Friday, 29 November 2019

The mindset / धृति

धृति, धर्म / अधर्म 
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गीता का उल्लेख होते ही धर्म, कर्म, आत्मा, परमात्मा, बुद्धि, यज्ञ, योग, ज्ञान, भक्ति, कर्तव्य आदि शब्दों का भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, किन्तु जिस शब्द का विशेष उल्लेख नहीं होता वह है :
"धृति"
गीता के अध्याय 15 में संसार और दो प्रकार की प्रकृतियों (जड तथा चेतन) और 'पुरुष' के दो रूपों क्रमशः जीव (भूतप्रकृति) तथा परमात्मा (चेतनता / चेतना -- अध्याय 10 /22) का वर्णन पाया जाता है।
अध्याय 15 इस अर्थ में एक ऐसा मोड़ है जिसके बाद गीता में एक भिन्न शैली महत्वपूर्ण हो जाती है, और जहाँ गुण, धर्म / अधर्म, कर्म, यज्ञ, आदि का विशेष वर्गीकरण किया गया है।
बुद्धि और धृति (mindset) के माध्यम से कार्य करनेवाले तीन गुणों की विशेषताओं का वर्णन अध्याय 18 के श्लोक 29 से श्लोक 35 तक है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।29
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
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यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
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अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
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इस प्रकार बुद्धि / Intellect (और बुद्धिजीवियों) की भूमिका की ओर संकेत किया गया। 
अब धृति (mindset) अर्थात् संस्कार से प्रेरित मनोवृत्ति के बारे में कहा जाता है :
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।33
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तीन पुरुषार्थों का वर्णन किसी एक श्लोक में देखना हो तो एक उदाहरण है अध्याय 18 का यह श्लोक :
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ सारथी।।34
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तथा अंत में :
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।35
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इस प्रकार उपरोक्त श्लोक 33 के प्रथमार्द्ध में 'धृति' (mindset) को परिभाषित किया गया है।
श्लोक 34 से यह स्पष्ट है कि 'धर्म' चार पुरुषार्थों के क्रम में पहला है।
यह 'धर्म' अपने आप में सम्प्रदायनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता है और अधर्म का विपरीत भी है।
'अधर्म' वह है जो विवेकहीनता (अज्ञान, आलस्य, उन्माद, विषाद आदि तमोगुणी प्रवृत्ति) और प्रमाद (लोभ, भय, अनवधानता अर्थात् रजोगुणी प्रवृत्ति) से उत्पन्न होता है।
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Resorts, Retreats, Recluse and the Ascetic

भारद्वाज-व्याकरणम् 
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यूँ तो प्रथम बार 'Retreat' शब्द से तब अवगत हुआ था जब वाराणसी स्थित J.Krishnamurti से संबद्ध स्थान का नाम सुना था।  इससे बहुत पहले 1985 के आसपास Rishi-valley का नाम उनसे संबंधित Discus-books द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनियों "Years of Awakening" "Years of Fulfillment", "An Open Door" आदि में पढ़ने को मिला था।
किन्हीं ज्ञात-अज्ञात कारणों से मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया कि 'Retreat' का अर्थ 'उपरति' है / होना चाहिए; जबकि 'Resort' का अर्थ 'विकल्प' ! इसी प्रकार 'Recluse' का एकांतवासी।
बहुत बाद में जब संस्कृत व्याकरण से परिचय हुआ और उस बारे में अधिक जानकारी (कृत्रिम ज्ञान, शाब्दिक संवेदन / A.I.) प्राप्त हुई, और उसके कुछ वर्षों बाद वाल्मीकि रामायण पढ़ा और फिर ऋग्वेद का पाठ प्रारंभ किया तो पता चला कि यह तो मेरे भीतर अंतर्धारा (undercurrent) की तरह सदा से विद्यमान है।
वाल्मीकि रामायण और ऋग्वेद से मुझे स्पष्ट हुआ कि श्री भारद्वाज के गोत्रोत्पन्न या कुलोत्पन्न कोई महात्मा महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे। चूँकि मैं संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन अनुवाद के माध्यम से नहीं करता इसलिए जिन अंशों को नहीं समझ पाता, उनके बारे में चिंता या उनका चिंतन भी नहीं करता।
अपने उपयुक्त समय पर ही हर ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञान-प्राप्ति का प्रयास कभी कभी अनावश्यक श्रम  और व्यर्थ का कष्ट ही हुआ करता है। ज्ञान अधिकारी / पात्र को ही प्राप्त हो सकता है।
व्याकरण के बारे में अध्ययन करते हुए मुझे पता चला, कि ऐतिहासिक आधार पर प्रायः 9 प्रमुख संस्कृत व्याकरण हैं। मुझे तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस भारद्वाज व्याकरण को मैं पता नहीं किस प्रेरणा से संस्कृत का एक प्रमुख व्याकरण समझता था उसका कहीं उल्लेख मुझे देखने को प्राप्त नहीं हुआ।
फिर मुझे अपने ही भीतर ज्ञात हुआ कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार से सिद्ध होता है :
प्रथम प्रकार "व्याकरण क्या है ?" इस प्रश्न के उत्तर की खोज करने से, और दूसरा प्रकार "व्याकरण क्यों है ?"
-इस प्रश्न के उत्तर की खोज से।
व्याकरण क्या है ? इसे व्याकरण के प्राप्त ग्रंथों से समझा जा सकता है। यह भाषा की शुद्धता की कसौटी / पैमाना / प्रमाण आधार है, और भाषा से संबंधित 'नियमों' का संकलन होता है। भाषा दो प्रकार की होती है प्राकृत और उद्भूत। भाषा मूलतः वाणी है और वाणी का उद्भव ही भाषा का मूल आधार है। इसलिए प्राकृत के भिन्न भिन्न विन्यासों से ही संस्कृत से भिन्न दूसरी सभी भाषाएँ उपजीं और विकसित विवर्धित हुईं। वे उस समाज की परिपाटी, रूढ़ि अर्थात् सामूहिक धृति (mindset) के अनुसार तय नियमों, मान्यताओं के अनुसार स्थान स्थान पर भिन्न प्रकार से बनीं। इसलिए इन सभी भाषाओं का व्याकरण निरंतर बदलता रहता है।
जबकि संस्कृत का व्याकरण वाणी का और वर्णों का, आशय तथा प्रयोजन के सन्दर्भ में भाषा का विशिष्ट न्यास है।  इस प्रकार न्यास क्रमशः विनियोग, विन्यास, तथा न्यास एवं संन्यास इन चार प्रकारों का हो सकता है।  भाषा के संबंध में यही मूल व्याकरण है।  
जब से वाणी से उच्चारित होनेवाले वर्णों और शब्दों को लिखा जाने लगा, तब से लिपि अस्तित्व में आई।  किन्तु वाणी का उद्गम जिस स्रोत से होता है, लिपि और उच्चारण से पूर्व ही वह तो नित्य, सनातन, शाश्वत, अटल और अविकारी है। इसलिए इसे वेद कहा जाता है जबकि व्याकरण को वेद का उपाङ्ग कहा जाता है।
संस्कृत का मूल व्याकरण वह स्रोत है।
यह इसीलिए हमारी आपकी वाणी का विषय नहीं है, फिर भी इसके प्रयोग से यह समझा जा सकता है कि
"(यह) व्याकरण क्यों है ?"
इसकी सहायता से उपरोक्त शब्दों के मूल तक इस प्रकार जा सकते हैं :
परिसारतः re sort, परि त्रियतः re treat तथा परिश्लिष re cluse !
तीनों शब्द गति या गतिविधि के द्योतक हैं।
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वैसे तो मैं बचपन से ही recluse रहा हूँ किन्तु अपने इस स्वभाव का बोध मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीविका के लिए कुछ करने का विचार मेरे लिए महत्वहीन हो गया। मेरी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मेरे पास इतना पैसा (पायस, पश्य, पण्य) था कि जैसे तैसे जीवन बिता सकूँ।  किन्तु हमारी धन / वित्त / मुद्रा केंद्रित / आधारित सभ्यता में यदि आपको जीवन-यापन से अधिक महत्व-पूर्ण कोई कार्य करना हो, तो संसार उसके लिए बिना कोई प्रतिमूल्य लिए कुछ नहीं दे सकता।
हाँ किन्तु वही 'अज्ञात' जो आपको इस कार्य के लिए प्रेरित करता है स्वयं ही इसकी व्यवस्था भी करता है। इसे गुरु, ईश्वर या भाग्य, नियति, प्रारब्ध आदि नाम देने से वह 'ज्ञात' नहीं हो जाता।
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19 मार्च 2016 की रात्रि को वही 'अज्ञात' मुझे उज्जैन से उठाकर नर्मदातट पर स्थित नावघाट-खेड़ी नामक ग्राम ले गया था, और वही 5 अगस्त 2016 को वहाँ से उठाकर देवास ले आया था। (यह किसी हद तक वैसा ही था जैसे हातिम ताई को गरुड़ उसके घर से उठाकर खजूर पर, और फिर कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के नगर में छोड़ गया था !!)
इसी प्रकार 24 नवम्बर 2019 के दिन मुझे उसने पुनः उज्जैन में लाकर रख दिया।
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     'Ascetic' (आशयतिक) और 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) यद्यपि समानार्थी प्रतीत होते हैं किन्तु आशयतिक आसपास से असक्त होते हुए भी मौलिक तत्व / आशय से जुड़ा होता है, तो 'Recluse' (परिश्लिष / परिश्लिष्ट) हर ओर से विच्छिन्न होता है।
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इस प्रकार मुझे व्याकरण की वह दृष्टि मिली, जिससे मैं अनेक भाषाओं के मूल को अपने तरीके से समझ सका और मुझे समझ में आया कि किसी भाषा की उत्पत्ति किसी दूसरी भाषा से होने का सिद्धान्त न केवल भ्रामक बल्कि त्रुटिपूर्ण भी है।
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(धृति और धर्म -- अगली पोस्ट)
                        
