Tuesday, 31 December 2019

भूत-विद्या का दोहरा सच

दृष्टि-सृष्टि और सृष्टि-दृष्टि
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दो लघु हास्यकथाएँ :
1 . वह बच्चा बहुत खुश था।
पड़ौसी ने पूछा :
"तुम इतने खुश क्यों हो?"
"आज मेरे घर भाई होने वाला है।"
"तुम्हें कैसे पता?"
"पिछली बार मम्मी को पेटदर्द हुआ था तो मम्मी को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था और जब वह हॉस्पिटल से लौटी तो बहन को लेकर आई थी। आज पापा को पेटदर्द हो रहा है।"
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2. "तुम्हारी मम्मी हॉस्पिटल से घर आ गयी?"
"हाँ आ गयी !"
"तो वो किसे लेकर आई? भाई को लेकर, या बहन को लेकर?"
"अभी पता नहीं है, अभी तो उसने कपड़े भी नहीं पहने हैं।  जब उसे पहना दिए जाएँगे तो पहचान लूँगा कि वह भाई है या बहन है !"
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कपड़ों से पहचान बनती है।
सृष्टि का समय कैसे तय करें ?
क्या सृष्टि होने के बाद 'समय' अस्तित्व में आया, या समय के अस्तित्व में आने के बाद सृष्टि हुई ?
किसी हद तक यह सवाल मुर्गी पहले थी या अंडा पहले था जैसा है।
यह फिर भी एक मौलिक प्रश्न है जहाँ से दर्शन-शास्त्र में मत-वैभिन्न्य प्रारम्भ होता है।
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सृष्टि की ही तरह सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठता है।
किन्तु एक बात तय और अत्यंत प्रकट सत्य भी है कि दृष्टि और सृष्टि अन्योन्याश्रित हैं।
एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता।
इसलिए उपरोक्त सत्य को 'युगपत्-सृष्टि' कहा जाता है।
इस 'युगपत्-सृष्टि' के अंतर्गत 'भूत' शब्द का तात्पर्य दो तरीकों से सन्दर्भ के अनुसार स्पष्ट किया जाता है।
एक वह भूत जो संस्कृत 'भू -- भवति' से बना भूत अर्थात् अतीत काल के अर्थ में प्रयुक्त होता है; - और इस प्रकार 'समय' को भूत-काल, वर्तमान-काल तथा भविष्य-काल के रूप में व्यावहारिक सत्य के रूप में समझा और व्यक्त किया जाता है। स्पष्ट है कि ऐसा 'समय' कल्पना के रूप में किसी चेतन-सत्ता / मनुष्य आदि जीवों द्वारा ही कल्पना के अंतर्गत अप्रत्यक्ष सत्य माना जाता है जिसे उस तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा-सुना या अनुभव किया जा सकता है जैसे कि तमाम दूसरी चीजों को इन्द्रियों द्वारा देखा-सुना या अनुभव किया जा सकता है।  इस प्रकार का 'समय' बुद्धिगम्य तो हो सकता है किन्तु इन्द्रियगम्य नहीं हो सकता।
दूसरी और भूत का काल-विशेष से रहित अर्थ है वह तमाम इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष अस्तित्व जिसे वैज्ञानिक तथा गणितीय प्रमाणों से सत्य की तरह ग्रहण किया जाता है। किन्तु फिर एक प्रश्न उठता है कि क्या चेतना इस प्रकार की कोई वस्तु है जो इन्द्रियगम्य अथवा बुद्धिगम्य हो सकती हो?
अपने आप का बोध न तो कोई इन्द्रियगम्य और न कोई बुद्धिगम्य तथ्य है।
अपने आप का बोध मूलतः केवल भान (apperception) है जो बोध (perception) के अभाव में तथा उससे भी पहले से (विद्यमान होता) है।
यह भान वह निःशब्द प्रत्यय (perception) है जो अविकारी (immutable) होता है, जबकि बोध हमेशा केवल इन्द्रियगम्य अथवा बुद्धिगम्य या दोनों का मिला-जुला रूप होता है।
इस बोध-रहित भान (awareness) को भी उस प्रकार से 'भूत' कहा और प्रयुक्त किया जाता है, जैसा कि गीता-उपनिषद् आदि ग्रंथों में दृष्टव्य है।
इस प्रकार 'भूत' तथा भूत-चेतना 'निरुपाधिक' है, जबकि जीव तथा जीव के अर्थ में 'भूत' शब्द का प्रयोग शरीर-विशेष से युक्त ऐसी आधिभौतिक सत्ता के लिए किया जाता है जो 'अपने आप' को संसार / जगत में पैदा हुए व्यक्ति-विशेष (individual entity) की तरह ग्रहण करती है। 
उसके अस्तित्व को स्वीकार किए जाते ही सृष्टि और सृष्टिकर्ता तथा सृष्टि 'होने' के 'समय' को उससे भिन्न एक और स्वतंत्र सत्ता की तरह ईश्वर की तरह स्वीकार करने का प्रश्न पैदा हो जाता है।
ऐसा ईश्वर तथा समय भी न तो इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष और प्रकट सत्य है, न बुद्धिगम्य प्रत्यक्ष और प्रकट अनुभव या निष्कर्ष। किन्तु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि सृष्टि (जैसा कि नित्य स्वप्रमाणित तथ्य है), कोई बेतरतीब, अराजक, अवैज्ञानिक आधार रहित गतिविधि (function) है।
यद्यपि सृष्टि जैसी प्रतीत होती है वह उसका लक्षण है और लक्षण के अर्थ में सतत परिवर्तनशील है, 'जिसे' वह इस प्रकार से 'प्रतीत' होती है, वह 'दृष्टा' स्वयं सतत अविकारी (immutable) और अविनाशी (indestructible, imperishable) होते हुए भी मन, बुद्धि, इन्द्रियों तथा जीवनयुक्त किसी शरीर से संबद्ध होने पर सोपाधिक व्यक्ति-विशेष की तरह 'भूत' कहलाता है।
इस प्रकार जीवित होते हुए या मन, बुद्धि, इन्द्रियों तथा शरीर के नष्ट होने पर भी वह नष्ट नहीं होता।
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Monday, 30 December 2019

आयुर्वेद के सन्दर्भ में भूत विद्या

भूत-विद्या का सच 
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सुश्रुतो न श्रुतो येन वाग्भटो न च वाग्भटः।
नाधीतश्चरको येन स वैद्यो यमकिङ्करः।।
अर्थ :
जिसने सुश्रुत का नाम नहीं सुना, जिसने वाग्भट की वाणी नहीं पढ़ी-सुनी-समझी, जिसने चरक के ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया; - ऐसा वैद्य (चिकित्सक) यमदूत-तुल्य है।
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वाग्भट रचित 'अष्टाङ्ग-हृदय' ग्रन्थ मूलतः 'वृद्धवाग्भटः' नाम से जाना जाता है।
आचार्य श्री वाग्भट ने ही पुनः इसके प्रधान तत्व को 'अष्टाङ्ग-हृदय' में संकलित किया था ।
इसके आठ अङ्ग (अध्याय / विभाग) इस प्रकार हैं :
1 . शल्य,
2  . शालाक्य,
3 . काय-चिकित्सा,
4 . भूत-विद्या,
5 . कौमारभृत्य,
6 . अगद तंत्र,
7 . रसायन तंत्र,
8 . वाजीकरण तन्त्र
- 'अष्टाङ्ग-हृदय'-
प्रथमोऽध्यायः 
रागादिरोगान् सततानुषक्तानशेषकायप्रसृतानशेषान्।
औत्सुक्यमोहारतिदान् जघान योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तु तस्मै।।१
अथात आयुषकामीयाध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।।२
आयुः कामयमानेन धर्मार्थसुखसाधनम्।
आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः।।३
ब्रह्मास्मृत्वायुषोवेदं प्रजापतिमजिग्रहत्।
सोऽश्विनौ तौ सहस्राक्षं सोऽत्रिपुत्रादिकान्मुनीन्।
तेऽग्निवेशादिकान्स्ते तु पृथक्तंत्राणि तेनिरे।।४
तेभ्योऽतिविप्रकीर्णेभ्यः प्रायः सारतरोच्चयः।
क्रियतेऽष्टाङ्गहृदयं नातिसंक्षेपविस्तरम्।।५
कायबालग्रहोर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्राजरावृषान्।
अष्टावङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता।।६
1 . काय (काय-चिकित्सा),
2 . बाल (बाल-तन्त्र),
3 . ग्रह (भूत-विद्या)
4. ऊर्ध्वाङ्ग,
5 .शल्य (शल्य-चिकित्सा),
6 . दंष्ट्रा (अगद-तंत्र),
7 . जरा (रसायन- तंत्र),
8 .वृष (वाजीकरण -तंत्र)
इस प्रकार इन आठ अंगों में चिकित्सा के संस्थित होने से इस ग्रन्थ के ये आठ अंग कहे गए हैं।
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Friday, 27 December 2019

