Sunday, 6 January 2019

कुमार कार्तिकेय / सबरीमला

स्कंदपुराण माहेश्वर-केदारखण्ड से :
लोमशजी कहते हैं :
"तदनन्तर ब्रह्माजी की आज्ञा से हिमवान् ने कन्यादान किया ...
'इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर ! भार्यार्थं प्रतिगृह्णीष्व '
यह वाक्य बोलकर उन्होंने अपनी कन्या भगवान् शंकर को प्रदान कर दी।
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जिनकी जिह्वा के अग्रभाग पर सदा भगवान् शंकर का दो अक्षरों (वर्णों) वाला नाम (शिव) विराजमान रहता है, वे धन्य हैं, ...
उधर भगवान् शिव ने गन्धमादन पर्वत के एकान्त प्रदेश में अत्यंत सुन्दर रूप धारणकर पार्वतीदेवी के साथ रमण करने का विचार किया।
फिर वे महाप्रभु पार्वती के साथ महती रतिक्रीडा में तत्पर हुए। उन दोनों का वह महान् सुरतारम्भ उस समय सब लोगों के लिए अनिष्टकारक, अत्यंत अद्भुत् तथा प्रलयकारी हुआ।  वह महती सम्भोग-लीला आरम्भ होने पर भगवान् शंकर के दुःसह्य वीर्य से समस्त चराचर जगत् नष्ट होने लगा।  यह देख ब्रह्माजी तथा अध्यात्मज्ञान को प्रकाशित करनेवाले भगवान् विष्णु ने अग्निदेव का स्मरण किया।  मन से स्मरण करते ही अग्निदेव बड़ी उतावली के साथ वहाँ आ पहुँचे।  फिर उन दोनों की आज्ञा पाकर अग्नि ने केसर के सामान कान्तिवाले हंस (संन्यासी)  - का रूप धारणकर शिवजी के भवन में प्रवेश किया।  वहाँ आँगन में पहुँचकर वे बैठ गए और बोले --
"माँ  ! हाथ ही मेरा पात्र है; इसमें मुझे भिक्षा दे दो। "
तब माता पार्वती ने 'जातवेदा' अग्नि को भिक्षा (के रूप में वीर्य) दे दिया। अग्नि ने हाथ पर भिक्षा लेकर उनकी आँखों के सामने ही उसे खा लिया।  यह देख पार्वतीजी कुपित हो उठीं और अग्नि को शाप देती हुई बोलीं --
"अरे ओ भिक्षुक ! मेरे शाप से तू शीघ्र ही सर्वभक्षी हो जाएगा तथा शंकरजी के इस वीर्य से तुझे सब और से बड़ी भारी पीड़ा प्राप्त होगी। "
तदनन्तर अग्निदेव ने लोककल्याणकारी भगवान् शंकर से कहा --
"प्रभो ! महादेव ! अब मुझे क्या करना चाहिए; सुरश्रेष्ठ ! अब मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये जिससे मैं सर्वदा सुखी रहूँ और देवताओं का हविष्य वहन करता रहूँ। "
तब भगवान् शिव ने सब देवताओं के सुनते-सुनते कहा --
"अग्ने ! तुम अपने शरीर में पड़े हुए मेरे वीर्य को स्त्री के गर्भ में स्थापित कर दो।"
यह सुनकर अग्नि ने कहा --
"भगवान् आपका तेज दुःसह है, इसे प्राकृतजन कैसे धारण कर सकते हैं।"
उस समय नारदजी ने अग्निदेव से कहा --
"तुम मेरी बात मानो; माघ मास में प्रातःस्नान करके शीत के कारण जो अत्यन्त कष्ट पा रहे हों, वे जब अग्निसेवन के लिए आएँ, तब उनके शरीर में तुम भगवान् शिव का यह तेज स्थापित कर देना।"
नारदजी की यह बात मानकर कान्तिमान् एवं महान् प्रभावशाली अग्निदेव ब्राह्ममुहूर्त में बैठकर अपने प्रचण्ड तेज से प्रज्वलित हो उठे।  अग्नि को प्रज्वलित देख शीत से कष्ट पानेवाली कृत्तिकाओं ने अग्निसेवन की इच्छा से वहाँ आने का विचार किया।  उस समय अरुंधति देवी ने उन सबको रोका, तो भी उनकी बात न मानकर वे सब कृत्तिकाएँ आग तापने लगीं।  जब तक वे आग तापती रहीं तब तक ही शंकरजी के वीर्य के सभी परमाणु उनके रोमकूपों में होकर शरीर में घुस गए।  अब अग्निदेव उस वीर्य से मुक्त हो गए।  फिर तो स्वयं ही उनका वह प्रज्वलित तेज शांत हो गया।  तत्पश्चात् वे कृत्तिकाएँ गर्भवती होकर वहाँ से अपने घर को लौटीं।  