   

Saturday, 23 November 2019

सनत्सुजात

सनत्, सनन्दन, सुजात और सनत्कुमार 
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जैसे सरिता का तत्व पानी (पानीयम्) है, उसी तरह भाषा का तत्व वाणी तथा मानी (मानीयम्) अर्थात् तात्पर्य या आशय है। भगवान् ब्रह्मदेव जब सृष्टि करते हैं तो काल और स्थान की रचना युगपत् होती है।  काल के अभाव में स्थान नहीं हो सकता और न ही स्थान के अभाव में काल का अस्तित्व हो सकता है। काल-स्थान की इस युति को 'लोक' कहा जाता है। यह 'लोक' जिसे कि लोक (दुनिया) में संसार कहा जाता है सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी चेतन सत्ता के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है। और चेतन सत्ता सदैव, अवश्य और अनिवार्यतः किसी भौतिक और जीवित शरीर के रूप में जैव-प्रणाली की ही तरह हो सकती है।
गीता अध्याय 15 का आरंभ इस प्रकार है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1
इस प्रकार इस संसार-रूपी वृक्ष -अश्वत्थ (अश्व की तरह अवस्थित) नित्य-अनित्य संसार का मूल परमात्मा है, जो परम उच्चतर सत्य है, और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर फैलती हैं।  संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसलिए अधोगामी है।  इस वृक्ष के पत्ते छन्द (स्वेच्छा से) निरंतर पैदा होते और सूखते और गिर जाते हैं। छंद का अर्थ है स्वच्छंद। स्व का अर्थ है स्वर या स्वर्ग। स्वर्ग वैसा ही एक लोक है जहाँ अमर रहा करते हैं।  स्वर अर्थात्क कपन जब किसी ताल लय और छंद में होते हैं, भले ही वह छंद वार्णिक या मात्रिक हो राग अर्थात् संगीत से युक्त होते हैं। इसलिए अमर का तात्पर्य है 'सुर' जो 'स्वर' का ही पर्याय है। छंद जब ताल, लय से रहित होते हैं तो संगीत का यही लोक असुरों की भूमि हो जाता है।
इस प्रकार सुर और असुर कोई मनुष्य-जाति नहीं प्रवृत्ति-विशेष हैं।
सनत् से याद आता है जन्नत और Zenith जिनका आशय सामान है।
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इन्द्र का नन्दन-वन और पारिजात तो प्रसिद्ध ही है।
नन्द का अर्थ है पुत्र सनन्दन का अर्थ है पुत्रवान या सन्ततिवान।
नन्द का दूसरा अर्थ है 'खेलना'।
और सुजात का अर्थ है जिसका जन्म  श्रेष्ठ माता-पिता से हुआ हो।
सनत्कुमार का अर्थ है परंपरा का सतत चलना।
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पारिजात का अर्थ है जो ऐसे स्वर्ग जैसे वातावरण में पैदा हुआ है।
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Friday, 22 November 2019

