क्या यह मुमकिन है ?
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भाव भावना भाषा
भास भासाः च जीवनम् ।
यस्मात्प्रवर्तन्ते सर्वाः
भास्कराय तस्मै नमः।।
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बिलकुल बचपन से ही मुझे लगता था कि किसी भी भाषा को उसी भाषा के माध्यम से सीखा जाना सबसे ज़रूरी और आसान तरीका है। और इसलिए मैंने जब भी किसी भाषा को सीखने का प्रयास किया तो इसी तरीके से किया। इसका एक लाभ यह हुआ कि व्याकरण और अनुवाद को दरक़िनार करते हुए भाषाएँ सीखने का क्या तरीका हो सकता है, यह मुझे समझ में आया। बहुत बाद में मैंने अनुभव किया कि व्याकरण और अनुवाद द्वारा किसी भाषा को सीखना कामचलाऊ और फ़ौरी तौर पर उपयोगी हो सकता है किन्तु जैसे जैसे व्याकरण और अनुवाद के सहारे की आदत पड़ने लगती है, वैसे वैसे नई भाषा उतनी ही अधिक कठिन होने लगती है।
हाँ, जब किसी भाषा को उसी (या निकटवर्ती) भाषा के माध्यम से पर्याप्त और संतोषजनक रीति से सीख लिया जाता है तब उसे समृद्ध और त्रुटिरहित ढंग से बोलने-लिखने के लिए व्याकरण के आधार पर उसकी परीक्षा की जा सकती है और त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।
तब यह प्रश्न भी महत्वहीन और सतही प्रतीत होने लगता है, कि कौन सी भाषा प्राचीन और कौन से नई है, कौन सी भाषा किस अन्य भाषा की जननी, मौसी, बहन या पुत्री है। क्योंकि तब हम भाषा की रचना कैसे होती है इसे समझ पाते हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा का कोई इतिहास या उद्भव-काल नहीं हो सकता। क्योंकि अनेक मानव-सभ्यताएँ अतीत में जिस प्रकार अस्तित्व में आईं और विलुप्त हो गईं उसी प्रकार अनेक भाषाएँ, लिपियाँ और व्याकरण भी अस्तित्व में आए और मिटे / बने।
किन्तु सबसे रोचक तथ्य जो मैंने महसूस किया वह यह, कि जिस प्रकार से मैंने बिना व्याकरण और अनुवाद का सहारा लिए अनेक भाषाएँ सीखने के लिए केवल उसी भाषा के माध्यम से उन्हें सीखा, -उस प्रकार से भिन्न भिन्न कई भाषाएँ सीखने से सभी भाषाओं का वह सर्वसामान्य आधार समझ में आता है, जिसके सहारे किसी भाषा के जन्म और शब्दकोष तथा शब्दों की व्युत्पत्ति और व्याकरण की उत्पत्ति तथा रचना को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यहाँ तक, कि तब हमें किसी भाषा के इतिहास और विकास-क्रम का अध्ययन करना तक किसी हद तक बाधक प्रतीत होने लगता है। भाषा को किसी धर्म या सम्प्रदाय तक सीमित रखना भी इसी प्रकार हमारी भाषा की समझ को कुंठित कर सकता है।
इसी मनःस्थिति में कभी भृगु-भारद्वाज सूत्र लिखे थे।
महर्षि भृगु और महर्षि भारद्वाज वैसे ही नित्य और सनातन पुरुष हैं जैसे सभी ऋषि देवता आदि होते हैं।
इसलिए वेद तथा ऋषि-रचनाएँ काल-निरपेक्ष वाणी हैं जिनकी अभिव्यक्ति समय समय पर भिन्न भिन्न मनुष्यों के माध्यम से संसार के कल्याण हेतु होती रहती है।
इसलिए ऋषियों या वेद-पुराण आदि का 'रचना-काल' ऐतिहासिक धरातल पर सुनिश्चित करने का प्रयास ही निरर्थक और हास्यास्पद भी है। हाँ, 'हमारे समय में' ऐसा कोई अनुमानजनित निर्धारण किया जाता है यह भी उतना ही सच है।
इसी मनःस्थिति में जो सूत्र लिखे गए वे यथास्मृति इस प्रकार हैं :
यथास्मृति
भर्गो भृगोः भाव भवतः
भवति भवन्तं भवन्ति।
भवः भवान् भवाप्ययौ
भवामि भविता भविष्यता।।१
भविष्यति भविष्यन्ति
भविष्याणि भविष्यामः।
भवेत् भावना भावयतः
भावयन्तः भावयन्तु ।।२
भावसमन्विता तथा
भावसंशुद्धिः भावम्।
भावः भावाः भावेषु
भावैः भाषसे भाषा।।3
भासयन्ते भासाश्च
भास्वता भाः भिन्नाः।
भाषाभासभावैः ता
या प्राकृता व्याकृता वा ।।४
भावनयाः च भाषायाः
संस्कृतायाः बह्वीरूपाः।
भिन्नेषु लोके स्थाने
भिन्नभिन्नाः सर्वेषाम्।।५
