भारद्वाज-व्याकरणम्
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यूँ तो प्रथम बार 'Retreat' शब्द से तब अवगत हुआ था जब वाराणसी स्थित J.Krishnamurti से संबद्ध स्थान का नाम सुना था। इससे बहुत पहले 1985 के आसपास Rishi-valley का नाम उनसे संबंधित Discus-books द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनियों "Years of Awakening" "Years of Fulfillment", "An Open Door" आदि में पढ़ने को मिला था।
किन्हीं ज्ञात-अज्ञात कारणों से मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया कि 'Retreat' का अर्थ 'उपरति' है / होना चाहिए; जबकि 'Resort' का अर्थ 'विकल्प' ! इसी प्रकार 'Recluse' का एकांतवासी।
बहुत बाद में जब संस्कृत व्याकरण से परिचय हुआ और उस बारे में अधिक जानकारी (कृत्रिम ज्ञान, शाब्दिक संवेदन / A.I.) प्राप्त हुई, और उसके कुछ वर्षों बाद वाल्मीकि रामायण पढ़ा और फिर ऋग्वेद का पाठ प्रारंभ किया तो पता चला कि यह तो मेरे भीतर अंतर्धारा (undercurrent) की तरह सदा से विद्यमान है।
वाल्मीकि रामायण और ऋग्वेद से मुझे स्पष्ट हुआ कि श्री भारद्वाज के गोत्रोत्पन्न या कुलोत्पन्न कोई महात्मा महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे। चूँकि मैं संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन अनुवाद के माध्यम से नहीं करता इसलिए जिन अंशों को नहीं समझ पाता, उनके बारे में चिंता या उनका चिंतन भी नहीं करता।
अपने उपयुक्त समय पर ही हर ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञान-प्राप्ति का प्रयास कभी कभी अनावश्यक श्रम और व्यर्थ का कष्ट ही हुआ करता है। ज्ञान अधिकारी / पात्र को ही प्राप्त हो सकता है।
व्याकरण के बारे में अध्ययन करते हुए मुझे पता चला, कि ऐतिहासिक आधार पर प्रायः 9 प्रमुख संस्कृत व्याकरण हैं। मुझे तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस भारद्वाज व्याकरण को मैं पता नहीं किस प्रेरणा से संस्कृत का एक प्रमुख व्याकरण समझता था उसका कहीं उल्लेख मुझे देखने को प्राप्त नहीं हुआ।
फिर मुझे अपने ही भीतर ज्ञात हुआ कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार से सिद्ध होता है :
प्रथम प्रकार "व्याकरण क्या है ?" इस प्रश्न के उत्तर की खोज करने से, और दूसरा प्रकार "व्याकरण क्यों है ?"
-इस प्रश्न के उत्तर की खोज से।
व्याकरण क्या है ? इसे व्याकरण के प्राप्त ग्रंथों से समझा जा सकता है। यह भाषा की शुद्धता की कसौटी / पैमाना / प्रमाण आधार है, और भाषा से संबंधित 'नियमों' का संकलन होता है। भाषा दो प्रकार की होती है प्राकृत और उद्भूत। भाषा मूलतः वाणी है और वाणी का उद्भव ही भाषा का मूल आधार है। इसलिए प्राकृत के भिन्न भिन्न विन्यासों से ही संस्कृत से भिन्न दूसरी सभी भाषाएँ उपजीं और विकसित विवर्धित हुईं। वे उस समाज की परिपाटी, रूढ़ि अर्थात् सामूहिक धृति (mindset) के अनुसार तय नियमों, मान्यताओं के अनुसार स्थान स्थान पर भिन्न प्रकार से बनीं। इसलिए इन सभी भाषाओं का व्याकरण निरंतर बदलता रहता है।
जबकि संस्कृत का व्याकरण वाणी का और वर्णों का, आशय तथा प्रयोजन के सन्दर्भ में भाषा का विशिष्ट न्यास है। इस प्रकार न्यास क्रमशः विनियोग, विन्यास, तथा न्यास एवं संन्यास इन चार प्रकारों का हो सकता है। भाषा के संबंध में यही मूल व्याकरण है।
जब से वाणी से उच्चारित होनेवाले वर्णों और शब्दों को लिखा जाने लगा, तब से लिपि अस्तित्व में आई। किन्तु वाणी का उद्गम जिस स्रोत से होता है, लिपि और उच्चारण से पूर्व ही वह तो नित्य, सनातन, शाश्वत, अटल और अविकारी है। इसलिए इसे वेद कहा जाता है जबकि व्याकरण को वेद का उपाङ्ग कहा जाता है।
संस्कृत का मूल व्याकरण वह स्रोत है।
यह इसीलिए हमारी आपकी वाणी का विषय नहीं है, फिर भी इसके प्रयोग से यह समझा जा सकता है कि
"(यह) व्याकरण क्यों है ?"
इसकी सहायता से उपरोक्त शब्दों के मूल तक इस प्रकार जा सकते हैं :
परिसारतः re sort, परि त्रियतः re treat तथा परिश्लिष re cluse !
