सबके लिए धर्म
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ।।
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पिछले सात-आठ वर्षों में मैंने इस ब्लॉग में और मेरे दूसरे सभी ब्लॉग्स में भी विभिन्न विषयों पर बहुत कुछ और बहुत विस्तारपूर्वक लिखा है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि पूरे चित्र को देखें तो वह सब एक सम्पूर्ण चित्र के बजाय कोलाज अधिक प्रतीत होता है। बस ऐसे ही मेरे मन में क्या आता है यह समझने के लिए इन ब्लॉग्स को लिखता रहा।
'समस्याएँ अनेक हल एक' जैसी कोई किताब लिखना कभी मैंने सोचा भी नहीं।
जिस समय जो समस्या या कहें कि प्रश्न मेरे सामने उपस्थित हुआ उस समस्या की जड़ को अनावृत्त करना ही जाने-अनजाने मेरा प्रयास रहा।
वर्तमान समय में जो अनेक समस्याएँ हमारे सामने हैं उनमें से कुछ के समाधान और हल ही उनसे दस गुनी अधिक कठिन नई समस्याओं का कारण बन जाती हैं इस ओर हमारा ध्यान शायद ही जाता हो। प्रायः हम किसी तात्कालिक प्रलोभन या भय से, भ्रमवश उस विशिष्ट समाधान के प्रति आकर्षित हो जाते हैं यह भी हमें शायद ही समझ में आता हो। इस प्रकार से समस्याएँ और अधिक गंभीर, अधिक जटिल होती जा रही हैं।
किसी भी समस्या के प्रति अधूरा ध्यान देकर हम उस समस्या से छुटकारा पा लेना चाहते हैं और यह अधूरा ध्यान ही समस्या को बनाए रखकर और गंभीर बना देता है।
'धर्म' का प्रश्न ऐसी ही एक गहरी समस्या बन चुका है। जनसंख्या-वृद्धि का प्रश्न भी ऐसा ही एक इतना गंभीर प्रश्न बन चुका है कि उसके बारे में अब कोई बात तक नहीं करता। हर तरफ 'नारी' की दुर्दशा भी ऐसा ही एक प्रश्न है। शिक्षा, बेरोज़गारी, सड़क पर आवारा मवेशियों की बाधा, जिनका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है, राजनीति के लिए हथियार बन गए हैं। 'मुद्रा' जिसे 'वित्त' कहा जाता है, जिसे 'पूँजी' और 'धन' कहा जाता है, व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका का कारण बन गए हैं। 'प्रतिस्पर्धा' और व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका परस्पर एक-दूसरे को प्रोत्साहित कर रहे हैं और हम इसे 'विकास' कहते हैं। यह 'विकास' भी एक लुभावना जुमला है जिस पर कोई उंगली उठाना नहीं चाहता।
बात इतिहास से शुरू करें।
वह भी औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ से।
पहली औद्योगिक क्रान्ति किसी प्रागैतिहासिक काल में शुरू हुई थी जब धरती पर सर्वत्र एक ही 'धर्म' था। जहाँ औपचारिक वर्णाश्रम-धर्म अवश्य था क्योंकि वह तो हर काल, स्थान और समय में होता ही है। प्राणिमात्र के और विशेष रूप से मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसके कर्म होते हैं। वंश के अनुसार उन प्रवृत्तियों की प्रेरणा जिन तीन कारणों से होती है उन्हें 'गुण' कहा जाता है जो सनातन शास्त्रों में वैसे ही विस्तार से विवेचित हैं जैसे 'Properties of matter' की विवेचना Physics में की जाती है। ('सत्' 'चित्' तथा 'व्यवहार' के सन्दर्भ में Physics में इनके लिए समानांतर शब्द क्रमशः Light, Movement और Inertia हैं।)
समस्याएँ अनेक हैं और न सिर्फ अनेक, बल्कि अनेक स्तरों पर भी हैं।
दूसरी ओर कोई भी समस्या मूलतः वैयक्तिक या सामूहिक प्रकार की होती है।
