Sunday, 5 November 2017

God as Reality.

About 'God'.
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'God is ‘x’. 
And the value of ‘x’ changes depending on the equation you are solving.'

'Who knew : God is ‘x’? By saying so, you just affirm that you didn’t know ‘God’. Not knowing the God is quite different than knowing the God.'
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'Yes, I’m yet to know.'

'No joke!  I'm just humbled by your humility! Really one ( a human only) who hasn't known God can obviously think and imagine and form concepts and ideas about God as a word learned from the society. While one who has really known such a vast indescribable phenomenal presence has also realized that this thing which is everything and every-one and all, though is never a separate man or living being with a form or name, can not claim that he has 'known' Him. And at the same time he knows this 'knowing-awareness' of Reality itself is the only Reality. But then because nothing and no-one is apart from this Reality, how one can claim he has 'known' and there are 'others' who have not? And neither there is such a question for him to announce this simple truth. For there is no other than this Reality. But I can sure agree that whosoever has made this into a 'principle', 'tenets' has some business of a kind. 
Regards....!'
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पहचान की पहचान

पहचान की पहचान
(कविता)
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पहचान का पता होना,
पता होने की पहचान,
सब कितना भ्रामक है,
सब कितना अस्थिर है,
जिसको पता होता है,
जिसका पता होता है,
एक ही तो है वो हयात,
दो नहीं है वो पता होना!
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ईश्वर : आस्था, तर्क या निष्ठा ?

ईश्वर : आस्था, तर्क या निष्ठा ?
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उस कलाकृति को समझना मेरे लिए वैसे ही मुश्किल था जैसे श्रेष्ठ कही जानेवाली उन साहित्यिक रचनाओं को समझ सकना जिन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है और मुझ जैसे अज्ञानी जिन्हें बस दाँतों तले उंगली दबाए देखते रहते हैं । इतने बड़े-बड़े लोग सम्मान करते हैं तो मुझे भी करना चाहिए । बचपन में एक दिन शिव-मंदिर में मैं यह सोच रहा था कि शायद स्वामी दयानन्द सरस्वती का तर्क सही है । लेकिन मेरी बुद्धि ने कहा "ठीक है, वह दयानन्दजी का तर्क है और उनका तर्क केवल उनके इस ’अनुभव’ से उनके मन में इसलिए उपजा था कि उन्होंने रात्रि में चूहे को शिवलिंग पर धमा-चौकड़ी करते और प्रसाद में चढ़ाई गई वस्तु को उठा ले जाते देखा था ।"
"क्या ईश्वर निराकार नहीं है?"
दूसरे दिन ’पंडितजी’ के आते ही मैंने उन पर सवाल दाग दिया था ।
उस समय वहाँ मेरे अलावा और कोई नहीं था ।
वैसे भी उस ’परिक्रमा-पथ’ पर इतने शिव-मन्दिर हैं कि उनमें से अधिकांश लगभग सूने-सूने रहते हैं ।
मेरे इस धृष्ट प्रश्न पर वे बस मुस्कुरा दिये ।
उन्होंने मन्दिर की सफ़ाई करना शुरु किया और मैं इसमें उनकी सहायता करने लगा ।
जल्दी ही पूरा मन्दिर पानी से धुल गया, ’पंडितजी’ ने ’रुद्रपाठ’ किया और मैं सुनता रहा ।
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है?’
’लेकिन वह किसी मूर्ति तक सीमित भी नहीं है ।’
’तो पूजा की ज़रूरत ही क्या है?’
’जिसे ज़रूरत महसूस होती हो वह कैसे करे?’
’ ... ...’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’क्या ईश्वर है ही नहीं?’
’पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो कि यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यह तो अपनी-अपनी आस्था है ।’
’आस्था तो बदलती रहती है, इससे ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं? इस सबका क्या संबंध है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा सही है?’
’तो क्या मूर्ति-पूजा गलत है?’
’ईश्वर निराकार है तो मूर्ति-पूजा साकार की पूजा होने से गलत ही है ।’
’तुम क्या सोचते हो? ईश्वर निराकार है तो उसकी पूजा कौन कर सकता है? क्या तब सब उसमें और वह सबमें नहीं है? लेकिन पहले मेरे इस प्रश्न का जवाब दो : यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
’यही तो !’
वे अब भी मुस्कुराते रहे ।
और तब मुझे समझ में आया कि शायद उनके पास मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध हो जाता कि वे गलत हैं ।
क्या सबसे पहले यही जानना ज़रूरी नहीं है कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?
इसलिए एक ’ईश्वर’ तो वह है (या ’नहीं’ है), जिसे हम पर परंपरा द्वारा थोपा जाता है, फिर वह परंपरा किसी भी रूप में हो, और उस ’ईश्वर’ के होने (या न होने) की हमारी कल्पना ही हममें उस प्रकार की मान्यता पैदा कर देती है । दूसरी ओर ’ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’ जब यह प्रश्न हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है तो संभवतः हम शान्तिपूर्वक इस प्रश्न को समझने का प्रयास करते हैं । और चूँकि किसी वैध प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही निहित होता है, इसलिए अन्ततः या तो हम इस प्रश्न को असंगत समझकर इससे छुटकारा पा जाते हैं, या हमें इसका सुनिश्चित उत्तर अर्थात् समाधान प्राप्त हो जाता है कि ईश्वर का यथार्थ स्वरूप क्या है।’
’तुम ’ईश्वर’ के बारे में तर्क से किसी निश्चय पर पहुँचना चाह रहे हो जैसा कि  सभी तथाकथित बुद्धिवादी प्रायः ही करते हैं । और तर्क एक से दूसरे विचार पर दौड़ता हुआ स्वयं ही सदा अनिश्चित रहता है । पहले तो ’ईश्वर’ की कल्पना की जाती है और फिर उस ’ईश्वर’ की खोज की जाती है जो कल्पना के सूत्र से ही बँधी होती है । ऐसे किसी ’ईश्वर’ की कल्पित प्रतिमा की पूजा भी क्या मूर्ति-पूजा का ही एक प्रकार नहीं हुआ?’
’ ... ... ’
’क्या किसी तात्कालिक उपयोग की दृष्टि से, किसी कामचलाऊ रूप में किसी ईश्वर की मान्यता से प्रारंभ कर हम अंत में इसकी परीक्षा करते हुए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि हमारी वह मान्यता ही मूलतः त्रुटिपूर्ण थी? जैसे गणित में संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न (rational) के रूप में सत्य मानकर हम अन्ततः जब गणितीय रूप से किसी मूलतः त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और तब यह सिद्ध हो जाता है कि हमारी यह कामचलाऊ कल्पना ही कि संख्या 2 के वर्गमूल को एक पूर्ण भिन्न के रूप में व्यक्त किया जा सकता है मूलतः त्रुटिपूर्ण है?’
’यह किसने जाना कि ईश्वर साकार है या निराकार है, या ईश्वर क्या है, या है भी कि नहीं?’
वे अपने उसी पुराने प्रश्न पर लौट आए ।
’किसी न किसी ने अवश्य जाना होगा इसीलिए तो ’ईश्वर’ चिन्तन का विषय बन पाया ।’
’और ऐसा कई लोगों ने जाना और फिर ’अनुभव’ भी किया होगा ।’
वे किञ्चित् उपहास और व्यंग्य से बोले ।
मैं उनके भाव को समझ गया ।
’तो क्या आप ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं?’
’मुझे ईश्वर के न होने पर भी संदेह नहीं है।’
’मतलब?’
’यही कि ईश्वर के होने या न होने को किसी ने तो या जाना होगा, या इस बारे में कोई कल्पना उसने की होगी ।’
’शायद यहाँ से हम आगे बढ़ सकते हैं ।’
’लेकिन वह ’कोई’ मनुष्य ही रहा होगा यह तो मानना ही होगा ।’
’हाँ, अपनी खोज के दायरे को हम यहाँ तक सीमित कर सकते हैं ।’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धि का विषय है?’
’मतलब?’
’क्या ’ईश्वर’ बुद्धिगम्य है?’
’...’
’जिसे ’ईश्वर’ कहा जाता है वह या तो कल्पना है, या विचार या निष्कर्ष है, क्योंकि उसे किसी इन्द्रियगम्य वस्तु की तरह से तो नहीं जाना जा रहा है यह तो स्पष्ट ही है।’
’...’
’क्या निष्कर्ष के रूप में भी वह अग्राह्य (untenable) है?’
’निष्कर्ष या तो अनुभव होता है या फिर अनुमान ।’
’या सिद्धान्त?’
’सिद्धान्त भी पुनः या तो प्रत्यक्ष (अपरोक्ष immediate) होता है, या अप्रत्यक्ष (mediate) परोक्ष, जिसमें किसी माध्यम से ज्ञाता, ज्ञेय और उनका परस्पर संबंध अर्थात् ज्ञान या अनुभव होता है ।’
’मतलब?’
’मतलब जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य प्रतीत होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’तो ईश्वर को जान पाना ही असंभव है ।’
’हाँ, क्योंकि ईश्वर ही माध्यम से रहित ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान एक साथ है ।’
’तो यह भी तो एक सिद्धान्त ही हुआ!’
’हाँ,जब उसे व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वह प्रत्यक्षतः सत्य होता है, किंतु जब उसे किसी शाब्दिक सूत्र में सूत्रबद्ध किया जाता है तो वह केवल एक विचार भर होता है ।’
’क्या उसे हम वह अपरिवर्तनशील (अविकारी), आधारभूत तत्व कह सकते हैं जिसकी तुलना में जगत् निरंतर परिवर्तनशील प्रतीत होता है ?’
’उसकी तुलना जिससे की जा सके, क्या ऐसा  उससे भिन्न कोई दूसरा तत्व है?’
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मुझे स्वीकार करते हुए संकोच नहीं है कि मैं उनसे तर्क तो ठीक, चर्चा या संवाद तक नहीं कर पा रहा था ।
मेरा एक छात्र मुझसे कैल्क्युलस (calculus) पढ़ने मेरे घर पर आता था ।
’सर, ये कैल्क्युलस (calculus) क्या होता है?’
कुछ दिनों तक मुझसे पढ़ते रहने के बाद उसने पूछा था ।
मुझे ख़याल था कि वह ऐसा कोई प्रश्न मुझसे अवश्य पूछेगा, इसलिए मैं पहले ही से तैयार था ।
मैंने बड़े आत्मविश्वास से उससे कहा :
’कैल्क्युलस (calculus) को सीधे ढंग से कहें तो इसे परिवर्तनशीलता का गणित (mathematics of change) कह सकते हैं । इसमें दो परिवर्तनशील राशियाँ (variables) होती हैं, जिसमें एक को स्वतंत्र ( independent ) माना जाता है, जबकि दूसरी को पहली राशि पर निर्भर (dependent) माना जाता है ।’
’दूसरी राशि का पहली पर निर्भर (dependent) होना तो समझ में आ रहा है, लेकिन पहली राशि स्वतंत्र ( independent ) और परिवर्तनशील भी हो यह कैसे हो सकता है? यदि वह स्वतंत्र है तो परिवर्तनशील नहीं होगी, और यदि परिवर्तनशील है तो स्वतंत्र नहीं होगी ।’
’मतलब?’
’मतलब यह कि वह किसी न किसी नियम के आधीन होगी ।’
’और वह नियम?’
’नियम या सिद्धान्त को बुद्धि से न तो समझा जा सकता है न ग्रहण किया जा सकता है ।’
’क्यों?’
’क्योंकि बुद्धि स्वयं सतत परिवर्तनशील वस्तु है किंतु वह किस तत्व की अभिव्यक्ति है, उसका अपरिवर्तनशील उद्गम स्वरूपतः क्या और कैसा है इसे बुद्धि या तर्क, अनुभव से भी नहीं समझा जा सकता । हाँ, उसके अस्तित्व पर संदेह भी नहीं किया जा सकता ।’
’तो यूँ समझो, गणित की मान्यताओं के आधार पर हम दो परिवर्तनशील राशियों में से एक को स्वतंत्र (independent )  / निरपेक्ष और दूसरी को उसके सापेक्ष उस पर निर्भर (dependent)  कहेंगे ।’
’जैसे समय और गति ...’
मेरे स्टूडेंट ने मुझे सहारा दिया ।
’हाँ, संसार परिवर्तनशीलताओं की समष्टि ( totality of changes) है । इनमें से किन्हीं भी दो परस्पर संबंधित राशियों में से एक की तुलना में दूसरे की परिवर्तनशीलता की गणना (गणित) को हम कैल्क्युलस (calculus) कह सकते हैं ।
’लेकिन थोड़ी देर के लिए गणित की मान्यताओं और मान्यताओं पर आधारित गणित को भूलकर अगर यह देख लिया जाए कि ’परिवर्तनशीलता’ का विचार केवल बुद्धि का एक भ्रम है तो क्या यह भ्रम स्वयं ही ध्वस्त नहीं हो जाता?’
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कुछ दिनों बाद मन्दिर जाना हुआ तो पंडित जी बोले :
’बहुत दिनों बाद आए! कहीं बाहर गए थे क्या?’
’जी नहीं, कुछ व्यस्त था ।’
’अच्छा, वो पुरानी मालाएँ और फूल उतारकर बाहर तुलसी के बाजू में रख दो और बाल्टी में पानी भरकर ले आओ ।’
मैंने उदासीन भाव से उनकी आज्ञा का पालन किया ।
’आज सफ़ाई में हाथ नहीं बँटाओगे?’
उन्होंने कुछ संशय के साथ पूछा ।
’मैं ..., आजकल घर पर ही मेरा सफ़ाई-कार्य हो जाता है ...।’
’तो मन्दिर किसलिए आए?’
’बस दर्शन करने, वैसे आपकी आज्ञा में अब भी हूँ ।’
इसके बाद भी बहुत दिनों तक, जब तक उस स्थान पर रहा, उस मन्दिर में लगभग प्रतिदिन जाता रहा । लेकिन अब मैं किसी से ईश्वर के बारे में चर्चा, विवाद नहीं करता ।
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(कल्पित)    