व्यवसायात्मिका बुद्धि (गीता -2/41, 2/44, 10/36, 10/38)

जय पराजय
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[यह पोस्ट पिछले पोस्ट द्युति / द्यूति का sequel / consequent है।]
गीता अध्याय 10 के दो श्लोक याद आते हैं :
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।36
तथा,
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषिताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।38
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'व्यवसाय' क्या है इसे समझने के लिए गीता के ही अध्याय 2 के निम्न दो श्लोक दृष्टव्य हैं :
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।41
तथा,
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४
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द्युति और द्यूति

कुछ हट कर,
..... कहे कबीर अंत की बारी !
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द्युति और द्यूति
'द्यु' का अर्थ होता है 'चमकना',
वह जो एकाएक होता है।
वह कुछ भी हो सकता है इसलिए उसे शक् धातु से व्युत्पन्न शकुन तथा अपशकुन (omen) की तरह भी जाना जाता है। वैसे तो सम्पूर्ण इंटरनेट इसी देवता (केतु) से शासित और संचालित है किन्तु इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल तथा विद्युत्-शक्ति का संयोग (connection) होने से रुद्र ही इसका अधिष्ठाता देवता है।
शकुनि की जो भूमिका महाभारत में थी, वही भूमिका इंटरनेट की आज के युग में है।
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वो जिसे 'सिक्स्थ सेन्स' कहें; -मुझसे कह चुका है कि 2020 में (कम से कम इस ब्लॉग-लेखक के लिए,) इंटरनेट और मोबाइल नहीं होगा। अब मैं काउंट-डाउन मोड में 2020 की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। क्योंकि यह ठीक ठीक किस समय होगा यह पता नहीं चल पा रहा। हाँ 31 दिसंबर तक अवश्य हो जाएगा !
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'द्यु' धातु से बना है द्यूति अर्थात् जुआ।
कबीर कहते हैं :
"अंत में जुआरी हाथ झाड़कर (निराश होकर, -खाली हाथ होकर) चले जाते हैं।" 
लेकिन अंत ठीक ठीक कब होगा इसका अनुमान किसी को नहीं होता।
वैसे तो हर क्षण अतीत समाप्त हो जाता है, किन्तु स्मृति के थ्रेड से पुनः पुनः सृजित कर लिया जाता है।
अतीत, स्मृति और 'पहचान' अन्योन्याश्रित होते हैं।  विचार / कल्पना करें तो होते हैं, लेकिन विचारकर्ता स्वयं भी उनकी तरह पुनः पुनः आता-जाता रहता है। इसलिए ऐसे किसी विचारकर्ता का अस्तित्व आभास मात्र है, न कि यथार्थ वास्तविकता।   
और इसी विचारकर्ता के बारे में यह भी सत्य है की अंत हर किसी के लिए अलग अलग समय पर होना तय है।
एक ही चेतना में विचार और विचारकर्ता का द्वैत सतत अस्तित्व ग्रहण करता और विलीन होता रहता है। 
इसलिए इस संसार में विजय जैसा अंततः कुछ किसी के लिए भी नहीं होता।
न दुर्योधन के लिए, न युधिष्ठिर के लिए।
(और 'हार' जैसा भी क्या हो सकता है?)
इसलिए मेरे जैसे तुच्छ मनुष्य को तो इस बारे में सोचना तक नहीं चाहिए।
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बहरहाल खिलाड़ी अंत तक उत्साह से डटे रहते हैं, और मैं तो शुरू से ही अनाड़ी रहा हूँ।
मेरी एक फेसबुक मित्र का प्रिय गीत याद आता है :
"सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी !"
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Tuesday, 17 December 2019

नख-शल-वाद

आशा बलवती राजन् !
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फ़िलहाल इस सवाल (बवाल) को एक ओर रहने दें कि हिन्दू / हिंदुत्व, इस्लाम, कैथोलिक, ईसाइयत और यहूदी आदि धर्म हैं या नहीं, किन्तु इस सन्दर्भ में देखें कि ये सभी भिन्न-भिन्न मानव-सभ्यताएँ अवश्य हैं।
महाभारत-युद्ध समाप्त होने और युद्ध में कौरवों की पराजय होने के बाद किसी ने किसी को भरोसा दिलाया था :
"आशा बलवती राजन् शल्यो जेष्यति पाण्डवान्"
(शल्य कर्ण के रथ का सारथी था।)
Retrospectively; अतीत के सन्दर्भ-सूत्रों को संभावित क्रम में जोड़ते हुए, 'ऐतिहासिक' दृष्टि के आधार से लिखी गई यह विवेचना यहाँ प्रस्तुत है ।
साथ दिए गए श्री विवेक रंजन जी के लिंक से इस लेख का खंडन / मंडन, पुष्टि / आलोचना / समीक्षा आदि हो सकती है।
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Huntington की पुस्तक "The Clash of Civilizations" का शीर्षक भी आज की स्थिति को इन शब्दों में व्यक्त करता है :
"भविष्य में होनेवाला वैश्विक-युद्ध धर्मों के बीच नहीं सभ्यताओं और संस्कृतियों (cultures) के बीच होगा।"
यह कहना गलत नहीं होगा कि धर्म, सभ्यता और संस्कृति भिन्न भिन्न चीज़ों के पर्याय / द्योतक हैं।
'शल्य' का अर्थ है काँटा / कण्टक, शल और शर समानार्थी हैं। शल संभावना / potential / static है, शर सक्रिय / active / dynamic है।
इस प्रकार शल के वंशज शल्य और शल्य शल का वंशज है।
शल / शलं और शल्य किसी सभ्यता / संस्कृति के संकेतक हैं।
विशेष-रूप से कौरव-संस्कृति और सभ्यता के।
यह आकस्मिक संयोग मात्र नहीं है, कि "यरूशलम" में यह शब्द विद्यमान है।
इरा अर्थात् पृथ्वी / भूमि।
इरा से ईरान, ईराक, तथा इरु तथा यरु की उत्पति संस्कृत-सिद्ध है जिसे यहाँ विस्तार से लिखना अप्रासंगिक और अनावश्यक विस्तार होगा।
शल्य का साम्राज्य सरस्वती और सिंधु नदियों से परे पश्चिम की ओर था। 
यह शलम / शलं जो यरूशलम में दृष्टव्य है हिब्रू भाषा में भी यथावत "शलोम"/ शैलोम की तरह, तो अरबी भाषा में सला / सिला, सुल आदि (संस्कृत व्याकरण के) उणादि रूपांतरों में उपलब्ध है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर नामक नगर में एक ईसाई पादरी हैं  जिनके पुत्र का नाम है : शलज।
शलज (नाथानिएल) से, -जो उस समय 1987 के आसपास, उज्जैन में रहता था मेरा परिचय हुआ था, तो उसने विस्तारपूर्वक अपने इस नाम का सन्दर्भ स्पष्ट करते हुए कहा था :
"शल का अर्थ है शूल, सूली, सलीब, शलाका।  जिसका जन्म सूली से हुआ वह है शलज। "
उसका तात्पर्य और इंगित यह था क़ि (उसकी किताब बाइबिल के अनुसार) शलज अर्थात ईसा मसीह ही अंतिम पैगम्बर है।
इस प्रकार शलं का संबंध यहूदी तथा ईसाई सभ्यता / संस्कृति से है यह समझा जा सकता है।
इसी आधार पर इसलाम / इस्लाम में सल / सलमान / और अरबी उपसर्ग 'म' के संयोग से बना है
'मुसलमान' शब्द; -ऐसा कहा जा सकता है ।
अरबी भाषा में 'सला' का अर्थ है नमाज़ (अदा करना)। 
'नमाज़' शब्द फारसी भाषा का है।
स्पष्ट है कि यही तीनों संस्कृतियाँ / सभ्यताएँ शल्य के वंशज हैं।
यही 'शल्य' चौथी सभ्यता / संस्कृति / विचारधारा के रूप में कार्ल-मार्क्स (Carl Marx) में प्रच्छन्न है।
इसके अलावा इनका पाँचवा स्तम्भ है : जिसे सेक्युलरिज़्म का नाम दिया गया है, - जो वस्तुतः परिभाषित तक नहीं है। इसी 'सेक्युलरिज़म' का बन्धु है अर्बन (अरबन -अरब का सज्ञात / cognate) नक्सलवाद
इस भारत-भूमि पर शल्य के यही पाँच वंशज आज भी पाण्डवों से युद्धरत हैं।
यह रोचक है कि 'नक्सलवाद' किसी संयोग से नख-शल-वाद का वाचक / द्योतक भी है।
'नख' वास्तव में शरीर में वैसे ही पैदा होते हैं जैसे कँटीले वृक्ष पर काँटे।
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कुछ दिनों पहले --
"नाखून क्यों बढ़ते हैं?"
शीर्षक से गंभीर किस्म का कुछ लिखा था, जिसे शायद फिर कभी पोस्ट करूँगा।
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Saturday, 14 December 2019

