Wednesday, 30 January 2019

my story : The mystery

The Venom 
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The Venom (विष) is not poison (गरल).
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Venom is about vein, poison is about death. 
Wanted to share this with you
Though myself viewed only half of it, and not the full.
And btw, no view about the man who is known as 'Sadhguru' here.
This is for you to view and enjoy / see what you make of it.
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और आजकल मैं तुलसीदास जी की रामचरितमानस पढ़ रहा हूँ।
उपरोक्त घटना कल की है जब मैं बालकाण्ड के दूसरे सर्ग (मासपारायण विश्राम 2) में  वृषकेतु और मीनकेतु का प्रसंग पढ़ रहा था।  मैं सोचने लगा कि मीनकेतु कामदेव हैं।  और स्पष्ट हुआ : हाँ !
तभी मेरी छत की मुंडेर पर एक नीलकंठ (kingfisher) आ बैठा।
हम बचपन से उसे नीलकंठ कहते हैं।
तब मुझे ध्यान आया कि नीलकंठ शायद मेरी छत पर जमा पानी को देखकर आया होगा।
फिर मैंने सोचा नीलकंठ मछली क्यों खाता है ?
तब मुझे समझ में आया कि नीलकंठ भगवान शिव का भी एक नाम है और नीलकंठ के रूप में वे मनुष्य की इच्छाओं को 'हर' लेते हैं और इच्छा मछलियों का ही आधिदैविक रूप है।
इस प्रकार 'नीलकंठ' शिव और 'नीलकंठ' पक्षी के बीच सुसंगति बैठ गई।
ऊपर जिस विडिओ का लिंक दिया है उसका title भी ऐसा ही कुछ रहस्यमय है ....
मगर इससे अधिक मेरा इस विडिओ से कोई मतलब नहीं है।
हाँ इस विडिओ में प्रस्तुत दो स्तोत्र तुम्हें अच्छे लगेंगे।
और कोबरा के विष (venom) तथा काली गौ के दूध का मिश्रण तथा उससे शिव का अभिषेक भी अवश्य ही रोचक है लेकिन उस बारे में तुम Life-sciences की student / स्कॉलर होने के नाते और बेहतर जान समझ सकोगी
।। नमः शिवाय।।
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उपरोक्त विडिओ में भगवान शिव के प्रति महर्षि वसिष्ठ-विरचित दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रम् का वाचन है।
यह स्तोत्र इस प्रकार है :
दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रम्
विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय
कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।1
गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय
कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय।
गङ्गाधराय गजराजविमर्दनाय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।2
भक्तिप्रियाय भवरोगापहाय
उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय।
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।3
चर्माम्बराय शवभस्मविलेपनाय
भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय।
मञ्जीरपादयुगलाय जटाधराय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।4
पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय
हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय।
आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।5
भानुप्रियाय भवतारणसागराय
कालान्तकाय कमलासनपूजिताय।
नेत्रत्रयाय शुभलक्षणलक्षिताय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।6
रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय।
नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय
दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।7
मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय
गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय।
मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय
 दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय।।8
वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणम्।
सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्।।
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।। इति महर्षि वसिष्ठविरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।।
(गीताप्रेस गोरखपुर - सं 1417 शिवस्तोत्ररत्नाकर से साभार)
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The above is a mail today I sent to some-one.
Wanted to share this here also. 

Friday, 25 January 2019

The Inclusive 'Dharma' / धर्म

समावेशी धर्म
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किसी चीज़ का दोषपूर्ण नामकरण जहाँ ऐसी अनेक नई और दुरूह समस्याएँ पैदा करता है जिनका समाधान लगभग असंभव ही होता है, वहीँ किसी वक्तव्य का दूसरी भाषा में अनुवाद इससे भी कई गुना अधिक संभ्रम और संशय, मतभेदों तथा विवादों का कारण होता है।
जैसे भावना को अर्थशास्त्र से नहीं समझा जा सकता और कविता को तर्कशास्त्र से नहीं समझा जा सकता, वैसे ही यह भी इतना ही बड़ा सच है कि यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक तथा हिन्दू जैसी परंपराओं को 'धर्म' की कसौटी पर कदापि नहीं तौला जा सकता। इसलिए 'धर्म' को (अंग्रेज़ी में) religion कहा जाना 'धर्म' के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि यद्यपि जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ अवश्य ही बहुत हद तक वेदसंमत 'धर्म' के निकट हैं और उन्हें 'धर्म' कहा जाना असंगत नहीं है, 'हिन्दू' शब्द 'धर्म' नहीं बल्कि  अधिक से अधिक भारतवर्ष के भौगोलिक क्षेत्र में प्रचलित सामाजिक संस्कृति के लिए ही अधिक उपयुक्त है और इसलिए संस्कृति की दृष्टि से उसे अवश्य ही सनातन धर्म की 'वसुधैव-कुटुम्बकम्' पर आधारित उदारतापरक धर्म संभवतः कहा जा सकता है। और जैसे ही उसे 'धर्म' कहा जाता है वैसे ही यद्यपि एक ओर जैन, बौद्ध, सिख और पारसी परंपराएँ उसमें अनायास घुल-मिल जाती हैं, वहीं दूसरी ओर यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ उससे पानी में तेल की तरह भिन्न और अलग ही रहती हैं और यहाँ तक कि विरोधी (और उससे श्रेष्ठ भी) होने का आग्रह भी करती हैं। यह आग्रह प्रायः इतना प्रबल हो जाता है कि कट्टरता या धर्मान्धता तक पहुँचने लगता है। इस प्रकार हिंदुत्व को 'धर्म' की कसौटी पर रखते ही संस्कृति, यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक विचारधाराएँ और परंपराएँ अनायास ही उसे अपना शत्रु समझ बैठती है। दूसरी और 'नास्तिक', शुद्ध भौतिकवादी जैसे साम्यवादी आदि भी 'सेक्युलर' होने का मुखौटा ओढ़कर हिन्दू-धर्म को और यहाँ तक कि इस बहाने सनातन-धर्म या भारतीयता की भावना तक का भी तिरस्कार और निंदा करते हैं। इस प्रकार 'धर्म' कहे जाते ही 'हिन्दू' नामक सांस्कृतिक भावना / संबोधन दो प्रकार से भारत की अस्मिता पर आघात करने के लिए आधार बन जाता है और यह तथ्य अंततः 'धर्म' को ही क्षति पहुंचाता है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परम्पराएँ ईश्वर की तथा 'एक' ईश्वर की मान्यता का बलपूर्वक आग्रह करती हैं जबकि सनातन धर्म की दृष्टि में 'धर्म' मान्यता नहीं खोज का विषय है और इसलिए व्यक्ति की खोज करने की स्वतन्त्रता और इसके लिए उसका संकल्प किसी भी मान्यता से अधिक महत्वपूर्ण है।
रोचक तथ्य यह है सनातन धर्म की छह प्रधान विवेचनाओं (दर्शन) में से एक साँख्य के आचार्य भी 'ईश्वर' के बारे में कोई निष्कर्षपरक आग्रह नहीं करते।  क्योंकि 'ईश्वर' और 'जीव' परस्पर दो सापेक्ष सत्ताएँ हैं और इस प्रकार 'ईश्वर' भी द्वैत के अंतर्गत सीमित हो जाता है। वेदान्त दर्शन और योग दर्शन भी 'ईश्वर' की अवधारणा को 'धर्म' की खोज में एक उपयोगी और सहायक साधन अवश्य स्वीकार करते हैं, और तात्कालिक रूप से द्वैत-सिद्धांत के महत्व को इसीलिए मान्य भी करते हैं किंतु यह भी मानते हैं कि यदि ऐसी किसी परम-सत्ता को स्वीकार किया ही जाए तो वह एकमेव-अद्वितीय है और तब उसके और उसकी उपासना / पूजा / करनेवाले के मध्य न तो कोई भेद रह जाता है न कोई 'पारस्परिक' संबंध। और इस 'ईश्वर' को किसी मान्यता से व्यक्ति-रूप में मानना भी उसे आधिदैविक देवता का स्वरुप प्रदान कर देता है इसलिए उस विशिष्ट देवता की उपासना उस परम-सत्ता के आविष्कार और साक्षात्कार के लिए एक साधन अवश्य हो सकती है।
यहूदी, इस्लामी, क्रिश्चियन तथा कैथोलिक परंपराएँ भी यद्यपि ईश्वर को 'एक' मानने पर बल देती हैं किंतु उनमें से प्रत्येक का यह आग्रह भी होता है कि उनके द्वारा जिस ईश्वर को संसार और समस्त जीवन का स्वामी कहा जाता है वही एकमात्र वास्तविक ईश्वर है, जबकि शेष सभी परंपराओं के ईश्वर अवास्तविक हैं।
इस प्रकार से परंपराओं के बीच की विभिन्न मान्यताओं को न तो सत्य सिद्ध किया जा सकता है न प्रमाणित ही किया जा सकता है। 
सनातन धर्म इस बात पर बल देता है कि 'धर्म' हर मनुष्य / समुदाय की अपनी आवश्यकता के अनुसार उसे खोजना होता है और 'धर्म' उसे किसी दूसरे के द्वारा प्रदान नहीं किया जा सकता।  अपनी अपनी 'पात्रता' / 'अधिकार' के अनुसार ही कोई भी मनुष्य अपने यथार्थ 'धर्म' को खोज सकता है और 'ईश्वर' तथा 'धर्म' के संबंध में सबके लिए कोई एक पैमाना तय नहीं किया जा सकता।
इसलिए समावेशी धर्म किसी दूसरे की मान्यता पर न तो आक्रमण करता है, न उसे सत्य या असत्य कहता है।
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Thursday, 24 January 2019

'Dharma' / धर्म : The Only Revolution.