प्रामाण्य और फ़रमान

यह पोस्ट पिछले पोस्ट का शेष भाग है।
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शीर्षक देखते ही लगता है कि अरबी फ़ारसी या उर्दू भाषा में प्रयुक्त होनेवाला यह शब्द 'फ़रमान', संस्कृत शब्द 'प्रमाण' या 'प्रामाण्य' का सज्ञात / सजात / अपभ्रंश / तद्भव / तत्सम अर्थात् cognate हो सकता है।
अब एक नया शब्द है : नज़र / नाज़िर / हाज़िर
नज़र और नज़्र एक ही शब्द के दो विन्यास हैं। 
यह शब्द 'नृषु' का तद्भव हो सकता है।
यहाँ केवल संकेत किया जा रहा है न कि दावा।
हाज़िर शब्द इसी प्रकार 'अस्' धातु से बना आसीः का तद्भव है।
नज़ीर / उदाहरण तथा नाज़िर (दिखलाई देना) भी 'नज़र' का रूपांतरण है।
वज़ीर 'वर्धीय' या 'वस् रीय' से आया है।
इन सब व्युत्पत्तियों का मौलिक आधार है अर्थ-साम्य का सिद्धांत।
यदि मूल संस्कृत शब्द में वही अर्थ प्राप्त होता है जो व्युत्पन्न से मिलता जुलता है तो हमारे पास यह मानने के लिए पर्याप्त आधार है कि व्युत्पन्न शब्द मूलतः उस संस्कृत का ही बदला हुआ प्रचलित रूप है।
'पैदा' शब्द 'प्रजायते' / 'प्रदाय' का बदला हुआ प्रचलित रूप हो सकता है।
'खारिज' क्षारित / क्षरित का तथा ख़ालिस (शुद्ध) क्षालित (धुला हुआ, स्वच्छ)  का पर्याय है।
'वेट' / 'इंतज़ार' / 'wait' को संस्कृत शब्द 'वयति' / बीतता है / व्यतीत होता है में देख सकते हैं।
'याद' शुद्ध संस्कृत शब्द है जो 'चंद्र' का पर्याय है।  यदुवंश तथा यादव इसी यादस् से उद्भूत हुए हैं।
'आवाज़' इसी तरह आ-वाच् का रूप है।
'गौर' गुरु / गौरव से बना है जो गूढ  तथा संभवतः अंग्रेज़ी 'GOD' का भी जनक है।
वेदों में 'गूढ' को 'गूळः' भी कहा गया है।
गुड़ इसी गूढ़ / गूल्यते / गुलिका / गोळा करणेँ (मराठी -- एकत्र करना) से आया है।
तशरीफ़ इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है कि किस प्रकार अरबी मूलतः एकवर्णीय प्रत्ययों से निर्मित शब्दों से बनी भाषा है।  विशेष यह कि जहाँ संस्कृत भाषा में ये वर्ण प्रत्यय की तरह किसी दूसरे शब्द के आगे या पीछे क्रमशः उपसर्ग और विशेष्य-प्रत्यय की तरह प्रयुक्त होते हैं, अरबी में ऐसा कोई तय (संस्कृत - 'तया') नियम (निज़ाम) नहीं है, क्योंकि अरबी भाषा का व्याकरण दूसरी विभिन्न भाषाओं की तरह भाषा के प्रचलित नियमों के आधार पर विकसित हुआ है, जबकि संस्कृत का व्याकरण  'वेदाङ्ग' होने से नित्य सनातन और शाश्वत तथा अविकारी भी है।
'रास्तः' / 'रास्ता' राजतः से बना है।
'तशरीफ़' से मिलते-जुलते शब्द हैं  :
अशरफ़, मुशरिफ़, शरीफ, अशर्फी, मुशर्रफ़, मशरिफ़ (पूर्व दिशा)
क्योंकि सूरज पूर्व दिशा में ही उगता है। 
जो मूलतः संस्कृत वर्ण / धातु
'शृ' / शर (बाण, जलता हुआ, ज्वलंत इसलिए तेजस्वी) से बने हैं।
अशर्फ़ी 'श्री' से बना है।
'श्वेत' से बना सफ़ेद, शफ्फाक़ ।
पश्चिम का पर्याय है 'मग़रिब' जो ग़रीब, ग़रीबी और ग़ुरबत से मिलता जुलता है।
पश्च -- post जैसा कि 'पोस्ट-मार्टम' में है, 'पश्च' तथा 'मृत्युं' का संयोग है।
रोचक यह है कि अंग्रेज़ी में back शब्द भी 'पश्च' का ही कुछ ज़्यादा ही रूपांतरण है।
दूसरी और 'bake' पच् का पर्याय है; --- अर्थ है 'पकाना'।
ख़ुश --- 'प्रसन्न --तुलना करें 'हृष्' 'हृष्ट' 'हृष्ट-पुष्ट' से।
'कम' -- किं / कं से,
ज़्यादा -- ज्येष्ठ, ज्यायतः से।
'रिहा' - रिच्यते अर्थात् रिक्त करना / होना से बना है।
मोहब्बत -- मोहवत् से, या महद्वत् से, जिसे महत्त्व दिया जाता है।
पेशाब -- प्रस्राव से (प्रसव नहीं, यद्यपि वैसी विवेचना करना भी गलत नहीं होगा) ।
क़दम -- क्रम / कर्म या कडे (मराठी) पाउल / पियादा / pawn ।
क़दम को कति (कितने) से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है, जिससे बना है :
क़तआ / क़िताब / क़िताबत,
क़ाबिल -- क बल -- मुक़ाबला, नाक़ाबिल, क़ाबुल,
वैसे अंग्रेज़ी का cabal / matrix का उद्गम मेरे हातिम ताई से संबंधित पोस्ट्स में भी देखा जा सकता है।
सुबह -- सु-वह् ,
शाम -- सायं (मराठी संध्याकाळ जिसका अर्थ 'शाम का अन्धेरा' भी होता है। ),
हाय -- ह आ अये / अयि / अय्  , हा, हि (अंग्रेज़ी hi / high)
तौबा -- त -अव आ, त-उ- आ ,
शहीद -- शयितः / शहितः।
साफ़ - स्पः / स्फ (स्फटिक)
नीयत -- नीयते (नी धातु) -- नेता, नियति,
वाक़या / वाक़ई / वाक्य
बढ़िया - वर्धीय / वर्धि / वर्धीया / बधाई !
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Tuesday, 19 November 2019