Saturday, 4 November 2017

आयुर्विज्ञान / विष : Venom and Poison

आयुर्विज्ञान के चार स्तंभ
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निदाने माधवः प्रोक्तः सूत्रस्थाने तु वाग्भटः ।
शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तश्चरकस्तु चिकित्सिते ॥
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निदानग्रन्थों में ’माधवनिदान’,
सूत्रस्थान में वाग्भट,
शारीरस्थान में सुश्रुत, एवं
चिकित्सानाम ओषधविचार में चरक सर्वोत्तम कहे जाते हैं ।
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माधवनिदान के अनुसार :
स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं विषमुच्यते ।
मूलात्मकं तदाद्यं स्यात्परं सर्पादिसम्भवम् ॥१
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विष दो प्रकार का है । स्थावर और जंगम, तथा मूलात्मक स्थावर और सर्पादिकों से जो प्रगट हो वह जंगम विष होता है ॥
दशाधिष्ठानमाद्यं तु द्वितीयं षोडशाश्रयम् ।
आद्य अर्थात् स्थावर विष दश जगह रहता है और जंगम विष सोलह जगह रहता है ।
मूलं पत्रं फलं पुष्पं त्वक्क्षीरं सार एव च ।
निर्यासा धातवश्चैव कन्दश्च दशमः स्मृतः ॥२
जड, पात, फल, फूल, छाल, दूध, रस, गोंद, धातु और कन्द ये दश स्थावर विष हैं ।
क्लीतक, अश्वमार .... विजया ये आठ मूलविष हैं ।
जंगमस्य विषस्योक्तान्यधिष्ठानानि षोडश ।
समासेन मया यानि विस्तरेषु वक्ष्यते ॥३
...
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Venom and poison :
Thus venom that issues out through vein is जंगम विष,
while the poison (poised, positioned) is स्थावर विष .
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Monday, 30 October 2017

मेरे मन अभिमानी!