वहाँ उनके पति महर्षियों ने जब उन्हें शाप दिया तो वे नक्षत्रों के रूप में आकाश में विचरने लगीं।  उसी समय उन सबने भगवान् शिव के उस वीर्य को हिमालय के शिखर पर छोड़ दिया।  छोड़ने पर वह सहसा तपाये हुए सुवर्ण के समान चमक उठा।  फिर वह गंगाजी में डाल दिया गया।  गंगाजी में बहता हुआ वह तेजोमय वीर्य सरकंडों के समूह से घिर गया।  वहाँ वह तेज छः मुखोंवाले बालक के रूप में परिणत हो गया (इसलिए कृत्तिकाओं से जन्मे भगवान् कुमार कार्तिकेय का एक नाम षाण्मातुर् हुआ।) इसका पता लगने पर समस्त देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई।  तदनन्तर नारदजी ने आकर शिव और पार्वती से उस बालक के जन्म का समाचार कहा --
"शिवजी के अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ है।"
यह समाचार सुनकर गन्धमादन पर्वत पर निवास करनेवाले समस्त प्रमथगणों का हृदय आनन्दोल्लास से भर गया। वहाँ अनेकों पताकाएँ फहराने लगीं।  बिल्वपत्र की बन्दनवारें शोभा पाने लगीं तथा भाँति-भाँति के वितानों से उस पर्वत की शोभा बढ़ गयी।  महात्मा शंकर के पुत्र के जन्म से वह श्रेष्ठ पर्वत अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था। उस समय सब देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, यक्ष, गन्धर्व, सर्प तथा अप्सराएँ सब-के-सब गंगा के तट पर विराजमान उस गंगापुत्र को देखने के लिए वहाँ गए।  ....
अत्यन्त अद्भुत् रूपवाले तथा सूर्य के समान तेजस्वी उस गंगाकुमार को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने उसका वंदन किया।  भगवान् शंकर के समस्त पार्षद, प्रमथगण और वीरभद्र आदि उस बालक को दायें-बायें दोनों ओर से घेरकर खड़े हो गए।  ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं सहित इंद्र भी उस समय बालक के समीप आए थे।  ......
इतने ही में गिरिजापति भगवान् शंकर भी वहाँ आ पहुँचे, और पार्वती के साथ शीघ्र ही वृषभ की पीठ से उतरकर अपने पुत्र को देखा।  देखते ही देखते पार्वती वात्सल्य प्रेम में मग्न हो गयीं।  उनके स्तनों से दूध बहने लगा।  वे आगे बढ़ीं और कुमार को छाती से लगाकर अपने बहते हुए स्तन का दूध पिलाने लगीं।  उस समय सम्पूर्ण देवों और देवांगनाओं ने आनन्दमग्न होकर पार्वतीजी की आरती उतारी।  जय-जयकार के महान् शब्द से आकाशमण्डल गूँज उठा।  ऋषि-मुनि वेदमन्त्रों का उच्चारण करके, गायकों ने गीत गाकर, तथा बाजे बजानेवालों ने वाद्य बजाकर कुमार का अभिनन्दन किया।  पुत्रवानों में श्रेष्ठ भगवान् शंकर भी उस महातेजस्वी कुमार को अपनी गोद में बिठाकर अत्यन्त सुशोभित हुए।
(गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित 'संक्षिप्त स्कन्द-पुराण' -279 से साभार)            
उपरोक्त वर्णन गंगा और हिमालय के सन्दर्भ में है।
पम्बासरोवर के सन्दर्भ में सबरीमला में स्थित भगवान् कार्तिकेय (अय्यप्पा) का विवरण भी स्कन्द-पुराण में 'नागरखण्ड-पूर्वार्ध' में :
"समुद्र के निकट विटंकपुर नामक एक उत्तम स्थान है ....."
के अंतर्गत देखा जा सकता है।
वाल्मीकि-रामायण में भी स्कन्द-भगवान्, कुमार कार्तिकेय के जन्म का उपरोक्त उद्धृत यह प्रसंग  बालकाण्ड में तथा पम्बासरोवर का प्रसंग भी देखा जा सकता है।
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यदि प्रमादवश मुझसे कोई त्रुटि हुई हो तो कृपया सुधार लें !
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