हिन्दी-अरबी-फ़ारसी-अंग्रेज़ी-संस्कृत : कितनी सन्निकट

आचार्य श्री नित्यानन्द जी के एक विडिओ की विवेचना
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उपरोक्त विडिओ देखते हुए कुछ नोट्स बनाए जो शायद प्रासंगिक हो सकते हैं।
चूँकि यह विवेचना केवल इस विडिओ को अधिक अच्छी तरह समझने के लिए की गयी है इसलिए इससे किसी से वाद-विवाद करना उद्दिष्ट नहीं है।
ख़ास तोहफ़ा -- खः / खं --अंतरिक्षः (मन) ख़ास = विशिष्ट।
ख़ुसूस शब्द इसी से बना होगा। 
हिन्दू -- सिन्धु ?
हिन्दू की अन्य व्युत्पत्ति जो मुझे अधिक सही प्रतीत होती है वह है इंद्र और इन्दु से।
India Indo (prefix) इसीलिए इन्दु के  सजात / सहजात / तद्भव / तत्सम।/ अपभ्रंश / cognate हैं।
आप् -- आप्नोति -- अपनाना -- अब्न / इब्न ...
उर्द् -- उछलना, कूर्द् -- कूदना  (से उर्दू भाषा -व्युत्पत्ति),
Hoch Deutsch उच्चतर जर्मन -- ह उच्च।
ह हि दोनों संस्कृत अव्यय पद हैं।
इसी से hy / hi उपसर्ग / prefix अंग्रेजी में आया।
hyper - हि पर , hybrid - हि वृध्,
सराहनीय -- सरः नीय -- (नी --नीयते, ले जाना, नेता, नायक)
क्षमिति, उपयोगिति, विक्षिति को भाववाचक संज्ञा (abstract noun) या क्रिया-विशेषण (adverb) समझा जा सकता है।
Normal Distribution (Statistics) के लिए तमिळ भाषा में साधारण विनियोगं लिखा जाता है।
अन्य प्रयोग भी है।
तक़सीम -- त अव सं / सीम --
Normal Distribution (Statistics) नृ-ल-द्विः -त्रि -भूषण।
मा 'मूल -- म उपसर्ग + आमूल।
इसे 'अमल' 'त आमील' से भी प्राप्त किया जा सकता है।         
 तौज़ी -- त -अव - इय / ईय
चारों संस्कृत अव्यय प्रत्यय हैं जो अरबी / फ़ारसी में उपसर्ग की तरह हो सकते हैं।
बादरायण पुरस्कार अरबी फ़ारसी में दिए जाने से हमारा ध्यान इसके इस महत्त्व पर जा सकता है कि अरबी तथा फ़ारसी का संस्कृत से गहरा संबंध है।
अरबी का उल्लेख ऋग्वेद मण्डल 1, सूक्त 163 में है, जबकि फ़ारसी का संबंध परशुराम से है।
इतालियन शब्द 'Fasci' इसी से बना है जिसका प्रतीक चिह्न था घास के गट्ठर पर राखी कुल्हाड़ी।
इसी प्रकार जर्मन (शर्मन्) शब्द  'Natzi' नृ से व्युत्पन्न है जिसके बारे में बहुत विस्तार से लिख चुका हूँ।
nation, natal, nephew, niece, nature, आदि इसी से बने हैं।
मुमक़िन -- म उम् किं / म अनु किं दृष्टव्य है।
लज्जा का विषय नहीं, शायद विषय की लज्जा है।
पुकार -- 'प'-कार - प पञ्चम (ऊँचा) स्वर है।
लहर -- लकार -- लः 'र' प्रत्यय के साथ।
घमासान -- घना शान् -- (लिपित्रुटि)
मो -अदसो मात्  Normal Distribution (Statistics) , मो राजि समः।
अंग्रेज़ी में :
mo, moment, move, motion, movement
इसी मो / मात् से आए हैं।
देवी अथर्व शीर्ष तथा स्कन्द पुराण में वर्णों की मातृका (matrix) भी इसी की पुष्टि करते हैं।      
रूसी भाषा की वर्ण-मातृका (Matrix of letters) जिन 'सन्त' Cyril ने लिखी उसके 33 वर्ण अक्षरशः श्री-लिपि का अनुकरण है जिसके द्वारा  Cyril को 'सन्त' की उपाधि दी गयी। श्री-लिपि 'शारदा' अर्थात् ब्राह्मी ही है।
 गुनाह -- गुणाः (सद्गुण, दुर्गुण या अवगुण)
हक़ -- सज् - सक् - हक़ (स का ह हो जाना )
अड्ड -आड़ा -- आट -- आडम्बर,
रास्तः -- राजतः -- विराज,
इक्ष -- अक्ष -- अश्क़ (नेत्र या आँसू), इश्क़,
रश्क़ (हृष्क) -- किन्तु अरबी / उर्दू में इसका प्रयोग 'envy'के अर्थ में होता है।
प्रसाद - प्रसन्न - प्र सद् नि -- जबकि शाद का उद्भव सीद् (सीदन्ति मम गात्राणि) से है।
शाद पुनः विषाद का विलोम है, इस अर्थ में ख़ुशी का द्योतक है।
वर्ण 'फ' ph से साम्य रखता है और प-वर्ग में है, जिसका उच्चार करते समय ओंठ खुलते और बंद होते हैं, जबकि 'फ़' उपूपध्मानीय अर्थात् 'व' के वर्ग में है जिसमें ओंठ बंद नहीं होते।
प्ल से बना है प्लावन / प्लवन / प्लवङ्ग (वानर) जिसका अपभ्रंश है : 'फैलना',
जलाल ज्वल / ज्वर से बना है जिससे उज्जवल शब्द होता है -- अर्थ है : तेज।
ज़लालत शब्द गलित, ग्लानि से आया है, जिसका अर्थ है अपमानित।
औरत शब्द 'औरसः' -- उरसः से आया है जिसका अर्थ है जिसे सृष्टा ने पुरुष के सीने की अस्थि (हड्डी) से बनाया।  तात्पर्य यह कि स्त्री की आत्मा भी पुरुष ही है।
स्त्री शब्द 'स्तृ' से आया है जिसकी स्तुति की जाती है। 
स्त्री 'स्तृ' के अर्थ में तारिका (star) भी है जिसका अपना प्रकाश होने से वह 'देवी' है।
'नृ' से नर तथा नारी, नारा (जल) नारद तथा नाद एवं नारद दृष्टव्य हैं।
पुरुष की व्युत्पत्ति 'पृ' पूरयति से है, जिससे सब-कुछ ओत-प्रोत है वह,
पुरे शेते जो पुर अर्थात् पुर या लोक में है।
शहीद -- शं हितो (प्रच्छन्न)
इसकी व्युत्पत्ति 'हद' (अति) से भी की जा सकती है।
हज़ार -- ह स्र -- सहस्र समानार्थी हैं और कोई कारण नहीं कि सहस्र के अर्थ में 'हज़ार' के प्रयोग पर आपत्ति की जाए। गुलाबी pink के लिए संस्कृत में पाटल से भिन्न एक शब्द है पिङ्ग - पिङ्गल।  शिव का एक नाम पिंकेश भी है। जिसके केश पिङ्गल (धूमिल पीतवर्ण) हैं।
वक़ील -- वच् वचि ल या वकि ल से बनाया जा सकता है।
अंग्रेज़ी में अधिवक्ता के लिए advocate मूलतः इसी का सज्ञात cognate है।
सरकार को सरःकार का ही एक प्रकार माना जा सकता है।
एक शब्द है 'सरोकार' जो सरःकार में विसर्ग के ओ में बदलने से बनता है, जैसे :
रामो राजमणिः में रामः 'रामो' हो गया।
देहात देहाती देशीय देशी के अपभ्रंश हैं।
ज़बान / ज़ुबाँ,  'जिह्वां' से तुल्य है।
ख़ास का मूल वर्ण है 'ख' जिससे खिल अखिल निखिल बने हैं।
ख़िलाफ़त इसी 'खिल्' धातु से बँटने के अर्थ में बना है।
तोहफ़ा -- तु उपहारः।
दरबार -- द्वारवर या द्वारवार।
इसलिए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने और शृङ्गेरी मठ की परंपरा में इसका प्रयोग पूर्णतः स्वीकार्य है और इसे अरबी या फ़ारसी नहीं कह सकते।
शाह शब्द 'शास्' शासयति शिक्षयति से आया है जिससे 'शास्त्र' भी बना है और 'शस्त्र' भी।
साह शब्द 'साधु' से आया है जो 'आर्य' का समानार्थी है।
ख़रीद -- 'क्रीत' का तद्भव / अपभ्रंश है।
'बेचना' -- 'वञ्चनं' का तद्भव / अपभ्रंश है। प्रकारांतर से इसे विक्रीत कहा जाता है।
 'फ़रमाना' 'प्रमा' से बना है जिससे 'फ़रमा' (माप) और अंगेज़ी का 'form' 'pharma' बने हैं।
'प्रामाण्य' से भी इसका साम्य है।
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शेष अगली पोस्ट में ....
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हिन्दी-अरबी-फ़ारसी-अंग्रेज़ी-संस्कृत : कितनी सन्निकट 