The Secular.

Secularism 
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The first-ever use of the word 'Secular' is referred to in the history of the Church with a section of the society that had a different and perhaps opposite view about Religion.
This could be from the word 'Sect', however the word could have come from the Sanskrit equivalent शास्त / shAsta, which could have generated the word 'Caste' as well.
Secant is yet another word that means 'one that dissects, cuts into two or more parts.
This is often used as an abbreviation 'Sec' in Trigonometry.
Whatever be the case, we could premise that there are several Sanskrit verb-roots (धातु) of some similar words. Let us first take a glance over them :
शस्त (प्रशस्त, शस्त्र ) from the verb-root 'शस्'
'शक्त' - one having power or strength.
शास्त (शासन, शासित, अनुशासन, शास्त्र),  from the verb-root 'शास्'
which means 'to control', 'to govern', 'to teach'.
'शास्ता' means the one who propounds / lays foundation of शास्त्र / scripture, specifically the sacred and the Holy-one.
शिष्य - from the verb-root 'शिष्'.
शेष - from the verb-root 'शिष्'.
शास् takes the form of 'शिक्ष' and 'शैक्ष' which convey the idea of controlling, regulating, governing and teaching.
The verb-root 'शिष्' again is found in the words शिशु (शिष् - उ) and शिश्नः (शिष् - 'क्त' प्रत्यय); which mean infant child and the sex-organ respectively as well.
We can thus see how the words 'Secular', 'Secularism' and 'Sex' might have come into vogue and in the vernacular.
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The above treatment came to mind while writing in the previous post in this blog, about the possible origin of the 'Anglo-Saxon'.
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Sanskrit : Grammar and Etymology.

संस्कृत : व्याकरण और व्युत्पत्ति
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कल ही इस विषय में लिखा था कि संस्कृत को भाषा कहते ही उसका जन्म कब और कहाँ, कैसे हुआ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। साथ में उद्धृत link में यह प्रश्न / विचार (premise / hypothesis) प्रस्तुत किया गया था कि क्या गणित की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है?
मूलतः उत्पत्ति का यह दृष्टिकोण ही भ्रामक है क्योंकि तब 'कब?' का प्रश्न उपस्थित होता है और काल को 'अतीत' तथा 'भविष्य' की कल्पना की जाती है। विज्ञान इसी 'कब?' को आधार की तरह ग्रहण कर संसार / विश्व / जगत को एक ऐसी सत्ता मान्य कर लेता है जिसकी उत्पत्ति किसी काल में, अतीत में कभी हुई।  इस प्रकार 'अतीत' (past) को आधारभूत सत्ता की तरह स्वीकार कर लिया जाता है। और तब वैज्ञानिक यह कभी नहीं जान सकता कि संसार / विश्व / जगत की उत्पत्ति आज से कितने 'समय' पहले हुई ? उत्पत्ति और सृष्टि को समानार्थी समझना ही मूलतः त्रुटिपूर्ण है। इसलिए (वेद में) सृष्टि को नित्य, शाश्वत तथा सनातन कहा जाता है जबकि उत्पत्ति (manifestation) और प्रलय (dissolution) का 'समय' हमारे द्वारा तय किए गए 'काल' की सीमा में सीमित होता है।
हमारे द्वारा तय किया गया 'काल' हमें हमारी अपनी कल्पना के अनुसार सत्य प्रतीत होता है जबकि ऐसा कोई 'काल' सबके लिए भिन्न-भिन्न होता है जिसकी विषयपरक (objective) सत्ता कल्पनासृजित होती है।
 किसी भाषा का व्याकरण निरंतर गतिशील प्रवृत्ति होता है, इसलिए सतत रूपांतरित होता रहता है।  भाषा की समाप्ति के ही साथ उसका व्याकरण भी समाप्त हो जाता है।
भाषा की उत्पत्ति (न कि 'सृष्टि') के बाद ही उसका व्याकरण (Grammar) तय किया जाता है।  इसलिए व्याकरण (Grammar) एक लचीला (flexible) साधन है।
संस्कृत भाषा का प्राकट्य (उत्पत्ति नहीं 'सृष्टि') गृ (gR) अर्थात् ग् + दीर्घ स्वर 'ऋ' से बने वर्ण से जिसे यहाँ व्यक्त करने में असमर्थ हूँ) अर्थात् उस वर्ण से हुई है जिसका रूप 'वर्तमान काल' एकवचन अन्य पुरुष (present tense, singular) में गृणाति होता है जो 'गिरा' अर्थात् उद्गार / उद्गीर्ण में भी प्रयुक्त होता है।
अंग्रेज़ी भाषा में Grammar इसी गिरा / गिराम् का सज्ञात / cognate है।
इस प्रकार संस्कृत के दो प्रकार होते हैं :
एक वह जो वाणी का विधान है जिससे वाणी के विभिन्न प्रकार (भाषाएँ) उत्पन्न होते हैं और भाषा के साथ जिनकी समाप्ति हो जाती है।
किन्तु संस्कृत का वह प्रकार जो नित्य अविकारी (immutable) विधान है, नित्य और शाश्वत, सनातन और जन्म-मृत्यु से अछूता है जिसकी सृष्टि / लय काल के अंतर्गत नहीं होती।
इस संस्कृत के व्याकरण का उद्घाटन ऋषियों द्वारा सूत्रों में व्यक्त किया जाता है जिनके आधार पर किसी शब्द की व्युत्पत्ति उसके अर्थ के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से 'सिद्ध' की जा सकती है। इसलिए किस शब्द  का अर्थ किस प्रसंग में क्या होगा यह अधिक महत्त्वपूर्ण है और व्याकरण के सूत्रों से प्राप्त नियमों के आधार पर किसी शब्द-विशेष की उत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ भिन्न भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न होता है।
अंग्रेज़ी भाषा का उद्गम चूँकि वाणी के Anglo-Saxon (अंगिरा शैक्षं, अनुगिरा शैक्षं) प्रकार से हुआ, इसलिए अंग्रेज़ी तथा ग्रीक दोनों भाषाएँ शिक्षा की भाषाएँ हुईं।
अङ्गिरा से ही अंग्रेज़ की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है।
अङ्गिरा से ही Angel शब्द बना जो 'फ़रिश्ते' के अर्थ में अब्राहमिक परम्पराओं में प्रयुक्त होता है। 
'फ़रिश्ता' / 'फ़रिश्तः'  फ़ारसी (Persian) भाषा का शब्द है, जो संस्कृत पार्षदः से व्युत्पन्न होता है।
चूँकि संस्कृत भाषा से आए शब्द स्वयं ही उन वर्णों से बने होते हैं जो वाणी के विधान से निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें विभिन्न प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है।
इसलिए भाषा से व्याकरण की उत्पत्ति का सिद्धांत संस्कृत भाषा पर नहीं लागू होता क्योंकि संस्कृत भाषा और व्याकरण से बढ़कर वाणी का विधान है। वाणी नित्य, शाश्वत अचल, अटल सत्य है जो काल-स्थान के अनुसार बदलकर भाषा-विशेष हो जाता है।
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Science, Mathematics and The Immutable.