जैसे संसार का वर्गीकरण मोटे तौर पर जीव तथा जड जगत के रूप में किया जा सकता है, वैसे ही जीव को भी पुनः व्यक्ति तथा समाज के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस प्रकार कोई भी समस्या व्यक्ति के सन्दर्भ में 'निजी' या 'सामूहिक' हो सकती है।
व्यक्ति के ही स्तर पर जीव प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्ति से प्रेरित और संचालित होकर सब कुछ करता है।
इस 'व्यक्ति'-भावना के मूल में जीवन (शरीर) से लगाव, अपने / उसके संरक्षण और वंश-वृद्धि करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी होती ही है। क्योंकि यद्यपि जीव / मनुष्य का उसके शरीर से संबंध अन्तर्द्वन्द्वयुक्त है और उसे यह स्पष्ट नहीं कि वह शरीर है या शरीर, या शरीर का स्वामी, या वह शरीर से किस तरह से जुड़ा है, फिर भी उसमें दो सहज-निष्ठाएँ जन्मजात होती ही हैं। पहली निष्ठा है 'मैं हूँ।' दूसरी निष्ठा है शरीर को किसी भी प्रकार से, किन्हीं भी परिस्थितियों में जब तक हो सके, जीवित रखना। और यह दूसरी निष्ठा भी पुनः गौण होती है, प्रमुख निष्ठा तो प्रकृति-प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो आहार, निद्रा, भय और मैथुन के रूप में जीवन की प्राकृतिक गतिविधि है। समूह के सन्दर्भ में इन गतिविधियों में व्यक्तिगत स्तर पर भी और समूह के स्तर पर भी; -आपस में टकराव होता रहता है। जीव / व्यक्ति के स्तर पर इन चार मूल प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्तियों में से एक समय पर कोई एक, शेष तीन पर हावी होती है। अर्थात् भूख, निद्रा, भय तथा कामवृत्ति में से कोई भी एक, प्रबल होने पर शेष तीन पर हावी हो जाती है। किंतु इन गतिविधियों की प्रेरणा जिन निष्ठाओं से होती है और जो निष्ठाएँ पुनः इन गतिविधियों से दृढ होती हैं, वे हैं कर्म-निष्ठां और ज्ञान-निष्ठा। अर्थात् किसी भी प्रवृत्ति को पूर्ण हो जाने और समाप्त होने देने के लिए कोई विशिष्ट कर्म किया जाना आवश्यक है ऐसी स्वाभाविक निष्ठा कर्म-निष्ठा है। और किस कर्म को किए जाने से कौन सी आवश्यकता पूर्ण होती है इसका ज्ञान जिस निष्ठा की तरह सहज रूप से जीव / मनुष्य को होता है उसे ज्ञान-निष्ठा कह सकते हैं।
इन गतिविधियों के पूर्ण होने पर प्रवृत्ति की तात्कालिक निवृत्ति होने पर मनुष्य को जो शान्ति या राहत प्राप्त होती है उससे उसमें यह बुद्धि जागृत होती है कि शरीर सुख का साधन है और इस प्रकार एक प्रवृत्ति की निवृत्ति हो जाने पर वह दूसरी में प्रवृत्त हो जाता है और यह भी अनायास होता है। इस प्रकार जीव / मनुष्य का जीवन इन चार गतिविधियों के चक्र की पुनरावृत्ति बनकर रह जाता है। इस चक्र का इस प्रकार दोहराव मृत्यु होने तक या शरीर के अक्षम और दुर्बल, रुग्ण और वृद्ध हो जाने तक चलता रहता है। शरीर के अंत के साथ यह चक्र / जीवन समाप्त हो जाता है। किंतु 'शरीर ही दुःख का भी कारण है' यह बुद्धि बिरले ही किसी मनुष्य में पैदा होती है और तब वह किसी आवेश में खुद को शरीर समझकर आत्महत्या की भूल भी कर बैठता है। किंतु यदि वह इस आवेश से ग्रस्त हुए बिना इस बुद्धि का प्रयोग कर शरीर को प्रकृति का उपकरण मानकर उससे उदासीन हो जाए तो उसे आत्महत्या करने की ज़रूरत ही नहीं अनुभव होगी। क्योंकि किसी यंत्र में कोई दोष / त्रुटि हो जाने पर उस यंत्र को नष्ट कर देना बुद्धिमानी तो नहीं है ! मनुष्य इस अर्थ में एक विशिष्ट जीव है कि उसके पास 'मन' नामक वह विशिष्ट यंत्र है जिसे वह 'विचार' से सक्रिय / संबद्ध कर काम में लेता है। 'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ का विस्तार और फैलाव है। 'विचार' कितना भी विस्तृत होकर फैल जाए 'शब्द और शब्दार्थ' की इस परिधि में सीमित होता है।