Sunday, 17 November 2019

पाकिस्तान : अबू फज़ल से फज़लुर्रहमान तक

बादशाहनामा 
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जब श्रीभरत के अयोध्या लौटकर राज-पाट स्वीकार करने की प्रार्थना को भगवान् श्रीराम ने अस्वीकार कर दिया और श्रीभरत से ही अपना वनवास-काल पूर्ण होने तक वहाँ का शासन करने का आग्रह किया, तो उनके इस आग्रह को आदेश मानकर श्रीभरत ने भगवान् श्रीराम की चरण-पादुका को अयोध्या के राजा के शासक का प्रतीक मानकर जिस प्रणाली / परंपरा का प्रारम्भ किया उसे पाद-शासीय कहा गया।
इसी पाद-शासीय का अपभ्रंश हुआ बादशाही और सम्राट को पादशाह कहा जाने लगा।
अरबी लिपि में 'प' वर्ण की अनुपस्थिति में 'ब' को ही प्रयुक्त किया जाता है।
इसलिए पादशाह को 'बादशाह' कहा जाने लगा।
यह है संक्षिप्त पादशासनामा / बादशाहनामा 
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छत्रपति शिवाजी ने इसी परंपरा के प्रमाण से अपने गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज की खड़ाऊँ को सिंहासन पर रखकर अपने राज्य का शासन किया और उसे स्थानीय मराठी भाषा में पादशाही कहा जाता है।
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अकबर को भी बादशाह कहा जाता है लेकिन वह किस परंपरा का था, यह विचारणीय है !
अबू फज़ल ने अकबरनामा / आईना-ए-अक़बरी में अक़बर की इसी महानता का वर्णन किया होगा। 
उसी बर्बर बाबरी परंपरा को अपनी संस्कृति मानने वाले पाकिस्तान (या बाकिस्तान?) में प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुरावशेषों और प्रमाणों को भी नष्ट किया जा रहा है।   
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पाकिस्तान : अबू फज़ल से मौलाना फज़लुर्रहमान तक  
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प्रकृति और पुरुष

प्राकृत पुरुष 
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प्रकृति रूपायन है और पुरुष निरूपण। प्रकृति कार्य है और पुरुष निमित्त। पुरुष कारण तक नहीं है और न कर्ता।
और प्रकृति आभास है। इसलिए न तो कोई कर्ता है, न कार्य, किन्तु आभास की तरह प्रकृति है जिसका अस्तित्व  पुरुष पर अवलम्बित है।
समष्टि के प्रसंग में यह प्रकृति-पुरुष की क्रीड़ा या नृत्य कृत्य की तरह देखें तो किसी कर्ता के होने का प्रश्न पैदा होता है। चूँकि प्रकृति में कर्तृत्व-भावना नहीं है, इसलिए उसे कर्ता नहीं कहा जा सकता।
और पुरुष नित्य अविकारी अकर्ता है।
व्यक्त जगत को दो प्रकार से देखा जाता है।
प्रथम इस व्यक्त संपूर्ण जगत की तरह जिसमें असंख्य व्यक्ति अपना अपना जीवन जीते हुए इस जगत को अपने से पृथक एक स्वतंत्र सत्ता मानते हैं, जिसमें उनका जन्म हुआ और अंततः मृत्यु होगी। हर मनुष्य सोचता है कि उसकी मृत्यु के बाद  जगत बना रहेगा और इसके तमाम क्रिया-कलाप चलते रहेंगे। शायद ही कोई इस कल्पना को असत्य मानता हो। अपनी मृत्यु के बाद भी किसी जगत की सत्ता के प्रति ऐसा विश्वास शायद सिर्फ मनुष्य में ही होता है। पुरातत्व और इतिहास आदि से भी इसी धारणा को बल मिलता है।
दूसरी ओर अपने अभाव में किसी जगत के अस्तित्व की संभावना की न तो तर्क से और न अनुभव से पुष्टि  सकती है। तात्पर्य कि 'मैं' और 'मेरा संसार' परस्पर भिन्न प्रतीत होनेवाली सत्ताओं की तरह एक ही वस्तु के दो पक्ष / पहलू हैं। तर्क और अनुभव से भी इसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता।
इस जीव-रूपी पुरुष का वह जगत जिसे वह अपने से भिन्न की तरह  नित्य अनुभव करता है उससे इतना घनिष्ठतः जुड़ा है कि कल्पना में भी मनुष्य उसे छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। फिर भी उसे लगता है कि मृत्यु के बाद (उसकी आत्मा या) वह किसी रूप में रहेगा और जगत यथावत गतिशील रहेगा। जीते-जी शायद ही किसी को इस बारे में सुनिश्चित कुछ पता हो सकता है।
इसलिए इस आत्मा को प्राकृत पुरुष कहा जाता है।
इसी जगत और इस प्राकृत पुरुष के बारे में गीता अध्याय 15 में कहा है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्चमूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2   
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा।।3 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।4
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्जैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।5
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।6
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।7
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इस प्रकार मेरा ही अंश -मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों सहित प्रकृति की ओर खींचा जाता है।
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इसी जीव को पुनः परा-प्रकृति और लोक को अपरा प्रकृति भी कहा है।
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Thursday, 14 November 2019