What is? How, Why and (if) When?
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Vedanta interprets and explains The Truth / The Reality in terms of "What Is."
Science and Mathematics does the same in terms of Mathematics and Science.
"What Is" whether regarded as the subjective truth or the objective, is no doubt immutable.
Where stands the Sanskrit?
Not as a language of communication, but like Mathematics and Science as a medium of communication ?
The link given above may perhaps seem to answer the question.
The basic flaw in the approach is that Sanskrit; in the first place is not "Created'', but is Immutable like "What Is." and unlike Science and Mathematics. Science and Mathematics are always subject to mutation and transformation of the kind.
Living at this place the sounds of Veda often fall on my ears, though unheard by me or given attention. The teacher giving lessons to the students.
While (I was trying to understand How) Veda and Vedanta try to find out and describe the Reality in terms of "What Is", Sanskrit is the Consciousness / चेतना , that plays the role of the Interface, and enables Science (Conscience) and Mathematics so as to express the same ["What Is."] in our human language of Communication.
As Veda and Vedanta deal with the Reality Immutable ["What Is".], Sanskrit is an intermediary between the Science (Conscience) and Mathematics.
Though the Grammar (व्याकरण) of Sanskrit was "digitized" by the ancient-most ऋषि / Sages who had a direct insight into the Truth / (ऋत्) of  all things, -The Reality Supreme abiding ever.
During the years 2008 on-wards, I learned reciting श्री देवी अथर्वशीर्षम् , which comprises of some stanzas from the Rig-Veda.
The text describes How the devata / देवता approached देवी and asked to Her :
"Who / What Is She?"
And She replied :
"अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। ... अहं शून्याशून्ये"
For the sake of the dialogue, -The story assumes a 'past', though what we think 'the past' is, but the realm that comes to mind when we try to understand in terms of Science.
Science tries to seek in terms of "Why"and there-by its investigation and inquiry moves in the direction where 'the past' and 'the time' are at once assumed to exist as if Real.
This Whole 'the past' and 'the subsequent 'future' are enclosed in the bubble of imagination and is always going instant mutations of the kind.
"Conscience" / संशन्स - संशयति from Sanskrit describes the state which is latent as well as potential and that which is yet to manifest.
By inference, we can see how Sanskrit deals with the learning of "What Is".
The word Science is but cognate of शंस, while the word Conscience is that of संशन्स .
This again opens up scope for further investigation, as  (अनु वस् - अनु वसति गति).
"देवी" tells the seeker of Truth that She is Verily "Brahman" and that too which is (supposed to be) other than "Brahman"    
"अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये"
Loosely translated, this means :
"I AM all "What Is". and  I AM (also) all that is not "What Is".
Incidentally, and Interestingly She tells them :
"I am "Brahman" as well as a-Brahman."
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This could be thought of as a direct reference to Abraham.
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"Skanda-PuraNa" and other related Sanskrit texts narrate the incidence of the Sun (as a Celestial Entity) and His wife संज्ञा / sanjnA and describe in a poetical way How being unable to the heat of Him, decided to go away from Him and 'created' Her own shadow (छाया) and told Her to pretending like संज्ञा / sanjnA, look after Him.
The story (You could find in my earlier posts in this blog) narrates how from Sun The River Tapi, The planet Saturn and the सावर्णि मनु (foremost of the humans).
There is enough reason to think that Emmanuel is but cognate सज्ञात  of  मनु इम / मनु इमान्।
As is the evolution of the Arabic (Language) could be seen, and the Abraham tradition born and prospered, All these Sanskrit words found their place in that language, though due to conventions of R to L, the affixes (प्रत्यय) , prefixes (उपसर्ग) and the in-fixes (सामासिक अनुबन्ध) got jumbled up in this new language regime.
आदम / Adam / आत्म , अंगिरा-शैक्षं / Anglo-Saxon, अब्रह्म / Abraham / इब्राहिम are similar developments.
I have also wrote about Zero (0) and how the Mathematics of measurements developed from where the Sage कपिल / Kapila propounded His Principle of Sankhya / सांख्य, which is the foundation and the back-bone of Shrimadbhagvadgita / श्रीमद्भगवद्गीता।
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Thursday, 12 December 2019

धर्म की जय हो !