तीनों शब्द गति या गतिविधि के द्योतक हैं।
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वैसे तो मैं बचपन से ही recluse रहा हूँ किन्तु अपने इस स्वभाव का बोध मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीविका के लिए कुछ करने का विचार मेरे लिए महत्वहीन हो गया। मेरी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मेरे पास इतना पैसा (पायस, पश्य, पण्य) था कि जैसे तैसे जीवन बिता सकूँ। किन्तु हमारी धन / वित्त / मुद्रा केंद्रित / आधारित सभ्यता में यदि आपको जीवन-यापन से अधिक महत्व-पूर्ण कोई कार्य करना हो, तो संसार उसके लिए बिना कोई प्रतिमूल्य लिए कुछ नहीं दे सकता।
हाँ किन्तु वही 'अज्ञात' जो आपको इस कार्य के लिए प्रेरित करता है स्वयं ही इसकी व्यवस्था भी करता है। इसे गुरु, ईश्वर या भाग्य, नियति, प्रारब्ध आदि नाम देने से वह 'ज्ञात' नहीं हो जाता।
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19 मार्च 2016 की रात्रि को वही 'अज्ञात' मुझे उज्जैन से उठाकर नर्मदातट पर स्थित नावघाट-खेड़ी नामक ग्राम ले गया था, और वही 5 अगस्त 2016 को वहाँ से उठाकर देवास ले आया था। (यह किसी हद तक वैसा ही था जैसे हातिम ताई को गरुड़ उसके घर से उठाकर खजूर पर, और फिर कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के नगर में छोड़ गया था !!)
इसी प्रकार 24 नवम्बर 2019 के दिन मुझे उसने पुनः उज्जैन में लाकर रख दिया।
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'Ascetic' (आशयतिक) और 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) यद्यपि समानार्थी प्रतीत होते हैं किन्तु आशयतिक आसपास से असक्त होते हुए भी मौलिक तत्व / आशय से जुड़ा होता है, तो 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) हर ओर से विच्छिन्न होता है।
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इस प्रकार मुझे व्याकरण की वह दृष्टि मिली, जिससे मैं अनेक भाषाओं के मूल को अपने तरीके से समझ सका और मुझे समझ में आया कि किसी भाषा की उत्पत्ति किसी दूसरी भाषा से होने का सिद्धान्त न केवल भ्रामक बल्कि त्रुटिपूर्ण भी है।
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(धृति और धर्म -- अगली पोस्ट)
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यूँ तो प्रथम बार 'Retreat' शब्द से तब अवगत हुआ था जब वाराणसी स्थित J.Krishnamurti से संबद्ध स्थान का नाम सुना था। इससे बहुत पहले 1985 के आसपास Rishi-valley का नाम उनसे संबंधित Discus-books द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनियों "Years of Awakening" "Years of Fulfillment", "An Open Door" आदि में पढ़ने को मिला था।
किन्हीं ज्ञात-अज्ञात कारणों से मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया कि 'Retreat' का अर्थ 'उपरति' है / होना चाहिए; जबकि 'Resort' का अर्थ 'विकल्प' ! इसी प्रकार 'Recluse' का एकांतवासी।
बहुत बाद में जब संस्कृत व्याकरण से परिचय हुआ और उस बारे में अधिक जानकारी (कृत्रिम ज्ञान, शाब्दिक संवेदन / A.I.) प्राप्त हुई, और उसके कुछ वर्षों बाद वाल्मीकि रामायण पढ़ा और फिर ऋग्वेद का पाठ प्रारंभ किया तो पता चला कि यह तो मेरे भीतर अंतर्धारा (undercurrent) की तरह सदा से विद्यमान है।
वाल्मीकि रामायण और ऋग्वेद से मुझे स्पष्ट हुआ कि श्री भारद्वाज के गोत्रोत्पन्न या कुलोत्पन्न कोई महात्मा महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे। चूँकि मैं संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन अनुवाद के माध्यम से नहीं करता इसलिए जिन अंशों को नहीं समझ पाता, उनके बारे में चिंता या उनका चिंतन भी नहीं करता।
अपने उपयुक्त समय पर ही हर ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञान-प्राप्ति का प्रयास कभी कभी अनावश्यक श्रम और व्यर्थ का कष्ट ही हुआ करता है। ज्ञान अधिकारी / पात्र को ही प्राप्त हो सकता है।
व्याकरण के बारे में अध्ययन करते हुए मुझे पता चला, कि ऐतिहासिक आधार पर प्रायः 9 प्रमुख संस्कृत व्याकरण हैं। मुझे तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस भारद्वाज व्याकरण को मैं पता नहीं किस प्रेरणा से संस्कृत का एक प्रमुख व्याकरण समझता था उसका कहीं उल्लेख मुझे देखने को प्राप्त नहीं हुआ।
फिर मुझे अपने ही भीतर ज्ञात हुआ कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार से सिद्ध होता है :
प्रथम प्रकार "व्याकरण क्या है ?" इस प्रश्न के उत्तर की खोज करने से, और दूसरा प्रकार "व्याकरण क्यों है ?"
