The Celibate Deity
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स्कन्दपुराण / कुमार कार्तिकेय
अध्याय 199
ब्रह्माजी कहते हैं :
एक समय महाबली तारकासुर के भय से भागे हुए देवताओं ने महादेवजी की स्तुति की और उनकी आज्ञा से कुमार कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया। फिर स्कन्द के तेज से प्रबल होकर सब देवता तारकासुर से युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं ने दानवों की सेना को मार गिराया। भगवान् विष्णु के चक्र से छिन्न-भिन्न होकर सहस्रों दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़े। युद्ध में दानव-सेना को नष्ट होती देख तारकासुर देवताओं का सामना करने लगा। देवेश्वर स्कन्द ने बाणों की बौछार से उसकी सेना को शीघ्र ही तितर-बितर कर डाला। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु की प्रेरणा से कार्तिकेयजी ने शक्ति का प्रहार करके सारथिसहित तारकासुर को क्षण भर में भस्म कर दिया। शेष दैत्य तारकासुर को मरा हुआ देख पाताल में भाग गए। तब देवताओं ने कुमार के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विजय प्राप्त करके शिव आदि सब देवताओं ने स्वामी कार्तिकेय को देवताओं के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार तारकासुर को मारकर सातवें दिन बालक कार्तिकेय ने मन्दराचल पर जा अपने माता-पिता को प्रसन्न किया। परमानन्द में निमग्न हो स्कन्द ने सब वृत्तान्त स्वयं ही माता-पिता से कहा। उस समय भगवान् शंकर ने पुत्र का विवाह कर देने का विचार किया और कार्तिकेय से कहा -
"वत्स ! तुम्हारे विवाह का समय प्राप्त है, तुम पत्नी प्राप्त करके उसके साथ धर्माचरण करो।"
पिता की यह बात सुनकर स्वामी कार्तिकेय ने कहा -
" भगवन् ! संसार के दृश्य और अदृश्य पदार्थों में से मैं किसका ग्रहण और किसका त्याग करूँ? जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब मेरे लिए माता पार्वती के सामान हैं और जितने भी पुरुष हैं, उन सबको मैं आपके रूप में देखता हूँ। आप मेरे गुरु हैं, अतः मुझे नरक में डूबने से बचाइए। मैंने आपके प्रसाद से यह विवेक प्राप्त किया है। भयंकर संसार-सागर में मैं फिर न गिर जाऊँ, इसकी चेष्टा रखें। जैसे दीपक हाथ में लेकर किसी वस्तु को खोजनेवाला पुरुष उस वस्तु को देख लेने पर उसके लिए स्वीकार किये जानेवाले अन्य सब साधनों को त्याग देता है, उसी प्रकार योगी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर संसार को त्याग देता है। सर्वज्ञ परमेश्वर ! सर्वव्यापी ब्रह्म को जानकर जिसके सब कर्म निवृत्त हो जाते हैं, उसको विद्वान् पुरुष योगी कहते हैं। महेश्वर ! मानवों के लिए ज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है। ज्ञानीजन प्राप्त किए हुए ज्ञान को किसी प्रकार भी खोना नहीं चाहते। यह ज्ञान आपके प्रभाव से ही प्राप्त होने योग्य है। मैं संसारबंधन से छूटने की इच्छा रखता हूँ। अतः मुझसे इस प्रकार विवाह आदि करने की बात नहीं कहनी चाहिए।"
जब देवी पार्वती ने विवाह के लिए बार-बार आग्रह किया, तब कार्तिकेयजी पिता-माता को प्रणाम कर क्रौंच पर्वत पर चले गए और वहाँ परम पवित्र आश्रम में बैठकर बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्होंने द्वादशाक्षर बीजरूप परब्रह्म का जप किया और पहले ध्यान से सब इन्द्रियों को वश में करके एक मास तक मन को योग में लगाकर ज्ञानयोग प्राप्त कर लिया। जब उनके सामने अणिमा आदि सिद्धियाँ आयीं, तब वे उनसे क्रोधपूर्वक बोले -
"अरी ! यदि अपनी दुष्टता के कारण तुम लोग मेरे पास भी चली आयीं, तो मेरे-जैसे शांत पुरुषों का कभी पराभव न कर सकोगी।"
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स्कन्दपुराण में ध्यानयोग और ज्ञानयोग का निरूपण
इस अध्याय के पिछले 197 तथा 198 वें अध्यायों के प्रारम्भ में भगवान् शिव पार्वती को उपदेश देते हैं :
श्रीमहादेवजी कहते हैं -- पार्वती ! द्विजों के लिए ॐ-कार सहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए ॐ-काररहित नमस्कारपूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है। संकर जातियों के लिए रामनाम का षडक्षर मन्त्र (ॐ रामाय नमः) है। वह भी प्रणव (ॐ) से रहित ही होना चाहिए, ऐसा पुराणों और स्मृतियों का निर्णय है।