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भाव भावना भाषा
भास भासाः च जीवनम् ।
यस्मात्प्रवर्तन्ते सर्वाः
भास्कराय तस्मै नमः।।
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बिलकुल बचपन से ही मुझे लगता था कि किसी भी भाषा को उसी भाषा के माध्यम से सीखा जाना सबसे ज़रूरी और आसान तरीका है। और इसलिए मैंने जब भी किसी भाषा को सीखने का प्रयास किया तो इसी तरीके से किया। इसका एक लाभ यह हुआ कि व्याकरण और अनुवाद को दरक़िनार करते हुए भाषाएँ सीखने का क्या तरीका हो सकता है, यह मुझे समझ में आया। बहुत बाद में मैंने अनुभव किया कि व्याकरण और अनुवाद द्वारा किसी भाषा को सीखना कामचलाऊ और फ़ौरी तौर पर उपयोगी हो सकता है किन्तु जैसे जैसे व्याकरण और अनुवाद के सहारे की आदत पड़ने लगती है, वैसे वैसे नई भाषा उतनी ही अधिक कठिन होने लगती है।
हाँ, जब किसी भाषा को उसी (या निकटवर्ती) भाषा के माध्यम से पर्याप्त और संतोषजनक रीति से सीख लिया जाता है तब उसे समृद्ध और त्रुटिरहित ढंग से बोलने-लिखने के लिए व्याकरण के आधार पर उसकी परीक्षा की जा सकती है और त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।
तब यह प्रश्न भी महत्वहीन और सतही प्रतीत होने लगता है, कि कौन सी भाषा प्राचीन और कौन से नई है, कौन सी भाषा किस अन्य भाषा की जननी, मौसी, बहन या पुत्री है। क्योंकि तब हम भाषा की रचना कैसे होती है इसे समझ पाते हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा का कोई इतिहास या उद्भव-काल नहीं हो सकता। क्योंकि अनेक मानव-सभ्यताएँ अतीत में जिस प्रकार अस्तित्व में आईं और विलुप्त हो गईं उसी प्रकार अनेक भाषाएँ, लिपियाँ और व्याकरण भी अस्तित्व में आए और मिटे / बने।
किन्तु सबसे रोचक तथ्य जो मैंने महसूस किया वह यह, कि जिस प्रकार से मैंने बिना व्याकरण और अनुवाद का सहारा लिए अनेक भाषाएँ सीखने के लिए केवल उसी भाषा के माध्यम से उन्हें सीखा, -उस प्रकार से भिन्न भिन्न कई भाषाएँ सीखने से सभी भाषाओं का वह सर्वसामान्य आधार समझ में आता है, जिसके सहारे किसी भाषा के जन्म और शब्दकोष तथा शब्दों की व्युत्पत्ति और व्याकरण की उत्पत्ति तथा रचना को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यहाँ तक, कि तब हमें किसी भाषा के इतिहास और विकास-क्रम का अध्ययन करना तक किसी हद तक बाधक प्रतीत होने लगता है। भाषा को किसी धर्म या सम्प्रदाय तक सीमित रखना भी इसी प्रकार हमारी भाषा की समझ को कुंठित कर सकता है।
इसी मनःस्थिति में कभी भृगु-भारद्वाज सूत्र लिखे थे।
महर्षि भृगु और महर्षि भारद्वाज वैसे ही नित्य और सनातन पुरुष हैं जैसे सभी ऋषि देवता आदि होते हैं।
इसलिए वेद तथा ऋषि-रचनाएँ काल-निरपेक्ष वाणी हैं जिनकी अभिव्यक्ति समय समय पर भिन्न भिन्न मनुष्यों के माध्यम से संसार के कल्याण हेतु होती रहती है।
इसलिए ऋषियों या वेद-पुराण आदि का 'रचना-काल' ऐतिहासिक धरातल पर सुनिश्चित करने का प्रयास ही निरर्थक और हास्यास्पद भी है। हाँ, 'हमारे समय में' ऐसा कोई अनुमानजनित निर्धारण किया जाता है यह भी उतना ही सच है।
इसी मनःस्थिति में जो सूत्र लिखे गए वे यथास्मृति इस प्रकार हैं :
यथास्मृति
भर्गो भृगोः भाव भवतः
भवति भवन्तं भवन्ति।
भवः भवान् भवाप्ययौ
भवामि भविता भविष्यता।।१
भविष्यति भविष्यन्ति
भविष्याणि भविष्यामः।
भवेत् भावना भावयतः
भावयन्तः भावयन्तु ।।२
भावसमन्विता तथा
भावसंशुद्धिः भावम्।
भावः भावाः भावेषु
भावैः भाषसे भाषा।।3
भासयन्ते भासाश्च
भास्वता भाः भिन्नाः।
भाषाभासभावैः ता
या प्राकृता व्याकृता वा ।।४
भावनयाः च भाषायाः
संस्कृतायाः बह्वीरूपाः।
भिन्नेषु लोके स्थाने
भिन्नभिन्नाः सर्वेषाम्।।५
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