कविता
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मन मत कर मनमानी,
मेरे मन अभिमानी!
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तेरी प्रीत सुख-साधन में,
पर तू तो निपट अज्ञानी,
सुख-दुःख नहीं देह को व्यापैं,
देह न सुख-दुःख जानी,
इन्द्रिय साधन सुख-दुःख के,
वे सेवक बस चाकर तेरे,
पीनेवाला प्याला ना जाने
अमरित गरल या हाला,
जाने पीनेवाला सुख-दुःख,
वो तू ही निपट अज्ञानी,
देह, विषय, इन्द्रियाँ सभी,
अनित्य सब आनी-जानी,
तेरा राम जो तुझ में बसा,
जैसे घट-घट में पानी,
प्यास तेरी है राम के लिए,
तूने सुख-दुःख की मानी,
मेरे मन तू अब तो समझ ले,
यह दुनिया सुख-दुःख फ़ानी
मन मत कर मनमानी,
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Sunday, 29 October 2017

आँवला और तुलसी

स्कंद-पुराण, वैष्णव-खण्ड, कार्त्तिकमास-माहात्म्य से दो कथाएँ:
१.पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से जब इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया था, उस समय ब्रह्मा आदि देवताओं और असुरों ने मिलकर क्षीरसागर का मंथन किया । उससे ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रम्, लक्ष्मी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कौस्तुभमणि तथा धन्वन्तरिरूप भगवान् श्रीहरि और दिव्य ओषधियाँ प्रकट हुईं । तदनन्तर अजरता और अमरता प्रदान करनेवाले उस अमृतकलश को दोनों हाथों में लिए हुए श्रीविष्णु बड़े हर्ष को प्राप्त हुए । उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु की कुछ बूँदें उस अमृत के ऊपर गिरीं । उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुईं । 
२.पूर्वकाल में जब सारा जगत् एकार्णव के जल में निमग्न हो गया था, समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो गए थे, उस समय देवाधिदेव सनातन परमात्मा ब्रह्माजी अविनाशी परब्रह्म का जप करने लगे थे । ब्रह्म का जप करते-करते उनके आगे श्वास निकला । साथ ही भगवद्दर्शन के अनुरागवश उनके नेत्रों से जल निकल आया । प्रेम के आँसुओं से परिपूर्ण वह जल की बूँद पृथ्वी पर गिर पड़ी । उसी से आँवले का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिसमें बह्त सी शाखाएँ उपशाखाएँ निकली थीं । वह फलों के भार से लदा हुआ था । सब वृक्षों में सबसे पहले आँवला ही प्रकट हुआ, इसलिए उसे ’आदिरोह’ कहा गया । ब्रह्मा ने पहले आँवले को उत्पन्न किया । उसके बाद समस्त प्रजा की सृष्टि की । जब देवता आदि की भी सृष्टि हो गयी, तब वे उस स्थान पर अये जहाँ भगवान् विष्णु को प्रिय लगनेवाला आँवला वृक्ष था ।
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Saturday, 28 October 2017

जातिवाद, वर्णवाद, वृत्ति और 'आरक्षण'

जातिवाद, वर्णवाद, वृत्ति (profession) और 'आरक्षण'
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वैदिक आधार पर 'जाति' एक गौण तत्व है, जबकि ’वर्ण’ एक प्रधान तत्व है ।
जिन चार आधारों पर वैदिक धर्म प्रतिष्ठित हैं वे चार चतुष्क इस प्रकार हो सकते हैं :
चार युग : सत-युग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग,
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र,
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास,
चार अन्तःकरण : भावना, बुद्धि, मन (विचार), और वृत्ति,
'जाति' मुख्यतः कुल, वंश और परंपरा पर आधारित है और उसका अपना महत्व है क्योंकि वह वर्ण-आधारित है किंतु जाति वर्ण का पर्याय नहीं हो सकती । इसलिए ’आर्य’ और ’अनार्य’ जो वर्णवाचक न होकर भी जातिवाचक हैं ।
’आर्य’ शब्द का पाश्चात्य इतिहासकारों ने जाति के अर्थ में प्रयोग केवल उनके अपने किन्हीं कुत्सित ध्येयों के लिए किया ।
गीता और धम्मपद तथा दूसरे ग्रन्थों में भी ’आर्य’ शब्द का प्रयोग वर्ण या जाति के अर्थ और सन्दर्भ में नहीं बल्कि चरित्र और गुणों की श्रेष्ठता के अर्थ में किया है । इसी प्रकार का कृत्रिम भेद ’आर्य’ और ’द्रविड’ के बीच सृजित किया गया है । द्रविड भाषा और संस्कृति है न कि जाति या वर्ण । और संस्कृतियों के भेद होने से द्रविडभाषी और संस्कृतभाषी समुदायों के बीच परंपराओं में कुछ भिन्नताएँ हैं । किंतु ऐसी भिन्नताएँ किसी एक ही वर्ण की भिन्न-भिन्न शाखाओं में भी पाए जाते हैं जिनका परस्पर सम्मान ही किया जाता है न कि अवमानना ।
द्रविड, तमिऴ, तेलुगू या मलयालम भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न हैं इसे ध्यान में रखना आवश्यक है ।
जैसे वेद केवल ब्राह्मणों के ही लिए पठनीय और ग्राह्य हैं और अन्य वर्णों के लिए पुराण ही श्रवणीय मात्र हैं वैसे ही ’चार अन्तःकरणों’ की प्रधानता के अनुसार भावना ब्राह्मण-वर्ण, बुद्धि क्षत्रिय-वर्ण, मन (विचार) वैश्य-वर्ण तथा वृत्ति शूद्र-वर्ण है ।
जैसे इन चार वर्णों के संतुलन से ही समाज स्थिर और सुचारु व्यवस्था के रूप में संचालित होता है, वैसे ही इन चार वर्णों के ही संतुलन से मनुष्य का मन भी सामञ्जस्यपूर्ण हो सकता है ।
चार ’युगों’ के संबंध में यह दृष्टव्य है कि जहाँ सतयुग में ब्राह्मण-वर्ण का, त्रेता-युग में क्षत्रिय-वर्ण का, द्वापर में वैश्य-वर्ण का वर्चस्व रहता है, वैसी ही कलियुग में शूद्र-वर्ण का वर्चस्व है ।
चार वर्णों के गुण-कर्म (अर्थात् मुख्य प्रवृत्ति) गीता में और मनुस्मृति तथा अन्य ग्रन्थों में तो वर्णित हैं ही, किंतु उन्हें ’जाति’ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता । ’मनुवादी’ कहकर मनु और दूसरे शास्त्रकारों का जैसा उपहास और अपमान किया गया है वह भी हमारे समय की विडंबना ही है ।
अब वर्ण अर्थात् गुण-कर्म पर आधारित ’अन्तःकरण’ के वर्गीकरण पर एक दृष्टि डालें :
ब्राह्मण के लिए ब्रह्म-कर्म ही एकमात्र कर्तव्य है जिसका अर्थ है तप, स्वाध्याय, तितिक्षा आदि के अभ्यास से संसार का और स्वयं का कल्याण करना ।
स्पष्ट है कि ब्राह्मण न तो युद्ध कर सकता है, न व्यापार और न किसी का दासत्व । भिक्षा या दक्षिणा ब्राह्मण का अधिकार अवश्य है किंतु वह भी पात्र से ही ग्रहण किया जाना चाहिए । ब्राह्मण को न तो लोभ से धन या भोग-विलास के साधनों और वस्तुओं का संग्रह करना चाहिए न उनके अभाव में व्याकुल होना चाहिए ।
इसी प्रकार से क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना संभव नहीं है । वह पराक्रम से ही समाज और परिवार की रक्षा और ’राज्य’ तथा भूमि का अर्जन करता है । भूमि से ही वह ’कर’ द्वारा धन का अर्जन करता है जो उसके भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि उसकी प्रजा के कल्याण के कार्य में ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए । किंतु जब क्षत्रिय वर्चस्व के लिए युद्ध करते हैं तो वह केवल उनके पराक्रम का ही द्योतक होना चाहिए, न कि लोभ अऔर् शासन की लिप्सा से प्रेरित कृत्य ।
वैश्य के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय तथा उनसे अर्जित लाभ के द्वारा आजीविका प्राप्त करना सर्वथा स्वाभाविक और उचित ही है ।
इसी प्रकार शूद्र के लिए शारीरिक कर्म एकमात्र उचित व्यावहारिक उपाय है जिससे वह जीवन-निर्वाह के लिए आय अर्जित कर सकता है ।
कहना न होगा कि आज के समय में ’अन्तःकरण’ के आधार से वास्तविक ’ब्राह्मण’ अत्यन्त कम हैं ।
उनसे कुछ अधिक क्षत्रिय हैं, उनसे अधिक वैश्य हैं और सबसे अधिक शूद्र हैं ।
’नौकरी’ और ’बेरोज़गारी’ की समस्या इसी वर्ग के लिए है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण तो जीवन के लिए ज़रूरी साधन ज्ञान, पराक्रम और व्यवसाय-व्यापार से भी अर्जित कर सकता है । उसके लिए ’आरक्षण’ की माँग किसी दूसरे संदर्भ में तो की जा सकती है, किंतु तब भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के लिए ’जातिवाद’ को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए । क्योंकि जहाँ केवल ’योग्यता’ के आधार पर ’अवसर’ दिए और प्राप्त किए जाने चाहिए वहाँ केवल ’योग्यता’ प्राप्त करने के लिए अवश्य ही निर्धन-मात्र को समुचित और आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाना चाहिए न कि ’जन्म’ से किसी जाति-विशेष में पैदा होने या न-होने से ।
यह विषय इस दृष्टि से भी विचारणीय है क्योंकि समाज में वैदिक-धर्म से इतर अन्य मतावलंबियों के साथ भी न्याय हो सके ।
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Tuesday, 24 October 2017