[1 द्विजातानां सहोङ्कारः सहितो द्वादशाक्षरः।
स्त्रीशूद्राणां नमस्कारपूर्वकः समुदाहृतः।।
2 प्रणवास्याधिकारो न तवास्ति वरवर्णिनी।
नमो भगवते वासुदेवायेति जपः सदा।।]
यही क्रम सब वर्णों के लिए है और संकरजातियों के लिए भी सदा ऐसा ही क्रम है। पार्वती ! प्रणव-जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है। अतः तुम्हें सदा 'नमो भगवते वासुदेवाय' इसी मन्त्र का जप करना चाहिए। यह प्रणव सब देवताओं का आदि कहा गया है। सब प्राणी और समस्त तीर्थ उसमें विभागपूर्वक स्थित हैं। प्रणव सर्वतीर्थमय तथा कैवल्य ब्रह्ममय है। शुभानने ! जब तुम चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए तप करोगी, तब प्रणवसहित द्वादशाक्षर का जप करने के योग्य हो जाओगी। जब तपस्या की वृद्धि होती है, तब भगवान् विष्णु में भक्ति होती है। प्रतिदिन भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिए। इससे ('नमो भगवते वासुदेवाय' से) जिह्वा पवित्र होती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होने पर बड़े भारी अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की कथा सुनने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अतः पार्वती ! तुम भगवान् विष्णु के शयनकाल में द्वादशाक्षर मन्त्रराज का विशुद्धचित्त होकर जप करो। वे ही भगवान् संतुष्ट होकर तुम्हें द्वादशाक्षरसहित अखण्ड ब्रह्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान प्रदान करेंगे। तुम ब्रह्माजी के कोटि कल्पों तक द्वादशाक्षरमन्त्र का जप करती रहो। जो प्रणवसहित मन्त्रराज का ध्यान करता है, उसका कभी नाश नहीं होता।
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भगवान् विष्णु के शयनकाल में ....
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः।
(शिव-अथर्वशीर्ष)
जब तक मनुष्य संसार को सत्य समझता है उसके भीतर अवस्थित परमात्मा उस संसार का संहार कर (समेटकर) निद्रा में अवस्थित होता है यह भगवान् विष्णु का शयनकाल हुआ।
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स्कन्दपुराण / कुमार कार्तिकेय
अध्याय 199
ब्रह्माजी कहते हैं :
एक समय महाबली तारकासुर के भय से भागे हुए देवताओं ने महादेवजी की स्तुति की और उनकी आज्ञा से कुमार कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया। फिर स्कन्द के तेज से प्रबल होकर सब देवता तारकासुर से युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं ने दानवों की सेना को मार गिराया। भगवान् विष्णु के चक्र से छिन्न-भिन्न होकर सहस्रों दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़े। युद्ध में दानव-सेना को नष्ट होती देख तारकासुर देवताओं का सामना करने लगा। देवेश्वर स्कन्द ने बाणों की बौछार से उसकी सेना को शीघ्र ही तितर-बितर कर डाला। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु की प्रेरणा से कार्तिकेयजी ने शक्ति का प्रहार करके सारथिसहित तारकासुर को क्षण भर में भस्म कर दिया। शेष दैत्य तारकासुर को मरा हुआ देख पाताल में भाग गए। तब देवताओं ने कुमार के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विजय प्राप्त करके शिव आदि सब देवताओं ने स्वामी कार्तिकेय को देवताओं के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार तारकासुर को मारकर सातवें दिन बालक कार्तिकेय ने मन्दराचल पर जा अपने माता-पिता को प्रसन्न किया। परमानन्द में निमग्न हो स्कन्द ने सब वृत्तान्त स्वयं ही माता-पिता से कहा। उस समय भगवान् शंकर ने पुत्र का विवाह कर देने का विचार किया और कार्तिकेय से कहा -
"वत्स ! तुम्हारे विवाह का समय प्राप्त है, तुम पत्नी प्राप्त करके उसके साथ धर्माचरण करो।"
पिता की यह बात सुनकर स्वामी कार्तिकेय ने कहा -
