गीता अध्याय 3 श्लोक 3
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।
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अर्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं --
हे निष्पाप (ऋजु-बुद्धि) अर्जुन! जैसा कि मेरे द्वारा सदैव कहा गया है, संसार में और जगत् में भी दो प्रकार की निष्ठाएँ देखी जाती हैं अर्थात् जीवधर्म और मुमुक्षुधर्म। जीवधर्म है जीवप्रवृत्ति का क्रमशः भोग से त्याग और त्याग से भोग की ओर गतिशील रहना। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार जीवधर्म प्राणिमात्र में आत्यंतिक निष्ठा की तरह होते हैं। इनमें से किसी एक समय में एक का ही शेष तीन पर वर्चस्व होता है। एक की निवृत्ति होने पर कोई दूसरा उसका स्थान लेता है और पूर्व को त्याग दिया जाता है। जैसे भूख लगने पर आहार के लिए प्रयत्न किया जाता है, भूख शांत होने पर उसे त्याग दिया जाता है, निद्रा आने पर जीव सो जाता है, किंतु संकट की स्थिति में भय भूख-प्यास तथा निद्रा पर हावी होता है। इसी प्रकार काम का आवेश होने पर शेष तीन गौण हो जाते हैं। जैसा कि कहा जाता है : काम से मोहितबुद्धि मनुष्य भय और लज्जा को भी त्याग देता है।
इस प्रकार ये चार प्रवृत्तियाँ क्रम से जब तक जीव पर हावी रहती हैं तब तक उसमें मुमुक्षा पैदा ही नहीं होती। ये सभी प्रवृत्तियाँ प्रमादजन्य बुद्धिदोष से भी मनुष्य में होती हैं किंतु जब किसी कारण से मनुष्य इस प्रमाद को त्याग देता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि जब वह जीवन के इस क्रम से दुःखी या असंतुष्ट हो जाता है और इसकी व्यर्थता अनुभव करने लगता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है। विवेक और वैराग्य भी निष्ठा का ही एक रूप है जो मनुष्य का ध्यान इस सब (संसार, जगत्, सुख-दुःख आदि समस्त द्वंद्व) की अनित्यता और निरर्थकता की ओर आकृष्ट करती है और तब उसमें 'मुमुक्षा' जागृत होती है।
इस प्रकार यह दो प्रकार की निष्ठाएँ लोक में देखी जाती हैं।
मुमुक्षु का अर्थ है जिसमें यह मुमुक्षा जागृत हो गयी हो।
पुनः इस मुमुक्षा के जागृत होने से ही मनुष्य कर्मबन्धन से नहीं छूट जाता क्योंकि मृत्यु और अज्ञात भविष्य का भय उसे कर्म करने के लिए बाध्य करता रहता है।
ऐसे ही मुमुक्षु की निष्ठा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है --
वह या तो इस समस्त जगत्-प्रपंच का संचालन करनेवाले किसी अदृश्य सूत्रधार को स्वीकार कर धीरे-धीरे परिपक्वता के अनुसार सब-कुछ उसके प्रति अर्पित कर देता है और अंततः अपने स्वतंत्र कर्तृत्व-भाव को भी उसकी ही प्रेरणा पर छोड़कर जीवधर्म से अप्रभावित और अहंकाररहित हो जाता है, या निष्काम कर्म करता हुआ भी अपने समस्त कर्मों तथा उनके शुभ-अशुभ समस्त फलों को भी त्याग देता है। प्रथम प्रकार की निष्ठा को साङ्ख्य तथा दूसरी प्रकार की निष्ठा को योग कहा जाता है। कर्म के ही प्रकार-विशेष से कर्मयोग भी तत्पश्चात् अभ्यास-काल में भक्ति, ज्ञान आदि प्रकार का कहा जा सकता है।
इस प्रकार ये दो प्रकार की निष्ठाएँ अल्पज्ञ जीव में, मुमुक्षु में तथा ज्ञानी में भी होती हैं।
