परम सत्ता
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।
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(श्रीरामचरितमानस)
अर्थ :
वर्णों और उनके अनेक तात्पर्य-समूहों के, रस और वेद के प्रेरक छन्दों के भी, समस्त शुभ के कर्ताओं देवी सरस्वती और भगवान् श्रीगणेश की वन्दना करता हूँ।
जिनकी कृपा के बिना सिद्ध भी अपने हृदय में अवस्थित ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाते, उन श्रद्धारूपिणी देवी भवानी पार्वती की विश्वासरूपी भगवान् शङ्कर सहित वन्दना करता हूँ।
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विवृणुते तनूं स्वाम् (कठोपनिषद् 1 / 2 / 23)
के अर्थ में यद्यपि एकमेव अद्वितीय आत्मा ही असंख्य नामों रूपों में अभिव्यक्त होकर साकार-निराकार की तरह ग्रहण की जाती है, इन असंख्य नामों रूपों के आवरण में वर्ण-विशेष के अनुसार उसे पुनः पुनः उद्घाटित और अनावरित किया जाता है।
वर्ण और स्वर, व्यंजन, तथा मात्रा वेद का व्यक्त रूप है।
इस प्रकार उसी परमेश्वर का प्राकट्य वाणी-विनायक तथा भवानी-शङ्कर इन रूपों में आधिदैविक स्तर पर होता है।
वर्ण वेद की ही तरह नित्य और सनातन भी हैं किन्तु उनका प्राकट्य होने के अनन्तर ही वाणी और भाषा अस्तित्व में होती है। यही वर्ण प्रवृत्ति विशेष के अनुसार गुण-कर्म होते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि गुण-कर्म और प्रवृत्ति परस्पर पर्याय हैं।
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
समस्त प्राणरूप देवताओं (वर्णों) ने जिस प्रकाशमान वैखरी (मरणशील) वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
(किंतु) इसके अनन्तर हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं उन्होंने उस वाणी के वर्ण-रूपी देवताओं को जन्म दिया, जो मृत्युरहित अमृतस्वरूप हैं।
इस प्रकार प्राणरूप देवता संस्कारित होकर वेदवाणी की अभिव्यक्ति का माध्यम हुए।
वर्णों के समास से भावरूपी शब्द बने जो व्यावहारिक धरातल पर विकसित होकर भाषा / भाषाएँ बने।
और इसलिए किसी भी शब्द का अपना अर्थसंघ भी अस्तित्व में आया।
अर्थ और भाव इसलिए वाचा के वाच्य-वाचक अवयव हुए।
यह हुई 'भाषा' और 'विचार' / thought की मर्यादा।
एक और अनेक भी भाव-विशेष हैं इसलिए परम सत्ता भी एक अथवा अनेक से सीमित नहीं होती।
इसलिए ईश्वर एक है या अनेक, यह प्रश्न ही भ्रामक है।
या कहें 'ईश्वर एक है' यह वक्तव्य अधूरा सत्य है।
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
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'रस' है, -व्याप्य-व्याप्त-व्यापकता -'आनन्द' ।
और छन्द है, -मौज, तरंग,
[छन्द जिस 'छन्द्' धातु से बना है उसका प्रयोग ऊर्जा, उत्साह के अर्थ में होता है, इसी 'छद्' धातु से बना शब्द छात्त्र शब्द 'शिष्य' के लिए प्रयुक्त होता है; 'छदि ऊर्जने' ]
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परम-सत्ता तो 'रस' और 'रस' का स्रोत होते हुए भी रसवर्ज्य भी है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(गीता 2 / 59)
इसे दूसरे तरीके से 'रस' का तात्पर्य 'राग' की तरह ग्रहण कर समझा जा सकता है।
रसशब्दो रागे प्रसिद्धः :
'स्वरसेन प्रवृत्तो रसिको रसज्ञः' के अनुसार।
(गीता शाङ्कर भाष्य से)