The Reality and The Core Truth
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From Times immemorial, India has been the cradle of 'Dharma' / 'धर्म'  .
The word 'problem' comes from the Sanskrit word 'प्रबलम्'.
The word 'emblem'  comes from the Sanskrit word 'अनुबलम्'.
Likewise the word 'semblance' comes from the word Sanskrit ' 'संबलञ्च' or 'संबलं च'.
Just like avalanche comes from the Sanskrit word 'अवलुञ्च'.
The only clue to (understand) this is phonetic derivation that is the key-point of the Sanskrit-Grammar.
So there is a 'Dharma' / 'धर्म' that is synonymous with the Reality.
There is yet another 'Dharma' / 'धर्म' that is synonymous with the manifestation of  the Reality.
This 'segregating' could again be derived from the Sanskrit compound word / sentence :
स अग्रे गति which means 'with a movement forward'.
We are taught that there is a 'Supreme' / 'Ultimate' Truth, and there is an apparent / manifest Truth.
We lose touch with the Reality in this segregation. The 'Supreme' / 'Ultimate' Truth becomes a hypothetical entity and the 'world' where we live in is taken as the apparent / manifest Truth.
And we utterly fail to bridge the gap between the two.
So, therefore let us begin with accepting the phenomenal world of our perception as the starting point.
'Dharma' / 'धर्म' has been defined in many ways and at different levels in different parlance.
Loosely speaking; -we translate 'Dharma' / 'धर्म' as nature.
So this is what that prevails in  and at all times.
There is no hard and fast code of conduct of following this 'Dharma' / 'धर्म' one should learn about.
'Dharma' / 'धर्म' is spontaneous movement of consciousness for all beings and things living or non-living, (because we tend to segregate 'Life' in these two categories).
This was going on and still goes on despite our efforts of defining and imposing 'Dharma' / 'धर्म' in various ways and even forcing aggressively the same upon the world / people.
The last three centuries and even before that about those two thousand years in the history of the mankind, the 'Dharma' / 'धर्म' was prevalent over the globe as a natural phenomenon.
In the Sanskrit, there are two words that carry two different meanings of 'Manifestation' / 'Phenomenal appearance and disappearance' and the 'Creation and Dissolution'.
Again there is another couple of words; namely 'Formation and Destruction'.
The two words in Sanskrit that mean 'Manifestation' / 'Phenomenal appearance and disappearance' are respectively : सृष्टि and प्रलय।
The two words in Sanskrit that mean 'Creation and Dissolution'. are respectively : प्राकट्य and लय।
The two words in Sanskrit that mean 'Manifestation' / 'Phenomenal appearance and disappearance are respectively निर्माण and विनाश।
Again there are two important words that in a way signify the 'formation' and 'deformation', -'nature' and deviation from the natural course of 'Dharma' / 'धर्म' are : उद्भव / emergence and प्रादुर्भाव / accidental ।
Though 'Sanatana-'Dharma' / 'सनातन-धर्म' prevails timelessly, this उद्भव / emergence and प्रादुर्भाव / accidental are the happening / tricks of  'माया / delusion'.  'माया / delusion' is but a temporary phase of ignorance that takes place because of the उद्भव / 'emergence and प्रादुर्भाव' of a sense of 'duality'.
This sense of 'duality' is lost in deep sleep state, swoon or perhaps in death, and re-emerges during the waking-state always. The individual is but the shadow of this sense of 'duality'.
Thus, the 'individual' is basically undivided, it owns / assumes this sense of 'duality', there-by projecting one's own world.
This is the dual nature of उद्भव / emergence and प्रादुर्भाव / accidental.
In some last few posts I wrote in a Hindi post about how The Palestine is the place of Palms and though 'palm' itself is a cognate of Sanskrit 'फलं' / 'phalaM', in the same place there are locations which could have been referred to in some old Veda-Purana and other Sanskrit texts and suddenly I found out 'Sinai' - Gabal-Musa. Just to point out this again resembles with 'Jabal' / 'जाबाल / जाबालृ, / Gabriel ... and a few minutes ago I was trying see if and how to connect with the Moses (The Prophet).
It is not unusual to see the commonalities between the Jew-texts and the Veda, and as far as I understand and according to my knowledge :
After "the LORD came down upon mount Sinai", Moses went up briefly and returned and prepared the people, and then in Exodus 20 "God spoke" to all the people the words of the covenant, that is, the "ten commandments" as it is written.
The point I would like to suggest is : Moses saw the 'Sacred Fire' and 'The Fire was the word of God'.
This description reminds us about the tradition of the Zoroastrian / जरथुष्ट्र, and most of us know of Zoroaster because of Friedrich Nietzsche, who spun his book based upon this theme.
We all know the the very First stanza in the First book of Veda; namely The Rigveda / ऋग्वेद is dedicated to the 'Fire-God' / अग्नि.
We also know That Buddha began His Search joined with 5 aspirants who worshiped 'Fire-God ' / अग्नि.
Though the Jew Tradition talks of Jehovah, the way it is written and pronounced in the Hebrew is very much like यह्व as is found in Veda many a times.
The only difference is that though Veda and Sanskrit script is written from left to right while the Hebrew (Like the Arabic and the Persian) is written from right to left.
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Four days ago I posted 'समस्याएँ अनेक हल एक' (a Hindi post) where I mentioned that no-one now-a-days even talks of  a the population-explosion. The politicians talk of 'Progress', 'development', their country, culture, language, religion and 'unemployment', 'poverty' but turn a blind eye to this most important problem that has such grave consequences for the whole humanity and also upon the global life, is ticking away as a time-bomb.
While writing that post I had in mind how 'we' have utterly failed in getting benefit of our 'Sanatana-Dharma' / सनातन-धर्म and got engaged with propagating our individual 'cult' at the cost of the harm to the whole earth and the 'life' of earth.
There are two key-points that need to be paid attention to.
While Classical 'Sanatana-Dharma' / सनातन-धर्म imposes it a duty on the individual to procreate and help the nature in preserving the clan and humanity of noble men (आर्य / Arya), and treats 'विहित-काम' as a means to this, Veda again exhorts that , we should not indulge in sex with the attitude of pleasure (भोग-बुद्धि).
Another key-point is that sex is not a matter of condemnation, ridicule or guilt if one understands how important this gift of nature has its role in life.
What is condemned is the lust where one disrespects the partner by thinking him / her in terms of a consumer-good and not honoring his /her dignity and self-esteem.
This is often true in the case of the males and the male-ego.
The root of the word 'sex' is in fact Sanskrit root-word 'शिष्' - 'शिष्यते' - 'शिक्षा' - 'शिशु' - 'शिश्न' .
'शिष्' - means what remains as a result.
'शिष्यते' - means discipleship.
'शिक्षा' -  means 'education'.
'शिशु' - means an infant / a small child.
'शिश्न' - means the (male) organ of generation.
There are other words which corroborate this point.
'Pen' / 'punish', 'Penetration', 'Penile' 'Penalty' 'Penal' all correspond to 'शिक्षा' / 'education'.
Even the word 'Teach' is a cognate (सज्ञाति) of  'शिष्'
Thanks to the Western and the Modern Educationists and scholars that we have lost all touch with the significance and role of sex in human life. We have been far down-fallen even to the level below the animals, who have no 'mental' ramification and hardly think of the act. They don't go pervert as we human tend to become with many complexities of the behavior on the part of our mind.
In Sanskrit 'दण्ड' (to punish) is again used to convey the meaning:
 'शास्' - शासयति - शासक - शासित (to govern).
Once we adore sex and its role, respect it in the right perspective, the problem of present day about sex-discipline will just vanish.
Unfortunately we have 'thinking'-habits that prevent us from looking the life straight-forward with the eyes of an innocent.
The same is true about the disease, old-age, death also.
Living a healthy life is far more important than continuing the same with the fear of death for oneself and those who are our relations.
This may look a bit cruel, but accepting life with all its shades is the only way.
If we could live a life of order and sanity, we could not cross-over beyond the limit of population that has been a big problem to us.
This doesn't mean that we should say good-by to the Science and Medicine, but should see that living a natural way of life is rather the simple intelligent way.
We should realize that we have to pay a price for everything.
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Hope I shall edit this once.                    
 
 

   
    
     

Tuesday, 22 January 2019

भारत-विद्या / Indology

धर्म / संस्कृति, समाज / परिवार, राष्ट्र
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अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रः अमित्रस्य कुतो सुखम्।।
विद्या ददाति विनयं विनयादायाति पात्रता।
पात्रत्वेन धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततो सुखम्।।
उपरोक्त दो श्लोक प्रायः सभी भारतीयों ने कभी-न-कभी पढ़े / सुने होंगे।
यह जानना रोचक होगा कि इन्दु (चंद्र) जो भारतवर्ष की भौगोलिक संस्कृति, समाज, भाषा और आचार-विचार तथा व्यवहार की एक धुरी है तो सूर्य इसकी दूसरी धुरी है।  भारतीय वैदिक ज्योतिष (Astronomy) समस्त जगत में इसीलिए ज्ञान (knowledge), विज्ञान (Science), तंत्र (Technique), गणित (Mathematics), कला (Art), संगीत (Music) भाषा (Language) तथा भाषाशास्त्र (Linguistics / Philology), के लिए प्रेरणा-स्रोत रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
दुर्भाग्य से या किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर पिछली दो सदियों में मनुष्य मात्र की इस पूरी समूची अमूल्य धरोहर को इस प्रकार जानबूझकर विरूपित किया गया कि अब यह समझ पाना तक कठिन हो गया है कि किस प्रकार भारत (India) वैश्विक-आधार पर समूचे संसार की गौरवमयी विरासत (Heritage) है।
India, Indonesia, Indian-American, Red-Indian, Industry, Industrious, Indigenous, ये तमाम शब्द 'सिन्धु' से नहीं बल्कि 'इन्दु' से आए हैं यह सोचना खामखयाली नहीं हो सकता।
और हम कह सकते हैं कि अधिक संभव यही है इनका उद्गम 'इन्दु' से हुआ हो।
पिछली किसी पोस्ट में मैंने पिलुस्थान / Palestine के बारे में लिखा था।
उसमें यह उल्लेख करना भूल गया कि इस भौगोलिक स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनका सादृश्य भारतीय वैदिक-पौराणिक साहित्य से है।  BeerSheba, Jabale, Gaza का संबंध संस्कृत रूप वीरशैव, जाबालि/ जाबालृ  से अवश्य है।  Gibraltar, Gabriel जाबालि/ जाबालृ से वैसे ही संबद्ध हैं जैसे Emmanuel मनु से, Samuel शं / शामन से, ... 'अल्' प्रत्यय वैसे तो 'ऑल' (all) का मूल भी है किंतु अरेबिक तथा पर्सियन में लिप्यंतरण के प्रभाव से उपसर्ग का रूप ले लेता है। वैसे अरेबिक में यह 'इल्' के रूप में विकल्प की तरह भी प्रयुक्त होता है।  'इला' पृथ्वी को कहते हैं। इल उसी पृथ्वी का पुंलिंग रूप है और यह कथा कल्पित नहीं बल्कि ऐतिहासिक सत्य है जैसा कि इसे इसके मूल स्वरूप में पढ़ने से अनुमान किया जा सकता है। 'इलावृत्त' का और 'इल' नामक परम पराक्रमी राजा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में किसी सर्ग में है। फ़्रेंच में यही article के रूप में अपने विशेष्य से पृथक होकर 'Le', 'les', 'la' हो जाता है।        
संस्कृत पीलु का एक अर्थ है हाथी, दूसरा है खजूर, तीसरा है ऊँट, पहले दो अर्थ तो आकृति-साम्य से अर्थ-साम्य के उद्भव के उदाहरण हैं, जैसे दूरस्थ खजूर (ताड़) हाथ के खुले खड़े पंजे जैसा दिखाई देता है और हाथी जिसे 'हस्ति' कहा जाता है, भी अंगूठे-सहित चार उँगलियोंयुक्त पंजे की तरह दिखाई देता है। और हाथी का एक बहुत प्रचलित नाम है 'गज' ! इससे 'Gaza'  की संगति दृष्टव्य है।
संस्कृत भाषा में न सिर्फ इस प्रकार से आकृति-साम्य से अर्थ-साम्य ग्रहण किया जाता है, imperative-sense के माध्यम से वस्तु-साम्य तक स्थापित किया जाता है। जैसे अर्जुन नामक वृक्ष (Terminalia Arjuna) का वर्णन करते समय 'अर्जुन' के पर्याय शब्दों का भी प्रयोग देखा जा सकता है। आयुर्वेद में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहाँ किसी वनस्पति की संरचना (आकृति) किसी जीवित प्राणी से मिलती-जुलती होने से उसकी संज्ञा उस जीवित प्राणी के नाम की हो जाती है।
 Brigitte Gabrielle का एक वीडिओ You-tube पर देखते हुए ख़याल आया कि Brigitte Gabrielle का नाम बृहत्-जाबाल का ही कालक्रम से प्रभावित रूप है। जाबालि (ऋषि) के बारे में मैंने पिछली कई पोस्ट्स में लिखा है। पौराणिक कथाओं में बृहस्पति (Jupiter) को देवताओं का गुरु कहा जाता है तो शुक्र (Venus) को दैत्यों का।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों भाई 'दैत्य' थे।  यहाँ 'दैत्य' शब्द निंदापरक नहीं है बल्कि 'देवता' के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक है।  'दिति' और 'अदिति' दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नी थीं / हैं ।  'दिति' के पुत्र 'दैत्य' हैं, किंतु सात 'मरुत्गण' भी 'दिति' के ही पुत्र हैं। जब 'दिति' गर्भवती थी तो उसका संकल्प था कि उसका होनेवाला पुत्र इंद्र का वध करेगा। क्योंकि इंद्र देवताओं का राजा है और देवता 'अदिति' की संतानें हैं।
यह कथा वेद में भी है और वाल्मीकि रामायण में भी है, जिसे पुराणों में भी पाया जाता है।
तात्पर्य यह कि वेद, पुराण, और रामायण तथा महाभारत आदि इतिहास-ग्रन्थ कल्पना से उपजे 'साहित्य' न होकर भिन्न-भिन्न शैली में लिखे गए भारतीय 'धर्मग्रन्थ' हैं जो अनेक स्तरों का समायोजन करते हैं।
वे आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक स्तरों के सत्यों की प्रस्तुति एक साथ करते हैं।
अर्थात् इनमें से प्रत्येक ही एक साथ सत्य के तीनों पक्षों का वर्णन अपनी अपनी शैली (genre) में करते हैं। इसलिए पुराण, और रामायण तथा महाभारत, जैसा कि हम समझते हैं, 'Mythology' कदापि नहीं है।  वे दन्तकथा / लोककथा / या किंवदन्ती से बहुत भिन्न हैं।
'वेताल-कथा' या 'सिंहासन-बत्तीसी' भी इसी प्रकार संभवतः एक शैली है जो वेद, पुराण और रामायण तथा महाभारत, जैसी प्रामाणिक भले ही न हो केवल लोककथा या Mythology भर नहीं है।
स्कन्द-पुराण में उल्लेख है कि किस प्रकार भगवान् शङ्कर के विवाह के समय 'वेताल' शव के उसके वाहन पर चढ़कर उस बारात में शामिल हुआ।
यह वास्तव में रोंगटे खड़े करनेवाला 'सच' है कि 'वेताल' / Ghost किसी शव को आविष्ट कर उसमें अपनी 'आयु' व्यतीत करता है। जैसे 'मेघ' और 'मघवा' / मघवन् (इंद्र) तथा 'मघा' नक्षत्र, माघ मास परस्पर संबंधित हैं, और पूषा, पूषन् (सूर्य) और पौष मास परस्पर संबंधित हैं, वैसे ही 'वात' 'वाताल' 'वेताल' भी परस्पर संबंधित हैं।
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इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूँ क्योंकि रामायण के उन ऐतिहासिक पात्रों का, -जिनका प्रसंगवश महर्षि वाल्मीकि ने उल्लेख किया है  वर्तमान में क्या महत्व है और वे कैसे वे आज भी अत्यन्त प्रासंगिक और प्रभावशाली हैं इस बारे में विस्तार से लिख सकूँ।
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Monday, 21 January 2019