धर्म की अवधारणा :
'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ होने तक सीमित होने से निरपवाद रूप से भाषा पर आश्रित और अवलंबित होता है और भाषा सामूहिक गतिविधि है, न कि वैयक्तिक। समूह में इसलिए विभिन्न प्रवृत्ति वाले मनुष्यों के बीच अनेक विभाजन हो जाते हैं जो परस्पर विग्रह और वैमनस्य के साथ व्यक्तिगत स्तर के सहारे हिंसा, ईर्ष्या, लोभ की अति पर पहुँच जाते हैं और एक समूह अपने 'विचार' अन्य समूहों पर लादने का प्रयत्न करता है। जब सामान्य तर्क-बुद्धि से वह दूसरों को राज़ी नहीं कर पाता तो तलवार या प्रलोभन की ताकत से भय उत्पन्न कर या छल-छद्म के उपाय से ऐसा करता है।
समाज में सौहार्द्र और शान्ति के लिए कोई व्यवस्था तो आवश्यक है ही किंतु जब किसी किताब को एकमात्र परम आदर्श बनाकर किसी 'सामाजिक-धर्म' का उद्भव होता है तो 'व्यक्तिगत-धर्म' से इसका टकराव जिस रूप में फलित होता है वही विभिन्न धर्मों और मतों के रूप में समाज में विभाजन और शोषण का आधार बनता है।इस प्रकार सामाजिक समस्या का व्यक्ति के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप तमाम राजनीति को जन्म देता है क्योंकि जब तक समूह / वर्ग और उनके स्वार्थ हैं तब तक राजनीति उभरेगी ही, क्योंकि राजनीति सत्ता का सहारा है और सत्ता शक्ति है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में राजनीति मनुष्य का न सिर्फ भावनात्मक बल्कि बौद्धिक शोषण भी करती है और 'विचार' कट्टरता की हद तक जाकर मनुष्य की बुद्धि को कुंठित और विकृत कर देता है। एक वर्ग क्या कभी स्वतंत्र हो सकता है? किसी भी वर्ग में पुनः अनेक 'वर्ग' होंगे ही और उन वर्गों की जोड़-तोड़ भी विभिन्न समस्याओं के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न रूपों में सतत जारी रहेगी। इस प्रकार राजनीति की बुनियाद ही कितनी अस्थिर और भंगुर है यदि यह स्पष्ट हो जाए तो हम 'विकास' के प्रयोजन और तात्पर्य पर भी प्रश्न उठा सकते हैं। क्योंकि यदि मनुष्यों के वर्ग की ही चिंता करें तो केवल जनसंख्या-विस्फोट ही एक ऐसी बड़ी समस्या है जिसका समाधान हमारे पास नहीं है। प्रकृति के लिए मनुष्य दूसरे जीवों जैसा ही एक जीव मात्र है और प्रकृति स्वयं ही अनायास किसी भी जीव की संख्या को नियंत्रित करती है। यह प्रकृति की 'समष्टि-व्यवस्था' है। मनुष्य न तो चिकित्सा-विज्ञान के सूक्ष्मतम शोधों से और न साधनों की प्रचुरता से प्रकृति के इस एकाधिकार को चुनौती दे सकता है। यह विचार ही कि मनुष्य कृत्रिम उपायों से अधिक सुखी और समृद्ध हो सकता है कोरा काल्पनिक भ्रम है।
मनुष्य के लिए यदि कोई सर्वाधिक कठिन चुनौती और अवसर है तो वह है उसका 'मन' ; - न कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करना। वैसे भी मन भी प्रकृति ही है यह समझ लिए जाते ही प्रकृति पर विजय पाने का स्वप्न ही टूट जाता है।
