The Flora
वृक्ष और वार्क्षी : ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति : प्राण (vital-life force that animates the creatures) और रयि (consciousness prior to formulation in language)
--
सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को रचने का संकल्प उठते ही पञ्च महाभूत उनके लिए उपादानस्वरूप होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। विधाता ब्रह्मा की ज्ञान और क्रिया मूलक शक्ति दो भागों में प्रकट हुई और उसने वार्क्षी का नाम पाया। पञ्च महाभूतों के स्थूल-सूक्ष्म दस प्रकारों में प्रचेता वृक्ष के रूप में उद्भूत् हुए और वार्क्षी लता के रूप में उनकी सहधर्मिणी हुई।
इस प्रकार एक ही वार्क्षी का विवाह एक साथ दस प्रचेताओं के साथ संपन्न हुआ।
वनस्पति-सृष्टि का उद्भव इस प्रकार हुआ।
वार्क्षी दस प्रचेताओं के मध्य अपने लिए स्थान खोजती हुई दसों दिशाओं में फैलने-फूलने और पनपने लगी।
वह अपने असंख्य हाथों से जिसे स्पर्श करती उससे लिपट जाती और उसका सहारा लेकर ऊर्ध्वदिशा की और गतिशील होती। उसका जीवन वृक्ष के बिना अर्थहीन था।
एक ही वार्क्षी अनेक वृक्षों पर लहलहाती उनसे लिपटकर पुष्पित-फलित होती।
ऋषि अथर्वा उन वृक्षों वनस्पतियों लताओं के फल-मूल पत्ते खाकर भूख मिटाते। उन वृक्षों पर असंख्य पक्षी कलरव करते, उसके बीजों से भूख मिटाते। उन्हीं वृक्षों पर मधुमक्खियाँ छत्ते बनातीं और उन्हीं वनस्पतियों के फूलों के रस को उन छत्तों में बिंदु-बिंदु संचित करती। यहाँ तक कि कभी-कभी मधु के आधिक्य से वे बोझ से टूट जाते या वैसे ही उनसे मधु टपकता रहता था।
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1 /1)
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1/2)
जिस विद्या से ब्रह्म के पर और अपर दोनों रूपों को जाना जाता है उसे ब्रह्मविद्या कहते हैं।
सृष्टि की रचना होते ही भगवान् ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश किया।
जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश उन्होंने अथर्वा को किया उसका ही उपदेश अथर्वा ने अङ्गी ऋषि को और अङ्गी ऋषि ने भारद्वाज (भरद्वाज-गोत्रोत्पन्न) -सत्यवह ऋषि को दिया। उसी परंपरा से प्राप्त ब्रह्मविद्या का उपदेश सत्यवह ने अङ्गिरा ऋषि को दिया।
अथर्वा वृक्ष से गिरे फलों-पुष्पों-पत्रों से ही भूख शांत कर लेते थे। उनके ही गोत्र-भ्राता कभी-कभी तो केवल तृण खाकर ही तृप्त हो रहते थे। तृण खाने के कारण उनका नाम ऋषभ पर्यायतः सार्थक होता था। इसी प्रकार एक अन्य गोत्र-भ्राता केवल तृणों से गिरे अन्नकण खाकर भूख की निवृत्ति कर लेते थे। और इस प्रकार उन्हें कणाद का नाम प्राप्त हो गया था।
बहुत आयु हो जाने पर जैसे गाएँ पीतोदका जग्धतृणा हो जाती हैं वैसे ही ये ऋषिगण भी व्याधिरहित देह और क्लेश-रहित चित्त से जीवन व्यतीत करते हुए सशरीर ब्रह्मलोक में वास करते थे। भूख-प्यास का क्लेश तो उठते ही अनायास ही दूर हो जाता था किंतु वृक्षों से टपके मधु के लोभ पर नियंत्रण करना उन सभी के लिए कुछ कठिन अवश्य था।
तभी अथर्वा ऋषि ने सुना :
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति। अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम्। एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः नम इति। 6
(शिव-अथर्वशीर्ष)