वर्णानामर्थसंघानां

परम सत्ता 
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे  वाणीविनायकौ।।
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।
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(श्रीरामचरितमानस)
अर्थ :
वर्णों और उनके अनेक तात्पर्य-समूहों के, रस और वेद के प्रेरक छन्दों के भी, समस्त शुभ के कर्ताओं देवी सरस्वती और भगवान् श्रीगणेश की वन्दना करता हूँ।
जिनकी कृपा के बिना सिद्ध भी अपने हृदय में अवस्थित ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाते, उन श्रद्धारूपिणी देवी भवानी पार्वती की विश्वासरूपी भगवान् शङ्कर सहित वन्दना करता हूँ।
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विवृणुते तनूं स्वाम् (कठोपनिषद् 1 / 2 / 23)
के अर्थ में यद्यपि एकमेव अद्वितीय आत्मा ही असंख्य नामों रूपों में अभिव्यक्त होकर साकार-निराकार की तरह ग्रहण की जाती है, इन असंख्य नामों रूपों के आवरण में वर्ण-विशेष के अनुसार उसे पुनः पुनः उद्घाटित और अनावरित किया जाता है। 
वर्ण और स्वर, व्यंजन, तथा मात्रा वेद का व्यक्त रूप है। 
इस प्रकार उसी परमेश्वर का प्राकट्य वाणी-विनायक तथा भवानी-शङ्कर इन रूपों में आधिदैविक स्तर पर होता है।
वर्ण वेद की ही तरह नित्य और सनातन भी हैं किन्तु उनका प्राकट्य होने के अनन्तर ही वाणी और भाषा अस्तित्व में होती है।  यही वर्ण प्रवृत्ति विशेष के अनुसार गुण-कर्म होते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि  गुण-कर्म और प्रवृत्ति परस्पर पर्याय हैं।
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
समस्त प्राणरूप देवताओं (वर्णों) ने जिस प्रकाशमान वैखरी (मरणशील) वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्)
अर्थ :
(किंतु) इसके अनन्तर हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं उन्होंने उस वाणी के वर्ण-रूपी देवताओं को जन्म दिया, जो मृत्युरहित अमृतस्वरूप हैं।
इस प्रकार प्राणरूप देवता संस्कारित होकर वेदवाणी की अभिव्यक्ति का माध्यम हुए। 
वर्णों के समास से भावरूपी शब्द बने जो व्यावहारिक धरातल पर विकसित होकर भाषा / भाषाएँ बने। 
और इसलिए किसी भी शब्द का अपना अर्थसंघ भी अस्तित्व में आया।
अर्थ और भाव इसलिए वाचा के वाच्य-वाचक अवयव हुए।
यह हुई 'भाषा' और 'विचार' / thought की मर्यादा।
एक और अनेक भी भाव-विशेष हैं इसलिए परम सत्ता भी एक अथवा अनेक से सीमित नहीं होती।
इसलिए ईश्वर एक है या अनेक, यह प्रश्न ही भ्रामक है।
या कहें 'ईश्वर एक है' यह वक्तव्य अधूरा सत्य है।   
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।
(श्रीदेवी-अथर्वशीर्षम्) 
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'रस' है, -व्याप्य-व्याप्त-व्यापकता  -'आनन्द' ।
और छन्द है, -मौज, तरंग,
[छन्द जिस 'छन्द्' धातु से बना है उसका प्रयोग ऊर्जा, उत्साह के अर्थ में होता है, इसी 'छद्' धातु से बना शब्द छात्त्र शब्द 'शिष्य' के लिए प्रयुक्त होता है; 'छदि ऊर्जने' ]                            
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परम-सत्ता तो 'रस' और 'रस' का स्रोत होते हुए भी रसवर्ज्य भी है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(गीता 2 / 59)
इसे दूसरे तरीके से 'रस' का तात्पर्य 'राग' की तरह ग्रहण कर समझा जा सकता है।
रसशब्दो रागे प्रसिद्धः :
'स्वरसेन प्रवृत्तो रसिको रसज्ञः'  के अनुसार।
(गीता शाङ्कर भाष्य से)
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Saturday, 19 January 2019

