Sunday, 17 November 2019

प्रकृति और पुरुष

प्राकृत पुरुष 
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प्रकृति रूपायन है और पुरुष निरूपण। प्रकृति कार्य है और पुरुष निमित्त। पुरुष कारण तक नहीं है और न कर्ता।
और प्रकृति आभास है। इसलिए न तो कोई कर्ता है, न कार्य, किन्तु आभास की तरह प्रकृति है जिसका अस्तित्व  पुरुष पर अवलम्बित है।
समष्टि के प्रसंग में यह प्रकृति-पुरुष की क्रीड़ा या नृत्य कृत्य की तरह देखें तो किसी कर्ता के होने का प्रश्न पैदा होता है। चूँकि प्रकृति में कर्तृत्व-भावना नहीं है, इसलिए उसे कर्ता नहीं कहा जा सकता।
और पुरुष नित्य अविकारी अकर्ता है।
व्यक्त जगत को दो प्रकार से देखा जाता है।
प्रथम इस व्यक्त संपूर्ण जगत की तरह जिसमें असंख्य व्यक्ति अपना अपना जीवन जीते हुए इस जगत को अपने से पृथक एक स्वतंत्र सत्ता मानते हैं, जिसमें उनका जन्म हुआ और अंततः मृत्यु होगी। हर मनुष्य सोचता है कि उसकी मृत्यु के बाद  जगत बना रहेगा और इसके तमाम क्रिया-कलाप चलते रहेंगे। शायद ही कोई इस कल्पना को असत्य मानता हो। अपनी मृत्यु के बाद भी किसी जगत की सत्ता के प्रति ऐसा विश्वास शायद सिर्फ मनुष्य में ही होता है। पुरातत्व और इतिहास आदि से भी इसी धारणा को बल मिलता है।
दूसरी ओर अपने अभाव में किसी जगत के अस्तित्व की संभावना की न तो तर्क से और न अनुभव से पुष्टि  सकती है। तात्पर्य कि 'मैं' और 'मेरा संसार' परस्पर भिन्न प्रतीत होनेवाली सत्ताओं की तरह एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं। तर्क और अनुभव से भी इसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता।
इस जीव-रूपी पुरुष का वह जगत जिसे वह अपने से भिन्न की तरह  नित्य अनुभव करता है उससे इतना घनिष्ठतः जुड़ा है कि कल्पना में भी मनुष्य उसे छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। फिर भी उसे लगता है कि मृत्यु के बाद (उसकी आत्मा या) वह किसी रूप में रहेगा और जगत यथावत गतिशील रहेगा। जीते-जी शायद ही किसी को इस बारे में सुनिश्चित कुछ पता हो सकता है।
इसलिए इस आत्मा को प्राकृत पुरुष कहा जाता है।
इसी जगत और इस प्राकृत पुरुष के बारे में गीता अध्याय 15 में कहा है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्चमूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2   
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा।।3 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।4
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्जैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।5
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।6
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।7
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इस प्रकार मेरा ही अंश -मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों सहित प्रकृति की ओर खींचा जाता है।
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इसी जीव को पुनः परा-प्रकृति और लोक को अपरा प्रकृति भी कहा है।
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