उन्होंने यह सुना या उनके ही हृदय में यह स्फुरित हुआ इसलिए यह श्रुति है।
--
युग-युग बीत गए। स्त्रियाँ वार्क्षी की परंपरा से एक पति हो या अनेक केवल पातिव्रतधर्म का पालन होने मात्र से सती कहलाती थीं। ऋषि वृक्ष की परंपरा से शीत-आतप-वर्षा में एकाग्रचित्त होकर आत्म-अनुसंधान और तप में दृढ रहते थे। वायु खाकर और वर्षाजल पीकर भी स्वस्थ और प्रसन्न रहते थे। कभी-कभी अपने-आप ही टपकते मधु या फल-फूल आदि का भोजन भी ग्रहण कर लेते किन्तु उनके जीवन में क्लेश लेशमात्र भी नहीं उत्पन्न होता था। यह उनका धर्म था।
सत्यं वद। धर्मं चर।
ये थे सूत्रवाक्य।
परंपराएँ क्रमशः जर्जर होकर विलुप्तप्राय हो गईं और सत्-युग की समाप्ति के बाद त्रेता का आगमन हुआ। ऋषि वाल्मीकि ने रामायण की कथा कही और वह उसी प्रकार से घटित हुई तो सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को निरंतर बनाए रखने का संकल्प उठा और उन्होंने कामदेव और रति को इसके लिए नियुक्त किया।
वनस्पति जगत में वे प्रच्छन्नतः वनस्पतियों और ओषधियों को सोम के माध्यम से संवर्धित करते रहे थे, किंतु जीव-जगत Fauna में उनकी भूमिका बदल गयी। संपूर्ण जीव जगत उनके नियंत्रण से संचालित होता था। हाँ, मनुष्य अवश्य इसके बाहर था। मनुष्य मनु की संतति होने से कामदेव और रति सहित सभी देवताओं को वैदिक अनुष्ठानों से प्रसन्न और संतुष्ट रख सकता था और इसके लिए सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने ही उसे यह ज्ञान दिया था :
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
(गीता अध्याय 1, श्लोक 10)
और इस वेदविहित यज्ञ-परंपरा को बनाए रखने के लिए वर्णाश्रम-धर्म का उपदेश भी सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने दिया क्योंकि वेद के माध्यम से स्वयं भगवान् नारायण द्वारा यह व्यवस्था निश्चित की गयी थी :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
(गीता अध्याय 4 श्लोक 13)
किंतु कालक्रम से यह सारा ज्ञान जो स्वयं भगवान् नारायण द्वारा सूर्य (विवस्वान्) को, भगवान् सूर्य द्वारा मनु को, और मनु द्वारा इक्ष्वाकु को दिया गया लुप्तप्राय हो गया और इसे ही भगवान् नारायण द्वारा अपने श्रीकृष्ण अवतार के समय द्वापर युग में अर्जुन के लिए पुनरोद्घाटित किया।
उसी मनु की संतति मनुष्य को उपदेश दिया गया :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
(गीता अध्याय 7 श्लोक 11)
तात्पर्य यह कि कामबुद्धि से मोहित हुए बिना केवल प्रजा की उत्पत्ति की परंपरा के लिए तुम कामोपभोग करो।
इस प्रकार 'विवाह' की व्यवस्था वेद के अनुकूल होने पर मनुष्यमात्र सुखी हो सकता है।
'विवाह' का मूल आधार यही है।
और इसकी इस मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए न तो पुरुष और न स्त्री स्वतंत्र हैं।
हठपूर्वक स्त्री-पुरुष समानता का आग्रह अंततः सबके लिए विनाश का ही कारण है।
वार्क्षी को जब स्त्री की भूमिका मिली तो उसे पता था कि प्रकृति का स्वभाव है तप।
इसी प्रकार से वृक्ष को जब पुरुष की भूमिका मिली तो उसे पता था कि पुरुष का तत्व है तप।
किंतु पुरुष ही स्त्री का आश्रय है और मनुष्य समाज में परिवार में ही स्त्री की सुरक्षा है।
बहुत बाद में मनु की संतान इस सत्य को भी भूल गयी और अंततः संसार उसके लिए भयावह अरण्य बन गया जहाँ उसके अरण्य-रोदन की आवाज क्षितिज से टकराकर पुनः पुनः लौटती रहती है।
--
