Sunday, 3 November 2019

--निर्विषय चिंतन --

गीता अध्याय 6 :
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26
--
यह कुछ दुरूह है।
पहली दृष्टि में ऐसा आभास होता है कि यह बहुत सरल है और इसका तात्पर्य समझ में आ रहा है, किन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि जिसे 'मन' कहा जा रहा है, वह भले ही विचार / वैचारिक मनन, बुद्धि / निश्चयात्मक संकल्प-विकल्प, चित्त / भावप्रवणता, भावात्मकता, भावुकता, भावातिरेक, या भावना हो; या कि वह बस केवल अहं / स्व / ( 'मुझे लग रहा है', 'मैं सोचता हूँ', 'मैं सुखी हूँ' 'मैं चिन्तित हूँ', 'मुझे डर / आशा / आशंका है कि', मुझे अच्छा लग रहा है, आदि वाक्यों में जिसका उल्लेख 'मैं' की तरह किया जाता है,   .. ) हो, सदैव वर्तमान में हो रही गतिविधि होता है।  फिर भले ही वह अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना या अनुमान ही क्यों न हो। 
इस प्रकार मन जब किसी विषय (वस्तु, स्थान, व्यक्ति, समय या घटना इन्द्रियग्राह्य अनुभव) से संबद्ध होता है तब मन को 'विषयी' तथा उस वस्तु, स्थान, व्यक्ति, समय या घटना आदि इन्द्रियग्राह्य अनुभव को मन का 'विषय' कहा जाता है।
फिर मन, जो इधर-उधर भटकता है (निश्चरति से जिसका उल्लेख है), उसे वहाँ-वहाँ से खींचकर पुनः आत्मा / स्व के वश में लाए जाने का अभिप्राय यहाँ क्या हो सकता है?
क्या वास्तव में यह संभव है कि मन इस प्रकार 'विषय-विषयी' में विभाजित होता हो, या इस प्रकार से उसे  विभाजित किया जा सके? क्या ऐसा विभाजन कृत्रिम / सतही नहीं है?
जब भी मन के बारे में कुछ कहा जाता है तो क्या स्वयं मन ही अपने अतीत को स्मरण कर, या भविष्य में स्वयं को प्रक्षेपित कर ऐसा नहीं कहता? क्या उसी कल्पित अतीत या भविष्य के सन्दर्भ में ऐसा नहीं कहा जाता ?
इस नितान्त वर्तमान क्षण में भी कभी-कभी मन की स्थिति के संबंध में कोई वक्तव्य दिया जाता है किन्तु स्पष्ट है कि इस स्थिति में भी मन स्वयं ही स्वयं को दो टुकड़ों में बाँटकर ऐसा करता है, -जिनमें से एक टुकड़ा वह होता है जो उल्लेख करता है और दूसरा वह, जिसका उल्लेख हो रहा होता है।
इसी प्रकार उपरोक्त श्लोक में भी बिलकुल इसी तरह से मन के दोनों रूपों को एक ही साथ मन कहा गया है।
किन्तु इससे कोई विशेष स्पष्टता नहीं होती जो हमें सहायक हो सके।
यदि यहाँ मन को एक अर्थ में मन, और दूसरे अर्थ में उस 'ध्यान' के रूप में ग्रहण किया जाए, जिसके माध्यम से विषयी-मन इन्द्रियों के विभिन्न विषयों में संलग्न होता है, तो उस ध्यान-रूपी मन को विषयों से लौटाकर पुनः पुनः आत्मा / मन के अधिष्ठान पर लाया जाना ही इंगित है ऐसा कहा जा सकता है।
यह हुआ निर्विषय चिंतन।
 --
संबद्ध संबुद्ध नहीं होता,
और संबुद्ध संबद्ध नहीं होता ।
-- 


                 

No comments:

Post a Comment