ये उपनिषत्सु धर्माः ते मयि सन्तु।
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पुरुष और प्रकृति के सन्दर्भ में धरती, धर्म, संस्कृति और पुरुषार्थ के महत्व को समझने के लिए हमें 'पुरुष' और 'प्रकृति' के तात्पर्य पर ध्यान देना होगा।
गीता अध्याय 15 में वर्णन है :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16
लोक में क्षर तथा अक्षर ये दो पुरुष हैं।
समस्त भूत (भू -- भवति जो 'होता' है) तो क्षर (निरंतर परिवर्तनशील, विकारशील, अनित्य रूप तथा नामयुक्त) पुरुष है, जबकि इनमें जो अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
'स्व' से बाह्य समस्त विषय इस प्रकार परिवर्तनशील इसलिए इस अर्थ में बनने-मिटनेवाले पुरुष का प्रकार है, जबकि 'स्व' अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
भूर्भुवः स्वः अर्थात् भू भुवः तथा स्वः ये उसी कूटस्थ पुरुष की क्रमिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
भू अर्थात् पृथ्वी तत्व आधारभूत अभिव्यक्ति है जो भुवः / भुवन का आधार / सहारा / आश्रय है।
भू धातु को 'होने' के अर्थ में प्रयोग किया जाता है।
'होना' पुनः 'है' तथा 'होता है' के रूप में व्यक्त होता है।
'है' अचल अटल काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि 'होता है' काल-स्थान के अंतर्गत तथा काल-स्थान 'होता है' के अंतर्गत है, इस प्रकार ये दोनों सत्य परस्पर सापेक्ष हैं। 'होता है' सतत बदलता रहता है और उसे 'जाननेवाला' सदैव अचल-अटल है।
इस प्रकार यह भुवः / लोक / संसार 'जाने गए' दृश्य और 'जाननेवाले' / दृक् के दो ध्रुवों के बीच गतिशील है।
भू से भुवः और भुवः से स्वः यह वैसा ही क्रम है जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से फल-फूल की उत्पत्ति।शरीर अपना होता है जो लोक का अत्यंत छोटा हिस्सा होते हुए भी उन्हीं तत्वों से बना होता है जिनसे लोक / जगत / बना है।
यह लोक 'जाना जाता' है।
इसे जाननेवाला यद्यपि किसी जीवित शरीर से संबद्ध चेतन सत्ता है किन्तु जिसे 'जाना जाता' है वह स्वयं जड प्रकृति है जो भौतिक विज्ञान के नियमों से अन्धी की तरह बँधी होती है।
इसलिए प्रकृति उन अचल अटल नियमों से संचालित होती है जिन्हें विज्ञान प्रयोग और परीक्षण से पुष्ट कर सिद्धांत की तरह स्थापित करता है।
इस प्रकार समस्त ज्ञात (known) प्रकृति के ही अंतर्गत और उससे सीमित है।
'जाननेवाले' के बारे में क्या ?
'जानना' पुरुष है।
शरीर की दृष्टि से कोई भले ही स्त्री या पुरुष हो, उसके भीतर यह 'जाननेवाला' तत्व अचल अटल स्वरूप का होने से उसे ही गीता में 'पुरुष' कहा गया है, जो किसी विशिष्ट शरीर से जुड़ा होने से शरीर के गुण-धर्मों से बँधा होता है। गुण-धर्म 'प्रकृति' है।
इस प्रकार धर्म प्राणिमात्र को जन्म से ही प्राप्त हुआ होता है।
जाने गए शरीर और लोक के रूप में वह जड-प्रकृति (ज्ञेय) होता है, जबकि 'जाननेवाली सत्ता' की तरह वही 'पुरुष' / ज्ञाता होता है।
यह ज्ञाता जिसे भी जानता है वह ज्ञेय उससे भिन्न होता है, और इसलिए ज्ञाता स्वयं को उस अर्थ में कभी नहीं जान सकता जिस अर्थ में वह भू और भुवः की तरह प्रकृति को 'जानता' है।
यही ज्ञाता वह पुरुष है जिसे 'स्व' कहा जाता है।
हर कोई अनायास ही अपने आपको 'मैं' की तरह जानता है।
इस 'स्व' का उद्भव ही प्रत्येक प्राणी का स्वभाव / स्वाभाविक 'धर्म' है।
जब इस प्रकार स्व अपना लोक से पृथक प्रतीत होनेवाला जीवन जीते हुए सुख दुःख, अनुकूल प्रतिकूल आदि के 'अनुभव' को प्राप्त करता है तो वह 'अनुभवकर्ता' के सातत्य के रूप में स्व की प्रतिमा / परिभाषा गढ़ लेता है। स्पष्ट है कि सुख का अनुभवकर्ता सुखी और दुःख का अनुभवकर्ता एक दूसरे से भिन्न स्वरूप के होते हैं और स्व की स्मृति ही उन सबमें उन्हें एक सूत्र की तरह पिरोती है।