कर्म, भोग, त्याग, 'समय' और दैव

नियति, प्रारब्ध, काल
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गीता अध्याय 18 में कहा गया है :
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।14
तथा,
पञ्चेमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।13
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[शाङ्करभाष्य से :
साङ्ख्ये -- ज्ञातव्याः पदार्थाः सङ्ख्यायन्ते यस्मिन् शास्त्रे तत् साङ्ख्यं वेदान्तः।
कृतान्ते इति तस्य एव विशेषणं कृतम् इति कर्म उच्यते तस्य अन्तः कृतस्य परिसमाप्तिः यत्र स कृतान्तः  कर्मान्तः इति एतत्।
'यावानार्थं उदपाने' 'सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते' इति आत्मज्ञाने सञ्जाते सर्वकर्मणां निवृत्तिं दर्शयति। अतः तस्मिन् आत्मज्ञानार्थे साङ्ख्ये कृतान्ते वेदान्ते प्रोक्तानि कथितानि सिद्धये निष्पत्त्यर्थं सर्वकर्मणाम्।  
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यहाँ श्लोक 14 अगले श्लोक 13 की भूमिका होने से पहले उद्धृत किया गया है।
श्लोक 14 में उन पाँच कारणों का उल्लेख है।
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उपर्युक्त श्लोकों में जीवन के प्रवाह के उस आयाम का सीधे कोई उल्लेख नहीं है जिसे 'समय' कहा जाता है।
जिसके बारे में हर कोई बहुत कहता-सुनता तो है लेकिन जिसके वास्तविक स्वरूपसे नितांत अनभिज्ञ होता है।  और न सिर्फ सर्व-साधारण मनुष्य, बल्कि बड़े-बड़े विद्वान्, वैज्ञानिक आदि भी उसके यथार्थ के प्रति संशयग्रस्त होते हैं। यूँ कहें कि 'समय' को अवधारणा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में जानना मनुष्य के लिए असंभव सा है। वैसा ही एक आयाम है जिसे कर्म कहा जाता है। दृश्य-श्रव्य रूप में कर्म को घटना के पर्याय की तरह और घटना को 'समय' के पर्याय की तरह परिभाषित / ग्रहण किया जा सकता है।
जीवन में कर्म (और कर्म की प्रेरणा या प्रवृत्ति), (अनुकूल या प्रतिकूल) भोग, त्याग, 'समय' अर्थात् वह जो निरंतर प्रवाहमान है; और दैव (अज्ञात) का एवं इसी के साथ जैव-इकाई (individual), समूह, तथा समष्टि का पारस्परिक व्यवहार है ऐसा कहा जा सकता है।
व्यक्ति-रूप में इकाई / जैव-इकाई (व्यष्टि) की स्थिति में प्रवृत्ति / प्रेरणा से आवश्यकता प्रतीत होती है।
प्रवृत्ति / प्रेरणा भी गुणों का प्रभाव है।  गुण पुनः वर्ण के और वर्ण गुण के पर्याय हैं। सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण को संक्षेप में गुण कहा जाता है और ये तीनों पूरी तरह अन्योन्याश्रित हैं।
भौतिक विज्ञान / Physics में इनके लिए क्रमशः प्रकाश (Light), गति (movement) और जडता (inertia) आदि शब्द तुल्य हैं।
वर्ण अर्थात् गुणों का वह विशिष्ट संयोजन जिनसे मनुष्य में आचरण के लिए प्रवृत्ति / प्रेरणा उत्पन्न होती है जो उसमें विशिष्ट प्रकार के कर्म के प्रति रुचि / रुझान पैदा करता है।
किसी भी कर्म का अपेक्षित या अनअपेक्षित, प्रत्याशित या अप्रत्याशित, ज्ञात, अज्ञात या अनुमानित परिणाम तो होता ही है।
कर्म भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है और उसका फल भी किसी विशेष 'समय' पर प्राप्त होता है।  शुद्धतः भौतिक / सांसारिक / वैज्ञानिक दृष्टि से फल तत्काल भी प्राप्त हो सकता है। कर्म को 'करने' या 'न करने' के संबंध में मनुष्य के मन में दुविधा (conflict) हो सकती है। कर्म के औचित्य / अनौचित्य, उसके त्याज्य, निषिद्ध या अपेक्षित कर्तव्य होने के बारे में प्रायः उसके मन में विशेष विचार नहीं उठता। कल्पना कभी कभी उठती है, और वह आदत के अनुसार कार्य करने लगता है। यह आदत भी उसके अपने वर्ग के सामाजिक संस्कार (जिसके आधार पर विभिन्न समुदायों में नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, प्रशंसा और भर्त्सना का पैमाना तय किया जाता है।) भी उसे कर्म में संलग्न होने या न होने की दुविधा पैदा होने का कारण हो सकता है।
इस पूरे प्रसंग में स्वयं के संबंध में मनुष्य में एक प्रच्छन्न भावना (undercurrent) की तरह मैं-भावना होती है, जिसे "मैं करूँगा, नहीं करूँगा, मैं इस कर्म का कर्ता हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं सोचता हूँ, मैं प्रेम / द्वेष / घृणा करता हूँ," के रूप में सदैव पहचाना जा सकता है। मनुष्य थोड़ा ध्यान दे और धैर्य से इस तथ्य का अन्वेषण करे कि किसी कर्म को पूर्ण करनेवाला साधन / करण क्या है जिसे वास्तव में कर्ता कहा जाए तो उसे स्पष्ट होगा कि  हाथ, पैर या अन्य अंग ही किसी शारीरिक कार्य को पूर्ण होने के लिए साधन होते हैं। किन्तु वे उनके स्वतंत्र  इच्छा से नहीं बल्कि मन से आदेश (command) प्राप्त होने पर ही कोई कार्य करते हैं। आदेश होने पर वे शरीर को क्षति पहुंचाने का कार्य भी निष्ठापूर्वक संपन्न कर देते हैं। और जो मन आदेश (command) देता है वह स्वयं ऐसे कार्य को करने में सक्षम नहीं होता। वास्तव में मन स्वयं भी एक अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है न कि कोई तथ्यात्मक सत्ता (material body) ।  'मैं' की अवधारणा भी इसी प्रकार की दूसरी एक और अमूर्त परिकल्पना (abstract hypothetical entity) है।
बुद्धि के प्रयोग से इन दोनों अवधारणाओं (notions) को अदल-बदल दिया जाता है इसलिए कभी मनुष्य कहता है :
"मैं दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत हूँ,
तो कभी वह कहता है :
"मन दुःखी / सुखी / निराश / त्रस्त / चिन्तित / भयभीत  है।"
इस प्रकार एक ही अमूर्त सत्ता (abstract entity) को कभी तो मन और कभी 'मैं' कहा जाता है।
इसी प्रकार कभी कोई मन को पागल या स्वस्थ कहता है तो कभी 'मैं' को अर्थात् स्वयं को ऐसा कहने लगता है।
(दिल तो पागल है !)
इस प्रकार मन और 'मैं' के बीच एक काल्पनिक और कृत्रिम विभाजन पैदा हुआ प्रतीत होता है जिस पर मनुष्य का ध्यान तक जाता। इस प्रकार की लापरवाही को प्रमाद / अनवधानता कहा जाता है। 
अंग्रेजी के शब्द 'ignorance' का संबंध ऐसे ही एक अन्य शब्द 'ignore' से है।
'ignorance' स्वाभाविक (इसलिए अनैच्छिक / involuntary भी) स्थिति है, जबकि 'ignore' करना स्वैच्छिक (deliberate) भी हो सकता है।
जब एक बार यह विभाजन आदत का हिस्सा बन जाता है तो मनुष्य कितना भी सोच-विचार करता रहे दुविधा से छूट नहीं पाता ।
इस विभाजन के साथ किए जानेवाले / होनेवाले समस्त कर्म की आधार-भूमि 'कर्ता-मैं' की यही अपरीक्षित अवधारणा होती है। अगले श्लोकों को इसी क्रम /तारतम्य में रखा जा सकता है :
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।15
तथा,
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।16
इसे ही गीता के अध्याय 3 में इस प्रकार कहा गया है :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27
तथा,
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28
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इस प्रकार कर्म -(कर्मफल) भोग और त्याग की शृङ्खला या चक्र सतत गतिशील जीवन है, जो इकाई (व्यष्टि) तथा समूह, और समष्टि तक वह है जिसे 'संसार' कहा जाता है।
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आधुनिकतम विज्ञान का एक विरोधाभास और विडम्बना यह है कि वह 'समय' नामक जिस वस्तु का 'अध्ययन' करने का दावा तथा दम्भ करता है  'समय' नामक वह वस्तु स्वरूपतः गतिशील है या गतिरहित इस बारे में भी  उसने कभी ध्यान नहीं दिया। इस प्रश्न / तथ्य पर ध्यान ही नहीं  दिया गया कि 'समय' न सिर्फ गतिशील बल्कि स्थिर प्रकृति का और परिवर्तनशील प्रकृति का भी हो सकता है।  इसे ही भारतीय दर्शन में ऋषियों ने अचल-अटल, शाश्वत, नित्य-अनित्य (पुनरावृत्तिपरक) तथा भौतिक घटनाओं के पैमाने पर मापनीय भौतिक राशि कहा है।
यही 'समय' स्वयं साङ्ख्य के अंतर्गत 'दैव' के अर्थ में गतिशील (अनिश्चित) तथा स्थिर (सुनिश्चित) इन दो प्रकारों में रूपायित किया गया है।
रूपायन और निरूपण इन दो विधाओं से साङ्ख्य क्रमशः व्यक्त जगत (phenomenal manifest world) का तथा उसके आधारभूत (substratum) कारण / कर्ता --अव्यक्त जगत (potential) का वर्णन करता है।
इसी प्रकार 'समय' को रूपायित (designed) और निरूपित (described) किया गया है।
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next part of this post
इस पोस्ट का अगला अंश
"प्राकृत और पुरुष......"
में प्रस्तुत होगा।
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Tuesday, 12 November 2019