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।
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अर्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं --
हे निष्पाप (ऋजु-बुद्धि) अर्जुन! जैसा कि मेरे द्वारा सदैव कहा गया है, संसार में और जगत् में भी दो प्रकार की निष्ठाएँ देखी जाती हैं अर्थात् जीवधर्म और मुमुक्षुधर्म। जीवधर्म है जीवप्रवृत्ति का क्रमशः भोग से त्याग और त्याग से भोग की ओर गतिशील रहना। आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार जीवधर्म प्राणिमात्र में आत्यंतिक निष्ठा की तरह होते हैं। इनमें से किसी एक समय में एक का ही शेष तीन पर वर्चस्व होता है। एक की निवृत्ति होने पर कोई दूसरा उसका स्थान लेता है और पूर्व को त्याग दिया जाता है। जैसे भूख लगने पर आहार के लिए प्रयत्न किया जाता है, भूख शांत होने पर उसे त्याग दिया जाता है, निद्रा आने पर जीव सो जाता है, किंतु संकट की स्थिति में भय भूख-प्यास तथा निद्रा पर हावी होता है। इसी प्रकार काम का आवेश होने पर शेष तीन गौण हो जाते हैं। जैसा कि कहा जाता है : काम से मोहितबुद्धि मनुष्य भय और लज्जा को भी त्याग देता है।
इस प्रकार ये चार प्रवृत्तियाँ क्रम से जब तक जीव पर हावी रहती हैं तब तक उसमें मुमुक्षा पैदा ही नहीं होती। ये सभी प्रवृत्तियाँ प्रमादजन्य बुद्धिदोष से भी मनुष्य में होती हैं किंतु जब किसी कारण से मनुष्य इस प्रमाद को त्याग देता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि जब वह जीवन के इस क्रम से दुःखी या असंतुष्ट हो जाता है और इसकी व्यर्थता अनुभव करने लगता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है। विवेक और वैराग्य भी निष्ठा का ही एक रूप है जो मनुष्य का ध्यान इस सब (संसार, जगत्, सुख-दुःख आदि समस्त द्वंद्व) की अनित्यता और निरर्थकता की ओर आकृष्ट करती है और तब उसमें 'मुमुक्षा' जागृत होती है।
इस प्रकार यह दो प्रकार की निष्ठाएँ लोक में देखी जाती हैं।
मुमुक्षु का अर्थ है जिसमें यह मुमुक्षा जागृत हो गयी हो।
पुनः इस मुमुक्षा के जागृत होने से ही मनुष्य कर्मबन्धन से नहीं छूट जाता क्योंकि मृत्यु और अज्ञात भविष्य का भय उसे कर्म करने के लिए बाध्य करता रहता है।
ऐसे ही मुमुक्षु की निष्ठा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है --
वह या तो इस समस्त जगत्-प्रपंच का संचालन करनेवाले किसी अदृश्य सूत्रधार को स्वीकार कर धीरे-धीरे परिपक्वता के अनुसार सब-कुछ उसके प्रति अर्पित कर देता है और अंततः अपने स्वतंत्र कर्तृत्व-भाव को भी उसकी ही प्रेरणा पर छोड़कर जीवधर्म से अप्रभावित और अहंकाररहित हो जाता है, या निष्काम कर्म करता हुआ भी अपने समस्त कर्मों तथा उनके शुभ-अशुभ समस्त फलों को भी त्याग देता है। प्रथम प्रकार की निष्ठा को साङ्ख्य तथा दूसरी प्रकार की निष्ठा को योग कहा जाता है। कर्म के ही प्रकार-विशेष से कर्मयोग भी तत्पश्चात् अभ्यास-काल में भक्ति, ज्ञान आदि प्रकार का कहा जा सकता है।
इस प्रकार ये दो प्रकार की निष्ठाएँ अल्पज्ञ जीव में, मुमुक्षु में तथा ज्ञानी में भी होती हैं।
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