नियति, प्रारब्ध, काल
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गीता अध्याय 18 में कहा गया है :
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।14
तथा,
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।13
--
[शाङ्करभाष्य से :
साङ्ख्ये -- ज्ञातव्याः पदार्थाः सङ्ख्यायन्ते यस्मिन् शास्त्रे तत् साङ्ख्यं वेदान्तः।
कृतान्ते इति तस्य एव विशेषणं कृतम् इति कर्म उच्यते तस्य अन्तः कृतस्य परिसमाप्तिः यत्र स कृतान्तः कर्मान्तः इति एतत्।
'यावानार्थं उदपाने' 'सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते' इति आत्मज्ञाने सञ्जाते सर्वकर्मणां निवृत्तिं दर्शयति। अतः तस्मिन् आत्मज्ञानार्थे साङ्ख्ये कृतान्ते वेदान्ते प्रोक्तानि कथितानि सिद्धये निष्पत्त्यर्थं सर्वकर्मणाम्।
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यहाँ श्लोक 14 अगले श्लोक 13 की भूमिका होने से पहले उद्धृत किया गया है।
श्लोक 14 में उन पाँच कारणों का उल्लेख है।
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उपर्युक्त श्लोकों में जीवन के प्रवाह के उस आयाम का सीधे कोई उल्लेख नहीं है जिसे 'समय' कहा जाता है।
जिसके बारे में हर कोई बहुत कहता-सुनता तो है लेकिन जिसके वास्तविक स्वरूपसे नितांत अनभिज्ञ होता है। और न सिर्फ सर्व-साधारण मनुष्य, बल्कि बड़े-बड़े विद्वान्, वैज्ञानिक आदि भी उसके यथार्थ के प्रति संशयग्रस्त होते हैं। यूँ कहें कि 'समय' को अवधारणा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में जानना मनुष्य के लिए असंभव सा है। वैसा ही एक आयाम है जिसे कर्म कहा जाता है। दृश्य-श्रव्य रूप में कर्म को घटना के पर्याय की तरह और घटना को 'समय' के पर्याय की तरह परिभाषित / ग्रहण किया जा सकता है।
जीवन में कर्म (और कर्म की प्रेरणा या प्रवृत्ति), (अनुकूल या प्रतिकूल) भोग, त्याग, 'समय' अर्थात् वह जो निरंतर प्रवाहमान है; और दैव (अज्ञात) का एवं इसी के साथ जैव-इकाई (individual), समूह, तथा समष्टि का पारस्परिक व्यवहार है ऐसा कहा जा सकता है।
व्यक्ति-रूप में इकाई / जैव-इकाई (व्यष्टि) की स्थिति में प्रवृत्ति / प्रेरणा से आवश्यकता प्रतीत होती है।
प्रवृत्ति / प्रेरणा भी गुणों का प्रभाव है। गुण पुनः वर्ण के और वर्ण गुण के पर्याय हैं। सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण को संक्षेप में गुण कहा जाता है और ये तीनों पूरी तरह अन्योन्याश्रित हैं।
भौतिक विज्ञान / Physics में इनके लिए क्रमशः प्रकाश (Light), गति (movement) और जडता (inertia) आदि शब्द तुल्य हैं।
वर्ण अर्थात् गुणों का वह विशिष्ट संयोजन जिनसे मनुष्य में आचरण के लिए प्रवृत्ति / प्रेरणा उत्पन्न होती है जो उसमें विशिष्ट प्रकार के कर्म के प्रति रुचि / रुझान पैदा करता है।