-इस प्रश्न के उत्तर की खोज से।
व्याकरण क्या है ? इसे व्याकरण के प्राप्त ग्रंथों से समझा जा सकता है। यह भाषा की शुद्धता की कसौटी / पैमाना / प्रमाण आधार है, और भाषा से संबंधित 'नियमों' का संकलन होता है। भाषा दो प्रकार की होती है प्राकृत और उद्भूत। भाषा मूलतः वाणी है और वाणी का उद्भव ही भाषा का मूल आधार है। इसलिए प्राकृत के भिन्न भिन्न विन्यासों से ही संस्कृत से भिन्न दूसरी सभी भाषाएँ उपजीं और विकसित विवर्धित हुईं। वे उस समाज की परिपाटी, रूढ़ि अर्थात् सामूहिक धृति (mindset) के अनुसार तय नियमों, मान्यताओं के अनुसार स्थान स्थान पर भिन्न प्रकार से बनीं। इसलिए इन सभी भाषाओं का व्याकरण निरंतर बदलता रहता है।
जबकि संस्कृत का व्याकरण वाणी का और वर्णों का, आशय तथा प्रयोजन के सन्दर्भ में भाषा का विशिष्ट न्यास है। इस प्रकार न्यास क्रमशः विनियोग, विन्यास, तथा न्यास एवं संन्यास इन चार प्रकारों का हो सकता है। भाषा के संबंध में यही मूल व्याकरण है।
जब से वाणी से उच्चारित होनेवाले वर्णों और शब्दों को लिखा जाने लगा, तब से लिपि अस्तित्व में आई। किन्तु वाणी का उद्गम जिस स्रोत से होता है, लिपि और उच्चारण से पूर्व ही वह तो नित्य, सनातन, शाश्वत, अटल और अविकारी है। इसलिए इसे वेद कहा जाता है जबकि व्याकरण को वेद का उपाङ्ग कहा जाता है।
संस्कृत का मूल व्याकरण वह स्रोत है।
यह इसीलिए हमारी आपकी वाणी का विषय नहीं है, फिर भी इसके प्रयोग से यह समझा जा सकता है कि
"(यह) व्याकरण क्यों है ?"
इसकी सहायता से उपरोक्त शब्दों के मूल तक इस प्रकार जा सकते हैं :
परिसारतः re sort, परि त्रियतः re treat तथा परिश्लिष re cluse !
तीनों शब्द गति या गतिविधि के द्योतक हैं।
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वैसे तो मैं बचपन से ही recluse रहा हूँ किन्तु अपने इस स्वभाव का बोध मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीविका के लिए कुछ करने का विचार मेरे लिए महत्वहीन हो गया। मेरी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मेरे पास इतना पैसा (पायस, पश्य, पण्य) था कि जैसे तैसे जीवन बिता सकूँ। किन्तु हमारी धन / वित्त / मुद्रा केंद्रित / आधारित सभ्यता में यदि आपको जीवन-यापन से अधिक महत्व-पूर्ण कोई कार्य करना हो, तो संसार उसके लिए बिना कोई प्रतिमूल्य लिए कुछ नहीं दे सकता।
हाँ किन्तु वही 'अज्ञात' जो आपको इस कार्य के लिए प्रेरित करता है स्वयं ही इसकी व्यवस्था भी करता है। इसे गुरु, ईश्वर या भाग्य, नियति, प्रारब्ध आदि नाम देने से वह 'ज्ञात' नहीं हो जाता।
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19 मार्च 2016 की रात्रि को वही 'अज्ञात' मुझे उज्जैन से उठाकर नर्मदातट पर स्थित नावघाट-खेड़ी नामक ग्राम ले गया था, और वही 5 अगस्त 2016 को वहाँ से उठाकर देवास ले आया था। (यह किसी हद तक वैसा ही था जैसे हातिम ताई को गरुड़ उसके घर से उठाकर खजूर पर, और फिर कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के नगर में छोड़ गया था !!)
इसी प्रकार 24 नवम्बर 2019 के दिन मुझे उसने पुनः उज्जैन में लाकर रख दिया।
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'Ascetic' (आशयतिक) और 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) यद्यपि समानार्थी प्रतीत होते हैं किन्तु आशयतिक आसपास से असक्त होते हुए भी मौलिक तत्व / आशय से जुड़ा होता है, तो 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) हर ओर से विच्छिन्न होता है।
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इस प्रकार मुझे व्याकरण की वह दृष्टि मिली, जिससे मैं अनेक भाषाओं के मूल को अपने तरीके से समझ सका और मुझे समझ में आया कि किसी भाषा की उत्पत्ति किसी दूसरी भाषा से होने का सिद्धान्त न केवल भ्रामक बल्कि त्रुटिपूर्ण भी है।
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(धृति और धर्म -- अगली पोस्ट)
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