निरुद्देश्य चिंतन
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24 नवंबर 2019 से इस नए स्थान पर रह रहा हूँ।
भू-तल पर 'गुरुकुल' संचालित होता है, जहाँ बच्चों को वैदिक / सनातन धर्म की प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती है।प्रथम तल पर मैं रहता हूँ जहाँ बाहर 15 x 20 फुट की बालकनी है, बड़ा सा ड्रॉइंग-रूम, दो बेड-रूम और अटैच्ड लैट-बाथ भी हैं।  ऊपर लम्बी चौड़ी छत।  घर के आसपास बहुत बड़े क्षेत्र में दस-बीस मकान और लगभग निर्जन सी सड़कें। दोपहर में गाय-भैंस-बकरियाँ पूरे क्षेत्र में चरती रहती हैं।  आसपास एक किलोमीटर तक कोई छोटी-बड़ी दूकान तक नहीं।  चाय भी पीना हो तो इतनी दूर तक जाना होता है। मेरे पास न तो वाहन है, न कोई अन्य साधन जिससे मैं अधिक दूर तक जा सकूँ।  वैसे भ्रमण के लिए अवश्य ही बहुत अनुकूल स्थान है।
अत्यंत शांतिपूर्ण इस वातावरण में वैसे तो बहुत एकांत है, किन्तु  दिन भर में लगभग डेढ़ घंटे के शिक्षा के पाठ के चार अनुष्ठान प्रतिदिन होते हैं और पूजा-आरती भी होते ही हैं।
शाम के समय जब आरती होती है तो जिस प्रकार प्रायः हिन्दू मंदिरों में होता है;
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में प्रीति हो"
का उद्घोष यहाँ भी जोर-शोर से होता है।
इस उद्घोष में उत्साह का होना प्रशंसनीय है, किन्तु उत्साह कब उग्रता में बदल जाता है इस ओर शायद ही ध्यान जाता हो।
भगवान् श्रीराम की जन्म-भूमि के लिए किया गया आंदोलन वास्तव में धर्म की उस मर्यादा में रहकर किया गया जिसके लिए भगवान् श्रीराम को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा जाता है।
"धर्म" क्या है, यह जानना-समझना तो शायद बुद्धिजीवियों के लिए भी कठिन है, किन्तु "अधर्म" क्या है इसे कम पढ़ा-लिखा या अशिक्षित मनुष्य भी आसानी से जान-समझ सकता है।
"हिंसा" अर्थात् निरीह प्राणियों को अनावश्यक पीड़ा देना "अधर्म" है, -यह अनुभव करना किसी भी संवेदनशील मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, भले ही उसे हिंसा-अहिंसा की परिभाषा विस्तार से न मालूम हो।
"अहिंसा" धर्म है इसे जानना-समझना शायद कठिन हो, किन्तु किसी भी प्रकार की "हिंसा" मूलतः "अधर्म" है इसे हर कोई अनायास ही जान सकता है। और दूसरे पर की जानेवाली "हिंसा" वस्तुतः स्वयं के भीतर भी क्रूरता, उद्वेग और असंवेदनशीलता को न सिर्फ पैदा करती है बल्कि उसे और भी बढ़ाती तथा सशक्त करती है। इस प्रकार "हिंसा" अशुभ तथा मनुष्य के आध्यात्मिक पतन का कारण भी है ही। 
हिंसक प्राणी भी प्रायः उनके शरीर-धर्म तथा स्वभाव के अनुसार ही परस्पर हिंसा करने के लिए बाध्य होते हैं, न कि मनुष्य की तरह किसी ईर्ष्या-द्वेष या आदर्श आदि से प्रेरित होकर। वे पशु-पक्षी भी भूख के निवारण के लिए या आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा करते हैं। केवल मनुष्य ही उन्मादग्रस्त होने से हिंसा को कभी कर्तव्य कहकर तो कभी अहंकार के नशे में डूबा होने से गौरवान्वित करता है।
इसलिए मनुष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि वह अपनी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक होने पर ही हिंसा का मार्ग ले। यदि इस स्वाभाविक और आवश्यक हिंसा को धर्म कहा जाए तो वह हुई धर्म की मर्यादा।
मनुष्य की स्थिति में हिंसा-अहिंसा का वर्गीकरण इसी आधार पर होना चाहिए कि दुर्बल या मंद-बुद्धि के कारण अपराध की प्रवृत्ति रखनेवाले पर भी हिंसा करना प्रथमतः अधर्म होगा। किन्तु दुष्ट प्रवृत्ति के मनुष्य को दंड देना ही समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए धर्म होगा, -न कि अधर्म। इसलिए दुर्बल पर आक्रमण करना या उस पर हिंसा करना "धर्म" नहीं हो सकता। किन्तु कई कारणों से जो इस प्रकार की हिंसा की प्रवृत्ति रखते हैं, वे अपनी इस प्रवृत्ति को धार्मिक-स्वतन्त्रता के अधिकार की आड़ में छिपाकर अन्य मतावलंबियों पर आक्रमण और छल-बल से उन्हें अपने मत में मतांतरित करने का प्रयास करते हैं, वे वस्तुतः अधर्म के ही पोषक होते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि प्राणियों में परस्पर भय व्याप्त होता है,  जो घृणा तथा अविश्वास बन जाता है। और तब उनमें परस्पर प्रीति कैसे हो सकती है? तब वे सहिष्णु कैसे हो सकते हैं? और उन्हें सहिष्णु क्यों होना चाहिए?
इस गुरुकुल में तथा अन्य स्थानों पर भी :
"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, ... !"
के मन्त्रोच्चार के साथ-साथ :
"प्राणियों में प्रीति हो !"
इस मन्त्र का उद्घोष भी किया जाता है।
स्पष्ट है कि जब ऐसे मन्त्रों (उद्घोषों) का उच्चार इतनी उग्रता और आवेग के साथ ऊँचे से ऊँचे स्वरों में गला फाड़कर किया जाता है कि आसपास के रहनेवालों को असुविधा या कष्ट पैदा करता हो, तो वह 'अहिंसा' नहीं हो सकता। 
इसे 'हिंसा' ही कहा जा सकता है।
अब मेरे सामने ये विकल्प हैं :
1. मैं इस बारे में गुरुकुल के व्यवस्थापकों से बातचीत कर उन्हें इस बारे में बतलाऊँ।
शायद उन्हें मेरी बात बुरी न लगे और वे शांतिपूर्वक सुनने को राज़ी हों। और इस बारे में कुछ करें।
2. इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाऊँ।
3. चूँकि मेरे-उनके बीच सीधा-संवाद नहीं है, और मैं नहीं जानता कि कब तक यह क्रम जारी रहेगा, इसलिए मैं तब तक शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करता रहूँ कि शायद कभी ऐसा होगा, और वे स्वयं ही ऊबकर या अन्य कारणों से इस प्रकार की कार्य-संस्कृति में बदलाव लाएँ । यदि मैं उनसे अनुरोध भी करूँ तो भी मैं नहीं कह सकता कि इसे वे किस प्रकार ग्रहण करेंगे। मेरा उनसे न तो कोई विवाद है, न मैं उन्हें कोई उपदेश या सुझाव तक देना चाहूँगा।
किन्तु "न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम्" के अनुसार तो उनसे इस बारे में कुछ न कहना ही शायद अधिक अच्छा होगा। --
जीवन को व्यक्तिगत, सामाजिक या विश्व-दृष्टि से जोड़कर देखें तो जीवन की प्रत्येक समस्या, या कहें तो प्रश्न, एक चुनौती और एक अवसर होता है जो किसी सम्यक् प्रत्युत्तर की अपेक्षा रखता है।  इस प्रकार हर चुनौती एक ऐसा अवसर भी सिद्ध हो सकती है, जिसमें आप अपेक्षित कर्तव्य / दायित्व का निर्वाह कर ऐसा श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जो सबके लिए हितप्रद भी हो।
इस प्रकार वर्तमान स्थिति में हो सकता है कि मैं इस स्थान को छोड़ दूँ, अन्यत्र चला जाऊँ, जो मेरे लिए वैसे अधिक आसान भी है ।
किन्तु इस प्रकार मेरे यहाँ से जाने से क्या यह प्रश्न / समस्या सब के लिए समाप्त हो जाएगी?
हाँ, मेरे लिए अवश्य समाप्त हो जाएगी, किन्तु समाज और राष्ट्र, तथा दूसरे लोगों के लिए समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि मनुष्य सिर्फ जीते रहना ही नहीं, सुखपूर्वक संसार के अनेक भोगों का उपभोग करते हुए हमेशा-हमेशा के लिए जीते रहना चाहता है, और उन सुखों की भोग की मर्यादा का पालन करते हुए शायद यह भी संभव है।
फिर प्रश्न उठता है कि व्यक्तिगत इच्छाओं और परिवार, समाज और व्यवस्थागत सीमाओं के भीतर, उनके बीच ऐसा सामंजस्य और संतुलन बनाए रखना यह कहाँ तक और कितना संभव है?
स्पष्ट है कि हर व्यक्ति की ऐसी अनेक आकांक्षाएँ / इच्छाएँ होती हैं जो दूसरों की इच्छाओं-आकांक्षाओं से टकराती हैं, और यद्यपि कोई अपनी कुछ इच्छाओं की बलि भी दे सकता है, हर कोई ऐसा नहीं कर सकता।  काश यह संभव होता !
फिर भी मनुष्य की सर्वाधिक प्रबल आकांक्षा होती है स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने की।
क्या लोभ और भय हमारी ज़रूरत है? क्या अनावश्यक लोभ और भय से हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन भी अधिक विशृंखल, अस्त-व्यस्त नहीं हो जाता ?
क्या सुखों की प्राप्ति भौतिकता के विकास के साथ- साथ हो सकती है?
क्या व्यक्ति का जीवन ही समाज के जीवन में प्रतिफलित नहीं होता?
जब तक लोभ, भय, महत्वाकाँक्षा आदि हैं, तब तक प्रतिस्पर्धा भी अनेक तलों पर, अनेक प्रकारों तथा अनेक स्तरों पर होती ही रहेगी।  प्रतिस्पर्धा में सफलता, असफलता, आशा, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अवसाद, विषाद, गर्व, अहंकार, क्रूरता, ग्लानि, उद्विग्नता तथा अपराध-बोध, अविश्वास तथा संदेह आदि भी पैदा होंगे ही। क्षणिक उल्लास और उत्तेजनाएँ भी आएँगे और चले जाएँगे, जो सुख भले ही प्रतीत हों शांति की कीमत देकर प्राप्त होंगे।
मनुष्यों के एक वर्ग में किसी आदर्श या मत के आग्रह के आधार पर भले ही आपसी सहमति हो, उनकी दूसरी अनेक आवश्यकताएँ उनके बीच टकराहटें पैदा करेंगी। और तब परस्पर संवाद और भी अधिक मुश्किल हो जाएगा।
यदि संवाद है तो इस सब पर चर्चा की जा सकती है, और यदि संवाद ही अनुपस्थित है, तो चर्चा निरर्थक होगी। इसलिए यदि कोई पूर्वाग्रह-ग्रस्त है, तो बेहतर है कि वह पहले अपने-आप से, -स्वयं से संवाद कर ले, और पहले अपने पूर्वाग्रह से मुक्ति पा ले ।
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दहलीज