समस्याएँ अनेक हल एक,

सबके लिए धर्म
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। 
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ।।
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पिछले सात-आठ वर्षों में मैंने इस ब्लॉग में और मेरे दूसरे सभी ब्लॉग्स में भी विभिन्न विषयों पर बहुत कुछ और बहुत विस्तारपूर्वक लिखा है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि पूरे चित्र को देखें तो वह सब एक सम्पूर्ण चित्र के बजाय कोलाज अधिक प्रतीत होता है।  बस ऐसे ही मेरे मन में क्या आता है यह समझने के लिए इन ब्लॉग्स को लिखता रहा।
'समस्याएँ अनेक हल एक' जैसी कोई किताब लिखना कभी मैंने सोचा भी नहीं।
जिस समय जो समस्या या कहें कि प्रश्न मेरे सामने उपस्थित हुआ उस समस्या की जड़ को अनावृत्त करना ही जाने-अनजाने मेरा प्रयास रहा।
वर्तमान समय में जो अनेक समस्याएँ हमारे सामने हैं उनमें से कुछ के समाधान और हल ही उनसे दस गुनी अधिक कठिन नई समस्याओं का कारण बन जाती हैं इस ओर हमारा ध्यान शायद ही जाता हो।  प्रायः हम किसी तात्कालिक प्रलोभन या भय से, भ्रमवश उस विशिष्ट समाधान के प्रति आकर्षित हो जाते हैं यह भी हमें शायद ही समझ में आता हो। इस प्रकार से समस्याएँ और अधिक गंभीर,  अधिक जटिल होती जा रही हैं।
किसी भी समस्या के प्रति अधूरा ध्यान देकर हम उस समस्या से छुटकारा पा लेना चाहते हैं और यह अधूरा ध्यान ही समस्या को बनाए रखकर और गंभीर बना देता है।
'धर्म' का प्रश्न ऐसी ही एक गहरी समस्या बन चुका है। जनसंख्या-वृद्धि का प्रश्न भी ऐसा ही एक इतना गंभीर प्रश्न बन चुका है कि उसके बारे में अब कोई बात तक नहीं करता।  हर तरफ 'नारी' की दुर्दशा भी ऐसा ही एक प्रश्न है। शिक्षा, बेरोज़गारी, सड़क पर आवारा मवेशियों की बाधा, जिनका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है, राजनीति के लिए हथियार बन गए हैं।  'मुद्रा' जिसे 'वित्त' कहा जाता है, जिसे 'पूँजी' और 'धन' कहा जाता है, व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका का कारण बन गए हैं।  'प्रतिस्पर्धा' और व्यापार, लोभ, चिंता तथा आशंका परस्पर एक-दूसरे को प्रोत्साहित कर रहे हैं और हम इसे 'विकास' कहते हैं।  यह 'विकास' भी एक लुभावना जुमला है जिस पर कोई उंगली उठाना नहीं चाहता।
बात इतिहास से शुरू करें।
वह भी औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ से।
पहली औद्योगिक क्रान्ति किसी प्रागैतिहासिक काल में शुरू हुई थी जब धरती पर सर्वत्र एक ही 'धर्म' था। जहाँ औपचारिक वर्णाश्रम-धर्म अवश्य था क्योंकि वह तो हर काल, स्थान और समय में होता ही है। प्राणिमात्र के और विशेष रूप से मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसके कर्म होते हैं। वंश के अनुसार उन प्रवृत्तियों की प्रेरणा जिन तीन कारणों से होती है उन्हें 'गुण' कहा जाता है जो सनातन शास्त्रों में वैसे ही विस्तार से विवेचित हैं जैसे 'Properties of matter' की विवेचना Physics में की जाती है। ('सत्' 'चित्' तथा 'व्यवहार' के सन्दर्भ में Physics में इनके लिए समानांतर शब्द क्रमशः  Light, Movement और  Inertia हैं।)
समस्याएँ अनेक हैं और न सिर्फ अनेक, बल्कि अनेक स्तरों पर भी हैं।
दूसरी ओर कोई भी समस्या मूलतः वैयक्तिक या सामूहिक प्रकार की होती है।
जैसे संसार का वर्गीकरण मोटे तौर पर जीव तथा जड जगत के रूप में किया जा सकता है, वैसे ही जीव को भी पुनः व्यक्ति तथा समाज के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।  इस प्रकार कोई भी समस्या व्यक्ति के सन्दर्भ में 'निजी' या 'सामूहिक' हो सकती है।
व्यक्ति के ही स्तर पर जीव प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्ति से प्रेरित और संचालित होकर सब कुछ करता है।
इस 'व्यक्ति'-भावना के मूल में जीवन (शरीर) से लगाव, अपने / उसके संरक्षण और वंश-वृद्धि करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी होती ही है।  क्योंकि यद्यपि जीव / मनुष्य का उसके शरीर से संबंध अन्तर्द्वन्द्वयुक्त है और उसे यह स्पष्ट नहीं कि वह शरीर है या शरीर, या शरीर का स्वामी, या वह शरीर से किस तरह से जुड़ा है, फिर भी उसमें दो सहज-निष्ठाएँ जन्मजात होती ही हैं। पहली निष्ठा है 'मैं हूँ।' दूसरी निष्ठा है शरीर को किसी भी प्रकार से, किन्हीं भी परिस्थितियों में जब तक हो सके, जीवित रखना।  और यह दूसरी निष्ठा भी पुनः गौण होती है, प्रमुख निष्ठा तो प्रकृति-प्रदत्त वह प्रवृत्ति है जो आहार, निद्रा, भय और मैथुन के रूप में जीवन की प्राकृतिक गतिविधि है। समूह के सन्दर्भ में इन गतिविधियों में व्यक्तिगत स्तर पर भी और समूह के स्तर पर भी; -आपस में टकराव होता रहता है।  जीव / व्यक्ति के स्तर पर इन चार मूल प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्तियों में से एक समय पर कोई एक, शेष तीन पर हावी होती है। अर्थात् भूख, निद्रा, भय तथा कामवृत्ति में से कोई भी एक, प्रबल होने पर शेष तीन पर हावी हो जाती है। किंतु इन गतिविधियों की प्रेरणा जिन निष्ठाओं से होती है और जो निष्ठाएँ पुनः इन गतिविधियों से दृढ होती हैं, वे हैं कर्म-निष्ठां और ज्ञान-निष्ठा। अर्थात् किसी भी प्रवृत्ति को पूर्ण हो जाने और समाप्त होने देने के लिए कोई विशिष्ट कर्म किया जाना आवश्यक है ऐसी स्वाभाविक निष्ठा कर्म-निष्ठा है। और किस कर्म को किए जाने से कौन सी आवश्यकता पूर्ण होती है इसका ज्ञान जिस निष्ठा की तरह सहज रूप से जीव / मनुष्य को होता है उसे ज्ञान-निष्ठा कह सकते हैं।
इन गतिविधियों के पूर्ण होने पर प्रवृत्ति की तात्कालिक निवृत्ति होने पर मनुष्य को जो शान्ति या राहत प्राप्त होती है उससे उसमें यह बुद्धि जागृत होती है कि शरीर सुख का साधन है और इस प्रकार एक प्रवृत्ति की निवृत्ति हो जाने पर वह दूसरी में प्रवृत्त हो जाता है और यह भी अनायास होता है।  इस प्रकार जीव / मनुष्य का जीवन इन चार गतिविधियों के चक्र की पुनरावृत्ति बनकर रह जाता है। इस चक्र का इस प्रकार दोहराव मृत्यु होने तक या शरीर के अक्षम और दुर्बल, रुग्ण और वृद्ध हो जाने तक चलता रहता है।  शरीर के अंत के साथ यह चक्र / जीवन समाप्त हो जाता है। किंतु 'शरीर ही दुःख का भी कारण है' यह बुद्धि बिरले ही किसी मनुष्य में पैदा होती है और तब वह किसी आवेश में खुद को शरीर समझकर आत्महत्या की भूल भी कर बैठता है। किंतु यदि वह इस आवेश से ग्रस्त हुए बिना इस बुद्धि का प्रयोग कर शरीर को प्रकृति का उपकरण मानकर उससे उदासीन हो जाए तो उसे आत्महत्या करने की ज़रूरत ही नहीं अनुभव होगी।  क्योंकि किसी यंत्र में कोई दोष / त्रुटि हो जाने पर उस यंत्र को नष्ट कर देना बुद्धिमानी तो नहीं है ! मनुष्य इस अर्थ में एक विशिष्ट जीव है कि उसके पास 'मन' नामक वह विशिष्ट यंत्र है जिसे वह 'विचार' से सक्रिय / संबद्ध कर काम में लेता है। 'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ का विस्तार और फैलाव है। 'विचार' कितना भी विस्तृत होकर फैल जाए 'शब्द और शब्दार्थ' की इस परिधि में सीमित होता है।
धर्म की अवधारणा :
'विचार' स्वयं शब्द और शब्दार्थ होने तक सीमित होने से निरपवाद रूप से भाषा पर आश्रित और अवलंबित होता है और भाषा सामूहिक गतिविधि है, न कि वैयक्तिक।  समूह में इसलिए विभिन्न प्रवृत्ति वाले मनुष्यों के बीच अनेक विभाजन हो जाते हैं जो परस्पर विग्रह और वैमनस्य के साथ व्यक्तिगत स्तर के सहारे हिंसा, ईर्ष्या, लोभ की अति पर पहुँच जाते हैं और एक समूह अपने 'विचार' अन्य समूहों पर लादने का प्रयत्न करता है। जब सामान्य तर्क-बुद्धि से वह दूसरों को राज़ी नहीं कर पाता तो तलवार या प्रलोभन की ताकत से भय उत्पन्न कर या छल-छद्म के उपाय से ऐसा करता है।
समाज में सौहार्द्र और शान्ति के लिए कोई व्यवस्था तो आवश्यक है ही किंतु जब किसी किताब को एकमात्र परम आदर्श बनाकर किसी 'सामाजिक-धर्म' का उद्भव होता है तो 'व्यक्तिगत-धर्म' से इसका टकराव जिस रूप में फलित होता है वही विभिन्न धर्मों और मतों के रूप में समाज में विभाजन और शोषण का आधार बनता है।इस प्रकार सामाजिक समस्या का व्यक्ति के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप तमाम राजनीति को जन्म देता है क्योंकि जब तक समूह / वर्ग और उनके स्वार्थ हैं तब तक राजनीति उभरेगी ही, क्योंकि राजनीति सत्ता का सहारा है और सत्ता शक्ति है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में राजनीति मनुष्य का न सिर्फ भावनात्मक बल्कि बौद्धिक शोषण भी करती है और 'विचार' कट्टरता की हद तक जाकर मनुष्य की बुद्धि को कुंठित और विकृत कर देता है। एक वर्ग क्या कभी स्वतंत्र हो सकता है? किसी भी वर्ग में पुनः अनेक 'वर्ग' होंगे ही और उन वर्गों की जोड़-तोड़ भी विभिन्न समस्याओं के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न रूपों में सतत जारी रहेगी। इस प्रकार राजनीति की बुनियाद ही कितनी अस्थिर और भंगुर है यदि यह स्पष्ट हो जाए तो हम 'विकास' के प्रयोजन और तात्पर्य पर भी प्रश्न उठा सकते हैं।  क्योंकि यदि मनुष्यों के वर्ग की ही चिंता करें तो केवल जनसंख्या-विस्फोट ही एक ऐसी बड़ी समस्या है जिसका समाधान हमारे पास नहीं है।  प्रकृति के लिए मनुष्य दूसरे जीवों जैसा ही एक जीव मात्र है और प्रकृति स्वयं ही अनायास किसी भी जीव की संख्या को नियंत्रित करती है।  यह प्रकृति की 'समष्टि-व्यवस्था' है। मनुष्य न तो चिकित्सा-विज्ञान के सूक्ष्मतम शोधों से और न साधनों की प्रचुरता से प्रकृति के  इस एकाधिकार को चुनौती दे सकता है। यह विचार ही कि मनुष्य कृत्रिम उपायों से अधिक सुखी और समृद्ध हो सकता है कोरा काल्पनिक भ्रम है।
मनुष्य के लिए यदि कोई सर्वाधिक कठिन चुनौती और अवसर है तो वह है उसका 'मन' ; - न कि प्रकृति पर विजय प्राप्त करना।  वैसे भी मन भी प्रकृति ही है यह समझ लिए जाते ही प्रकृति पर विजय पाने का स्वप्न ही टूट जाता है।
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Monday, 14 January 2019

स्कन्दपुराण ब्राह्मखण्ड चातुर्मास्य-माहात्म्य

The Celibate Deity 
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स्कन्दपुराण / कुमार कार्तिकेय
अध्याय 199
ब्रह्माजी कहते हैं :
एक समय महाबली तारकासुर के भय से भागे हुए देवताओं ने महादेवजी की स्तुति की और उनकी आज्ञा से कुमार कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया।  फिर स्कन्द के तेज से प्रबल होकर सब देवता तारकासुर से युद्ध करने लगे।  उस समय देवताओं ने दानवों की सेना को मार गिराया।  भगवान् विष्णु के चक्र से छिन्न-भिन्न होकर सहस्रों दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़े। युद्ध में दानव-सेना को नष्ट होती देख तारकासुर देवताओं का सामना करने लगा।  देवेश्वर स्कन्द ने बाणों की बौछार से उसकी सेना को शीघ्र ही तितर-बितर कर डाला। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु की प्रेरणा से कार्तिकेयजी ने शक्ति का प्रहार करके सारथिसहित तारकासुर को क्षण भर में भस्म कर दिया। शेष दैत्य तारकासुर को मरा हुआ देख पाताल में भाग गए।  तब देवताओं ने कुमार के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की।  विजय प्राप्त करके शिव आदि सब देवताओं ने स्वामी कार्तिकेय को देवताओं के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया।  इस प्रकार तारकासुर को मारकर सातवें दिन बालक कार्तिकेय ने मन्दराचल पर जा अपने माता-पिता को प्रसन्न किया।  परमानन्द में निमग्न हो स्कन्द ने सब वृत्तान्त स्वयं ही माता-पिता से कहा। उस समय भगवान् शंकर ने पुत्र का विवाह कर देने का विचार किया और कार्तिकेय से कहा -
"वत्स ! तुम्हारे विवाह का समय प्राप्त है, तुम पत्नी प्राप्त करके उसके साथ धर्माचरण करो।"
 पिता की यह बात सुनकर स्वामी कार्तिकेय ने कहा -
" भगवन् ! संसार के दृश्य और अदृश्य पदार्थों में से मैं किसका ग्रहण और किसका त्याग करूँ? जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब मेरे लिए माता पार्वती के सामान हैं और जितने भी पुरुष हैं, उन सबको मैं आपके रूप में देखता हूँ।  आप मेरे गुरु हैं, अतः मुझे नरक में डूबने से बचाइए।  मैंने आपके प्रसाद से यह विवेक प्राप्त किया है।  भयंकर संसार-सागर में मैं फिर न गिर जाऊँ, इसकी चेष्टा रखें।  जैसे दीपक हाथ में लेकर किसी वस्तु को खोजनेवाला पुरुष उस वस्तु को देख लेने पर उसके लिए स्वीकार किये जानेवाले अन्य सब साधनों को त्याग देता है, उसी प्रकार योगी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर संसार को त्याग देता है।  सर्वज्ञ परमेश्वर ! सर्वव्यापी ब्रह्म को जानकर जिसके सब कर्म निवृत्त हो जाते हैं, उसको विद्वान् पुरुष योगी कहते हैं।  महेश्वर ! मानवों के लिए ज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है। ज्ञानीजन प्राप्त किए हुए ज्ञान को किसी प्रकार भी खोना नहीं चाहते।  यह ज्ञान आपके प्रभाव से ही प्राप्त होने योग्य है। मैं संसारबंधन से छूटने की इच्छा रखता हूँ।  अतः मुझसे इस प्रकार विवाह आदि करने की बात नहीं कहनी चाहिए।"
जब देवी पार्वती ने विवाह के लिए बार-बार आग्रह किया, तब कार्तिकेयजी पिता-माता को प्रणाम कर क्रौंच पर्वत पर चले गए और वहाँ परम पवित्र आश्रम में बैठकर बड़ी भारी तपस्या करने लगे।  उन्होंने द्वादशाक्षर बीजरूप परब्रह्म का जप किया और पहले ध्यान से सब इन्द्रियों को वश में करके एक मास तक मन को योग में लगाकर ज्ञानयोग प्राप्त कर लिया।  जब उनके सामने अणिमा आदि सिद्धियाँ आयीं, तब वे उनसे क्रोधपूर्वक बोले -
"अरी ! यदि अपनी दुष्टता के कारण तुम लोग मेरे पास भी चली आयीं, तो मेरे-जैसे शांत पुरुषों का कभी पराभव न कर सकोगी।"
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स्कन्दपुराण में ध्यानयोग और ज्ञानयोग का निरूपण
इस अध्याय के पिछले 197 तथा 198 वें अध्यायों के प्रारम्भ में भगवान् शिव पार्वती को उपदेश देते हैं :
श्रीमहादेवजी कहते हैं -- पार्वती ! द्विजों के लिए ॐ-कार सहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए ॐ-काररहित नमस्कारपूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है।  संकर जातियों के लिए रामनाम का षडक्षर मन्त्र (ॐ रामाय नमः) है।  वह भी प्रणव (ॐ) से रहित ही होना चाहिए, ऐसा पुराणों और स्मृतियों का निर्णय है।
[1 द्विजातानां सहोङ्कारः  सहितो द्वादशाक्षरः।
स्त्रीशूद्राणां नमस्कारपूर्वकः समुदाहृतः।।
2 प्रणवास्याधिकारो  न तवास्ति वरवर्णिनी।
नमो भगवते वासुदेवायेति जपः सदा।।]
यही क्रम सब वर्णों के लिए है और संकरजातियों के लिए भी सदा ऐसा ही क्रम है।  पार्वती ! प्रणव-जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है।  अतः तुम्हें सदा 'नमो भगवते वासुदेवाय' इसी मन्त्र का जप करना चाहिए। यह प्रणव सब देवताओं का आदि कहा गया है।  सब प्राणी और समस्त तीर्थ उसमें विभागपूर्वक स्थित हैं।  प्रणव सर्वतीर्थमय तथा कैवल्य ब्रह्ममय है।  शुभानने ! जब तुम चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए तप करोगी,  तब प्रणवसहित द्वादशाक्षर का जप करने के योग्य हो जाओगी।  जब तपस्या की वृद्धि होती है, तब भगवान् विष्णु में भक्ति होती है।  प्रतिदिन भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिए।  इससे ('नमो भगवते वासुदेवाय' से)  जिह्वा पवित्र होती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होने पर बड़े भारी अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की कथा सुनने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।  अतः पार्वती ! तुम भगवान् विष्णु के शयनकाल में द्वादशाक्षर मन्त्रराज का विशुद्धचित्त होकर जप करो।  वे ही भगवान् संतुष्ट होकर तुम्हें द्वादशाक्षरसहित अखण्ड ब्रह्मस्वरूप का उत्तम ज्ञान प्रदान करेंगे।  तुम ब्रह्माजी के कोटि कल्पों तक  द्वादशाक्षरमन्त्र का जप करती रहो।  जो प्रणवसहित मन्त्रराज का ध्यान करता है, उसका कभी नाश नहीं होता।
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भगवान् विष्णु के शयनकाल में ....
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते।  व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः।
(शिव-अथर्वशीर्ष)
जब तक मनुष्य संसार को सत्य समझता है उसके भीतर अवस्थित परमात्मा उस संसार का संहार कर (समेटकर) निद्रा में अवस्थित होता है यह भगवान् विष्णु का शयनकाल हुआ। 
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मकर-संक्रान्ति /