किसी भी कर्म का अपेक्षित या अनअपेक्षित, प्रत्याशित या अप्रत्याशित, ज्ञात, अज्ञात या अनुमानित परिणाम तो होता ही है।
कर्म भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है और उसका फल भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है। शुद्धतः भौतिक / सांसारिक / वैज्ञानिक दृष्टि से फल तत्काल भी प्राप्त हो सकता है। कर्म को 'करने' या 'न करने' के संबंध में मनुष्य के मन में दुविधा (conflict) हो सकती है। कर्म के औचित्य / अनौचित्य, उसके त्याज्य, निषिद्ध या अपेक्षित कर्तव्य होने के बारे में प्रायः उसके मन में विशेष विचार नहीं उठता। कल्पना कभी कभी उठती है, और वह आदत के अनुसार कार्य करने लगता है। यह आदत भी उसके अपने वर्ग के सामाजिक संस्कार (जिसके आधार पर विभिन्न समुदायों में नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, प्रशंसा और भर्त्सना का पैमाना तय किया जाता है।) भी उसे कर्म में संलग्न होने या न होने की दुविधा पैदा होने का कारण हो सकता है।
इस पूरे प्रसंग में स्वयं के संबंध में मनुष्य में एक प्रच्छन्न भावना (undercurrent) की तरह मैं-भावना होती है, जिसे "मैं करूँगा, नहीं करूँगा, मैं इस कर्म का कर्ता हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं प्रेम / द्वेष / घृणा करता हूँ," के रूप में सदैव पहचाना जा सकता है। मनुष्य थोड़ा ध्यान दे और धैर्य से इस तथ्य का अन्वेषण करे कि किसी कर्म को पूर्ण करनेवाला साधन / करण क्या है जिसे वास्तव में कर्ता कहा जाए तो उसे स्पष्ट होगा कि हाथ, पैर या अन्य अंग ही किसी शारीरिक कार्य को पूर्ण होने के लिए साधन होते हैं। किन्तु वे उनके स्वतंत्र इच्छा से नहीं बल्कि मन से आदेश (command) प्राप्त होने पर ही कोई कार्य करते हैं। आदेश होने पर वे शरीर को क्षति पहुंचाने का कार्य भी निष्ठापूर्वक संपन्न कर देते हैं। और जो मन आदेश (command) देता है वह स्वयं ऐसे कार्य को करने में सक्षम नहीं होता। वास्तव में मन स्वयं भी एक अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है न कि कोई तथ्यात्मक सत्ता (material body) । 'मैं' की अवधारणा भी इसी प्रकार की दूसरी एक और अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है।
बुद्धि के प्रयोग से इन दोनों अवधारणाओं (notions) को अदल-बदल दिया जाता है इसलिए कभी मनुष्य कहता है :
"मैं दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत हूँ,
तो कभी वह कहता है :
"मन दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत है।"
इस प्रकार एक ही अमूर्त सत्ता (abstract entity) को कभी तो मन और कभी 'मैं' कहा जाता है।
इसी प्रकार कभी कोई मन को पागल या स्वस्थ कहता है तो कभी 'मैं' को अर्थात् स्वयं को ऐसा कहने लगता है।
(दिल तो पागल है !)