वृक्ष और वार्क्षी : ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति : प्राण (vital-life force that animates the creatures) और रयि (consciousness prior to formulation in language)
--
सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को रचने का संकल्प उठते ही पञ्च महाभूत उनके लिए उपादानस्वरूप होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। विधाता ब्रह्मा की ज्ञान और क्रिया मूलक शक्ति दो भागों में प्रकट हुई और उसने वार्क्षी का नाम पाया। पञ्च महाभूतों के स्थूल-सूक्ष्म दस प्रकारों में प्रचेता वृक्ष के रूप में उद्भूत् हुए और वार्क्षी लता के रूप में उनकी सहधर्मिणी हुई।
इस प्रकार एक ही वार्क्षी का विवाह एक साथ दस प्रचेताओं के साथ संपन्न हुआ।
वनस्पति-सृष्टि का उद्भव इस प्रकार हुआ।
वार्क्षी दस प्रचेताओं के मध्य अपने लिए स्थान खोजती हुई दसों दिशाओं में फैलने-फूलने और पनपने लगी।
वह अपने असंख्य हाथों से जिसे स्पर्श करती उससे लिपट जाती और उसका सहारा लेकर ऊर्ध्वदिशा की और गतिशील होती। उसका जीवन वृक्ष के बिना अर्थहीन था।
एक ही वार्क्षी अनेक वृक्षों पर लहलहाती उनसे लिपटकर पुष्पित-फलित होती।
ऋषि अथर्वा उन वृक्षों वनस्पतियों लताओं के फल-मूल पत्ते खाकर भूख मिटाते। उन वृक्षों पर असंख्य पक्षी कलरव करते, उसके बीजों से भूख मिटाते। उन्हीं वृक्षों पर मधुमक्खियाँ छत्ते बनातीं और उन्हीं वनस्पतियों के फूलों के रस को उन छत्तों में बिंदु-बिंदु संचित करती। यहाँ तक कि कभी-कभी मधु के आधिक्य से वे बोझ से टूट जाते या वैसे ही उनसे मधु टपकता रहता था।
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1 /1)
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1/2)
जिस विद्या से ब्रह्म के पर और अपर दोनों रूपों को जाना जाता है उसे ब्रह्मविद्या कहते हैं।
सृष्टि की रचना होते ही भगवान् ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश किया।
जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश उन्होंने अथर्वा को किया उसका ही उपदेश अथर्वा ने अङ्गी ऋषि को और अङ्गी ऋषि ने भारद्वाज (भरद्वाज-गोत्रोत्पन्न) -सत्यवह ऋषि को दिया। उसी परंपरा से प्राप्त ब्रह्मविद्या का उपदेश सत्यवह ने अङ्गिरा ऋषि को दिया।
अथर्वा वृक्ष से गिरे फलों-पुष्पों-पत्रों से ही भूख शांत कर लेते थे। उनके ही गोत्र-भ्राता कभी-कभी तो केवल तृण खाकर ही तृप्त हो रहते थे। तृण खाने के कारण उनका नाम ऋषभ पर्यायतः सार्थक होता था। इसी प्रकार एक अन्य गोत्र-भ्राता केवल तृणों से गिरे अन्नकण खाकर भूख की निवृत्ति कर लेते थे। और इस प्रकार उन्हें कणाद का नाम प्राप्त हो गया था।
बहुत आयु हो जाने पर जैसे गाएँ पीतोदका जग्धतृणा हो जाती हैं वैसे ही ये ऋषिगण भी व्याधिरहित देह और क्लेश-रहित चित्त से जीवन व्यतीत करते हुए सशरीर ब्रह्मलोक में वास करते थे। भूख-प्यास का क्लेश तो उठते ही अनायास ही दूर हो जाता था किंतु वृक्षों से टपके मधु के लोभ पर नियंत्रण करना उन सभी के लिए कुछ कठिन अवश्य था।
तभी अथर्वा ऋषि ने सुना :
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति। अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम्। एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः नम इति। 6
(शिव-अथर्वशीर्ष)
उन्होंने यह सुना या उनके ही हृदय में यह स्फुरित हुआ इसलिए यह श्रुति है।