Threshold Consciousness.
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"फिर व्यक्ति क्या है?"
इस वाक्य से मेरे पिछले पोस्ट का समापन हुआ था ।
स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक जो अस्तित्व हमारी जागृत अवस्था में प्रकट होता है और निद्रावस्था में जिसके अभाव के भान का निषेध किसी भी तर्क या अनुभव से नहीं किया जा सकता, वही अस्तित्व 'व्यक्ति' है।  इस प्रकार व्यक्ति, अभ्यासों, स्मृतियों, प्रवृत्तियों, संस्कारों, मान्यताओं का एक अत्यंत सुगठित समूह है, जिसकी यह आभासी सत्यता गहरी सुषुप्ति में उस भान / चेतना में लीन हो जाती है, जो कि नितांत निर्वैयक्तिक अधिष्ठान है।
किन्तु इसी स्मृति, अतीत, सातत्य, पहचान और अनुभवकर्ता नामक निरंतरता में व्यक्ति अपने जैसे दूसरे असंख्य मनुष्यों की तरह एक 'मैं' / 'self' होता है। 'मैं' / ego / 'self ' दो नहीं हो सकते और 'मेरा ego / self ' कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण और विसंगतिपूर्ण यहाँ तक कि हास्यास्पद तथा भ्रामक भी है। 'विचार' / व्यक्ति स्वयं ही यह भ्रम है, और स्वयं ही इस भ्रम का शिकार भी होता है ।    
निर्वैयक्तिक भान में ही यह सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिसे व्यक्ति की तरह एक ठोस तथ्य मान लिया जाता है। यह देखना रोचक है कि यद्यपि इस व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और वह भान / चेतना ही वह स्वतंत्र तत्व है जो इसकी तरह न तो बनता-बिगड़ता है न, इसकी तरह जिसका आरम्भ और / या अंत होता है। इस प्रकार यदि व्यक्ति की अपनी (?) सत्ता ही संदिग्ध है, तो दूसरे अन्य सभी व्यक्तियों की तुलना में कोई अच्छा या बुरा, दुष्ट या साधु, श्रेष्ठ या निकृष्ट, तुच्छ या महान्, आदर्श या साधारण कैसे हो सकता है ?
किन्तु समाज के धरातल पर कोई व्यक्ति उम्र, लिंग, बल, धन, अवसरों जैसे किसी आधार पर किसी दूसरे से भिन्न अवश्य हो सकता है।
व्यक्तियों के समूह से ही समाज उभरता है, समाज से संस्कृति और परंपराएँ तथा रूढ़ियाँ, परिपाटियाँ आदि स्थापित होती हैं, तथाकथित विकारशील धर्म / मत / विश्वास स्थापित होते हैं, और समय आने पर न केवल विलुप्त हो जाते हैं बल्कि उनका नमो-निशान तक बाकी नहीं रहता।
किन्तु भान-रूपी अविकारी निर्वैयक्तिक चेतना -काल में, तथा काल-स्थान से अछूती भी, अव्याहत गतिशील रहती है। यही वह दहलीज है, जहाँ व्यक्ति-चेतना अनायास यद्यपि एक औपचारिक सत्यता की तरह स्वीकार्य तो हो सकती है किन्तु इसे स्वीकार अस्वीकार करनेवाला कोई व्यक्ति कहीं नहीं होता।
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Monday, 9 December 2019

स्वतंत्र-अनुभवकर्ता

शारीरिक हो अथवा मानसिक, भावनात्मक हो या स्मृतिगत, वैचारिक हो या विवेचनात्मक, सभी अनुभवों में एक विषयी होता है जिसे विषयानुभव होता है। कोई विषय होता है जिसे अनुभव के रूप में ग्रहण किया जाता है।  विषय हो अथवा शुद्धतः दैहिक या इन्द्रिय-अनुभव, क्या वहाँ / तब उसका कोई ऐसा स्वतंत्र अनुभवकर्ता होता है जो सतत और अखंडित, अबाधित होता हो? क्या ऐसा कोई अनुभवकर्ता (जिसे 'मैं' कहा जाता है) केवल एक सुविधाजनक मान्यता ही नहीं है?
एक रोचक तथ्य यह है कि जब तक कोई अनुभव नितांत शुद्ध होता है तब तक वह समस्या नहीं होता, किन्तु जैसे ही 'अनुभवकर्ता' अपने होने का दावा करता है, उसे बुद्धि में और बुद्धि द्वारा ही एक वास्तविक सत्य की तरह अनायास स्वीकार कर लिया जाता है।  बुद्धि मस्तिष्क की वैसी ही शुद्धतः यांत्रिक व्यवस्था / प्रणाली है, जैसे की शरीर की तमाम दूसरी गतिविधियाँ अनायास होती हैं। केवल तभी, जब विचारकर्ता विचार के माध्यम से अपने अस्तित्व की उद्घोषणा करता है, बुद्धि की स्वाभाविक गतिविधि में व्यवधान पैदा हो जाता है।  फिर इसी व्यवधान को विचारशीलता की तरह मान्य और गौरवान्वित भी किया जाता है। और शायद  इसीलिए यह इतना रोचक है !
अनुभव-मात्र अतीत होता है और अनुभवकर्ता उसकी स्मृति। स्मृति, पहचान और अतीत विचार के ही पर्याय हैं इसलिए एक के अभाव में शेष दोनों नहीं हो सकते। इस प्रकार वर्त्तमान के क्षण में अनुभवकर्ता नामक यह घटना सतत नए और भिन्न रूप में उभरती और विलुप्त होती रहती है किन्तु बुद्धि में इस खंड-खंड सातत्य को एक अखंड सत्ता मान लिया जाता है।
जैसे-जैसे अनुभव मिश्रित और संश्लिष्ट होकर अधिक जटिल हो जाता है, (अपने) अनुभवकर्ता होने की धारणा / मान्यता उतनी ही अधिक दृढ होने लगती है और तब यही अनुभवकर्ता अपने स्वतंत्र अस्तित्व का सत्य प्रतीत होने लगता है। स्मृति, पहचान, विचार और अतीत का कोई सातत्य नहीं होता बल्कि वे ही सातत्य होते हैं जो चेतना को आवरित कर लेते हैं और 'अनुभवकर्ता' 'मैं' की तरह अपने-आपको स्वतंत्र घोषित करता है।चेतना के लुप्त होते ही यह अनुभवकर्ता भी विलुप्त हो जाता है और चेतना के पुनः स्फुरित होते ही घोषित करता है: "मैं अचेत था।"
यदि अनुभवकर्ता अचेत होता तो उसे कैसे पता चल सकता था कि वह अचेत था?
इस प्रकार अनुभवकर्ता के अचेत होने की स्थिति में भी कोई जागृत था; - आधारभूत चेतना जागृत थी जिसमें अनुभव, अनुभवकर्ता और स्मृति परस्पर क्रीडा करते हैं।  ये तीनों एक साथ विलुप्त और एक साथ पुनः प्रकट होते हैं और परस्पर अभिन्न और अनन्य भी हैं।
ये सभी स्मृति से ही हैं, और स्मृतिरूप ही हैं।
स्मृति स्वयं ही सातत्य है जबकि चेतना इस सातत्य, अनुभव, अनुभवकर्ता, अतीत, पहचान आदि से नितांत अस्पर्शित होती है ।
फिर व्यक्ति क्या है?
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Co-incidence