विवेचना : उत्तरायण 
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मकर-संक्रान्ति 
विवस्वान्-पथ
अश्विनौ - चैत्र प्रतिपदा से आश्विन प्रतिपदा तक तथा आश्विन प्रतिपदा से चैत्र प्रतिपदा तक दो अश्विन्-पथ हैं जो वर्ष (संवत्सर) को सतत काल के पथ पर गतिशील रखते हैं।
शरद पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा दोनों ऋतु-चक्र विषुव-पथ को निर्देशित करते हैं।
Equinox अश्विनौ अश्विन् + ऊक्षिन् का सज्ञाति / cognate है।
अश्व तथा उक्ष;
इसे अश्विन् + ऊक्षिन् -- अश्विनूक्षिन् की तरह भी देखा जा सकता है।
ऊह् -- ऊह्यते  -- ऊहिन् - ढोनेवाला उक्ष -- ox / oxen बैल,
विवस्वान्-पथ एक समतल है तो अश्विन-पथ एक दूसरा समतल जिनसे पृथ्वी पर जीवन का उद्भव और संचार होता है।
इस प्रकार अयनान्त और ऋतु चक्र वर्ष को दो प्रकार से विभाजित करते हैं।
जब समुद्र-मन्थन से अमृत-कुम्भ निकला तो विष्णु ने मोहिनी-रूप धारण कर सबके बीच उसे उस अमृत-कलश से एक-एक बिंदु (बूँद) बाँटने के लिए सबको आमंत्रित किया। वैदिक-देवता (सुरगण) शुभ दैवी-शक्तियाँ जब पंक्तिबद्ध हो गईं और सूर्य तथा चंद्र भी जिनमें विद्यमान हुए (क्योंकि ये दोनों ही विवस्वान्-पथ और अश्विन्-पथ के नियन्ता हैं), तो काल के दो ध्रुव राहु तथा केतु - जो एक ही अक्ष के दो सिरे हैं और इस अक्ष-रूप में एक ही सत्ता हैं जो निरपेक्ष-स्थान की धुरी भी है, जिसके चारों ओर तारामण्डल राशि-चक्र घूमता है और जिससे राशि-चक्र के तारे अपनी जगह पर टंकित / जड़े हुए दिखाई देते हैं और सूर्य, चंद्र, या बुध, शुक्र, मंगल,बृहस्पति तथा शनि की तरह, एक से दूसरी राशि में जाते हुए नहीं दिखाई देते), तो राहु नामक असुर (अर्थात् यह अक्ष / नेत्र) भी देवता-रूप धारणकर उस पंक्ति में बैठ गया।  किंतु तब तक विष्णु उस असुर को अमृत परोस चुके थे इसलिए वह अमर हो चुका था।  इस पर सूर्य तथा चंद्र ने इंगित से मोहिनी-रूपधारी विष्णु का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। तब विष्णु ने चक्र से उस असुर का सर धड़ से अलग कर दिया। 
उस का सिर राहु के रूप में अक्ष का एक शीर्ष है तो केतु ध्वजा या पूँछ की तरह दूसरा शीर्ष जिसके बीच यह अस्तित्व और दोनों पथ स्थिर हैं। 
इस अमृत-कलश को पृथ्वी पर विष्णु ने क्रमशः जिन चार स्थानों पर रखा था वहाँ पुनः सूर्य-चंद्र के उस आकाशीय चक्र की पुनरावृत्ति होने पर अर्थात् सूर्य के उत्तरायण होने पर अमृत-कुम्भ से अमृत (स्वर्गङ्गा) की बूँदें छलकती हैं जो क्रमशः हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, तथा नासिक में क्रमशः गंगोत्री - जाह्नवी, गंगा - प्रयागराज, शिप्रा तथा गोदावरी इन चार नदियों में मिल जाती हैं।
यह खगोलीय (Astronomical), पौराणिक (आधिदैविक) तथा आध्यात्मिक सत्य है।
सनातन-पथ चूँकि काल-स्थान (आधिभौतिक) से अबाधित अव्याहत पथ है इसलिए यह तीनों स्तरों पर ग्राह्य है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 24)
अर्थ :
उत्तरायण के छः मास, अग्नि, ज्योति तथा चंद्र के शुक्ल पक्ष में जो ब्रह्मविद्  इस लोक को त्यागते हैं वे मेरे उस परम धाम को जाते हैं जहाँ से जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन से छूट जाते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
(गीता अध्याय 8, श्लोक 25)
अर्थ :
धूम अर्थात् संधि-काल में, रात्रि में, चंद्र के कृष्णपक्ष में जो ब्रह्मविद्  इस लोक को त्यागते हैं वे मेरे उस परम धाम को जाते हैं जहाँ से जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन से छूट जाते हैं।
दोनों ही मार्ग केवल उस योगी के निमित्त ही हैं जो साङ्ख्य ज्ञान अथवा योग मार्ग से ब्रह्मविद् हो चुका है। इसलिए भी साङ्ख्य (ज्ञान) तथा योग एक ही लक्ष्य की प्राप्ति का साधन हैं  ...
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 26) 
अर्थ :
इस प्रकार शुक्लमार्ग और चन्द्रमार्ग इन्हीं दो मार्गों से ब्रह्मविद् मनुष्य शाश्वततत्व को प्राप्त होकर आत्मा में असीम शान्ति पाता है ...
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
(गीता अध्याय 8 श्लोक 27
निश्चित ही सामान्य मनुष्य के लिए (और वैसे ही तथाकथित विद्वानों के लिए भी) यह सब रहस्य समझना बहुत कठिन है, और केवल ब्रह्मविद् ही उपरोक्त दो मार्गों की प्राप्ति का अधिकारी है किन्तु वह भी (चन्द्रमार्ग से गया हुआ) पुनः या तो ब्रह्मलोक तक ही पहुँच पाता है या (सूर्य-मार्ग से गया हुआ) ब्रह्मलीन हो पाता है इसलिए जो अनधिकारी है उसके लिए भी एक सरलतम मार्ग यह है कि वह श्रुतिवाक्य पर पूर्ण समर्पणयुक्त श्रद्धा रखता हुआ इस कुम्भ-पर्व पर तीर्थ-स्नान कर जीवन को सार्थक कर ले।
एक प्रश्न फिर भी विचारणीय है।
श्रद्धा का तात्पर्य है शंकारहित होना। 
और शंकारहित होने का अर्थ है शंका का निराकरण / निवारण कर लेना, न कि केवल किसी मान्यता को ओढ़ लेना जो तात्कालिक होती है।
ईश्वर या प्रभु की प्राप्ति के लिए मृत्यु आने की प्रतीक्षा करते रहना और अनिश्चय में पड़े रहना अवश्य ही मूढ़ता है। और अवसर पुनः कब उपस्थित होगा, होगा भी या नहीं किसे पता है?
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Sunday, 13 January 2019