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ।।
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पिछले सात-आठ वर्षों में मैंने इस ब्लॉग में और मेरे दूसरे सभी ब्लॉग्स में भी विभिन्न विषयों पर बहुत कुछ और बहुत विस्तारपूर्वक लिखा है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि पूरे चित्र को देखें तो वह सब एक सम्पूर्ण चित्र के बजाय कोलाज अधिक प्रतीत होता है। बस ऐसे ही मेरे मन में क्या आता है यह समझने के लिए इन ब्लॉग्स को लिखता रहा।
'समस्याएँ अनेक हल एक' जैसी कोई किताब लिखना कभी मैंने सोचा भी नहीं।
जिस समय जो समस्या या कहें कि प्रश्न मेरे सामने उपस्थित हुआ उस समस्या की जड़ को अनावृत्त करना ही जाने-अनजाने मेरा प्रयास रहा।
वर्तमान समय में जो अनेक समस्याएँ हमारे सामने हैं उनमें से कुछ के समाधान और हल ही उनसे दस गुनी अधिक कठिन नई समस्याओं का कारण बन जाती हैं इस ओर हमारा ध्यान शायद ही जाता हो। प्रायः हम किसी तात्कालिक प्रलोभन या भय से, भ्रमवश उस विशिष्ट समाधान के प्रति आकर्षित हो जाते हैं यह भी हमें शायद ही समझ में आता हो। इस प्रकार से समस्याएँ और अधिक गंभीर, अधिक जटिल होती जा रही हैं।
किसी भी समस्या के प्रति अधूरा ध्यान देकर हम उस समस्या से छुटकारा पा लेना चाहते हैं और यह अधूरा ध्यान ही समस्या को बनाए रखकर और गंभीर बना देता है।
'धर्म' का प्रश्न ऐसी ही एक गहरी समस्या बन चुका है। जनसंख्या-वृद्धि का प्रश्न भी ऐसा ही एक इतना गंभीर प्रश्न बन चुका है कि उसके बारे में अब कोई बात तक नहीं करता। हर तरफ 'नारी' की दुर्दशा भी ऐसा ही एक प्रश्न है। शिक्षा, बेरोज़गारी, सड़क पर आवारा मवेशियों की बाधा, जिनका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है, राजनीति के लिए हथियार बन गए हैं। 'मुद्रा' जिसे 'वित्त' कहा जाता है, जिसे 'पूँजी' और 'धन' कहा जाता है, व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका का कारण बन गए हैं। 'प्रतिस्पर्धा' और व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका परस्पर एक-दूसरे को प्रोत्साहित कर रहे हैं और हम इसे 'विकास' कहते हैं। यह 'विकास' भी एक लुभावना जुमला है जिस पर कोई उंगली उठाना नहीं चाहता।
बात इतिहास से शुरू करें।
वह भी औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ से।
पहली औद्योगिक क्रान्ति किसी प्रागैतिहासिक काल में शुरू हुई थी जब धरती पर सर्वत्र एक ही 'धर्म' था। जहाँ औपचारिक वर्णाश्रम-धर्म अवश्य था क्योंकि वह तो हर काल, स्थान और समय में होता ही है। प्राणिमात्र के और विशेष रूप से मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसके कर्म होते हैं। वंश के अनुसार उन प्रवृत्तियों की प्रेरणा जिन तीन कारणों से होती है उन्हें 'गुण' कहा जाता है जो सनातन शास्त्रों में वैसे ही विस्तार से विवेचित हैं जैसे 'Properties of matter' की विवेचना Physics में की जाती है। ('सत्' 'चित्' तथा 'व्यवहार' के सन्दर्भ में Physics में इनके लिए समानांतर शब्द क्रमशः Light, Movement और Inertia हैं।)
समस्याएँ अनेक हैं और न सिर्फ अनेक, बल्कि अनेक स्तरों पर भी हैं।
दूसरी ओर कोई भी समस्या मूलतः वैयक्तिक या सामूहिक प्रकार की होती है।