भाव, भावना, भाषा ...

क्या यह मुमकिन है ?
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भाव भावना भाषा
भास भासाः च जीवनम् ।
यस्मात्प्रवर्तन्ते सर्वाः
भास्कराय तस्मै नमः।।
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बिलकुल बचपन से ही मुझे लगता था कि किसी भी भाषा को उसी भाषा के माध्यम से सीखा जाना सबसे ज़रूरी और आसान तरीका है। और इसलिए मैंने जब भी किसी भाषा को सीखने का प्रयास किया तो इसी तरीके से किया।  इसका एक लाभ यह हुआ कि व्याकरण और अनुवाद को दरक़िनार करते हुए भाषाएँ सीखने का क्या तरीका हो सकता है, यह मुझे समझ में आया। बहुत बाद में मैंने अनुभव किया कि व्याकरण और अनुवाद द्वारा किसी भाषा को सीखना कामचलाऊ और फ़ौरी तौर पर उपयोगी हो सकता है किन्तु जैसे जैसे व्याकरण और अनुवाद के सहारे की आदत पड़ने लगती है, वैसे वैसे नई भाषा उतनी ही अधिक कठिन होने लगती है।
हाँ, जब किसी भाषा को उसी (या निकटवर्ती) भाषा के माध्यम से पर्याप्त और संतोषजनक रीति से सीख लिया जाता है तब उसे समृद्ध और त्रुटिरहित ढंग से बोलने-लिखने के लिए व्याकरण के आधार पर उसकी परीक्षा की जा सकती है और त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।
तब यह प्रश्न भी महत्वहीन और सतही प्रतीत होने लगता है, कि कौन सी भाषा प्राचीन और कौन से नई है, कौन सी भाषा किस अन्य भाषा की जननी, मौसी, बहन या पुत्री है। क्योंकि तब हम भाषा की रचना कैसे होती है इसे समझ पाते हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा का कोई इतिहास या उद्भव-काल नहीं हो सकता। क्योंकि अनेक मानव-सभ्यताएँ अतीत में जिस प्रकार अस्तित्व में आईं और विलुप्त हो गईं उसी प्रकार अनेक भाषाएँ, लिपियाँ और व्याकरण भी अस्तित्व में आए और मिटे / बने।     
किन्तु सबसे रोचक तथ्य जो मैंने महसूस किया वह यह, कि जिस प्रकार से मैंने बिना व्याकरण और अनुवाद का सहारा लिए अनेक भाषाएँ सीखने के लिए केवल उसी भाषा के माध्यम से उन्हें सीखा, -उस प्रकार से भिन्न भिन्न कई भाषाएँ सीखने से सभी भाषाओं का वह सर्वसामान्य आधार समझ में आता है, जिसके सहारे किसी भाषा के जन्म और शब्दकोष तथा शब्दों की व्युत्पत्ति और व्याकरण की उत्पत्ति तथा रचना को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यहाँ तक, कि तब हमें किसी भाषा के इतिहास और विकास-क्रम का अध्ययन करना तक किसी हद तक बाधक प्रतीत होने लगता है। भाषा को किसी धर्म या सम्प्रदाय तक सीमित रखना भी इसी प्रकार हमारी भाषा की समझ को कुंठित कर सकता है। 
इसी मनःस्थिति में कभी भृगु-भारद्वाज सूत्र लिखे थे।
महर्षि भृगु और महर्षि भारद्वाज वैसे ही नित्य और सनातन पुरुष हैं जैसे सभी ऋषि देवता आदि होते हैं।
इसलिए वेद तथा ऋषि-रचनाएँ काल-निरपेक्ष वाणी हैं जिनकी अभिव्यक्ति समय समय पर भिन्न भिन्न मनुष्यों के माध्यम से संसार के कल्याण हेतु होती रहती है।
इसलिए ऋषियों या वेद-पुराण आदि का 'रचना-काल' ऐतिहासिक धरातल पर सुनिश्चित करने का प्रयास ही निरर्थक और हास्यास्पद भी है।  हाँ, 'हमारे समय में' ऐसा कोई अनुमानजनित निर्धारण किया जाता है यह भी उतना ही सच है।
इसी मनःस्थिति में जो सूत्र लिखे गए वे यथास्मृति इस प्रकार हैं :
यथास्मृति 
भर्गो भृगोः भाव भवतः
भवति भवन्तं भवन्ति।
भवः भवान् भवाप्ययौ
भवामि भविता भविष्यता।।१
भविष्यति भविष्यन्ति
भविष्याणि भविष्यामः।
भवेत् भावना भावयतः
भावयन्तः भावयन्तु ।।२
भावसमन्विता तथा
भावसंशुद्धिः भावम्।
भावः भावाः भावेषु
भावैः भाषसे भाषा।।3 
भासयन्ते भासाश्च
भास्वता भाः भिन्नाः।
भाषाभासभावैः ता
या प्राकृता व्याकृता वा ।।४
भावनयाः च भाषायाः
संस्कृतायाः बह्वीरूपाः।
भिन्नेषु लोके स्थाने
भिन्नभिन्नाः सर्वेषाम्।।५
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Thursday, 7 November 2019