पीलु-स्थानं / फ़िलिस्तीन

पीलु
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जब 5 अगस्त 2016 को इस घर में रहने आया था तो मेरे घर के सामने 40 x 60 फुट का स्थान खाली था।  इसका चौथाई स्थान मेरे घर के पीछे भी खाली था. मेरे घर के पड़ोस में लंबी-चौड़ी जगह थी जहाँ लोग कूड़ा-कचरा फेंकते थे। मेरे घर पर छत पर से मैं देवास टेकड़ी को देखा करता था।  अब मेरे घर के आसपास की जगह पर सारी जगह दो-तीन मंज़िल ऊंचे भवनों से छिप गयी है और एक मोबाइल-टॉवर तो बस पड़ोस के ही भवन पर खड़ा हो गया है। ठीक सामने की 40 x 60 फुट की जगह पर बाँयी तरफ एक चौड़ा गेट छोड़कर पूरी जगह 30x50 फुट पर कार सर्विस का एक वर्कशॉप खुल गया है।
साल भर पहले तक दाईं ओर टेकड़ी तथा बाएँ पीलु (खजूर) का एक ऊंचा पेड़ दिखाई देता था वह पेड़ आज भी आसानी से दिखलाई देता है। आज तो वह बहुत भव्य दिखलाई दे रहा था। उसके नीचे या आसपास बहुत से स्ट्रीट लैंप हैं जो शाम होते ही दूधिया रौशनी से उसे नहला देते हैं।  वह शान से तब और अधिक गौरवपूर्ण दिखलाई देता है।
याद आता है 19 मार्च 2016 को अंतिम रूप से उज्जैन छोड़ने के पहले वहाँ के कुछ अश्वत्थ वृक्ष भी ऐसे ही मुझे आकर्षित करते थे।  19 मार्च 2016 से 5 अगस्त 2016 के बीच नर्मदा किनारे नावघाट खेड़ी ग्राम में भी ऐसा ही एक अश्वत्थ (पीपल) था जिसकी सबसे ऊपरी फुनगी पर एक वानर शाम होते होते आकर बैठ जाता था और शायद रात भर वहीँ आराम करता था।
पीलु संस्कृत शब्द का अर्थ है खर्जूर (खजूर), बाण और हाथी।
इसका एक कारण यह भी है कि यह हाथ के पंजे जैसा दिखाई देता है।
हाथी को करि, हस्ती भी कहा जाता है।  
पीलुस्थानं का अर्थ है ऐसा स्थान जहाँ खजूर के वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हों।
इसका सज्ञात (cognate) हुआ फ़िलिस्तीन।
रेत और खजूर का तथा ऊँटों का आपसी रिश्ता तो तब से है जब ऋषि विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ से स्पर्धा करते हुए कौतूहलवश अपनी सृष्टि रची और भैंस, नारियल तथा ऊँट की रचना की।
भगवान् ब्रह्मा ने ऊँकार से सावित्री, सावित्री से गायत्री तथा गायत्री से इस जगत की सृष्टि की। ऋषि वसिष्ठ ने कामधेनु को ऋषि विश्वामित्र का सत्कार करने के लिए अभीष्ट वस्तुओं की सृष्टि करने का आदेश दिया तो विश्वामित्र ने उनसे कामधेनु गौ ही मांग ली।  जब ऋषि वसिष्ठ ने गौ देने से इनकार कर दिया तो विश्वामित्र बलपूर्वक गौ को ले जाने लगे। तब गौ ने उनसे प्रार्थना की कि उससे ऐसा क्या अपराध हुआ है कि विश्वामित्र (जो तब राजा ही थे, न कि  ऋषि) उसे बलपूर्वक ले जा रहे हैं और वे चुपचाप देख रहे हैं ! क्या उन्होंने उसे त्याग दिया है?
तब ऋषि वसिष्ठ ने कहा :
"मैं क्या कर सकता हूँ?"
तब गौ ने कहा :
तुम आदेश दो तो मैं ही स्वयं की रक्षा कर लूँ ?
तब वसिष्ठ ने कहा : "ठीक है।"
तब कामधेनु ने शक, यवन, पह्लव, काम्बोज, बर्बर आदि वीरों की सृष्टि की और उन्होंने विश्वामित्र की सेना का संहार किया।(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 53, 54, 55)
गौ की हुँकार से तेजस्वी काम्बोज (हूण), थनों से शस्त्रधारी बर्बर, योनिदेश से यवन, और शकृदेश (गोबर के स्थान) से शक रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत और किरात उत्पन्न हुए।         
हम देख सकते हैं कि आज भी उपरोक्त जातियाँ विश्व के भिन्न-भिन्न हिस्सों में पाई जाती हैं। बर्बर का अर्थ है बाबर, पह्लवी ईरान के पहलवी हैं, काम्बोज (हूण) Cambodia, यवन -Jew, शक / Czech, म्लेच्छ Malakka / Melaka (Malaysia) आदि।
पीलू का अपभ्रंश हुआ फील जो शतरंज में rook / हाथी है, जबकि रेगिस्तान अर्थात् फिलिस्तीन में ऊँट।
शतरंज में ऊँट / Bishop को फर्ज़ी कहा जाता है।
"प्यादे से फर्ज़ी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाए ..."
प्यादा / पदातिक / पादिकं / पायिकं / पादिन् / pawn .
भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक राग है पीलु जिसे गजगामिनी भी कहा जा सकता है, इसमें 'ग' और 'नि ' दोनों शुद्ध तथा कोमल हैं और इसकी गति ऐसी ही है जैसे किसी अलसाई ढलती दोपहर में दिन का पंछी उड़ता जाए अपने बसेरे की ओर रात्रि विश्राम के लिए।
यह पीलु वृक्ष भी हर शाम को प्रायः ऐसे ही मंद-मंद डोलता रहता है।
किंतु  पीलु-माहात्म्य इतने तक ही सीमित नहीं है।
यह दो शब्दों का जनक है पहला है Philo-, दूसरा है People ,
पीलुस्प्रिय से बना फिलोसॉफी / फलसफ़ा और पीलुलोकीय से बना Philology.
पुनः यह जानना रोचक हो सकता है कि फ़िलिस्तीन को फ़लस्तीन भी कहा जा सकता है जो फलस्थान का ही एक रूप है।
रेगिस्तान में, जहाँ 'एरण्डोऽपि द्रुमायते';
-खजूर ही तो एकमात्र फलदार वृक्ष होता है !
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और इस फिलिस्तीन से संबद्ध है मानव-इतिहास का वह काल जब पाँच परंपराएँ / सँस्कृतियाँ वहाँ आईं और उनमें से अंततः तीन ही शेष रह गईं जिन्हें 'धर्म' कहा जाने लगा। मिस्र (Egypt) तथा ग्रीक (Greek) तो लगभग लुप्तप्राय हो गईं और इन तीन ने उनका स्थान ले लिया।
कौन हैं ये लोग?
अगली कुछ पोस्ट्स में रामायण के सन्दर्भ में।
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Monday, 7 January 2019

The Conviction.

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 3 :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।
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Gita stanza 3, chapter 3 :
loke'smindwiwidhAniShThA  purA proktA mayAnagha.
jnAnayogena sangkhyAnAM karmayogena yoginAM.
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Meaning :
O Arjuna! In this world people have two types of conviction
(belief spontaneous and inherent).
The first is the natural instinctive that is a tendency of going again and through the experience of Food, Sleep, Fear and Sex. Man and animals alike go through these 4 activities and at a time one of the 4, dominates the rest 3. So by very nature, one keeps revolving in this cycle of going repeatedly, though not in a fixed order, through them.
When the hunger and the thirst dominates one tries to find food, when one has ate enough, one is satiated and stops eating. When sleep dominates, one goes to sleep and forgets all about the other 3; namely food, fear and sex, likewise, when the fear dominates, one forgets the other three; viz. sleep, food and sex. The same is true when one is overpowered by a craving / longing for sex.
But as one grows up in life, one gradually feels the absurdity or futility of keeping repeatedly like an animal through these 4 activities. Only a few come to see this simple fact of life and begin to question then about the meaning of life / living itself. No, -not the goal or purpose, but the meaning of passing through these activities again and again.
Then there is uncertainty / fear and hope for the future that is ever so unknown.
So one has to go through 'karma' that is action of a kind. Lucidly, -breathing and sleeping too are kind of 'karma' and one can't stop 'karma' altogether though one could feel one has the choice of action. To do this or that. So one projects / puts a goal, a purpose in the near or distant future and thinks of attaining the same one fine day.
But a rare one has the urge and earnestness to seek that this is not a wise way of living the life and ultimately and inevitably die some-day,without getting to know what is beyond death.
Fear or curiosity or a great urge to know it one may ponder over again what is 'life' and exactly 'who' / 'what' is ONE, who lives the life.
One may think out carefully in terms of the concept of 'karma' and discover in his own way what forces him to engage in 'karma'. Could one stop and stay without 'karma'? And one may think of the fruits of 'karma'; -actions good or evil auspicious or harmful that one may have to experience because of the consequences of those 'karma'; -actions.
Ultimately, one may come up to the conclusion that is suggested in scriptures especially in Vedanta that there is a power 'mAyA' that is responsible for all the 'karma' action that seems to happen here in this world (लोकेऽस्मिन् / loke'smin).
One may imagine / believe that there is a 'God' who controls the lives of all beings, but this imagination / belief itself is a temporary one and soon disappears like many other thoughts.
This could not be made into a firm belief / conviction, how-so-ever hard one may convince oneself.
Again, one may formulate this 'God' into some 'form' and thus invent a 'God' with a 'form' which is again going to fade away ultimately.
So, one may though call oneself theist, atheist or agnostic one never gets rid of the natural conviction 'I am' conviction.
This is the natural and spontaneous conviction of all.
One may then embark upon seeking what this conviction points out at?
In human words this could be again termed as 'consciousness' / awareness of being oneself, or of just being only without attaching a label to this Reality of Being.
One who has understood this state may not express what he has realized, yet has finished all the seeking.
Such a one (Blessed?) is a 'साङ्ख्य-योगी / sAngkhya-yogin.
Yet there are others who walk upon some other path to discover the Reality while performing the usual activities without being involved or indulgence in those activities.
Summarily, they also ultimately reach a state of mind where thus performing selfless work in whatever way they have been given by the providence / destiny unconcerned about the fruits / results those actions bring forth to them.
Such a one is a 'कर्मयोगी' / 'karmayogin'.
Theist, atheist or agnostic, ... whatever one may call to oneself, a believer or a non-believer, one has known and has become one with the Supreme Reality, -ब्रह्म / Brahman or the Self.
This is the Realization and the Conviction Ultimate.
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Sunday, 6 January 2019

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा

गीता अध्याय 3 श्लोक 3  
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां  कर्मयोगेन योगिनाम्।।
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अर्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं --
हे निष्पाप (ऋजु-बुद्धि) अर्जुन! जैसा कि मेरे द्वारा सदैव कहा गया है, संसार में और जगत् में भी दो प्रकार की निष्ठाएँ देखी जाती हैं अर्थात् जीवधर्म और मुमुक्षुधर्म।  जीवधर्म है जीवप्रवृत्ति का क्रमशः भोग से त्याग और त्याग से भोग की ओर गतिशील रहना।  आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार जीवधर्म प्राणिमात्र में आत्यंतिक निष्ठा की तरह होते हैं।  इनमें से किसी एक समय में एक का ही शेष तीन पर वर्चस्व होता है। एक की निवृत्ति होने पर कोई दूसरा उसका स्थान लेता है और पूर्व को त्याग दिया जाता है।  जैसे भूख लगने पर आहार के लिए प्रयत्न किया जाता है, भूख शांत होने पर उसे त्याग दिया जाता है, निद्रा आने पर जीव सो जाता है, किंतु संकट की स्थिति में भय भूख-प्यास तथा निद्रा पर हावी होता है।  इसी प्रकार काम का आवेश होने पर शेष तीन गौण हो जाते हैं।  जैसा कि कहा जाता है : काम से मोहितबुद्धि मनुष्य भय और लज्जा को भी त्याग देता है।
इस प्रकार ये चार प्रवृत्तियाँ क्रम से जब तक जीव पर हावी रहती हैं तब तक उसमें मुमुक्षा पैदा ही नहीं होती।  ये सभी प्रवृत्तियाँ प्रमादजन्य बुद्धिदोष से भी मनुष्य में होती हैं किंतु जब किसी कारण से मनुष्य इस प्रमाद को त्याग देता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है।  ऐसा भी कहा जा सकता है कि जब वह जीवन के इस क्रम से दुःखी या असंतुष्ट हो जाता है और इसकी व्यर्थता अनुभव करने लगता है तो उसमें विवेक और वैराग्य उत्पन्न होता है। विवेक और वैराग्य भी निष्ठा का ही एक रूप है जो मनुष्य का ध्यान  इस सब (संसार, जगत्, सुख-दुःख आदि समस्त द्वंद्व) की अनित्यता और निरर्थकता की ओर आकृष्ट करती है और तब उसमें 'मुमुक्षा' जागृत होती है।
इस प्रकार यह दो प्रकार की निष्ठाएँ लोक में देखी  जाती हैं।
मुमुक्षु का अर्थ है जिसमें यह मुमुक्षा जागृत हो गयी हो।
पुनः इस मुमुक्षा के जागृत होने से ही मनुष्य कर्मबन्धन से नहीं छूट जाता क्योंकि मृत्यु और अज्ञात भविष्य का भय उसे कर्म करने के लिए बाध्य करता रहता है।
ऐसे ही मुमुक्षु की निष्ठा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है --
वह या तो इस समस्त जगत्-प्रपंच का संचालन करनेवाले किसी अदृश्य सूत्रधार को स्वीकार कर धीरे-धीरे परिपक्वता के अनुसार सब-कुछ उसके प्रति अर्पित कर देता है और अंततः अपने स्वतंत्र कर्तृत्व-भाव को भी उसकी ही प्रेरणा पर छोड़कर जीवधर्म से अप्रभावित और अहंकाररहित हो जाता है, या निष्काम कर्म करता हुआ भी अपने समस्त कर्मों तथा उनके शुभ-अशुभ समस्त फलों को भी त्याग देता है। प्रथम प्रकार की निष्ठा को साङ्ख्य तथा दूसरी प्रकार की निष्ठा को योग कहा जाता है। कर्म के ही प्रकार-विशेष से कर्मयोग भी तत्पश्चात् अभ्यास-काल में भक्ति, ज्ञान  आदि प्रकार का कहा जा सकता है।
इस प्रकार ये दो प्रकार की निष्ठाएँ अल्पज्ञ जीव में, मुमुक्षु में तथा ज्ञानी में भी होती हैं।
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कुमार कार्तिकेय / सबरीमला

