू' नामक सांस्कृतिक भावना / संबोधन दो प्रकार से भारत की अस्मिता पर आघात करने के लिए आधार बन जाता है और यह तथ्य अंततः 'धर्म' को ही क्षति पहुंचाता है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परम्पराएँ ईश्वर की तथा 'एक' ईश्वर की मान्यता का बलपूर्वक आग्रह करती हैं जबकि सनातन धर्म की दृष्टि में 'धर्म' मान्यता नहीं खोज का विषय है और इसलिए व्यक्ति की खोज करने की स्वतन्त्रता और इसके लिए उसका संकल्प किसी भी मान्यता से अधिक महत्वपूर्ण है।
रोचक तथ्य यह है सनातन धर्म की छह प्रधान विवेचनाओं (दर्शन) में से एक साँख्य के आचार्य भी 'ईश्वर' के बारे में कोई निष्कर्षपरक आग्रह नहीं करते। क्योंकि 'ईश्वर' और 'जीव' परस्पर दो सापेक्ष सत्ताएँ हैं और इस प्रकार 'ईश्वर' भी द्वैत के अंतर्गत सीमित हो जाता है। वेदान्त दर्शन और योग दर्शन भी 'ईश्वर' की अवधारणा को 'धर्म' की खोज में एक उपयोगी और सहायक साधन अवश्य स्वीकार करते हैं, और तात्कालिक रूप से द्वैत-सिद्धांत के महत्व को इसीलिए मान्य भी करते हैं किंतु यह भी मानते हैं कि यदि ऐसी किसी परम-सत्ता को स्वीकार किया ही जाए तो वह एकमेव-अद्वितीय है और तब उसके और उसकी उपासना / पूजा / करनेवाले के मध्य न तो कोई भेद रह जाता है न कोई 'पारस्परिक' संबंध। और इस 'ईश्वर' को किसी मान्यता से व्यक्ति-रूप में मानना भी उसे आधिदैविक देवता का स्वरुप प्रदान कर देता है इसलिए उस विशिष्ट देवता की उपासना उस परम-सत्ता के आविष्कार और साक्षात्कार के लिए एक साधन अवश्य हो सकती है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ भी यद्यपि ईश्वर को 'एक' मानने पर बल देती हैं किंतु उनमें से प्रत्येक का यह आग्रह भी होता है कि उनके द्वारा जिस ईश्वर को संसार और समस्त जीवन का स्वामी कहा जाता है वही एकमात्र वास्तविक ईश्वर है, जबकि शेष सभी परंपराओं के ईश्वर अवास्तविक हैं।
इस प्रकार से परंपराओं के बीच की विभिन्न मान्यताओं को न तो सत्य सिद्ध किया जा सकता है न प्रमाणित ही किया जा सकता है।
सनातन धर्म इस बात पर बल देता है कि 'धर्म' हर मनुष्य / समुदाय की अपनी आवश्यकता के अनुसार उसे खोजना होता है और 'धर्म' उसे किसी दूसरे के द्वारा प्रदान नहीं किया जा सकता। अपनी अपनी 'पात्रता' / 'अधिकार' के अनुसार ही कोई भी मनुष्य अपने यथार्थ 'धर्म' को खोज सकता है और 'ईश्वर' तथा 'धर्म' के संबंध में सबके लिए कोई एक पैमाना तय नहीं किया जा सकता।
इसलिए समावेशी धर्म किसी दूसरे की मान्यता पर न तो आक्रमण करता है, न उसे सत्य या असत्य कहता है।
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