English Translation of my 2 Hindi posts

English Translation of my 2 Hindi posts
अर्धनारीश्वर and विकल्प
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I’m looking for learning something from you.
What is the very first step towards understanding the sanātana-dharma ?
I read your blog.
It seems you don’t think study of Veda by women is advisable.
But now, I have no other option.
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What is the very first step towards understanding the sanātana-dharma ?
I would like to draw your attention that the purpose of attaching the word ‘dharma’ with sanātana in sanātana-dharma is to make it clear that ‘dharma’ is what is sanātana, that exists for ever, without an end. ‘Time’ has been accepted in 4 forms. Eternal, transitory, recurring, and immutable, -unmoving. The one who accepts this ‘Time’ is the right and the eligible recipient who takes the ‘Time’ in these 4 ways. The recipient is the one who deserves for and can hold ‘Time’ in this way in his understanding. How far and how much, one can grasp, depends upon the eligibility and the capacity, the merits and demerits of the recipient. Accordingly, how he can apply this in the right way and transmit the same to others. 
Here, the ‘recipient’ means the man.
The man is again a complex and consequential of two elementary fundamental principles :
the male and the female principles.
Again the according to the साङ्ख्य दर्शन / sāṅkhya darshana, the male principle is  पुरुष / puruṣa and the female is प्रकृति / prakṛti .
Though Veda treats them as the Divine ‘Mother-principle’/ मातृ-शक्ति /  देवी / devī / mātṛ-śakti  and the Divine ‘Father-principle’ शिव-तत्व / śiva-tatva respectively.
As a conscious being, identification with  प्रकृति / prakṛti means : to lose the ego.
As a conscious being, identification with  पुरुष / puruṣa means : to have ego,
And transcending the same (ego) by the proper understanding of this ‘ego’.
In both these ways, the conscious being attains the right understanding of the ‘Self’ – the आत्मन् / ātman
Which is another name for ब्रह्मन् / brahman only.
One there-by realizes one’s identity as आत्मन् / ātman / and ब्रह्मन् / brahman .
The physical body is प्रकृति / prakṛti, -the nature-external, while the ‘mind’ / अन्तःकरण / antaḥkaraṇa
 / inner organ / consciousness is the nature-internal .
In the process of being eligible (पात्र / pātra, अधिकारी / adhikārī ),  there are four streams according to the age, and the four distinct classes of society, to be followed by a human being.
Thus ब्रह्मचर्य / brahmacarya,  गृहस्थ / gṛhastha,  वानप्रस्थ / vānaprastha,  संन्यास / saṃnyāsa आश्रम /  āśrama / are the four stages in life according to one’s age, while ब्राह्मण / brāhmaṇa , क्षत्रिय / kṣatriya, वैश्य / vaiśya, शूद्र / śūdra  are the four social classes or, वर्ण / varṇa. This classification of वर्ण / varṇa, is not ‘caste’ as we are often told. Caste is the professional occupation of the family.
So every-one has to undergo these stages of age by nature itself and no one can escape this. Just as a child one has to learn the skills and get educated about life and manners, ethics and all that, when grown up as an adult one has to run the life of a house-hold and raise the family and clan, when old enough to retire to renounce the family and the worldly pursuits and retire and go to forest for preparation of attaining the higher, spiritual truths, other than worldly and finally to attain the eternal state of the the ब्रह्मन् / brahman.
This is the general outline.     
Again the external signs (gender) of a person also determines what tendencies are natural to him / her that will help him / her most to gain the best in life and even after one is dead. As female is ‘nature’ / being  प्रकृति / prakṛti which is kind of passive energy, which always gives only, so ‘service’ of the family and the needy is the only virtue that makes her attain the (Highest) State of Self and she has no other obligations any. Thus devotion भक्ति / bhakti alone is enough and sufficient way of her emancipation.
But in case of a male, the ego and aggressiveness inherent in him make him entrepreneur, dominating and industrious, that is active. That is natural for him. 
In this way, study and performing of the rituals and sacrifices (अनुष्ठान / anuṣṭhāna यज्ञ / yajña) is natural and obligatory for a person with a  पुरुष / puruṣa -male body. This is quite against the nature of a female-person, and at the same time detrimental to her natural rhythm as well.
For a female, that is a woman the simple way is service and following the duties as are enjoined upon her by scriptures. The highest form of such a dharma / virtue is to practice पातिव्रत-धर्म / pātivrata-dharma, which means following the husband and accompanying him in all walks of life, in all his pains, troubles, joys and pleasures. Veda declares this the highest virtue and such a woman is treated as Mother Divine, a Goddess in human form and body. She has power to change the course of destiny as is evident from the examples of  सावित्री / sāvitrī, सीता / sītā, अनसूया / anasūyā, and other such noble women of yore.
In comparision, man (male) is but a labourer, kind of a servant who has to go through austerities that are quite hard and arduous. Woman even if fallen is free of sin while man (male) is quite prone to be stained by sin and has to suffer the results and consequences. 
Study of scriptures is thus only for males and that too for a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Because he has to perform the rituals that means propitiating divine entities (देवता / devatā ) which are the core-principle of all Vedika procedures.
This is verily the आधिदैविक / ādhidaivika sphere of subtle elements of nature who govern the whole life at a subtle level and as they could be contacted through  मंत्र / maṃtra and यज्ञ / yajña only,  this is rather a strict condition that could not be ignored.
Therefore study of Veda is the prerogative of a male and a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Then such a ब्राह्मण / brāhmaṇa only needs to follow the injunctions as are dictated by Veda with perfect compliance to them.
Veda is not a book or merely a text, but the compilation of  मंत्र / maṃtra and the procedures that are not, could not and should not be translated into any other language. That is the beauty of Veda. Veda is the Code of Creation, discovered and rediscovered  from time to time by the ऋषि / ṛṣi, by the sages, so every single letter, phoneme, syllable of Veda is well-defined देवता / devatā ) while a मंत्र / maṃtra is again such a देवता / devatā.
That is how the Veda is the Wisdom and Intelligence independent of ‘Time’ (in terms of our concept of ‘Time’) . Study of Veda is therefore the duty and right of a ब्राह्मण / brāhmaṇa only.
Without initiation from a capable  आचार्य / ācārya  and the proper sacrifices (यज्ञ / yajña) and  मंत्र / maṃtra, such a man is not a द्विज / dvija and all his ‘knowledge’ of Veda is just vain, useless and invalid. If the वर्ण / varṇa (the social-class) and the  संस्कार / saṃskāra of a man favour, even a अब्राह्मण  abrāhmaṇa could be initiated in the system of Vedika Learning as is evident from the case of 

सत्यकाम जाबाल satyakāma-jābāla.
This implies and is a proof that ‘caste’ is not same as the social-class वर्ण / varṇa .
Veda never imposes anything upon any-one, but only warns about the results, -auspicious or inauspicious one reaps by one’s actions (karma) here and afterwards. In this life and in the next lives. Veda never forces
that one should accept Veda nor threatens about the harmful consequences that befall upon one by not following Veda.
As Veda is not a ‘book’ but a compendium of मंत्र / maṃtra, rituals and procedures, so as to facilitate the performance of those strictly according to the rules, these have been preserved in the written form also.  And it is evident that these Vedika texts could never be translated in any language whatsoever. The genre छन्दस् / chandas also  indicates that Veda is poetry in metre-form. So also just as in the case of poetry, it is almost impossible to translate the core of these texts so as to convey correctly the essence. Of course one could find out ‘stories’ in Veda but that is just speculative and takes nowhere. Again the  छन्दस् / chandas and the मंत्र / maṃtra also are the instruments only and just like a computer-programe they have no inherent meaning any but are of use only. Veda are closely related with the Divine Powers आधिदैविक / ādhidaivika देवता / devatā element which the scholars have deliberately or through error treated as inert natural powers.
But there is also an alternative for those who are pure at heart and humble enough to see their limits and understand that The Supreme Power that is the foremost cause of this whole existence could be reached through devotion as well. And they can adhere to and follow the way of  पुराण / purāṇa / which emphasize that according to one’s inclination that power could be invoked in the form of whatever देवता / devatā one worships according to his / her interest / inclination.
This stream of भक्ति / bhakti or ’Devotion’ is also equally effective in attainment of the Supreme.