स्कंदपुराण माहेश्वर-केदारखण्ड से :
लोमशजी कहते हैं :
"तदनन्तर ब्रह्माजी की आज्ञा से हिमवान् ने कन्यादान किया ...
'इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर ! भार्यार्थं प्रतिगृह्णीष्व '
यह वाक्य बोलकर उन्होंने अपनी कन्या भगवान् शंकर को प्रदान कर दी।
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जिनकी जिह्वा के अग्रभाग पर सदा भगवान् शंकर का दो अक्षरों (वर्णों) वाला नाम (शिव) विराजमान रहता है, वे धन्य हैं, ...
उधर भगवान् शिव ने गन्धमादन पर्वत के एकान्त प्रदेश में अत्यंत सुन्दर रूप धारणकर पार्वतीदेवी के साथ रमण करने का विचार किया।
फिर वे महाप्रभु पार्वती के साथ महती रतिक्रीडा में तत्पर हुए। उन दोनों का वह महान् सुरतारम्भ उस समय सब लोगों के लिए अनिष्टकारक, अत्यंत अद्भुत् तथा प्रलयकारी हुआ।  वह महती सम्भोग-लीला आरम्भ होने पर भगवान् शंकर के दुःसह्य वीर्य से समस्त चराचर जगत् नष्ट होने लगा।  यह देख ब्रह्माजी तथा अध्यात्मज्ञान को प्रकाशित करनेवाले भगवान् विष्णु ने अग्निदेव का स्मरण किया।  मन से स्मरण करते ही अग्निदेव बड़ी उतावली के साथ वहाँ आ पहुँचे।  फिर उन दोनों की आज्ञा पाकर अग्नि ने केसर के सामान कान्तिवाले हंस (संन्यासी)  - का रूप धारणकर शिवजी के भवन में प्रवेश किया।  वहाँ आँगन में पहुँचकर वे बैठ गए और बोले --
"माँ  ! हाथ ही मेरा पात्र है; इसमें मुझे भिक्षा दे दो। "
तब माता पार्वती ने 'जातवेदा' अग्नि को भिक्षा (के रूप में वीर्य) दे दिया। अग्नि ने हाथ पर भिक्षा लेकर उनकी आँखों के सामने ही उसे खा लिया।  यह देख पार्वतीजी कुपित हो उठीं और अग्नि को शाप देती हुई बोलीं --
"अरे ओ भिक्षुक ! मेरे शाप से तू शीघ्र ही सर्वभक्षी हो जाएगा तथा शंकरजी के इस वीर्य से तुझे सब और से बड़ी भारी पीड़ा प्राप्त होगी। "
तदनन्तर अग्निदेव ने लोककल्याणकारी भगवान् शंकर से कहा --
"प्रभो ! महादेव ! अब मुझे क्या करना चाहिए; सुरश्रेष्ठ ! अब मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये जिससे मैं सर्वदा सुखी रहूँ और देवताओं का हविष्य वहन करता रहूँ। "
तब भगवान् शिव ने सब देवताओं के सुनते-सुनते कहा --
"अग्ने ! तुम अपने शरीर में पड़े हुए मेरे वीर्य को स्त्री के गर्भ में स्थापित कर दो।"
यह सुनकर अग्नि ने कहा --
"भगवान् आपका तेज दुःसह है, इसे प्राकृतजन कैसे धारण कर सकते हैं।"
उस समय नारदजी ने अग्निदेव से कहा --
"तुम मेरी बात मानो; माघ मास में प्रातःस्नान करके शीत के कारण जो अत्यन्त कष्ट पा रहे हों, वे जब अग्निसेवन के लिए आएँ, तब उनके शरीर में तुम भगवान् शिव का यह तेज स्थापित कर देना।"
नारदजी की यह बात मानकर कान्तिमान् एवं महान् प्रभावशाली अग्निदेव ब्राह्ममुहूर्त में बैठकर अपने प्रचण्ड तेज से प्रज्वलित हो उठे।  अग्नि को प्रज्वलित देख शीत से कष्ट पानेवाली कृत्तिकाओं ने अग्निसेवन की इच्छा से वहाँ आने का विचार किया।  उस समय अरुंधति देवी ने उन सबको रोका, तो भी उनकी बात न मानकर वे सब कृत्तिकाएँ आग तापने लगीं।  जब तक वे आग तापती रहीं तब तक ही शंकरजी के वीर्य के सभी परमाणु उनके रोमकूपों में होकर शरीर में घुस गए।  अब अग्निदेव उस वीर्य से मुक्त हो गए।  फिर तो स्वयं ही उनका वह प्रज्वलित तेज शांत हो गया।  तत्पश्चात् वे कृत्तिकाएँ गर्भवती होकर वहाँ से अपने घर को लौटीं।  वहाँ उनके पति महर्षियों ने जब उन्हें शाप दिया तो वे नक्षत्रों के रूप में आकाश में विचरने लगीं।  उसी समय उन सबने भगवान् शिव के उस वीर्य को हिमालय के शिखर पर छोड़ दिया।  छोड़ने पर वह सहसा तपाये हुए सुवर्ण के समान चमक उठा।  फिर वह गंगाजी में डाल दिया गया।  गंगाजी में बहता हुआ वह तेजोमय वीर्य सरकंडों के समूह से घिर गया।  वहाँ वह तेज छः मुखोंवाले बालक के रूप में परिणत हो गया (इसलिए कृत्तिकाओं से जन्मे भगवान् कुमार कार्तिकेय का एक नाम षाण्मातुर् हुआ।) इसका पता लगने पर समस्त देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई।  तदनन्तर नारदजी ने आकर शिव और पार्वती से उस बालक के जन्म का समाचार कहा --
"शिवजी के अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ है।"
यह समाचार सुनकर गन्धमादन पर्वत पर निवास करनेवाले समस्त प्रमथगणों का हृदय आनन्दोल्लास से भर गया। वहाँ अनेकों पताकाएँ फहराने लगीं।  बिल्वपत्र की बन्दनवारें शोभा पाने लगीं तथा भाँति-भाँति के वितानों से उस पर्वत की शोभा बढ़ गयी।  महात्मा शंकर के पुत्र के जन्म से वह श्रेष्ठ पर्वत अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था। उस समय सब देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, यक्ष, गन्धर्व, सर्प तथा अप्सराएँ सब-के-सब गंगा के तट पर विराजमान उस गंगापुत्र को देखने के लिए वहाँ गए।  ....
अत्यन्त अद्भुत् रूपवाले तथा सूर्य के समान तेजस्वी उस गंगाकुमार को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने उसका वंदन किया।  भगवान् शंकर के समस्त पार्षद, प्रमथगण और वीरभद्र आदि उस बालक को दायें-बायें दोनों ओर से घेरकर खड़े हो गए।  ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं सहित इंद्र भी उस समय बालक के समीप आए थे।  ......
इतने ही में गिरिजापति भगवान् शंकर भी वहाँ आ पहुँचे, और पार्वती के साथ शीघ्र ही वृषभ की पीठ से उतरकर अपने पुत्र को देखा।  देखते ही देखते पार्वती वात्सल्य प्रेम में मग्न हो गयीं।  उनके स्तनों से दूध बहने लगा।  वे आगे बढ़ीं और कुमार को छाती से लगाकर अपने बहते हुए स्तन का दूध पिलाने लगीं।  उस समय सम्पूर्ण देवों और देवांगनाओं ने आनन्दमग्न होकर पार्वतीजी की आरती उतारी।  जय-जयकार के महान् शब्द से आकाशमण्डल गूँज उठा।  ऋषि-मुनि वेदमन्त्रों का उच्चारण करके, गायकों ने गीत गाकर, तथा बाजे बजानेवालों ने वाद्य बजाकर कुमार का अभिनन्दन किया।  पुत्रवानों में श्रेष्ठ भगवान् शंकर भी उस महातेजस्वी कुमार को अपनी गोद में बिठाकर अत्यन्त सुशोभित हुए।
(गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित 'संक्षिप्त स्कन्द-पुराण' -279 से साभार)            
उपरोक्त वर्णन गंगा और हिमालय के सन्दर्भ में है।
पम्बासरोवर के सन्दर्भ में सबरीमला में स्थित भगवान् कार्तिकेय (अय्यप्पा) का विवरण भी स्कन्द-पुराण में 'नागरखण्ड-पूर्वार्ध' में :
"समुद्र के निकट विटंकपुर नामक एक उत्तम स्थान है ....."
के अंतर्गत देखा जा सकता है।
वाल्मीकि-रामायण में भी स्कन्द-भगवान्, कुमार कार्तिकेय के जन्म का उपरोक्त उद्धृत यह प्रसंग  बालकाण्ड में तथा पम्बासरोवर का प्रसंग भी देखा जा सकता है।
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यदि प्रमादवश मुझसे कोई त्रुटि हुई हो तो कृपया सुधार लें !
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Saturday, 5 January 2019

वृक्ष और वार्क्षी : ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति : प्राण और रयि,