" भगवन् ! संसार के दृश्य और अदृश्य पदार्थों में से मैं किसका ग्रहण और किसका त्याग करूँ? जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब मेरे लिए माता पार्वती के सामान हैं और जितने भी पुरुष हैं, उन सबको मैं आपके रूप में देखता हूँ। आप मेरे गुरु हैं, अतः मुझे नरक में डूबने से बचाइए। मैंने आपके प्रसाद से यह विवेक प्राप्त किया है। भयंकर संसार-सागर में मैं फिर न गिर जाऊँ, इसकी चेष्टा रखें। जैसे दीपक हाथ में लेकर किसी वस्तु को खोजनेवाला पुरुष उस वस्तु को देख लेने पर उसके लिए स्वीकार किये जानेवाले अन्य सब साधनों को त्याग देता है, उसी प्रकार योगी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर संसार को त्याग देता है। सर्वज्ञ परमेश्वर ! सर्वव्यापी ब्रह्म को जानकर जिसके सब कर्म निवृत्त हो जाते हैं, उसको विद्वान् पुरुष योगी कहते हैं। महेश्वर ! मानवों के लिए ज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है। ज्ञानीजन प्राप्त किए हुए ज्ञान को किसी प्रकार भी खोना नहीं चाहते। यह ज्ञान आपके प्रभाव से ही प्राप्त होने योग्य है। मैं संसारबंधन से छूटने की इच्छा रखता हूँ। अतः मुझसे इस प्रकार विवाह आदि करने की बात नहीं कहनी चाहिए।"
जब देवी पार्वती ने विवाह के लिए बार-बार आग्रह किया, तब कार्तिकेयजी पिता-माता को प्रणाम कर क्रौंच पर्वत पर चले गए और वहाँ परम पवित्र आश्रम में बैठकर बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्होंने द्वादशाक्षर बीजरूप परब्रह्म का जप किया और पहले ध्यान से सब इन्द्रियों को वश में करके एक मास तक मन को योग में लगाकर ज्ञानयोग प्राप्त कर लिया। जब उनके सामने अणिमा आदि सिद्धियाँ आयीं, तब वे उनसे क्रोधपूर्वक बोले -
"अरी ! यदि अपनी दुष्टता के कारण तुम लोग मेरे पास भी चली आयीं, तो मेरे-जैसे शांत पुरुषों का कभी पराभव न कर सकोगी।"
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स्कन्दपुराण में ध्यानयोग और ज्ञानयोग का निरूपण
इस अध्याय के पिछले 197 तथा 198 वें अध्यायों के प्रारम्भ में भगवान् शिव पार्वती को उपदेश देते हैं :
श्रीमहादेवजी कहते हैं -- पार्वती ! द्विजों के लिए ॐ-कार सहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए ॐ-काररहित नमस्कारपूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है। संकर जातियों के लिए रामनाम का षडक्षर मन्त्र (ॐ रामाय नमः) है। वह भी प्रणव (ॐ) से रहित ही होना चाहिए, ऐसा पुराणों और स्मृतियों का निर्णय है।
[1 द्विजातानां सहोङ्कारः सहितो द्वादशाक्षरः।
स्त्रीशूद्राणां नमस्कारपूर्वकः समुदाहृतः।।
2 प्रणवास्याधिकारो न तवास्ति वरवर्णिनी।
नमो भगवते वासुदेवायेति जपः सदा।।]
यही क्रम सब वर्णों के लिए है और संकरजातियों के लिए भी सदा ऐसा ही क्रम है। पार्वती ! प्रणव-जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है। अतः तुम्हें सदा 'नमो भगवते वासुदेवाय' इसी मन्त्र का जप करना चाहिए। यह प्रणव सब देवताओं का आदि कहा गया है। सब प्राणी और समस्त तीर्थ उसमें विभागपूर्वक स्थित हैं। प्रणव सर्वतीर्थमय तथा कैवल्य ब्रह्ममय है। शुभानने ! जब तुम चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए तप करोगी, तब प्रणवसहित द्वादशाक्षर का जप करने के योग्य हो जाओगी। जब तपस्या की वृद्धि होती है, तब भगवान् विष्णु में भक्ति होती है। प्रतिदिन भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिए। इससे ('नमो भगवते वासुदेवाय' से) जिह्वा पवित्र होती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होने पर बड़े भारी अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की कथा सुनने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अतः पार्वती ! तुम भगवान् विष्णु के शयनकाल में द्वादशाक्षर मन्त्रराज का विशुद्धचित्त होकर जप करो। वे ही भगवान् संतुष्ट होकर तुम्हें द्वादशाक्षरसहित अखण्ड ब्रह्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान प्रदान करेंगे। तुम ब्रह्माजी के कोटि कल्पों तक द्वादशाक्षरमन्त्र का जप करती रहो। जो प्रणवसहित मन्त्रराज का ध्यान करता है, उसका कभी नाश नहीं होता।
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भगवान् विष्णु के शयनकाल में ....
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः।
(शिव-अथर्वशीर्ष)
जब तक मनुष्य संसार को सत्य समझता है उसके भीतर अवस्थित परमात्मा उस संसार का संहार कर (समेटकर) निद्रा में अवस्थित होता है यह भगवान् विष्णु का शयनकाल हुआ।
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