इस प्रकार 'स्व' इस भ्रम से ग्रस्त होता है कि वह कभी सुखी तो कभी दुःखी होता है।
इस भ्रम के फलस्वरूप वह स्थायी सुख की खोज में संलग्न होता है।
किन्तु सुख और दुःख अनुभव के ही भिन्न भिन्न दिखलाई देनेवाले रूप मात्र हैं।
इसलिए स्थायी सुख की कल्पना ही त्रुटिपूर्ण विचार है।
जीवन या स्व का जीवन अनुभव से परे का सत्य है क्योंकि न तो उसे 'ज्ञेय' की तरह जाना जा सकता है, और न अनुभव की तरह जिया जा सकता है।
यह जीवन यद्यपि धर्म, संस्कृति, और पुरुषार्थ / पराक्रम की तरह ज्ञेय अवश्य है।
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पुरुषार्थ का अभिप्राय है कर्म; - जिसके माध्यम से स्व इस संसार में कुछ लक्ष्यों को प्राप्तव्य समझकर उस दिशा में प्रयास करता है। यह कर्म उसके गुण-धर्मों / संस्कारों से प्रेरित होता है।
स्त्री और पुरुष के शरीर की रचना प्रकृति का कार्य है इसलिए किसी भी स्त्री या पुरुष में जन्म से ही विशिष्ट प्रवृत्तियाँ होती हैं और कर्म उनके अनुकूल, प्रतिकूल या स्वतंत्र हो सकता है।
इसलिए जब इस बारे में सावधानी नहीं रखी जाती तो समाज में असंतुलन पैदा होता है।
धर्म इसी असंतुलन को दूर करने का उपाय है।
धर्म किसी पर बलपूर्वक आरोपित नहीं किया जा सकता।
केवल कर्म को ही किसी पर आरोपित किया जा सकता है।
इसलिए अपना धर्म क्या है इसे जानना और समझना हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है।
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पुरुष और प्रकृति के सन्दर्भ में धरती, धर्म, संस्कृति और पुरुषार्थ के महत्व को समझने के लिए हमें 'पुरुष' और 'प्रकृति' के तात्पर्य पर ध्यान देना होगा।
गीता अध्याय 15 में वर्णन है :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16
लोक में क्षर तथा अक्षर ये दो पुरुष हैं।
समस्त भूत (भू -- भवति जो 'होता' है) तो क्षर (निरंतर परिवर्तनशील, विकारशील, अनित्य रूप तथा नामयुक्त) पुरुष है, जबकि इनमें जो अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
'स्व' से बाह्य समस्त विषय इस प्रकार परिवर्तनशील इसलिए इस अर्थ में बनने-मिटनेवाले पुरुष का प्रकार है, जबकि 'स्व' अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
भूर्भुवः स्वः अर्थात् भू भुवः तथा स्वः ये उसी कूटस्थ पुरुष की क्रमिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
भू अर्थात् पृथ्वी तत्व आधारभूत अभिव्यक्ति है जो भुवः / भुवन का आधार / सहारा / आश्रय है।
भू धातु को 'होने' के अर्थ में प्रयोग किया जाता है।
'होना' पुनः 'है' तथा 'होता है' के रूप में व्यक्त होता है।
'है' अचल अटल काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि 'होता है' काल-स्थान के अंतर्गत तथा काल-स्थान 'होता है' के अंतर्गत है, इस प्रकार ये दोनों सत्य परस्पर सापेक्ष हैं। 'होता है' सतत बदलता रहता है और उसे 'जाननेवाला' सदैव अचल-अटल है।
इस प्रकार यह भुवः / लोक / संसार 'जाने गए' दृश्य और 'जाननेवाले' / दृक् के दो ध्रुवों के बीच गतिशील है।
भू से भुवः और भुवः से स्वः यह वैसा ही क्रम है जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से फल-फूल की उत्पत्ति।शरीर अपना होता है जो लोक का अत्यंत छोटा हिस्सा होते हुए भी उन्हीं तत्वों से बना होता है जिनसे लोक / जगत / बना है।
यह लोक 'जाना जाता' है।
इसे जाननेवाला यद्यपि किसी जीवित शरीर से संबद्ध चेतन सत्ता है किन्तु जिसे 'जाना जाता' है वह स्वयं जड प्रकृति है जो भौतिक विज्ञान के नियमों से अन्धी की तरह बँधी होती है।
इसलिए प्रकृति उन अचल अटल नियमों से संचालित होती है जिन्हें विज्ञान प्रयोग और परीक्षण से पुष्ट कर सिद्धांत की तरह स्थापित करता है।
इस प्रकार समस्त ज्ञात (known) प्रकृति के ही अंतर्गत और उससे सीमित है।
'जाननेवाले' के बारे में क्या ?