Memory, Thought, Continuity.
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There is a road that begins at the Rest-house on Dewas-Road and goes all the way towards Birla-Hospital. This was my favorite walk during the years 1995-2000.
The colonies that are strewn on the either sides were the places where peace reigned during the evenings and in the early mornings. The quiet on the streets would deepen even more when birds kept watching eastwards, huddle together on the cables, waiting for the Sun-rise.
On that path there was a beautiful acacia. Though laden with thorns it had great life surrounding it. Infested with the ants and even the termites, a part of it covered with the mud that termites have put on it, it looked resplendent in its glory and calm.
For two years or more, I used to pass by it when a day some miscreant and mischievous guy might have thrown a threadlike piece of 'love-vine' (Cassytha filiformis) upon it. Cascading upon the acacia, the vine kept growing and living out a borrowed life of its own.
I noticed it was there, but never knew who might have done this.
In the next two or three years the Tree gradually withered away and almost a skeleton of it remained as if reminding of its past charm and glory.
However the aggressor 'love-vine' flourished and prospered day and night and one day covered up the whole tree. Then came the downfall. When the 'love-vine' had its feed full, and the acacia was dry and dead, it too started shrinking an drying-up.
On an auspicious day the owner of the place decided to remove it and clean up the place.
There was tree no more. Nor the 'love-vine'.
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Thought encroaches upon, infiltrates into the consciousness and soon dominates. Thought survives in terms of memory and memory is not the consciousness, though only a pointer of its preexistence as the foreground. Memory soon becomes a vast and deep trough that holds thought, though is made of the same fiber, that is thought.
Perception is cognition, but thought and memory become precognitive aspect that is thought of as 'recognition'. There is no continuity whatsoever, but the vine keeps spreading on and on, until a day when consciousness has left the body.
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Friday, 6 December 2019

अनुभव और मूल्यांकन

देह-मन के द्वंद्व
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अनुभव के जन्म के बाद उसका मूल्यांकन होता है।
ऐतिहासिक और तथाकथित वैज्ञानिक तर्कपद्धति के आधार पर मनुष्य का क्रमशः विकास हुआ।
इस दृष्टि से मूलतः मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है।
मनुष्य नामक इस सामाजिक मनुष्य का धर्म है सामूहिक जीवन।
इसलिए आदिम हो या आधुनिक, मनुष्य का जीवन समाज से जुड़ा है।
मन के धरातल पर मनुष्य में भाषा(ओं) का विकास हुआ। वर्णों के प्रयोग से वस्तुवाचक शब्दों के अर्थ तय किए गए। इसी प्रकार भाव तथा भावनाओं का भी शब्दीकरण हुआ।
तत्पश्चात् शब्दों को पारस्परिक सन्दर्भ देकर भाषा जन्मी।
भाषा के जन्म के बाद शुद्धतः तकनीकी भाषा अस्तित्व में आई और फिर मनुष्य में 'विचार' का उद्भव हुआ।
वस्तुवाचक शब्दों और भाववाचक शब्दों के अर्थ क्रमशः सुनिश्चित और अनिश्चित होते हैं इसलिए जहाँ वस्तुवाचक शब्दों के प्रयोग में कोई दुविधा नहीं होती वहीं भाववाचक शब्द अर्थ से अर्थ की ओर दौड़ते रहते हैं।  इस प्रकार 'विचार' नामक एक अत्यंत जटिल यंत्र निर्मित हुआ जिसे भाषा के उन शब्दों पर भी प्रयोग किया जाने लगा जिनकी प्रकृति मूलतः अमूर्त प्रकार की है।
आदि-मानव के समय में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" के आधार पर विभिन्न मानव-समूह अस्तित्व में आए जिनमें से कुछ विचार-प्रधान तो कुछ कर्म-प्रधान थे। कुछ इन दोनों को मिले-जुले रूप में प्रयोग करने लगे। प्रवृत्ति और रुचि-वैभिन्न्य से 'विचार' के शासन से कुछ लोग स्वयं को ब्राह्मण वर्ण से, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य एवं शेष शूद्र वर्ग से संबद्ध इस प्रकार चार समूहों में वर्गीकृत किए गए। यह वर्गीकरण केवल गुण-कर्म के विभाग पर आधारित था, न कि माता-पिता के वंश के आधार पर।
गीता में इस सन्दर्भ में खा गया :
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
इसके बाद ही वैदिक आधार पर इन वर्णों की शुद्धता बनाए रखने के लिए विवाह नामक विधान का पालन किया जाने लगा, और यद्यपि इन वर्णों के बीच व्यतिक्रम होना अपेक्षित था इसलिए गणितीय क्रमचय के सिद्धांत  (permutation - combination) को आधार मानकर 4 x 3 अर्थात् 12 उपवर्ण स्वीकार किए गए।
वेद से रहित अन्य मानव-समूहों में इसलिए विवाह नामक अवधारणा शुरू से ही अविद्यमान होने से वे पहले तो बाहु-बल से, फिर शासन-बल से, फिर धन-बल से विवाह के स्वरूप को परंपरा और रूढ़ि के आधार पर स्वीकार करते रहे। स्त्री हो या पुरुष अपने वर्ण में विवाह या अन्य वर्ण में विवाह होने से ये 12 उपवर्ण सुनिश्चित किए गए।  यह वर्ण-व्यवस्था का सामाजिक प्रकार हुआ।
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'विचार' अर्थात् मूल्य, नैतिकता-अनैतिकता, परिपाटी, रूढि, आदि के आधार पर मनुष्य-समाज आज के इस वर्त्तमान स्वरुप तक आया। कहना कठिन है कि वर्णों का ऐतिहासिक अर्थ अब भी प्रासंगिक रह सका है।-----
विभिन्न मानव-समूहों के अस्तित्व में आने के बाद परिवार इस प्रकार दो प्रकार से परिभाषित हुआ।
पुरुषवादी / पुरुष के वर्चस्व का आधार प्रायः सभी सभ्यताओं में हावी रहा।
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वैदिक (सभ्यता) में जिसे वैदिक धर्म या सनातन धर्म भी कहा जाता है धर्म को अर्थ, काम और मोक्ष की तरह का एक पुरुषार्थ (जीव को प्रकृति से प्राप्त प्रकृतिप्रदत्त भूमिका) की तरह परिभाषित किया जाता है इसलिए धर्म वस्तु ही नहीं प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए पशु-धर्म, मनुष्य-धर्म आदि तदनुसार जीव की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इनसे विपरीत या भिन्न प्रकार के आचरण को अधर्म कहा जाता है। धर्म शुभ, अशुभ या मिश्रित हो सकता है।  वैदिक वर्णाश्रम धर्म विभिन्न वर्णों में जन्म लिए मनुष्यो का वह शुभ आचरण है जिसका निर्वाह करने पर उन्हें उनके शुभ फल प्राप्त होते हैं।  चेतना की उन्नति होने पर मनुष्य (और दूसरे प्राणी भी) 'अर्थ' नामक पुरुषार्थ के लिए पात्र होते हैं।  'अर्थ' का आशय है सार्थकता / उद्देश्यपूर्ण आचरण।  इसमें पूर्णता होने पर अर्थात जीवन के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में सफल होने पर, अर्थात् अपनी और परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की रक्षा करने और सुख के साधन उपलब्ध करने पर वंश-वृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति आदि की कामना उत्पन्न होने पर उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक पुरुषार्थ को 'काम' कहा जाता है।  इसे प्राप्त कर लेने पर अंततः मनुष्य के मन में जीवन के वास्तविक प्रयोजन को, अमरत्व या इस संसार से उच्चतर वास्तवविकता को जानने-समझने की उत्सुकता या इस नश्वर, अर्थहीन संसार से मुक्ति की आकांक्षा प्रबल होने लगती है।  उसे संसार के अनित्य और नश्वर भोगों से वैराग्य हो जाता है। तब वह उस उच्चतर सत्य को जानने के लिए यत्न करता है।
इस प्रकार पुरुषार्थ चार प्रकार का होता है। यद्यपि यह क्रम समझने की दृष्टि से उपयोगी है, योग्य मनुष्य सीधे ही 'मोक्ष-प्राप्ति' नामक पुरुषार्थ में संलग्न हो सकता है।
इसी प्रकार मनुष्य-मात्र के जीवन-क्रम को चार 'आश्रमों' में वर्गीकृत किया जाता है। मोटे तौर पर 25 वर्ष की आयु होने तक पुरुष को ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित होना चाहिए। स्त्री के लिए इस प्रकार का विधान नहीं है क्योंकि स्त्री प्रकृति से ही ब्रह्मचर्य का पालन करती है और उसमें काम की वह आक्रामकता नहीं होती जो पुरुष में होती है।  इसलिए इन्द्रिय-संयम के लिए उत्तरदायित्व पुरुष का ही होता है।  यह है स्वाभाविक स्थिति।
25 वर्ष की आयु होने पर पुरुष, और षोडशी होने पर स्त्री विवाह के माध्यम से गृहस्थ-आश्रम में आकर गृहस्थ-धर्म का पालन करते हैं और काम का विधान संतानोत्पत्ति के निमित्त होता है न कि भोग के लिए। फिर भी स्वाभाविक काम की निंदा भी नहीं की जाती और जहाँ एक ओर पातिव्रत-धर्म या एकपत्नी-व्रत की प्रशंसा होती है, वहीँ भिन्न-भिन्न समाजों में एक से अधिक विवाह करने की प्रथा भी चल पड़ी। इस विषय पर यहाँ अधिक कुछ कहना अप्रासंगिक होगा।
इस प्रकार वैदिक (सभ्यता) और धर्म के अनुसार, विवाह वह व्यवस्था है जिसमें विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार संपन्न होकर स्त्री को जीवनसंगिनी या अर्द्धांगिनी की तरह स्वीकार किया जाता है।
समाज से सभ्यता बनती है और सभ्यता के अपने सामाजिक नियम आदि होते हैं।
वैदिक सभ्यता / धर्म में इसीलिए विवाह एक अधिकार ही नहीं कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है, न कि भोगवाद की उच्छृंखल स्वच्छंदता।
जैसे ही विवाह को भोगवाद की दृष्टि से देखा जाता है इस व्यवस्था की तमाम गरिमा समाप्त हो जाती है और न केवल मनुष्य बल्कि उसकी भावी पीढियां भी पतन के गर्त में गिर जाती हैं।
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पर चूँकि मनुष्य विचारशील सामाजिक प्राणी है इसलिए वह अपनी भोगवादिता, प्रगतिशीलता, नैतिकता, अनैतिकता आदि के लिए स्वयं ही कोई पैमाना तय कर लेता है और परिपाटियाँ / रूढियाँ भी उसी आधार पर तय कर ली जाती हैं, उन पर रिलिजन की मुहर लगा दी जाती है और भिन्न भिन्न रिलिजन्स में विवाह के भिन्न-भिन्न नियम पाए जाते हैं। यह चमत्कार है 'धृति' (mindset) का, और 'धृति' धर्म से कितनी समान और कितनी अलग है इसे पिछले किसी पोस्ट में लिखा गया है।
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विवाह के अंतर्गत और विवाहेतर संबंधों के बारे में समाज शायद ही कभी किसी अंतिम और निर्णायक निश्चय पर पहुँच सकता है।
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Thursday, 5 December 2019