जैसे संसार का वर्गीकरण मोटे तौर पर जीव तथा जड जगत के रूप में किया जा सकता है, वैसे ही जीव को भी पुनः व्यक्ति तथा समाज के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस प्रकार कोई भी समस्या व्यक्ति के सन्दर्भ में 'निजी' या 'सामूहिक' हो सकती है।
व्यक्ति के ही स्तर पर जीव प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्ति से प्रेरित और संचालित होकर सब कुछ करता है।
इस 'व्यक्ति'-भावना के मूल में जीवन (शरीर) से लगाव, अपने / उसके संरक्षण और वंश-वृद्धि करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी होती ही है। क्योंकि यद्यपि जीव / मनुष्य का उसके शरीर से संबंध अन्तर्द्वन्द्वयुक्त है और उसे यह स्पष्ट नहीं कि वह शरीर है या शरीर, या शरीर का स्वामी, या वह शरीर से किस तरह से जुड़ा है, फिर भी उसमें दो सहज-निष्ठाएँ जन्मजात होती ही हैं। पहली निष्ठा है 'मैं हूँ।' दूसरी निष्ठा है शरीर को किसी भी प्रकार से, किन्हीं भी परिस्थितियों में जब तक हो सके, जीवित रखना। और यह दूसरी निष्ठा भी पुनः गौण होती है, प्रमुख निष्ठा तो प्रकृति-प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो आहार, निद्रा, भय और मैथुन के रूप में जीवन की प्राकृतिक गतिविधि है। समूह के सन्दर्भ में इन गतिविधियों में व्यक्तिगत स्तर पर भी और समूह के स्तर पर भी; -आपस में टकराव होता रहता है। जीव / व्यक्ति के स्तर पर इन चार मूल प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्तियों में से एक समय पर कोई एक, शेष तीन पर हावी होती है। अर्थात् भूख, निद्रा, भय तथा कामवृत्ति में से कोई भी एक, प्रबल होने पर शेष तीन पर हावी हो जाती है। किंतु इन गतिविधियों की प्रेरणा जिन निष्ठाओं से होती है और जो निष्ठाएँ पुनः इन गतिविधियों से दृढ होती हैं, वे हैं कर्म-निष्ठां और ज्ञान-निष्ठा। अर्थात् किसी भी प्रवृत्ति को पूर्ण हो जाने और समाप्त होने देने के लिए कोई विशिष्ट कर्म किया जाना आवश्यक है ऐसी स्वाभाविक निष्ठा कर्म-निष्ठा है। और किस कर्म को किए जाने से कौन सी आवश्यकता पूर्ण होती है इसका ज्ञान जिस निष्ठा की तरह सहज रूप से जीव / मनुष्य को होता है उसे ज्ञान-निष्ठा कह सकते हैं।
इन गतिविधियों के पूर्ण होने पर प्रवृत्ति की तात्कालिक निवृत्ति होने पर मनुष्य को जो शान्ति या राहत प्राप्त होती है उससे उसमें यह बुद्धि जागृत होती है कि शरीर सुख का साधन है और इस प्रकार एक प्रवृत्ति की निवृत्ति हो जाने पर वह दूसरी में प्रवृत्त हो जाता है और यह भी अनायास होता है। इस प्रकार जीव / मनुष्य का जीवन इन चार गतिविधियों के चक्र की पुनरावृत्ति बनकर रह जाता है। इस चक्र का इस प्रकार दोहराव मृत्यु होने तक या शरीर के अक्षम और दुर्बल, रुग्ण और वृद्ध हो जाने तक चलता रहता है। शरीर के अंत के साथ यह चक्र / जीवन समाप्त हो जाता है। किंतु 'शरीर ही दुःख का भी कारण है' यह बुद्धि बिरले ही किसी मनुष्य में पैदा होती है और तब वह किसी आवेश में खुद को शरीर समझकर आत्महत्या की भूल भी कर बैठता है। किंतु यदि वह इस आवेश से ग्रस्त हुए बिना इस बुद्धि का प्रयोग कर शरीर को प्रकृति का उपकरण मानकर उससे उदासीन हो जाए तो उसे आत्महत्या करने की ज़रूरत ही नहीं अनुभव होगी। क्योंकि किसी यंत्र में कोई दोष / त्रुटि हो जाने पर उस यंत्र को नष्ट कर देना बुद्धिमानी तो नहीं है ! मनुष्य इस अर्थ में एक विशिष्ट जीव है कि उसके पास 'मन' नामक वह विशिष्ट यंत्र है जिसे वह 'विचार' से सक्रिय / संबद्ध कर काम में लेता है। 'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ का विस्तार और फैलाव है। 'विचार' कितना भी विस्तृत होकर फैल जाए 'शब्द और शब्दार्थ' की इस परिधि में सीमित होता है।