इस प्रकार मन और 'मैं' के बीच एक काल्पनिक और कृत्रिम विभाजन पैदा हुआ प्रतीत होता है जिस पर मनुष्य का ध्यान तक जाता। इस प्रकार की लापरवाही को प्रमाद / अनवधानता कहा जाता है।
अंग्रेजी के शब्द 'ignorance' का संबंध ऐसे ही एक अन्य शब्द 'ignore' से है।
'ignorance' स्वाभाविक (इसलिए अनैच्छिक / involuntary भी) स्थिति है, जबकि 'ignore' करना स्वैच्छिक (deliberate) भी हो सकता है।
जब एक बार यह विभाजन आदत का हिस्सा बन जाता है तो मनुष्य कितना भी सोच-विचार करता रहे दुविधा से छूट नहीं पाता ।
इस विभाजन के साथ किए जानेवाले / होनेवाले समस्त कर्म की आधार-भूमि 'कर्ता-मैं' की यही अपरीक्षित अवधारणा होती है। अगले श्लोकों को इसी क्रम /तारतम्य में रखा जा सकता है :
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।15
तथा,
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।16
इसे ही गीता के अध्याय 3 में इस प्रकार कहा गया है :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27
तथा,
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28
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इस प्रकार कर्म -(कर्मफल) भोग और त्याग की शृङ्खला या चक्र सतत गतिशील जीवन है, जो इकाई (व्यष्टि) तथा समूह, और समष्टि तक वह है जिसे 'संसार' कहा जाता है।
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आधुनिकतम विज्ञान का एक विरोधाभास और विडम्बना यह है कि वह 'समय' नामक जिस वस्तु का 'अध्ययन' करने का दावा तथा दम्भ करता है 'समय' नामक वह वस्तु स्वरूपतः गतिशील है या गतिरहित इस बारे में भी उसने कभी ध्यान नहीं दिया। इस प्रश्न / तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया गया कि 'समय' न सिर्फ गतिशील बल्कि स्थिर प्रकृति का और परिवर्तनशील प्रकृति का भी हो सकता है। इसे ही भारतीय दर्शन में ऋषियों ने अचल-अटल, शाश्वत, नित्य-अनित्य (पुनरावृत्तिपरक) तथा भौतिक घटनाओं के पैमाने पर मापनीय भौतिक राशि कहा है।
यही 'समय' स्वयं साङ्ख्य के अंतर्गत 'दैव' के अर्थ में गतिशील (अनिश्चित) तथा स्थिर (सुनिश्चित) इन दो प्रकारों में रूपायित किया गया है।
रूपायन और निरूपण इन दो विधाओं से साङ्ख्य क्रमशः व्यक्त जगत (phenomenal manifest world) का तथा उसके आधारभूत (substratum) कारण / कर्ता --अव्यक्त जगत (potential) का वर्णन करता है।
इसी प्रकार 'समय' को रूपायित (designed) और निरूपित (described) किया गया है।
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next part of this post
इस पोस्ट का अगला अंश
"प्राकृत और पुरुष......"
में प्रस्तुत होगा।
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गीता अध्याय 18 में कहा गया है :
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।14
तथा,
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।13
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[शाङ्करभाष्य से :
साङ्ख्ये -- ज्ञातव्याः पदार्थाः सङ्ख्यायन्ते यस्मिन् शास्त्रे तत् साङ्ख्यं वेदान्तः।
कृतान्ते इति तस्य एव विशेषणं कृतम् इति कर्म उच्यते तस्य अन्तः कृतस्य परिसमाप्तिः यत्र स कृतान्तः कर्मान्तः इति एतत्।
'यावानार्थं उदपाने' 'सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते' इति आत्मज्ञाने सञ्जाते सर्वकर्मणां निवृत्तिं दर्शयति। अतः तस्मिन् आत्मज्ञानार्थे साङ्ख्ये कृतान्ते वेदान्ते प्रोक्तानि कथितानि सिद्धये निष्पत्त्यर्थं सर्वकर्मणाम्।
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यहाँ श्लोक 14 अगले श्लोक 13 की भूमिका होने से पहले उद्धृत किया गया है।
श्लोक 14 में उन पाँच कारणों का उल्लेख है।
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उपर्युक्त श्लोकों में जीवन के प्रवाह के उस आयाम का सीधे कोई उल्लेख नहीं है जिसे 'समय' कहा जाता है।