 This भक्ति / bhakti or ’Devotion’ or the निष्ठा / niṣṭhā / the natural conviction arises in the heart of one who is earnest in seeking the ‘Savior’, Who can save one from the sorrow of repeated incarnations in the world.
This Savior is not a ‘Messenger’ but Truly the Supreme God-head Himself who assumes the form of a living-being and not only a human-one but also some other like Fish, Tortoise, …etc.
The पुराण / purāṇa narrate in much detail about them and that is not just a wishful imagination, because all relate and refer to one-another in such a closely compact manner that no human-intellect can think.
This भक्ति / bhakti or ’Devotion’ leads one to  तप / tapa that is spontaneous for the aspirant and absolves him from all sin. Woman and those who don’t fall under the category of वर्ण / varṇa (the social-class)  are the best  suitable for this path.
Gita Chapter 30, verse 30, 31, 32, 33 shed light upon this aspect of भक्ति / bhakti or ’Devotion’.
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I don’t know much about this terminology of this पुरुष / puruṣa and प्रकृति / prakṛti tendencies, but an urge for knowing the Self has come up from the deep, Longing to come under the proverbial  बोधि-वृक्ष / bodhi-vṛkṣa / and attain the Enlightenment that makes one a Buddha.
Looks like my fate is to become first a ‘कालिदास / kālidāsa’ (-an utter stupid) and then the विद्योत्तमा / vidyottamā (-a learned woman).
What is the meaning of ‘अर्धनारीश्वर / ardhanārīśvara’ ?
What is the purport of  ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा / athāto brahmajijñāsā’ ?
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‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा / athāto brahmajijñāsā’ ?
is the first aphorism of the famous Vedika-Text  ब्रह्म-सूत्र / brahma-sūtra यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है । which is taken at par with गीता / gītā and उपनिषद् / upaniṣad. Together they form the traditional प्रस्थान-त्रयी / prasthāna-trayī.

When  one realizes that all the knowledge earned by him is mediate, indirect (acquired through a medium that is senses, mind, intellect, experience and memory), and so partial, limited, incomplete, absurd and useless then there is a question in his mind :
“Is there such a knowledge which is not mediate, but direct, immediate,  so partial, limited, incomplete, absurd and useless?”
 The knowledge gained by means of senses is indirect / mediate.
All experience is kind of knowledge acquired through senses.
Experience itself is perception through senses.
That is limited and partial according to the capacity of senses.
Whatever is seen through eyes, whatever is heard through the ears, are of mutually different kinds.
And you can’t translate one kind of experience into another kind of experience. You can not translate such experience / knowledge into another kind of experience / knowledge. Even if you invent some language for this purpose that could facilitate such translation, that will be a programe of the kind as is used in computer. And you know the coding and decoding only. The experience of seeing can’t be translated into the experience of hearing. And if you could somehow do this miracle happen, there will be thousands of such translations and which one is the only correct will always be doubted.And you can’t provide proof for the same.
The intellect does the same; -translates the experience in such a way. We say a song was pleasant and a sight was pleasant.
And because intellect depends upon and is supported by logic, there are innumerable intellects.
This knowledge therefore by means of ‘intellect’ could not be reliable.
Then we conjure up premises and formulate them. We create theory / verbal forms whicha are taken as ‘True’. And that theory is accepted as evidence’.
The intellect is again the indirect / mediate knowledge.
The ‘one’ who gains such knowledge is always the same irrespective of the conditions.
And the ‘one’ who knows this ‘one’ is again oneself.
So knowing of oneself is intuitive and though not verbal (and could not be made verbal), it is immediate and impartial, complete and undivided in terms of the knowledge, the known and the ‘one’ who knows.
This may look a little awkward and rather difficult, but once you go through this contemplation you at once discover how true it is.
In this knowledge, there is no division of  ‘knower’-‘known’-‘knowledge’. and the शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (इम्मीडिएट) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । The same Trth is what is known, the one who knows and the knowledge of oneself.
Let us hava another glance at it.
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
Whatever is ‘known’ is information. And what is thought of hitherto unknown is grasped as information  becomes known. This way we just move in a circle from known to known only, yet we hope we can (possibly in some distant future) know all knowldge some day. And we hope we shall have the ‘complete’ knowledge.
‘Enlightenment’, ‘Supreme knowledge’ ’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष / bodhi-vṛkṣa are no doubt wonderful words, and we get enchanted by these words but are vacant, meaningless to us as long we have not realized that thought and such mediate knowledge is essentially limited, absurd, fragmentary and misleading too. And we keep wandering in dark.


In comparision and contrast, when we test the element of permanency in each and everything that we come across, and on this criteria intutively see / realize that there is nothing permanent. The objects, the experience, the knowledge, the memory, the intellect, and then there may be a deep urge in us to find out : “What is there that is imperishable, never changing, immutable, and abiding.” And then we can feel avertion towards all sensory pleasures, experiences, the objects of enjoyment. This kind of maturity is called ‘dispassion’ which is different from like or hatred. Then we are told :
“There is such a Truth, a principle which is the Ultimate Supreme Reality  the ‘ब्रह्मन् / Brahman’.
Without this urge one can go through scriptures and though studied in great detail, can’t come to it.
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Unfortunately ‘Spirituality’ has been turned into a lucrative business and the simple, natural truth and Reality is for sale.
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’अर्धनारीश्वर’ could be explained and interpreted on the basis of genetics but that would be only a distortion to and deviation from what Veda and पुराण / purāṇa would tell us about ardhanārīśvara .
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Monday, 23 October 2017