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।
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(श्रीरामचरितमानस)
अर्थ :
वर्णों और उनके अनेक तात्पर्य-समूहों के, रस और वेद के प्रेरक छन्दों के भी, समस्त शुभ के कर्ताओं देवी सरस्वती और भगवान् श्रीगणेश की वन्दना करता हूँ।
जिनकी कृपा के बिना सिद्ध भी अपने हृदय में अवस्थित ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाते, उन श्रद्धारूपिणी देवी भवानी पार्वती की विश्वासरूपी भगवान् शङ्कर सहित वन्दना करता हूँ।
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विवृणुते तनूं स्वाम् (कठोपनिषद् 1 / 2 / 23)
के अर्थ में यद्यपि एकमेव अद्वितीय आत्मा ही असंख्य नामों रूपों में अभिव्यक्त होकर साकार-निराकार की तरह ग्रहण की जाती है, इन असंख्य नामों रूपों के आवरण में वर्ण-विशेष के अनुसार उसे पुनः पुनः उद्घाटित और अनावरित किया जाता है।
वर्ण और स्वर, व्यंजन, तथा मात्रा वेद का व्यक्त रूप है।
इस प्रकार उसी परमेश्वर का प्राकट्य वाणी-विनायक तथा भवानी-शङ्कर इन रूपों में आधिदैविक स्तर पर होता है।
वर्ण वेद की ही तरह नित्य और सनातन भी हैं किन्तु उनका प्राकट्य होने के अनन्तर ही वाणी और भाषा अस्तित्व में होती है। यही वर्ण प्रवृत्ति विशेष के अनुसार गुण-कर्म होते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि गुण-कर्म और प्रवृत्ति परस्पर पर्याय हैं।
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
समस्त प्राणरूप देवताओं (वर्णों) ने जिस प्रकाशमान वैखरी (मरणशील) वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
(किंतु) इसके अनन्तर हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं उन्होंने उस वाणी के वर्ण-रूपी देवताओं को जन्म दिया, जो मृत्युरहित अमृतस्वरूप हैं।
इस प्रकार प्राणरूप देवता संस्कारित होकर वेदवाणी की अभिव्यक्ति का माध्यम हुए।
वर्णों के समास से भावरूपी शब्द बने जो व्यावहारिक धरातल पर विकसित होकर भाषा / भाषाएँ बने।
और इसलिए किसी भी शब्द का अपना अर्थसंघ भी अस्तित्व में आया।
अर्थ और भाव इसलिए वाचा के वाच्य-वाचक अवयव हुए।
यह हुई 'भाषा' और 'विचार' / thought की मर्यादा।
एक और अनेक भी भाव-विशेष हैं इसलिए परम सत्ता भी एक अथवा अनेक से सीमित नहीं होती।
इसलिए ईश्वर एक है या अनेक, यह प्रश्न ही भ्रामक है।
या कहें 'ईश्वर एक है' यह वक्तव्य अधूरा सत्य है।
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
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'रस' है, -व्याप्य-व्याप्त-व्यापकता -'आनन्द' ।
और छन्द है, -मौज, तरंग,
[छन्द जिस 'छन्द्' धातु से बना है उसका प्रयोग ऊर्जा, उत्साह के अर्थ में होता है, इसी 'छद्' धातु से बना शब्द छात्त्र शब्द 'शिष्य' के लिए प्रयुक्त होता है; 'छदि ऊर्जने' ]
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परम-सत्ता तो 'रस' और 'रस' का स्रोत होते हुए भी रसवर्ज्य भी है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(गीता 2 / 59)
इसे दूसरे तरीके से 'रस' का तात्पर्य 'राग' की तरह ग्रहण कर समझा जा सकता है।
रसशब्दो रागे प्रसिद्धः :
'स्वरसेन प्रवृत्तो रसिको रसज्ञः' के अनुसार।
(गीता शाङ्कर भाष्य से)
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