Monday, 14 January 2019

मकर-संक्रान्ति /

विवेचना : उत्तरायण 
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मकर-संक्रान्ति 
विवस्वान्-पथ
अश्विनौ - चैत्र प्रतिपदा से आश्विन प्रतिपदा तक तथा आश्विन प्रतिपदा से चैत्र प्रतिपदा तक दो अश्विन्-पथ हैं जो वर्ष (संवत्सर) को सतत काल के पथ पर गतिशील रखते हैं।
शरद पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा दोनों ऋतु-चक्र विषुव-पथ को निर्देशित करते हैं।
Equinox अश्विनौ अश्विन् + ऊक्षिन् का सज्ञाति / cognate है।
अश्व तथा उक्ष;
इसे अश्विन् + ऊक्षिन् -- अश्विनूक्षिन् की तरह भी देखा जा सकता है।
ऊह् -- ऊह्यते  -- ऊहिन् - ढोनेवाला उक्ष -- ox / oxen बैल,
विवस्वान्-पथ एक समतल है तो अश्विन-पथ एक दूसरा समतल जिनसे पृथ्वी पर जीवन का उद्भव और संचार होता है।
इस प्रकार अयनान्त और ऋतु चक्र वर्ष को दो प्रकार से विभाजित करते हैं।
जब समुद्र-मन्थन से अमृत-कुम्भ निकला तो विष्णु ने मोहिनी-रूप धारण कर सबके बीच उसे उस अमृत-कलश से एक-एक बिंदु (बूँद) बाँटने के लिए सबको आमंत्रित किया। वैदिक-देवता (सुरगण) शुभ दैवी-शक्तियाँ जब पंक्तिबद्ध हो गईं और सूर्य तथा चंद्र भी जिनमें विद्यमान हुए (क्योंकि ये दोनों ही विवस्वान्-पथ और अश्विन्-पथ के नियन्ता हैं), तो काल के दो ध्रुव राहु तथा केतु - जो एक ही अक्ष के दो सिरे हैं और इस अक्ष-रूप में एक ही सत्ता हैं जो निरपेक्ष-स्थान की धुरी भी है, जिसके चारों ओर तारामण्डल राशि-चक्र घूमता है और जिससे राशि-चक्र के तारे अपनी जगह पर टंकित / जड़े हुए दिखाई देते हैं और सूर्य, चंद्र, या बुध, शुक्र, मंगल,बृहस्पति तथा शनि की तरह, एक से दूसरी राशि में जाते हुए नहीं दिखाई देते), तो राहु नामक असुर (अर्थात् यह अक्ष / नेत्र) भी देवता-रूप धारणकर उस पंक्ति में बैठ गया।  किंतु तब तक विष्णु उस असुर को अमृत परोस चुके थे इसलिए वह अमर हो चुका था।  इस पर सूर्य तथा चंद्र ने इंगित से मोहिनी-रूपधारी विष्णु का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। तब विष्णु ने चक्र से उस असुर का सर धड़ से अलग कर दिया। 
उस का सिर राहु के रूप में अक्ष का एक शीर्ष है तो केतु ध्वजा या पूँछ की तरह दूसरा शीर्ष जिसके बीच यह अस्तित्व और दोनों पथ स्थिर हैं। 
इस अमृत-कलश को पृथ्वी पर विष्णु ने क्रमशः जिन चार स्थानों पर रखा था वहाँ पुनः सूर्य-चंद्र के उस आकाशीय चक्र की पुनरावृत्ति होने पर अर्थात् सूर्य के उत्तरायण होने पर अमृत-कुम्भ से अमृत (स्वर्गङ्गा) की बूँदें छलकती हैं जो क्रमशः हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, तथा नासिक में क्रमशः गंगोत्री - जाह्नवी, गंगा - प्रयागराज, शिप्रा तथा गोदावरी इन चार नदियों में मिल जाती हैं।
यह खगोलीय (Astronomical), पौराणिक (आधिदैविक) तथा आध्यात्मिक सत्य है।
सनातन-पथ चूँकि काल-स्थान (आधिभौतिक) से अबाधित अव्याहत पथ है इसलिए यह तीनों स्तरों पर ग्राह्य है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 24)
अर्थ :
उत्तरायण के छः मास, अग्नि, ज्योति तथा चंद्र के शुक्ल पक्ष में जो ब्रह्मविद्  इस लोक को त्यागते हैं वे मेरे उस परम धाम को जाते हैं जहाँ से जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन से छूट जाते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
(गीता अध्याय 8, श्लोक 25)
अर्थ :
धूम अर्थात् संधि-काल में, रात्रि में, चंद्र के कृष्णपक्ष में जो ब्रह्मविद्  इस लोक को त्यागते हैं वे मेरे उस परम धाम को जाते हैं जहाँ से जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन से छूट जाते हैं।
दोनों ही मार्ग केवल उस योगी के निमित्त ही हैं जो साङ्ख्य ज्ञान अथवा योग मार्ग से ब्रह्मविद् हो चुका है। इसलिए भी साङ्ख्य (ज्ञान) तथा योग एक ही लक्ष्य की प्राप्ति का साधन हैं  ...
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 26) 
अर्थ :
इस प्रकार शुक्लमार्ग और चन्द्रमार्ग इन्हीं दो मार्गों से ब्रह्मविद् मनुष्य शाश्वततत्व को प्राप्त होकर आत्मा में असीम शान्ति पाता है ...
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 27
निश्चित ही सामान्य मनुष्य के लिए (और वैसे ही तथाकथित विद्वानों के लिए भी) यह सब रहस्य समझना बहुत कठिन है, और केवल ब्रह्मविद् ही उपरोक्त दो मार्गों की प्राप्ति का अधिकारी है किन्तु वह भी (चन्द्रमार्ग से गया हुआ) पुनः या तो ब्रह्मलोक तक ही पहुँच पाता है या (सूर्य-मार्ग से गया हुआ) ब्रह्मलीन हो पाता है इसलिए जो अनधिकारी है उसके लिए भी एक सरलतम मार्ग यह है कि वह श्रुतिवाक्य पर पूर्ण समर्पणयुक्त श्रद्धा रखता हुआ इस कुम्भ-पर्व पर तीर्थ-स्नान कर जीवन को सार्थक कर ले।
एक प्रश्न फिर भी विचारणीय है।
श्रद्धा का तात्पर्य है शंकारहित होना। 
और शंकारहित होने का अर्थ है शंका का निराकरण / निवारण कर लेना, न कि केवल किसी मान्यता को ओढ़ लेना जो तात्कालिक होती है।
ईश्वर या प्रभु की प्राप्ति के लिए मृत्यु आने की प्रतीक्षा करते रहना और अनिश्चय में पड़े रहना अवश्य ही मूढ़ता है। और अवसर पुनः कब उपस्थित होगा, होगा भी या नहीं किसे पता है?
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