निष्ठुर

निष्ठुर
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प्रायः शब्दों के संस्कार होने पर उनके अर्थ भी बदल जाते हैं, और इसलिए किसी शब्द के मूल अर्थ को समझने के लिए उनकी व्युत्पत्ति बहुत सहायक होती है ।
उसके पिता, बाबा से जब पहली बार मिला था तो वे बोले थे :
’आप निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर’ मतलब?
वे बहुत देर तक कुछ न बोले । फिर हम इस प्रसंग को भूल गए ।
फिर बातों-बातों में एक दिन उन्होंने पूछा था :
"आपको क्या दुःख है?"
मैंने सुना और उनके प्रश्न पर सोचता रहा ।
किसी ज़माने में मुझे हाज़िर-जवाब कहा जाता था और इससे मुझे आश्चर्य होता था क्योंकि कभी-कभी अपरिपक्व बुद्धि का व्यक्ति भी हाज़िर जवाब होता है । यह तो उसे बहुत बाद में पता चलता है कि हर प्रश्न का उत्तर हो यह ज़रूरी नहीं और उत्तर दिया जाना तो नितांत मूर्खता भी हो सकता है, क्योंकि तब हम प्रश्न के तात्पर्य को समझे बिना ही कोई ऐसा उत्तर दे देते हैं जो सर्वथा अप्रासंगिक और असंबद्ध हो ।
बरसों बीत चुके ।
आज अचानक सोचा कि मुझे क्या दुःख है?
इस प्रश्न को समझने की यात्रा बहुत दुरूह है, लंबी या छोटी नहीं है ।
क्योंकि इसमें जिन दो वस्तुओं का उल्लेख है, उनके बारे में स्पष्टता न हो तो इसका कोई भी उत्तर व्यावहारिक भले ही हो, समस्या के रूप में इस प्रश्न का समाधान नहीं दे पाता ।
उनके प्रथम वाक्य ’आप निष्ठुर हो ।’ और दूसरे प्रश्न "आपको क्या दुःख है?" का मैं ने न तो कोई उत्तर दिया न उस पर उस समय कोई प्रतिक्रिया ही मेरे मन में उठी । कहा जा सकता है कि यह ठीक ही था ।
उनकी पुत्री उन दिनों वहाँ नहीं थी ।
वैसे तो रिश्ते में वह मेरी दूर की कोई परिचित महिला हैं और आत्मीयता होने के बावज़ूद भी न तो उनसे मिलने का कोई ख़याल कभी आया, न उनके बारे में मैं सोचता ही हूँ । शायद उनका कुछ राग / लगाव मुझसे अवश्य है लेकिन वह वैसा ही सांसारिक प्रकार का है जैसा कि अपने परिवार में किसी से होता है । इसे आसक्ति कहना अधिक अच्छा है क्योंकि इस राग में आशा-अपेक्षा, कर्तव्य, स्वार्थ भी हैं जिनसे यह राग कभी कभी क्रोध या शिकायत भी बन जाता है ।
कुछ दिन पहले जब वे अचानक मिलने आ पहुँची, आते ही अधिकार-पूर्वक किचन में चली गईं, किचन का निरीक्षण किया, फिर आकर ड्रॉइंग-रूम में बैठ गईं ।
’तुम्हें पता है विनय कि तुम कितने सुखी हो । पुरुष तो कैसे भी चरित्र का हो विवाह कर या किए बिना भी सुखी रह सकता है, जबकि स्त्री के लिए इधर कुआँ उधर खाईं की स्थिति होती है ।’
’हाँ...’
’तुम्हें जीवन में वह सब प्राप्त हो गया जो तुम चाहते थे लेकिन हम गृहस्थों में, क्या स्त्री, या क्या पुरुष, बहुत कम लोगों को वह सब मिल पाता है जो उसने चाहा होता है । यहाँ तक कि अन्त में बस निराशा, व्यर्थता और मज़बूरी में जीवन की गाड़ी को जैसे-तैसे खींचते रहना ही एकमात्र विकल्प होता है ।’
मैं जानता था कि उसका वैवाहिक और पारिवारिक जीवन भी बहुत संतोषप्रद नहीं रहा, यद्यपि वह और उसका पति उच्च-शिक्षित, संभ्रांत परिवार के हैं और उनके बच्चे भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं ।
’आपको क्या दुःख है?’
बरबस मैंने पूछ लिया ।
’इसीलिए तो तुमसे मिलने आई थी ।’
’जी, बताइये ।’
’अरे! मैं तो आपसे पूछने आई थी कि अब मैं इस सबसे छुटकारा कैसे पाऊँ !’
’सच? सुनेंगीं आप या बस शिकायत ही करेंगीं?’
’नहीं, सुनने के लिए तैयार होकर आई हूँ, वैसे मुझे पता है कि तुम निष्ठुर हो ।’
’निष्ठुर मतलब?’
’निष्ठुर मतलब कठोर हृदय ।’
’बाय द वे, एक बार आपके बाबा ने भी मुझसे यही कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
और मैंने उनसे भी यही पूछा था :
’निष्ठुर मतलब?’
और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किया था :
"आपको क्या दुःख है?"
’आपको पता है कि मैं आपके बाबा को सुनता भर था कभी उनसे तर्क-वितर्क नहीं करता था ।
हाँ उस बारे में चिंतन ज़रूर करता था । क्या कठोर-हृदय होना अपराध है?’
’अपराध तो नहीं, लेकिन आपमें प्रेम की कमी है ।’
शायद इसे किसी दूसरे ढंग से सोचा जाए । जब बाबा ने मुझसे कहा था :
’आप निष्ठुर हो ।’
तो मैंने उनसे इसका मतलब पूछा था और फिर अचानक एक दिन इस पर सोचते सोचते मुझे पता चला कि निष्ठुर वह होता है जिसकी किसी सत्य में पूर्ण निष्ठा होती है, जिसे उसने जिया होता है और ऐसा सत्य आत्यंतिक होता है न कि वैयक्तिक । इसलिए ऐसा मनुष्य लौकिक अर्थ में शायद संसार के दुःखों कष्टों के प्रति उदासीन भी होता हो लेकिन वह न तो उन दुःखों कष्टों को पैदा करता है, न दूसरों के द्वारा स्वकल्पित दुःखों कष्टों को दूर करने में उनकी कोई सहायता कर सकता है । ऐसा मनुष्य क्रूर या दुष्ट तो होता ही नहीं बल्कि उसमें दूसरों के प्रति करुणा अवश्य होती है और वह जानता है कि वे भी उस जैसे ही किसी दिन किसी निष्ठा का आविष्कार स्वयं में कर लेंगे । वैसे भी यह सब कल्पना ही तो है ।
बाबा ने मुझसे ’दुःख क्या है?’ यह प्रश्न पूछा होता तो मैं शायद हज़ारों लाखों दूसरे लोगों की तरह दर्शन-शास्त्र की भूल-भुलैया में उलझा रहता । लेकिन उन्होंने मुझसे बस इतना पूछा :
"आपको क्या दुःख है?"
और मैंने पूरा प्रयास यह समझने में किया कि उनके इस प्रश्न का तात्पर्य क्या है,
’किसे’ दुःख है?’ और ’क्या’ दुःख है?
अर्थात् यह जो सुखी-दुखी होता है वह क्या / कौन है? 'व्यक्ति' कोरा विचार, या कोई ठोस सत्य?
और 'वह' क्या है जिसे ’दुःख’ समझा जाता है?
वह दूर दीवार पर टंगी कोई पेंटिंग देख रही थी । जैसे कोई अंधा कहीं देखता हो ।
बहुत देर तक भाव-विह्वल होकर सुनने के बाद वैसी ही सुस्थिर शांत बैठी रही ।
’तुम्हारे दो ही शब्द मुझे छू गए : स्वकल्पित दुःखों कष्टों ...
और तो क्या कहना है ।'
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Saturday, 21 October 2017

स्वान्तः सुखाय

स्वान्तः सुखाय
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मुझमें एक द्वन्द्व था । लिखना मेरा कर्म है यह तो बचपन से ही लगता था, किंतु स्वाभाविक कर्म होने से यह मेरा धर्म भी है यह कुछ बाद में ठीक ठीक समझ में आया । और फिर आगे जाकर पूरी तरह स्पष्ट हुआ कि यह लिखने की प्रवृत्ति किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नहीं है यद्यपि अनुवाद-कार्य एक अपवाद अवश्य है । साहित्य या शास्त्र जो भी मैंने पढ़े ज्ञान-अर्जन की दृष्टि से नहीं बल्कि इसलिए पढ़े ताकि भाषा-विन्यास और संवाद की सूक्ष्मताओं पर संतोषप्रद पकड़ हो सके ।
इसी क्रम में गीता उपनिषद् और फिर वेद का अध्ययन किया ।
और चूँकि मेरा आग्रह किसी भी ग्रंथ को उसके अनुवाद या व्याख्या के माध्यम से नहीं बल्कि उसके मूल स्वरूप में पढ़ने का रहा इसलिए मैंने बौद्ध-ग्रन्थों का और वेद-पुराण-उपनिषद आदि और तत्संबंधित ग्रंथों को उनके मूल-स्वरूप में अर्थात् संस्कृत या पालि में ही पढ़ा । कौतूहलवश मैंने उनके अंग्रेज़ी अनुवादों और अंग्रेज़ी में लिखी समीक्षाओं को भी किसी हद तक ’सन्दर्भ’ के लिए पढ़ा और बहुत ध्यान से उतनी ही गंभीरता से भी पढ़ा जितनी गंभीरता और रुचि से मैंने संस्कृत या पालि के मूल ग्रंथ पढ़े ।
’सन्दर्भ’ की दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति का साहित्य भी देखा जो मूलतः अंग्रेज़ी में ही है । दूसरे भी कई विख्यात विद्वानों जैसे अरविन्द घोष के साहित्य का थोड़ा बहुत अवलोकन किया ।
मराठी मातृभाषा होने से श्री समर्थ रामदास के ’दासबोध’ का पूरा ’पाठ’ किया और जैसी कि मेरी आदत है, पेंसिल से मार्ज़िन पर कठिन शब्दों की विवेचना भी अंकित की ।
श्री रमण महर्षि की मूल संस्कृत कृतियों का केवल अनेक बार ध्यानपूर्वक अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसका आशय समझने की चेष्टा भी की । उनका हिंदी में अनुवाद भी किया । तमिऴ् मेरे लिए वेद-तुल्य है इसलिए उसे शायद किसी भावी जन्म में सीखूँगा और जैसे वेद में भाषा की अपेक्षा ज्ञान का तत्व प्रमुख है और भाषा गौण तत्व है वैसे ही तमिऴ् भी मेरे लिए भाषा की अपेक्षा ज्ञान के रूप में अधिक महत्वपूर्ण है । इस विषय में पहले भी लिख चुका हूँ इसलिए यहाँ इतना ही ।
वेदों और संस्कृत के मूल ग्रंथों का पाश्चात्य ’विद्वानों’ ने जैसा अनर्थपूर्ण अनुवाद किया है उसके लिए उनका आभार ही व्यक्त किया जा सकता है, या बस उनकी दुर्बुद्धि का, हठधर्मिता और शठधर्मिता का जो प्रमाण उन्होंने दिया, इस पर बस हँसा भर जा सकता है । क्योंकि उनके इस कृत्य के लिए दंड या पुरस्कार देने का अधिकार और दायित्व तो विधाता के ही पास है ।
जब यह स्पष्ट हो गया कि लिखना मेरा कर्तव्य-कर्म है तो यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे लेखन को कौन पढ़ता है यह जानना मेरे लिए महत्वहीन हो गया । यद्यपि कोई पढ़े तो मुझे इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है और न मेरा ऐसा आग्रह है कि कोई पढ़े ही । कोई इस से कितना सहमत हो या असहमत, इससे भी मेरा कोई  लेना-देना नहीं । मेरा अनुवाद-कार्य भी मैं इसी भावना से करता हूँ ।
इसलिए लिखने से एक संतोष तो मिलता ही है जिसे पुरस्कार य प्रसाद भी कह सकते हैं
आप कह सकते हैं, - स्वान्तः सुखाय ।

Good bye Scriptures!