'जानना' पुरुष है।
शरीर की दृष्टि से कोई भले ही स्त्री या पुरुष हो, उसके भीतर यह 'जाननेवाला' तत्व अचल अटल स्वरूप का होने से उसे ही गीता में 'पुरुष' कहा गया है, जो किसी विशिष्ट शरीर से जुड़ा होने से शरीर के गुण-धर्मों से बँधा होता है। गुण-धर्म 'प्रकृति' है।
इस प्रकार धर्म प्राणिमात्र को जन्म से ही प्राप्त हुआ होता है।
जाने गए शरीर और लोक के रूप में वह जड-प्रकृति (ज्ञेय) होता है, जबकि 'जाननेवाली सत्ता' की तरह वही 'पुरुष' / ज्ञाता होता है।
यह ज्ञाता जिसे भी जानता है वह ज्ञेय उससे भिन्न होता है, और इसलिए ज्ञाता स्वयं को उस अर्थ में कभी नहीं जान सकता जिस अर्थ में वह भू और भुवः की तरह प्रकृति को 'जानता' है।
यही ज्ञाता वह पुरुष है जिसे 'स्व' कहा जाता है।
हर कोई अनायास ही अपने आपको 'मैं' की तरह जानता है।
इस 'स्व' का उद्भव ही प्रत्येक प्राणी का स्वभाव / स्वाभाविक 'धर्म' है।
जब इस प्रकार स्व अपना लोक से पृथक प्रतीत होनेवाला जीवन जीते हुए सुख दुःख, अनुकूल प्रतिकूल आदि के 'अनुभव' को प्राप्त करता है तो वह 'अनुभवकर्ता' के सातत्य के रूप में स्व की प्रतिमा / परिभाषा गढ़ लेता है। स्पष्ट है कि सुख का अनुभवकर्ता सुखी और दुःख का अनुभवकर्ता एक दूसरे से भिन्न स्वरूप के होते हैं और स्व की स्मृति ही उन सबमें उन्हें एक सूत्र की तरह पिरोती है।
इस प्रकार 'स्व' इस भ्रम से ग्रस्त होता है कि वह कभी सुखी तो कभी दुःखी होता है।
इस भ्रम के फलस्वरूप वह स्थायी सुख की खोज में संलग्न होता है।
किन्तु सुख और दुःख अनुभव के ही भिन्न भिन्न दिखलाई देनेवाले रूप मात्र हैं।
इसलिए स्थायी सुख की कल्पना ही त्रुटिपूर्ण विचार है।
जीवन या स्व का जीवन अनुभव से परे का सत्य है क्योंकि न तो उसे 'ज्ञेय' की तरह जाना जा सकता है, और न अनुभव की तरह जिया जा सकता है।
यह जीवन यद्यपि धर्म, संस्कृति, और पुरुषार्थ / पराक्रम की तरह ज्ञेय अवश्य है।
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पुरुषार्थ का अभिप्राय है कर्म; - जिसके माध्यम से स्व इस संसार में कुछ लक्ष्यों को प्राप्तव्य समझकर उस दिशा में प्रयास करता है। यह कर्म उसके गुण-धर्मों / संस्कारों से प्रेरित होता है।
स्त्री और पुरुष के शरीर की रचना प्रकृति का कार्य है इसलिए किसी भी स्त्री या पुरुष में जन्म से ही विशिष्ट प्रवृत्तियाँ होती हैं और कर्म उनके अनुकूल, प्रतिकूल या स्वतंत्र हो सकता है।
इसलिए जब इस बारे में सावधानी नहीं रखी जाती तो समाज में असंतुलन पैदा होता है।
धर्म इसी असंतुलन को दूर करने का उपाय है।
धर्म किसी पर बलपूर्वक आरोपित नहीं किया जा सकता।
केवल कर्म को ही किसी पर आरोपित किया जा सकता है।
इसलिए अपना धर्म क्या है इसे जानना और समझना हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है।
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