The Flora 
वृक्ष और वार्क्षी : ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति : प्राण (vital-life force that animates the creatures) और रयि (consciousness prior to formulation in language)
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सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को रचने का संकल्प उठते ही पञ्च महाभूत उनके लिए उपादानस्वरूप होकर उनके समक्ष प्रकट हुए।  विधाता ब्रह्मा की ज्ञान और क्रिया मूलक शक्ति दो भागों में प्रकट हुई और उसने वार्क्षी का नाम पाया।  पञ्च महाभूतों के स्थूल-सूक्ष्म दस प्रकारों में प्रचेता वृक्ष के रूप में उद्भूत् हुए और वार्क्षी लता के रूप में उनकी सहधर्मिणी हुई।
इस प्रकार एक ही वार्क्षी का विवाह एक साथ दस प्रचेताओं के साथ संपन्न हुआ।
वनस्पति-सृष्टि का उद्भव इस प्रकार हुआ।
वार्क्षी दस प्रचेताओं के मध्य अपने लिए स्थान खोजती हुई दसों दिशाओं में फैलने-फूलने और पनपने लगी।
वह अपने असंख्य हाथों से जिसे स्पर्श करती उससे लिपट जाती और उसका सहारा लेकर ऊर्ध्वदिशा की और गतिशील होती। उसका जीवन वृक्ष के बिना अर्थहीन था।
एक ही वार्क्षी अनेक वृक्षों पर लहलहाती उनसे लिपटकर पुष्पित-फलित होती।
ऋषि अथर्वा उन वृक्षों वनस्पतियों लताओं के फल-मूल पत्ते खाकर भूख मिटाते। उन वृक्षों पर असंख्य पक्षी कलरव करते, उसके बीजों से भूख मिटाते। उन्हीं वृक्षों पर मधुमक्खियाँ छत्ते बनातीं और उन्हीं वनस्पतियों के फूलों के रस को उन छत्तों में बिंदु-बिंदु संचित करती। यहाँ तक कि कभी-कभी मधु के आधिक्य से वे बोझ से टूट जाते या वैसे ही उनसे मधु टपकता रहता था।
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1 /1)
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्।।
(मुण्डकोपनिषद् 1 /1/2)
जिस विद्या से ब्रह्म के पर और अपर दोनों रूपों को जाना जाता है उसे ब्रह्मविद्या कहते हैं।
सृष्टि की रचना होते ही भगवान् ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश किया।
जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश उन्होंने अथर्वा को किया उसका ही उपदेश अथर्वा ने अङ्गी ऋषि को और अङ्गी ऋषि ने भारद्वाज (भरद्वाज-गोत्रोत्पन्न) -सत्यवह ऋषि को दिया।  उसी परंपरा से प्राप्त ब्रह्मविद्या का उपदेश सत्यवह ने अङ्गिरा ऋषि को दिया।
अथर्वा वृक्ष से गिरे फलों-पुष्पों-पत्रों से ही भूख शांत कर लेते थे। उनके ही गोत्र-भ्राता कभी-कभी तो केवल तृण खाकर ही तृप्त हो रहते थे। तृण खाने के कारण उनका नाम ऋषभ पर्यायतः सार्थक होता था। इसी प्रकार एक अन्य गोत्र-भ्राता केवल तृणों से गिरे अन्नकण खाकर भूख की निवृत्ति कर लेते थे। और इस प्रकार उन्हें कणाद का नाम प्राप्त हो गया था।
बहुत आयु हो जाने पर जैसे गाएँ पीतोदका जग्धतृणा हो जाती हैं वैसे ही ये ऋषिगण भी व्याधिरहित देह और क्लेश-रहित चित्त से जीवन व्यतीत करते हुए सशरीर ब्रह्मलोक में वास करते थे। भूख-प्यास का क्लेश तो उठते ही अनायास ही दूर हो जाता था किंतु वृक्षों से टपके मधु के लोभ पर नियंत्रण करना उन सभी के लिए कुछ कठिन अवश्य था।
तभी अथर्वा ऋषि ने सुना :
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते।  व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः।  उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति।  अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम्।  एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती  रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः नम इति। 6
(शिव-अथर्वशीर्ष)
उन्होंने यह सुना या उनके ही हृदय में यह स्फुरित हुआ इसलिए यह श्रुति है।
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युग-युग बीत गए। स्त्रियाँ वार्क्षी की परंपरा से एक पति हो या अनेक केवल पातिव्रतधर्म का पालन होने मात्र से सती कहलाती थीं।  ऋषि वृक्ष की परंपरा से शीत-आतप-वर्षा में एकाग्रचित्त होकर आत्म-अनुसंधान और तप में दृढ रहते थे। वायु खाकर और वर्षाजल पीकर भी स्वस्थ और प्रसन्न रहते थे। कभी-कभी अपने-आप ही टपकते मधु या फल-फूल आदि का भोजन भी ग्रहण कर लेते किन्तु उनके जीवन में क्लेश लेशमात्र भी नहीं उत्पन्न होता था। यह उनका धर्म था।
सत्यं वद।  धर्मं चर।
ये थे सूत्रवाक्य।
परंपराएँ क्रमशः जर्जर होकर विलुप्तप्राय हो गईं और सत्-युग की समाप्ति के बाद त्रेता का आगमन हुआ। ऋषि वाल्मीकि ने रामायण की कथा कही और वह उसी प्रकार से घटित हुई तो सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा के चित्त में सृष्टि को निरंतर बनाए रखने का संकल्प उठा और उन्होंने कामदेव और रति को इसके लिए नियुक्त किया।
वनस्पति जगत में वे प्रच्छन्नतः वनस्पतियों और ओषधियों को सोम के माध्यम से संवर्धित करते रहे थे, किंतु जीव-जगत Fauna में उनकी भूमिका बदल गयी।  संपूर्ण जीव जगत उनके नियंत्रण से संचालित होता था।  हाँ, मनुष्य अवश्य इसके बाहर था। मनुष्य मनु की संतति होने से कामदेव और रति सहित सभी देवताओं को वैदिक अनुष्ठानों से प्रसन्न और संतुष्ट रख सकता था और इसके लिए सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने ही उसे यह ज्ञान दिया था :
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
(गीता अध्याय 1, श्लोक 10)
और इस वेदविहित यज्ञ-परंपरा को बनाए रखने के लिए वर्णाश्रम-धर्म का उपदेश भी सृष्टिकर्ता भगवान् ब्रह्मा ने दिया क्योंकि वेद के माध्यम से स्वयं भगवान् नारायण द्वारा यह व्यवस्था निश्चित की गयी थी :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
(गीता अध्याय 4 श्लोक 13)      
किंतु कालक्रम से यह सारा ज्ञान जो स्वयं भगवान् नारायण द्वारा सूर्य (विवस्वान्) को, भगवान् सूर्य द्वारा मनु को, और मनु द्वारा इक्ष्वाकु को दिया गया लुप्तप्राय हो गया और इसे ही भगवान् नारायण द्वारा अपने श्रीकृष्ण अवतार के समय द्वापर युग में अर्जुन के लिए पुनरोद्घाटित किया।
उसी मनु की संतति मनुष्य को उपदेश दिया गया :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।
(गीता अध्याय 7 श्लोक 11) 
तात्पर्य यह कि कामबुद्धि से मोहित हुए बिना केवल प्रजा की उत्पत्ति की परंपरा के लिए तुम कामोपभोग करो।
इस प्रकार 'विवाह' की व्यवस्था वेद के अनुकूल होने पर मनुष्यमात्र सुखी हो सकता है।
'विवाह' का मूल आधार यही है।
और इसकी इस मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए न तो पुरुष और न स्त्री स्वतंत्र हैं।
हठपूर्वक स्त्री-पुरुष समानता का आग्रह अंततः सबके लिए विनाश का ही कारण है।
वार्क्षी को जब स्त्री की भूमिका मिली तो उसे पता था कि प्रकृति का स्वभाव है तप।
इसी प्रकार से वृक्ष को जब पुरुष की भूमिका मिली तो उसे पता था कि पुरुष का तत्व है तप।
किंतु पुरुष ही स्त्री का आश्रय है और मनुष्य समाज में परिवार में ही स्त्री की सुरक्षा है।
बहुत बाद में मनु की संतान इस सत्य को भी भूल गयी और अंततः संसार उसके लिए भयावह अरण्य बन गया जहाँ उसके अरण्य-रोदन की आवाज क्षितिज से टकराकर पुनः पुनः लौटती रहती है।
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Friday, 4 January 2019

यातयाम / गतयाम - 18

अष्टादश / 18 
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गीता अध्याय 17 श्लोक 10 :
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टं चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।
अर्थ :
गत-रात्रि में जिसे बनाया गया था, जिसकी ताज़गी समाप्त हो गयी हो, जो दुर्गन्धयुक्त हो चुका है, और बहुत समय बीत जाने से जो बासी हो, जो किसी के द्वारा खाए जाने से बचा हुआ (जूठन) और अभक्ष्य हो, ऐसा भोजन तामसी प्रवृत्ति से प्रेरित मनुष्यों को प्रिय होता है।
Meaning :
Men given with 'tAmasika' / Sloth  tendencies find pleasure in eating the food that has been prepared a night ago, stale, has lost freshness, has foul smell, that has been rotten, left-over by another after eaten a part of, and is unhealthy / unhygienic so is not fit to be eaten.
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मुण्डकोपनिषद् - 1 / 2 / 7
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दति मूढा जरामृत्युं ते पुनरापि यन्ति।।
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अर्थ :
स्वर्ग आदि मरणोत्तर जीवन के लोभों या लौकिक यश, पुत्र, राज्य तथा धन की कामना से लालायित होकर वैदिक कर्मकांडरूपी यज्ञ आदि के द्वारा जिनके कर्म 18 (अर्थात् अनेक विविध) प्रकार के होते हैं, और जो इनमें बहुत प्रसन्नता और गौरव अनुभव करते हैं, और इस प्रकार बुढ़ापे और मृत्यु की और ही बारम्बार खींचे जाते हैं, वे ऐसी ही गति को प्राप्त करते हैं।
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Meaning :
Those prompted by a desire for the worldly gains like sons, wealth and power or name and fame here, or 'heaven' in the after-life, perform scriptural sacrifices and feel glorified in it, keep revolving in the cycle of repeated births, old-age and deaths.
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द्वादशपञ्जरिका स्तोत्रं - श्लोक 18
का तेऽष्टादशदेशे चिन्ता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता।
यस्त्वां हस्ते सुदृढनिबद्धं बोधयति प्रभवादिविरुद्धम्।।
(शंकराचार्य-रचित)
अर्थ :
हे मनुष्य! तुम्हें यह अट्ठारह प्रकार की चिन्ताएँ क्यों हैं ? क्यों तुम वायु की तरह इतने चंचल-चित्त हो? क्या तुम्हारा कोई नियंता नहीं है (जो तुम्हें सुस्थिर रख सके) ? जो तुम्हारे दोनों हाथों को दृढ़तापूर्वक बांधकर तुम्हे ऐसा बोध प्रदान कर सके जिससे तुम प्रभव-आदि (पुनः पुनः होने वाले जन्मों के चक्र) से छूट जाओ?
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Meaning :
O Man! Why are troubled by the 18 kinds of worries? Why your mind is so wavering, unsteady flickering like the winds? Is there no-one who can make calm and stable ? Who can catch you by your both hands and give you such a wisdom so that you can get rid of the many rebirths and stay in the Freedom from the sorrow for ever?
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Remark :
Just a coincidence !
While writing this I had the year 2018 in my mind and by some coincidence got to read a piece about "Train 18".
टिप्पणी :
इस पोस्ट को लिखते समय यद्यपि मैं वर्ष 2018 के बारे में सोच रहा था कि तभी संयोगवश मेरी नज़र
 "Train 18" से संबंधित खबर पर पड़ी !
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Wednesday, 2 January 2019

The Real, The Virtual, The Incidental and The Formal.

The Identity .
Till the last year I was on Face-book. I think on some day in October 2018, I finally left the Face-book. I still don't know exactly if the Face-book has really left me!
No, I haven't created any new fictitious identity.
Before some 2 years ago I had been on twitter, and one fine day I finally left it for good.
When you join a social networking site, you are expected to have and make a few friends.
This is but natural.
I too had many who I befriended.
But all used to come and go.
Though there were still about a hundred who I never unfriended and all they too were gone the day I opted out of the two sites.
Only one Italian friend remained at last who kept the friendship 'live' and running.
We occasionally exchange messages through email.
Why?
The only reason is; -we rarely address one-another by a name.
Really, the name hardly matters.
Why we need a name after all?
Do the birds, the animals have any names?
We use to name them too, but to them, it hardly matters.
Though in time they are conditioned, and begin to; -kind of believing they have a 'name'.
That too is not their 'belief' or 'faith', as we humans tend to have.
They have just learned to use this facility and find this often helpful in treating with the humans they are in connection, -they have to stay with and deal with.
I can't say when they 'die', what they might 'feel' about this facility.
For us humans this facility is often our individual and quite inevitably essential identity.
Once my Italian friend posted some piece on the Face-book.
The name of the friend was mentioned there in the piece.
I couldn't guess 'who' exactly was the person that had that name.
So I asked :
"Who is this person?"
"Oh! That is my real name."
"Do you really have a name? -Real or Fictitious? What does it mean? Is the name you or you the name?"
"No neither I'm a name nor a name is me."
Then on-wards we became the true friends.
That is why we never tried to know our 'real' names.
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Tuesday, 1 January 2019

Château / चैत्य, The New Year .

[A Château (plural châteaux; French pronunciation: ​[ʃɑto] in both cases) is a manor house or residence of the lord of the manor or a country house of nobility or gentry, with or without fortifications, originally—and still most frequently—in French-speaking regions....]
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वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड, सर्ग 15 में वर्णन है :
शैलेन्द्रमिव गन्धाढ्यं द्वितीयं गन्धमादनं ।
अशोक वनिकायां तु तस्यां वानरपुंगवः।।15
स ददर्शाविदूरस्थं चैत्यप्रासादमूर्जितम्।
मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलासपाण्डुरम्।।16 
अर्थ :
वह रमणीय उद्यान, अशोक-वाटिका, अनेक सुगन्धित पुष्पीं-लताओं वृक्षों आदि से युक्त मानों दूसरा गंधमादन पर्वत जैसा था।
वहाँ पर हनुमान् ने कुछ दूरी पर स्थित सहस्र स्तम्भोंवाला कैलास जैसा श्वेत-शुभ्र प्रकाश से ऊर्जित विशाल भवन (महल) देखा।
चेतना का मूल स्वरूप सत्, चित् होने से अभिव्यक्ति रूप में वह चित्र, चैत्य, चैत्र आदि से होता है। 
इस 'सत्, चित्' का एक प्रकार है 'चैत्य' जो सनातन धर्म के तीन मौलिक रूपों वैदिक, बौद्ध, और जैन तीनों परंपराओं में पाया जाता है।  यद्यपि इतिहास में हम पढ़ते हैं कि श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रसार-प्रचार सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री महेंद्र और संघमित्रा ने किया किंतु उपरोक्त श्लोक इंगित करता है कि 'चैत्य' का उल्लेख इससे भी प्राचीन है।
इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि फ्रेंच भाषा में पाया जानेवाला Château इसी 'चैत्य' का सज्ञाति (cognate) है, क्योंकि अर्थ और भाव में वह अक्षरशः वही तात्पर्य दर्शाता है जिसे उपयुक्त श्लोक में कहा गया है।
जिस प्रकार चैत्य स्थान-विशेष है, वैसे ही 'चैत्र' मास भारतीय पंचांग में वर्ष का प्रथम मास है, जिससे 'काल' का निर्देश होता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय पंचांग नए वर्ष (The New Year) का आरम्भ इसी चैत्र मास से होता है। 
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