--
युग-युग बीत गए। स्त्रियाँ वार्क्षी की परंपरा से एक पति हो या अनेक केवल पातिव्रतधर्म का पालन होने मात्र से सती कहलाती थीं। ऋषि वृक्ष की परंपरा से शीत-आतप-वर्षा में एकाग्रचित्त होकर आत्म-अनुसंधान और तप में दृढ रहते थे। वायु खाकर और वर्षाजल पीकर भी स्वस्थ और प्रसन्न रहते थे। कभी-कभी अपने-आप ही टपकते मधु या फल-फूल आदि का भोजन भी ग्रहण कर लेते किन्तु उनके जीवन में क्लेश लेशमात्र भी नहीं उत्पन्न होता था। यह उनका धर्म था।
सत्यं वद। धर्मं चर।
ये थे सूत्रवाक्य।
परंपराएँ क्रमशः जर्जर होकर विलुप्तप्राय हो गईं और सत्-युग की समाप्ति के बाद त्रेता का आगमन हुआ। ऋषि वाल्मीकि ने रामायण की कथा कही और वह उसी प्रकार से घटित हुई तो सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को निरंतर बनाए रखने का संकल्प उठा और उन्होंने कामदेव और रति को इसके लिए नियुक्त किया।
वनस्पति जगत में वे प्रच्छन्नतः वनस्पतियों और ओषधियों को सोम के माध्यम से संवर्धित करते रहे थे, किंतु जीव-जगत Fauna में उनकी भूमिका बदल गयी। संपूर्ण जीव जगत उनके नियंत्रण से संचालित होता था। हाँ, मनुष्य अवश्य इसके बाहर था। मनुष्य मनु की संतति होने से कामदेव और रति सहित सभी देवताओं को वैदिक अनुष्ठानों से प्रसन्न और संतुष्ट रख सकता था और इसके लिए सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने ही उसे यह ज्ञान दिया था :
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
(गीता अध्याय 1, श्लोक 10)
और इस वेदविहित यज्ञ-परंपरा को बनाए रखने के लिए वर्णाश्रम-धर्म का उपदेश भी सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने दिया क्योंकि वेद के माध्यम से स्वयं भगवान् नारायण द्वारा यह व्यवस्था निश्चित की गयी थी :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
(गीता अध्याय 4 श्लोक 13)
किंतु कालक्रम से यह सारा ज्ञान जो स्वयं भगवान् नारायण द्वारा सूर्य (विवस्वान्) को, भगवान् सूर्य द्वारा मनु को, और मनु द्वारा इक्ष्वाकु को दिया गया लुप्तप्राय हो गया और इसे ही भगवान् नारायण द्वारा अपने श्रीकृष्ण अवतार के समय द्वापर युग में अर्जुन के लिए पुनरोद्घाटित किया।
उसी मनु की संतति मनुष्य को उपदेश दिया गया :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
(गीता अध्याय 7 श्लोक 11)
तात्पर्य यह कि कामबुद्धि से मोहित हुए बिना केवल प्रजा की उत्पत्ति की परंपरा के लिए तुम कामोपभोग करो।
इस प्रकार 'विवाह' की व्यवस्था वेद के अनुकूल होने पर मनुष्यमात्र सुखी हो सकता है।
'विवाह' का मूल आधार यही है।
और इसकी इस मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए न तो पुरुष और न स्त्री स्वतंत्र हैं।
हठपूर्वक स्त्री-पुरुष समानता का आग्रह अंततः सबके लिए विनाश का ही कारण है।
वार्क्षी को जब स्त्री की भूमिका मिली तो उसे पता था कि प्रकृति का स्वभाव है तप।
इसी प्रकार से वृक्ष को जब पुरुष की भूमिका मिली तो उसे पता था कि पुरुष का तत्व है तप।
किंतु पुरुष ही स्त्री का आश्रय है और मनुष्य समाज में परिवार में ही स्त्री की सुरक्षा है।
बहुत बाद में मनु की संतान इस सत्य को भी भूल गयी और अंततः संसार उसके लिए भयावह अरण्य बन गया जहाँ उसके अरण्य-रोदन की आवाज क्षितिज से टकराकर पुनः पुनः लौटती रहती है।
--
No comments:
Post a Comment