मिथ्याचारः -- विषय, चेतना, अनुभव

6 दिसंबर 2019
विषयानुभव 
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ॐ भूः भुवः स्वः
क्रमशः चेतना के विषयीकरण का क्रम है।
'जो है' वह है 'अस्ति' अर्थात् शुद्ध होना मात्र; - जहाँ विषय-विषयी के द्वैत का अभाव है।
ॐ इसी 'अस्ति' की अव्यक्त और व्यक्त समष्टि है।
भूः अर्थात् जो उत्पन्न होता है।
अर्थात्, समष्टि अखंड चेतनारूपी ॐ का प्रथम व्यष्टि-आविर्भाव।
यह व्यष्टि आविर्भाव प्रकट होते ही उसका लोक (भुवः / भुवन / भव) भी वैसे ही व्यक्त हो उठता है जैसे किसी अंकुर के उगते ही उससे दो पत्तियाँ साथ-साथ निकलती हैं। इनमें से एक तो भुवः / भुवन / भव, और दूसरा 'स्व' होता है।
यह हुआ व्यष्टि 'स्व' और उससे संबद्ध उसका जगत। फिर इन दोनों के पारस्परिक संपर्क से अनु-भव अर्थात्  भव-रूपी अगला अनुभव होता है।
किसी भी अनुभव के तीन कारक क्रमशः विषय, विषयी और उनके बीच होने वाला संपर्क होते हैं।
हमें जीवन में जो असंख्य अनुभव प्राप्त होते हैं, उनमें से प्रत्येक इसी का कोई भेद होता है।
उनमें से कुछ सरल-साधारण, तो कुछ अपेक्षतया कठिन, जटिल और मिश्रित भी होते हैं जिन्हें सुलझा पाना हमारी सर्वाधिक बड़ी ज़रूरत होती है और जिनके लिए हम मनोवैज्ञानिकों की शरण तक लेने के बारे में सोचने लगते हैं। जीवन असंख्य खतरों से भरा है और हम किसी कटु और दुःखद अनुभव से इस प्रकार त्रस्त हो सकते हैं कि जीते जी उनसे छूटने का रास्ता और संभावना तक नज़र नहीं आती।
बहुत से अनुभव तो ऐसे होते हैं जिन्हें हम किसी से साझा / शेयर कर सकते हैं लेकिन उपरोक्त मानसिक आघात / traumatic अनुभव एक ऐसी समस्या बन जाते हैं जिनका कोई निदान करना लगभग असंभव होता है। भूख-प्यास, शीत या ऊष्णता लगने जैसे और डर, शर्म आदि के अनुभव भी इसी प्रकार सरलता से एक-दूसरे से  शेयर किए जा सकते हैं।
सभी प्रकार के शारीरिक संवेदन जैसे कि दृष्टि, गंध, स्पर्श, श्रवण, स्वाद आदि के अनुभव इसी श्रेणी में आते हैं।
पाँच कर्मेन्द्रियों के अनुभव गति और स्पर्श से अधिक संबंधित होते हैं किन्तु उन्हें मन से जोड़ते ही वे मनोवैज्ञानिक प्रकार के हो जाते हैं।  शरीर के किसी हिस्से में दर्द होना, थकान या सोकर उठने पर तरो-ताज़ा महसूस करना । ये अनुभव रोमांचक, उत्तेजनापरक या कष्टप्रद भी हो सकते हैं, किन्तु यदि मन उन्हें समस्या न बनाए तो वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। ऐसा ही एक विशिष्ट अनुभव है काम-अनुभव, जो मनुष्यों की स्थिति में प्रायः एक अत्यंत जटिल समस्या बन जाता है, क्योंकि मनुष्य, मन अर्थात् विचारशील होने से जीवन की सरल-स्वाभाविकता को नैतिकता, सामाजिक मूल्यों आदि के कारण वैचारिक मनोवैज्ञानिक स्वरूप दे देता है। भोग, लालसा, भय, दुविधा, ग्लानि, अपराध-बोध, निंदा, दमन तथा मानसिक चिंतन के चलते वह इसे एक ग्रंथि बना लेता है।  समाज या मनोवैज्ञानिकों के पास इसका कोई हल शायद ही हो।
गीता, अध्याय 3 का यह श्लोक ऐसी ही समस्या से ग्रस्त लोगों के बारे में है :
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6
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क्रमशः
   



   

Tuesday, 3 December 2019

Repeat / Re-Discovering The Veda.

परिपथ / परिपाठ
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When I was given the sacred thread (यज्ञोपवीत) on the 16th May 1963, I was instructed to read and recite the वर्ण (syllables of the) mantras, without trying to understand the 'meaning'.
This meant I had to learn the mantras in a way as we learn our mother-tongue.
The meaning from one language to another shifts from a word to another word, thus generating a superficial language though no doubt useful and a necessary requirement for the communication.
While at the same time, when we have to enter the stream of Veda, we need to start afresh without
translating in any way the core of the Veda-text.
Later on, after some 38 years, I rediscovered the spirit while going through :
ऋग्वेद / The Rigveda.
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Though while my journey of learning the core of Veda had been going smoothly during all these years, I never consciously aware of how this happened.
After this new revelation, I realized the significance and importance of 'पाठ'.
I think I can suitably title this post :
"Years of Awakening".
In comparison, a journey through :
"The Years of Fulfillment"
is still going on.
After all Life is such an "Eternal Voyage"!
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(The titles given here above are borrowed from J.Krishnamurti's and Vimala Thakar's works;
- with all due Honor, Respects and Thanks.)
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