जिसके बारे में हर कोई बहुत कहता-सुनता तो है लेकिन जिसके वास्तविक स्वरूपसे नितांत अनभिज्ञ होता है। और न सिर्फ सर्व-साधारण मनुष्य, बल्कि बड़े-बड़े विद्वान्, वैज्ञानिक आदि भी उसके यथार्थ के प्रति संशयग्रस्त होते हैं। यूँ कहें कि 'समय' को अवधारणा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में जानना मनुष्य के लिए असंभव सा है। वैसा ही एक आयाम है जिसे कर्म कहा जाता है। दृश्य-श्रव्य रूप में कर्म को घटना के पर्याय की तरह और घटना को 'समय' के पर्याय की तरह परिभाषित / ग्रहण किया जा सकता है।
जीवन में कर्म (और कर्म की प्रेरणा या प्रवृत्ति), (अनुकूल या प्रतिकूल) भोग, त्याग, 'समय' अर्थात् वह जो निरंतर प्रवाहमान है; और दैव (अज्ञात) का एवं इसी के साथ जैव-इकाई (individual), समूह, तथा समष्टि का पारस्परिक व्यवहार है ऐसा कहा जा सकता है।
व्यक्ति-रूप में इकाई / जैव-इकाई (व्यष्टि) की स्थिति में प्रवृत्ति / प्रेरणा से आवश्यकता प्रतीत होती है।
प्रवृत्ति / प्रेरणा भी गुणों का प्रभाव है। गुण पुनः वर्ण के और वर्ण गुण के पर्याय हैं। सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण को संक्षेप में गुण कहा जाता है और ये तीनों पूरी तरह अन्योन्याश्रित हैं।
भौतिक विज्ञान / Physics में इनके लिए क्रमशः प्रकाश (Light), गति (movement) और जडता (inertia) आदि शब्द तुल्य हैं।
वर्ण अर्थात् गुणों का वह विशिष्ट संयोजन जिनसे मनुष्य में आचरण के लिए प्रवृत्ति / प्रेरणा उत्पन्न होती है जो उसमें विशिष्ट प्रकार के कर्म के प्रति रुचि / रुझान पैदा करता है।
किसी भी कर्म का अपेक्षित या अनअपेक्षित, प्रत्याशित या अप्रत्याशित, ज्ञात, अज्ञात या अनुमानित परिणाम तो होता ही है।
कर्म भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है और उसका फल भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है। शुद्धतः भौतिक / सांसारिक / वैज्ञानिक दृष्टि से फल तत्काल भी प्राप्त हो सकता है। कर्म को 'करने' या 'न करने' के संबंध में मनुष्य के मन में दुविधा (conflict) हो सकती है। कर्म के औचित्य / अनौचित्य, उसके त्याज्य, निषिद्ध या अपेक्षित कर्तव्य होने के बारे में प्रायः उसके मन में विशेष विचार नहीं उठता। कल्पना कभी कभी उठती है, और वह आदत के अनुसार कार्य करने लगता है। यह आदत भी उसके अपने वर्ग के सामाजिक संस्कार (जिसके आधार पर विभिन्न समुदायों में नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, प्रशंसा और भर्त्सना का पैमाना तय किया जाता है।) भी उसे कर्म में संलग्न होने या न होने की दुविधा पैदा होने का कारण हो सकता है।
इस पूरे प्रसंग में स्वयं के संबंध में मनुष्य में एक प्रच्छन्न भावना (undercurrent) की तरह मैं-भावना होती है, जिसे "मैं करूँगा, नहीं करूँगा, मैं इस कर्म का कर्ता हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं प्रेम / द्वेष / घृणा करता हूँ," के रूप में सदैव पहचाना जा सकता है। मनुष्य थोड़ा ध्यान दे और धैर्य से इस तथ्य का अन्वेषण करे कि किसी कर्म को पूर्ण करनेवाला साधन / करण क्या है जिसे वास्तव में कर्ता कहा जाए तो उसे स्पष्ट होगा कि हाथ, पैर या अन्य अंग ही किसी शारीरिक कार्य को पूर्ण होने के लिए साधन होते हैं। किन्तु वे उनके स्वतंत्र इच्छा से नहीं बल्कि मन से आदेश (command) प्राप्त होने पर ही कोई कार्य करते हैं। आदेश होने पर वे शरीर को क्षति पहुंचाने का कार्य भी निष्ठापूर्वक संपन्न कर देते हैं। और जो मन आदेश (command) देता है वह स्वयं ऐसे कार्य को करने में सक्षम नहीं होता। वास्तव में मन स्वयं भी एक अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है न कि कोई तथ्यात्मक सत्ता (material body) । 'मैं' की अवधारणा भी इसी प्रकार की दूसरी एक और अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है।
बुद्धि के प्रयोग से इन दोनों अवधारणाओं (notions) को अदल-बदल दिया जाता है इसलिए कभी मनुष्य कहता है :
"मैं दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत हूँ,
तो कभी वह कहता है :
"मन दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत है।"
इस प्रकार एक ही अमूर्त सत्ता (abstract entity) को कभी तो मन और कभी 'मैं' कहा जाता है।
इसी प्रकार कभी कोई मन को पागल या स्वस्थ कहता है तो कभी 'मैं' को अर्थात् स्वयं को ऐसा कहने लगता है।
(दिल तो पागल है !)