Discovering the Silence within...!
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Scriptures are of no use to any-one. They are obsolete, redundant, outdated. The most important factor is dissatisfaction from the life we live. As long as we don't see the way we live, the bare facts of life that is fear, desire, anger, hope, conflict and confusion, anger, sorrow, relationship, through clear eyes, without defining and verbalizing and go through them without resistance, nothing can happen. 'faith', tradition, security, future, past all these are in thought only and thought gives rise to thought and a false world appears before us, to have existence which 'one' takes separate and distinct from oneself. In fact there is no such a world. But when and if the movement of thought is keenly observed, -not because one has to get rid of thought, but just because there is thought playing its role before us, and we are trying to understand what it is all about, just as we try to understand the mechanism of a new device or instrument, just like we try to play a musical instrument and just listen to the 'notes' and try to grasp their relative higher or lower pitch and positions in the scale, in the tune and then the whole scale is understood. Likewise every single thought could be seen carefully without condemning, glorifying or criticizing. Then perhaps we could detect a silence overpowers us. This is really meditation. But one should have interest.
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Friday, 20 October 2017

मर्म का मरहम

पुरुष या प्रकृति की प्रवृत्ति का तो नहीं पता मुझे स्वयं में  पर ज्ञानना की प्रवृत्ति का प्राकट्य हुआ है
मुझे सिर्फ़ बोधि वृक्ष की कामना है
शायद विद्योत्तमा होने की शुरुआत कालिदास हो कर हो।
अर्धनारीश्वर होने का क्या अर्थ है? एक जिज्ञासा है।
"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"
-इस सूत्र से क्या समझना चाहिए ?
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यह ब्रह्म-सूत्र (ग्रंथ) का प्रथम सूत्र है ।
जब मनुष्य को अपने संपूर्ण अर्जित किए हुए ज्ञान की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन अनुभव हो जाता है तब उसमें यह जिज्ञासा पैदा होती है कि क्या ऐसा ज्ञान भी है जो सीमित, व्यर्थ या अधूरा (खंडित) न हो?
इंद्रिय-ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है इसलिए ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
अनुभव इंद्रियज्ञान है ।
इंद्रियों का ज्ञान इंद्रियों की ग्रहण-क्षमता तक सीमित और अधूरा होता है । आँखों से देखा गया, कानों से सुना गया ज्ञान भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और एक के अनुभव / ज्ञान को दूसरे में ’अनुवादित’ नहीं किया जा सकता । आप ’अनुवाद’ के लिए कोई भाषा ईजाद भी कर लें तो भी वह एक ’प्रोग्राम’ होगा और आप ’कोड्स’ / codes और ’कोडिंग’/ coding ही जानते हैं । दृष्टि के अनुभव को श्रवण के अनुभव में रूपांतरित नहीं किया जा सकता और जैसे तैसे कर भी लिया जाए तो ऐसे असंख्य अनुवाद हो सकते हैं जिनमें से कौन सा पूरी तरह सही है इसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता ।
बुद्धि के द्वारा इंद्रिय-अनुभव का ऐसा ही एक अनुवाद किया जाता है ।
और बुद्धि तर्क-आश्रित होने से असंख्य प्रकार की है ।
फिर बुद्धि की ही भाषा में कोई शाब्दिक-सिद्धान्त गढ़ लिया जाता है और उस सिद्धान्त को ’प्रमाण’ मान लिया जाता है ।
इस प्रकार बुद्धि भी ’परोक्ष’ इन्डायरेक्ट indirect / mediate है ।
’जिसे’ इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य ज्ञान होता है उसका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और उसे ही मनुष्यमात्र ’मैं’ शब्द से व्यक्त करता है । लेकिन यह ’मैं’ जिसका अर्थ है उसे जाननेवाला दूसरा कोई ’मैं’ नहीं है । जैसे इंद्रियों और बुद्धि से जिसे जाना जाता है, उसे जाननेवाला उनसे पृथक् है, वैसे ’मैं’ को जाननेवाला ’मैं’ से पृथक् नहीं है ।
शायद यह आपको कठिन या निरर्थक श्रम लग रहा हो किंतु इस श्रम से गुज़रने पर ही उस ’ज्ञान’ से परिचय होता है जो ’अपरोक्ष’ (immediate / direct) ज्ञान है । जहाँ ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय में विभाजन नहीं है । वही वस्तु ज्ञाता है, ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है ।
अब इसे दूसरे ढंग से देखें ।
जो भी ज्ञात है वह ’जानकारी’ है और जो अज्ञात जान पड़ता है उसे जानते ही वह ’ज्ञात’ के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है ।
इस प्रकार हम बस ’ज्ञात’ से ’ज्ञात’ में ही घूमते रहते हैं और सोचते हैं कि कभी ज्ञात पूर्ण हो सकेगा ।
’पर-ज्ञान’ / ’परम-ज्ञान’ बोधि-वृक्ष मोहक शब्द हैं किंतु जब तक बुद्धि और तर्क की सीमितता, व्यर्थता और अधूरापन हम पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता इन शब्दों का हमें कतई उपयोग नहीं है ।
जब तक  संसार की प्रत्येक वस्तु को ’नित्य-अनित्य’ की कसौटी पर कसते हुए हममें उन सभी वस्तुओं को ’अनित्य’ अनुभव कर उनके प्रति गहरा असंतोष अर्थात् वैराग्य उत्पन्न नहीं हो जाता तब तक हममें उनकी तुलना में ’नित्य’ अर्थात् उन सबके कारणस्वरूप तत्व (ब्रह्म) को जानने की उत्सुकता या कौतूहल तो हो सकता है किंतु गहरी उत्कंठा नहीं होगी ।
शास्त्रों को पढ़ भी लिया तो ज्ञात पर ज्ञात का आवरण चढ़ता रहेगा ब्रह्म को नहीं जाना जा सकेगा ।
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सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने हमारे मन में इतनी नई-नई धारणाएँ पैदा कर हमें इतना भ्रमित कर दिया है कि हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है इस पर से हमारा ध्यान हटाकर जो हमें अनावश्यक और क्षतिकारक है उसके प्रति हमारे मन में कृत्रिम लालसा जगा दी है । हमारा चञ्चल मन बस इधर से उधर दौड़ता रहता है और हम दुःखी रहते हैं ।
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’अर्धनारीश्वर’ की गुण-सूत्रात्मक (जीनेटिक) व्याख्या भी की जा सकती है जो शायद विज्ञान के प्रशंसकों को प्रभावित भी करे, लेकिन वह अर्धनारीश्वर के वास्तविक अर्थ का विरूपण भी होगा ।
’अर्धनारीश्वर’ की वैदिक और पौराणिक व्याख्या अधिक व्यापक अर्थयुक्त होगी किंतु किसे चाहिए?
मर्म का मरहम बना सकना मेरे बस में नहीं,
दर्द का मरहम बना सकता हूँ किसको चाहिए?
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विकल्प

