सनत्, सनन्दन, सुजात और सनत्कुमार
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जैसे सरिता का तत्व पानी (पानीयम्) है, उसी तरह भाषा का तत्व वाणी तथा मानी (मानीयम्) अर्थात् तात्पर्य या आशय है। भगवान् ब्रह्मदेव जब सृष्टि करते हैं तो काल और स्थान की रचना युगपत् होती है। काल के अभाव में स्थान नहीं हो सकता और न ही स्थान के अभाव में काल का अस्तित्व हो सकता है। काल-स्थान की इस युति को 'लोक' कहा जाता है। यह 'लोक' जिसे कि लोक (दुनिया) में संसार कहा जाता है सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी चेतन सत्ता के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है। और चेतन सत्ता सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी भौतिक और जीवित शरीर के रूप में जैव-प्रणाली की ही तरह हो सकती है।
गीता अध्याय 15 का आरंभ इस प्रकार है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1
इस प्रकार इस संसार-रूपी वृक्ष -अश्वत्थ (अश्व की तरह अवस्थित) नित्य-अनित्य संसार का मूल परमात्मा है, जो परम उच्चतर सत्य है, और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर फैलती हैं। संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसलिए अधोगामी है। इस वृक्ष के पत्ते छन्द (स्वेच्छा से) निरंतर पैदा होते और सूखते और गिर जाते हैं। छंद का अर्थ है स्वच्छंद। स्व का अर्थ है स्वर या स्वर्ग। स्वर्ग वैसा ही एक लोक है जहाँ अमर रहा करते हैं। स्वर अर्थात्क कपन जब किसी ताल लय और छंद में होते हैं, भले ही वह छंद वार्णिक या मात्रिक हो राग अर्थात् संगीत से युक्त होते हैं। इसलिए अमर का तात्पर्य है 'सुर' जो 'स्वर' का ही पर्याय है। छंद जब ताल, लय से रहित होते हैं तो संगीत का यही लोक असुरों की भूमि हो जाता है।
इस प्रकार सुर और असुर कोई मनुष्य-जाति नहीं प्रवृत्ति-विशेष हैं।
सनत् से याद आता है जन्नत और Zenith जिनका आशय सामान है।
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इन्द्र का नन्दन-वन और पारिजात तो प्रसिद्ध ही है।
नन्द का अर्थ है पुत्र सनन्दन का अर्थ है पुत्रवान या सन्ततिवान।
नन्द का दूसरा अर्थ है 'खेलना'।
और सुजात का अर्थ है जिसका जन्म श्रेष्ठ माता-पिता से हुआ हो।
सनत्कुमार का अर्थ है परंपरा का सतत चलना।
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पारिजात का अर्थ है जो ऐसे स्वर्ग जैसे वातावरण में पैदा हुआ है।
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जैसे सरिता का तत्व पानी (पानीयम्) है, उसी तरह भाषा का तत्व वाणी तथा मानी (मानीयम्) अर्थात् तात्पर्य या आशय है। भगवान् ब्रह्मदेव जब सृष्टि करते हैं तो काल और स्थान की रचना युगपत् होती है। काल के अभाव में स्थान नहीं हो सकता और न ही स्थान के अभाव में काल का अस्तित्व हो सकता है। काल-स्थान की इस युति को 'लोक' कहा जाता है। यह 'लोक' जिसे कि लोक (दुनिया) में संसार कहा जाता है सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी चेतन सत्ता के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है। और चेतन सत्ता सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी भौतिक और जीवित शरीर के रूप में जैव-प्रणाली की ही तरह हो सकती है।
गीता अध्याय 15 का आरंभ इस प्रकार है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1
इस प्रकार इस संसार-रूपी वृक्ष -अश्वत्थ (अश्व की तरह अवस्थित) नित्य-अनित्य संसार का मूल परमात्मा है, जो परम उच्चतर सत्य है, और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर फैलती हैं। संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसलिए अधोगामी है। इस वृक्ष के पत्ते छन्द (स्वेच्छा से) निरंतर पैदा होते और सूखते और गिर जाते हैं। छंद का अर्थ है स्वच्छंद। स्व का अर्थ है स्वर या स्वर्ग। स्वर्ग वैसा ही एक लोक है जहाँ अमर रहा करते हैं। स्वर अर्थात्क कपन जब किसी ताल लय और छंद में होते हैं, भले ही वह छंद वार्णिक या मात्रिक हो राग अर्थात् संगीत से युक्त होते हैं। इसलिए अमर का तात्पर्य है 'सुर' जो 'स्वर' का ही पर्याय है। छंद जब ताल, लय से रहित होते हैं तो संगीत का यही लोक असुरों की भूमि हो जाता है।
इस प्रकार सुर और असुर कोई मनुष्य-जाति नहीं प्रवृत्ति-विशेष हैं।
सनत् से याद आता है जन्नत और Zenith जिनका आशय सामान है।
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इन्द्र का नन्दन-वन और पारिजात तो प्रसिद्ध ही है।
नन्द का अर्थ है पुत्र सनन्दन का अर्थ है पुत्रवान या सन्ततिवान।
नन्द का दूसरा अर्थ है 'खेलना'।
और सुजात का अर्थ है जिसका जन्म श्रेष्ठ माता-पिता से हुआ हो।
सनत्कुमार का अर्थ है परंपरा का सतत चलना।
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पारिजात का अर्थ है जो ऐसे स्वर्ग जैसे वातावरण में पैदा हुआ है।
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