धर्म की अवधारणा :
'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ होने तक सीमित होने से निरपवाद रूप से भाषा पर आश्रित और अवलंबित होता है और भाषा सामूहिक गतिविधि है, न कि वैयक्तिक। समूह में इसलिए विभिन्न प्रवृत्ति वाले मनुष्यों के बीच अनेक विभाजन हो जाते हैं जो परस्पर विग्रह और वैमनस्य के साथ व्यक्तिगत स्तर के सहारे हिंसा, ईर्ष्या, लोभ की अति पर पहुँच जाते हैं और एक समूह अपने 'विचार' अन्य समूहों पर लादने का प्रयत्न करता है। जब सामान्य तर्क-बुद्धि से वह दूसरों को राज़ी नहीं कर पाता तो तलवार या प्रलोभन की ताकत से भय उत्पन्न कर या छल-छद्म के उपाय से ऐसा करता है।
समाज में सौहार्द्र और शान्ति के लिए कोई व्यवस्था तो आवश्यक है ही किंतु जब किसी किताब को एकमात्र परम आदर्श बनाकर किसी 'सामाजिक-धर्म' का उद्भव होता है तो 'व्यक्तिगत-धर्म' से इसका टकराव जिस रूप में फलित होता है वही विभिन्न धर्मों और मतों के रूप में समाज में विभाजन और शोषण का आधार बनता है।इस प्रकार सामाजिक समस्या का व्यक्ति के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप तमाम राजनीति को जन्म देता है क्योंकि जब तक समूह / वर्ग और उनके स्वार्थ हैं तब तक राजनीति उभरेगी ही, क्योंकि राजनीति सत्ता का सहारा है और सत्ता शक्ति है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में राजनीति मनुष्य का न सिर्फ भावनात्मक बल्कि बौद्धिक शोषण भी करती है और 'विचार' कट्टरता की हद तक जाकर मनुष्य की बुद्धि को कुंठित और विकृत कर देता है। एक वर्ग क्या कभी स्वतंत्र हो सकता है? किसी भी वर्ग में पुनः अनेक 'वर्ग' होंगे ही और उन वर्गों की जोड़-तोड़ भी विभिन्न समस्याओं के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न रूपों में सतत जारी रहेगी। इस प्रकार राजनीति की बुनियाद ही कितनी अस्थिर और भंगुर है यदि यह स्पष्ट हो जाए तो हम 'विकास' के प्रयोजन और तात्पर्य पर भी प्रश्न उठा सकते हैं। क्योंकि यदि मनुष्यों के वर्ग की ही चिंता करें तो केवल जनसंख्या-विस्फोट ही एक ऐसी बड़ी समस्या है जिसका समाधान हमारे पास नहीं है। प्रकृति के लिए मनुष्य दूसरे जीवों जैसा ही एक जीव मात्र है और प्रकृति स्वयं ही अनायास किसी भी जीव की संख्या को नियंत्रित करती है। यह प्रकृति की 'समष्टि-व्यवस्था' है। मनुष्य न तो चिकित्सा-विज्ञान के सूक्ष्मतम शोधों से और न साधनों की प्रचुरता से प्रकृति के इस एकाधिकार को चुनौती दे सकता है। यह विचार ही कि मनुष्य कृत्रिम उपायों से अधिक सुखी और समृद्ध हो सकता है कोरा काल्पनिक भ्रम है।
मनुष्य के लिए यदि कोई सर्वाधिक कठिन चुनौती और अवसर है तो वह है उसका 'मन' ; - न कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करना। वैसे भी मन भी प्रकृति ही है यह समझ लिए जाते ही प्रकृति पर विजय पाने का स्वप्न ही टूट जाता है।
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