आप से कुछ सीखने की लालसा है
सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
मैंने आपका ब्लॉग पढ़ा
शायद आप स्त्रियों द्वारा वेदाध्ययन को उचित नहीं मानते
किन्तु अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं
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सनातन धर्म को जानने का पहला उपाय क्या है?
इस ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा कि सनातन के साथ धर्म शब्द लगाने का उद्देश्य है यह स्पष्ट करना कि धर्म वह है जो सनातन होता हो ।
शाश्वत, अनित्य, नित्य और सनातन ’काल’ को इन चार रूपों में ग्रहण किया जाता है । ग्रहण करनेवाला पात्र होता है । इसलिए पात्र के गुण-दोष के आधार पर यह सुनिश्चित है कि वह किसी वस्तु (या ज्ञान) को कितना, कैसे ग्रहण और धारण कर सकता है, उसका सही प्रयोग कर दूसरों को प्रदान कर सकता है ।
प्रथमतया पात्र का अर्थ है मनुष्य ।
मनुष्य भी अस्तित्व के मूल कारकों पुरुष और प्रकृति का संयोग है ।
प्रकृति होने का अर्थ है अहंकार को जाने देना ।
पुरुष होने का अर्थ है अहंकार को जान लेना ।
दोनों स्थितियों में मनुष्य आत्मा से अपनी अनन्यता को समझ लेता है ।
शरीर तो बाह्य प्रकृति है, जबकि मन / अन्तःकरण अन्तःप्रकृति है ।
पात्र होने के क्रम में ही वेद के अनुसार चार वर्ण और चार आश्रम मनुष्यमात्र को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ हैं, जिनमें बाह्य-प्रकृति की प्रमुखता से वह स्त्री या पुरुष शरीर धारण करता है ।
इस प्रकार बाह्य लक्षण (स्त्री या पुरुष) होना प्रथमतया इसका सूचक होता है कि उसके लिए जीवन में विकास होने का स्वाभाविक क्रम क्या होगा । इसलिए स्त्री के लिए सेवा ही स्वाभाविक धर्म है क्योंकि प्रकृति सदा देती ही है लेती नहीं कुछ ।
जबकि पुरुष के लिए कर्म / उद्यमशीलता ही स्वाभाविक धर्म है ।
फिर वेदाध्ययन ’कर्म’ है जो पुरुष के लिए तो स्वाभाविक है, स्त्री के लिए कठिन और अस्वाभाविक भी । किसी प्रतिक्रिया के रूप में स्त्री की प्रवृत्ति भले ही कर्म में हो जाए पर वह उसका स्थायी स्वभाव नहीं है । दूसरी ओर ’सृजन’ स्त्री के लिए नितांत स्वाभाविक धर्म है । और उसका गौरव भी है । पुरुष वस्तुतः ’श्रमिक’ है और प्रकृति का दास ।प्रकृति पूर्ण है, पुरुष को पूर्ण होने की कठिन यात्रा करना होती है ।
पुरुषों में ही ब्राह्मण को ही वेदाध्ययन का अधिकार (अर्थात् पात्रता) हो सकती है ।
वेद कोई ग्रंथ नहीं अलिखित सृष्टि-विधान है जिसे ऋषियों ने ’मंत्र-रूप’ में प्राप्त किया अर्थात् आविष्कार किया ।
वेद इसलिए काल के सन्दर्भ में नित्य, शाश्वत और सनातन हैं क्योंकि सृष्टि भी नित्य,  शाश्वत और सनातन है ।
वेदाध्यन ब्राह्मण का न सिर्फ़ अधिकार है बल्कि दायित्व और कर्तव्य भी है ।
इसलिए यज्ञोपवीत संस्कार के बिना मनुष्य द्विज नहीं होता ।
यदि मनुष्य का वर्ण बाधक या विपरीत न हो तो किसी अब्राह्मण को भी संस्कार देकर द्विज बनाया जा सकता है ।
वर्ण को जाति का पर्याय समझ लिया जाता है जबकि जाति एक बाह्य लक्षण है जिसका आधार तो वर्ण ही है ।
बाह्य लक्षण की अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार मनुष्य अपने मूल वर्ण को जान समझकर चार में से किसी एक वर्ण को अपने लिए स्वीकार कर सकता है । उस वर्ण के अनुसार ही जीवन में उसे सार्थक कर्म करने के लिए सहायता और प्रेरणा मिलती है । स्त्री का अपने वर्ण के अनुसार परिवार की सेवा करना ही एकमात्र धर्म है । और उसमें भी पति और उसका परिवार प्रमुख है । वेद इसका आग्रह नहीं करता कि मनुष्य वेद-धर्म को स्वीकार करे ही । तब वह अपनी राह चुनने के लिए उसकी प्रकृति के अनुसार स्वतंत्र (होने के भ्रम में रहे) तो वेद बलपूर्वक उसे धर्म का उपदेश नहीं करता ।
चूँकि वेद ग्रंथ नहीं ’मन्त्र-संहिता’ अर्थात् मंत्रों का संकलन मात्र है और वेद-विहित कर्मकाण्ड का अनुष्ठान सुचारु रूप से संभव हो सके इस दृष्टि से उन्हें ग्रंथ-रूप में लिखित स्वरूप में सुरक्षित कर लिया गया है अतः वेद का अनुवाद तक संभव नहीं । वेद छन्द और मंत्र हैं और तन्त्र (साधन) हैं । वेदों का संबंध प्रकृति के अधिष्ठाता ’देवता’ तत्व से है जिन्हें संतुष्ट किए बिना वैदिक कर्मकाण्ड का अनुष्ठान असंभव है । यह तो हुआ वेद का कर्म-काण्ड से संबंधित पक्ष, किंतु वेद स्वयं भी परम सत्य और परमेश्वर भी होने से परम-ज्ञान और परमेश्वर की प्राप्ति में भी सहायक हैं और इसलिए कर्मकाण्ड और देवता आदि को पूरी तरह नकारकर भी मनुष्य केवल भक्ति से भी वेद के सारतत्व को प्राप्त कर सकता है ।
भक्ति का अर्थ है निष्ठा और निष्ठा की प्राप्ति तप और जिज्ञासा से ही होती है न कि किसी दबाव या भय, प्रलोभन से प्रेरित किए जाने से ।
गीता के अनुसार ऐसी जिज्ञासा भी अपनी रुचि के अनुसार ’ज्ञान’ (सांख्य-निष्ठा) और ’कर्म’ (निष्काम कर्मयोग) के रूप में हर किसी के लिए इन दो रूपों में होती है ।
गीता तो अवर्ण या सवर्ण स्त्री-पुरुष सभी के लिए एकमात्र सर्वश्रेष्ठ ’विकल्प’ के रूप में भक्ति को ही सर्वोपरि मानती है ।
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Thursday, 19 October 2017

Purity of Speech / वाणी की शुद्धि

वाणी-दीप 
The Lamp of Speech 
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वक्तव्यं किमवक्तव्यं कर्तव्यं किमकर्तव्यं ।
श्रोतव्यं किमश्रोतव्यं दृष्ट्वा वाचां परिमार्जयेत् ॥
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vaktavyaṃ kimavaktavyaṃ kartavyaṃ kimakartavyaṃ |
śrotavyaṃ kimaśrotavyaṃ dṛṣṭvā vācāṃ parimārjayet ||
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अर्थ :
क्या कहना शोभनीय है, और क्या नहीं है,
क्या करना शोभनीय है, और क्या नहीं है,
क्या सुनना श्रवणीय है, और क्या नहीं है,
इसे ध्यान से देखकर वाणी को शुद्ध रखे ।
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Meaning :
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What is auspicious to say through voice, what is not,
What is auspicious to act upon, what is not,
What is auspicious to listen to, what is not,
One should see carefully and keep the Speech pure.
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वाकः तु सेतु एकं अन्तःबहिश्चेतनाभ्याम् ।
ततो परिमार्जिता वाचा चित्तशुद्धिमाप्नुयात् ॥
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vākaḥ tu setu ekaṃ antaḥbahiścetanābhyām |
tato parimārjitā vācā cittaśuddhimāpnuyāt ||
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अर्थ :
वाणी अन्तःचेतना और बहिश्चेतना के मध्य एक प्रत्यक्ष पुल है, इसलिए इस पुल को सुदृढ़ और सुव्यवस्थित रखता हुआ चित्तशुद्धि प्राप्त करे ! 
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Meaning :
The Speech as is uttered and heard / listened to is the only bridge between the consciousness of the mind and the consciousness of the world, so one should purify the Speech and gain the purity of mind.
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वागैकं प्रज्ज्वलितं दीपं देहलीद्वारसंस्थितं ।
आलोकितं तेनैव ध्यायेन्मनः अन्तर्बाह्ययोः ॥
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vāgaikaṃ prajjvalitaṃ dīpaṃ dehalīdvārasaṃsthitaṃ |
ālokitaṃ tenaiva dhyāyenmanaḥ antarbāhyayoḥ ||
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अर्थ :
वाणी  देहली-द्वार पर सुस्थित प्रज्ज्वलित दीपक है जिससे भीतर और बाहर दोनों स्थान आलोकित होते हैं ।
इस दीपक के प्रकाश में मनुष्य ध्यानपूर्वक चित्त की स्पष्टता को  प्राप्त करे !
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Meaning :
Speech is the lighted lamp placed at the threshold at the door that illuminates the inside as well as outside also. Taking care of this lamp, one should attain the clarity of mind.
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एक घटनाक्रम / स्वप्न-संकेत

एक घटनाक्रम / स्वप्न-संकेत
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