इस प्रकार मन और 'मैं' के बीच एक काल्पनिक और कृत्रिम विभाजन पैदा हुआ प्रतीत होता है जिस पर मनुष्य का ध्यान तक जाता। इस प्रकार की लापरवाही को प्रमाद / अनवधानता कहा जाता है।
अंग्रेजी के शब्द 'ignorance' का संबंध ऐसे ही एक अन्य शब्द 'ignore' से है।
'ignorance' स्वाभाविक (इसलिए अनैच्छिक / involuntary भी) स्थिति है, जबकि 'ignore' करना स्वैच्छिक (deliberate) भी हो सकता है।
जब एक बार यह विभाजन आदत का हिस्सा बन जाता है तो मनुष्य कितना भी सोच-विचार करता रहे दुविधा से छूट नहीं पाता ।
इस विभाजन के साथ किए जानेवाले / होनेवाले समस्त कर्म की आधार-भूमि 'कर्ता-मैं' की यही अपरीक्षित अवधारणा होती है। अगले श्लोकों को इसी क्रम /तारतम्य में रखा जा सकता है :
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।15
तथा,
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।16
इसे ही गीता के अध्याय 3 में इस प्रकार कहा गया है :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27
तथा,
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28
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इस प्रकार कर्म -(कर्मफल) भोग और त्याग की शृङ्खला या चक्र सतत गतिशील जीवन है, जो इकाई (व्यष्टि) तथा समूह, और समष्टि तक वह है जिसे 'संसार' कहा जाता है।
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आधुनिकतम विज्ञान का एक विरोधाभास और विडम्बना यह है कि वह 'समय' नामक जिस वस्तु का 'अध्ययन' करने का दावा तथा दम्भ करता है 'समय' नामक वह वस्तु स्वरूपतः गतिशील है या गतिरहित इस बारे में भी उसने कभी ध्यान नहीं दिया। इस प्रश्न / तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया गया कि 'समय' न सिर्फ गतिशील बल्कि स्थिर प्रकृति का और परिवर्तनशील प्रकृति का भी हो सकता है। इसे ही भारतीय दर्शन में ऋषियों ने अचल-अटल, शाश्वत, नित्य-अनित्य (पुनरावृत्तिपरक) तथा भौतिक घटनाओं के पैमाने पर मापनीय भौतिक राशि कहा है।
यही 'समय' स्वयं साङ्ख्य के अंतर्गत 'दैव' के अर्थ में गतिशील (अनिश्चित) तथा स्थिर (सुनिश्चित) इन दो प्रकारों में रूपायित किया गया है।
रूपायन और निरूपण इन दो विधाओं से साङ्ख्य क्रमशः व्यक्त जगत (phenomenal manifest world) का तथा उसके आधारभूत (substratum) कारण / कर्ता --अव्यक्त जगत (potential) का वर्णन करता है।
इसी प्रकार 'समय' को रूपायित (designed) और निरूपित (described) किया गया है।
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"प्राकृत और पुरुष......"
में प्रस्तुत होगा।
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