Self-defense Mechanisms

Of Fears, phobias, the collective and the individual mind :
Just as because of the in-built self-defense mechanism and a measure of protection, the body develops resistance to disease, exactly so the mind too against unfavorable external situations and conditions; -develops and breeds (odd, even, common and rare kinds of) fears and apprehensions.
Fear is basically the Artificial Intelligence on the part of the mind.
The fear of anything; -of the future, political situations, war, stock-market ups and downs, social stigma, acquired religious and traditional values are the various kinds.
Fear though not in quantity or number but quality, could be further categorized as rational, irrational, or fractional as well.
Just as a disease or epidemic affects an individual or an animal, fear as a by-product of the acquired  'knowledge' grips the collective psyche of a class / society that could be further 'identified' as a subject to this fear.
Of course, this process of 'identifying' a group too is again based upon and supported by certain mental concepts or may have been given importance because of our collective Artificial intelligence; -the acquired knowledge / information and our mental conditioning.
For example :
The Fascists 'identified' the Jews, the communists 'identify' the 'capitalists', 'reactionary', 'communal'; -the 'Secular' identify the 'Sectarians'. Even more the Islamist identify the 'kafir' or the atheist, so many ways are there to identify an enemy according to their convenience and motives.
Believing that the Black and the Whites are different races and the Aryans, Arab, Palestine, Jew and Christian, -the Dravidian too are likewise; is again a similar approach that distinguishes man from man.
No doubt, the state of body as a male or a female one is a distinction of its own kind and is to be observed and followed for the sake of simplicity, and poses no problem whatsoever, if there is no gender-injustice.
 Just as the word "Love" is the cognate / सज्ञात / सजात  of the Sanskrit word 'लोभ'; -
- the word 'Fear', is cognate / सज्ञात / सजात of the Sanskrit word भीः - भीरु .
 Interestingly, it is not difficult to note that 'phobia' is another such word synonymous with fear.
'phobia' too is again cognate / सज्ञात / सजात of the Sanskrit word भवभय .
So, 'fear' is the first response / reaction that takes place when we are face to face with a seemingly dangerous situation.
The same fear disappears when we realize that there is no danger or cause to be scared of, or how to deal with the situation.
So, knowledge (Artificial intelligence) brings up the fear and the same knowledge also helps in allaying / overcoming the fear.
The fear becomes obsession / phobia when we fail to understand its significance and just don't know how to handle the situation.
We have social norms, values, do's and don't's -- socially ethical mannerisms for behaving properly in the society. These could be ascribed to 'Religion' or 'Tradition' and also to the beliefs associated with them.As a consequence we are often in conflict within our-self and unable to decide what is the right approach that should be followed.
This conflict and doubt has no end until and unless we see this fact of fear and being fearful.
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The problem is two-fold.
The Collective Mind and the Collective Psyche are the two fundamental factors of the Collective Consciousness.
Though the Collective Mind is shared by all and the every individual; the Collective Psyche is the Totality of all these and infinitely many more such individual idiosyncrasies.
There are two modes of the behavior of the mind where a word / thought arouses a feeling and thereby a reaction to it, that may be influenced by the past. Conversely; where an emotion / feeling may arouse a thought. Thus the two are entwined.
Love and Fear are two such feelings.
Accompanied by word / thought they are seen through a camouflage, And the fact before remains hidden under the shroud of mystery.
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Tuesday, 5 November 2019

किसान / कृशानु

यम नचिकेता संवाद :
एक कॉपी में 'किसान' शीर्षक से कुछ लिखने का विचार था। चार पाँच दिनों पहले संस्कृत में कुछ लिखना चाहा तो इसी शीर्षक के नीचे लिखता रहा। दस श्लोकों के पूर्ण होने के बाद किसी कारणवश इसे अधूरा छोड़ दिया।  आज सुबह इस पर पुनः ध्यान गया तो आगे लिखने लगा।
रचना पूर्ण हो जाने के बाद सोचा :
"क्या यह शीर्षक उपयुक्त है ?"
फिर AI (प्रत्युत्पन्न मति) का प्रयोग करते हुए इस शब्द के मूल को खोज निकाला।
यह समाधान प्राप्त हुआ  :
"अनु कर्शयति यो पृथिव्याः स कृषको वा कृशानुः।"
"कृशानु" इस प्रकार किसान का मूल रूप सिद्ध हुआ।
यह हुआ इस पोस्ट का शीर्षक जिसे अब प्रयोग कर रहा हूँ।
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नचिकेता पपृच्छ :
जन्मना सर्वे शूद्राः
भवन्ति कर्मणा द्विजाः।
कर्माणि भवन्ति गुणधर्मैः
गुणधर्मास्तु संस्कारैः।। 1
संस्कारास्तु प्राक्तनाः
जातियोनिभिः सर्वेषाम्।
जन्मानि जन्म-जन्मानि
मृत्योः मृत्यवे अथ।।2
एवं तु प्रकृतेः सर्वे
पुनरायान्ति प्रलीयन्ते।
सस्यमिव पच्यते मर्त्यः
सस्यमिवाजायते पुनः।।3 
अनुपश्य यथा पूर्वे
प्रतिपश्य तथा परे।
येयं प्रेते विचिकित्सा
मनुष्येऽस्तीत्येके।।4
नायमस्तीति चैके वा
एतद्विद्यामनुशिष्टः।
त्वत् वृणोमि अहमेतत्
नाचिकेतस्तृतीयं वरं ।।5
यम उवाच :
देहेऽस्मिन्नरस्य
मुखं स्वरूपः ब्रह्मणः।
करद्वयौ तु क्षत्रियाः
उदरो इति वैश्याः च ।।6
जानुद्वयौ शूद्राः स्युः
एवं तु वर्णाः सर्वे।
देहेऽस्मिन्मनुष्ये
ब्रह्मैव स अङ्गिरसः।।7  
नेत्रद्वयौ अग्नीन्द्रौ
नासाद्वयौ अश्विनौ।
कण्ठे तु सोमवरुणौ
कर्णाभ्यां मंत्रदेवताः।।8
एवं व्याप्य असौ देहे
हृदि रुद्रो प्रवर्तते।
शरीरे प्राणभूत्वाऽसौ
शारीरिकः इति उच्यते।।9
अतो हि गीतायाम्* :
(अध्याये चतुर्दशे)
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्
प्रकाशः उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्यात्
विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।10
लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः
कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते
विवृद्धे भरतर्षभ।।11
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च
प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते
विवृद्धे कुरुनन्दन।।12
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु
प्रलयं यान्ति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकान्
अमलान्प्रतिपद्यते।।13
रजसि प्रलयं गत्वा
कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि
मूढयोनिषु जायते।।14
कर्मणः सुकृतस्याहुः
सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखम्
अज्ञानं तमसः फलम्।।15
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं
रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो
भवतोऽज्ञानमेव च।।16
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः
मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तस्थाः
अधोगच्छन्ति तामसाः।।17
नान्यः गुणेभ्यः कर्त्तारम्
यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति
मद्भावं सोऽधिगच्छति।।18
गुणानेतानतीत्य त्रीन्
देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैः
विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।19
नचिकेता पप्रच्छ :
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणान्
अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतान्
त्रीन्गुणानतिवर्तते।।20
यम (मृत्युः) उवाच :
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च
मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि
न निवृत्तानि काङ्क्षति।।21
उदासीनवदासीनो
गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव
योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।22
समदुःखसुखः स्वस्थः
समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियप्रियाधीरः
तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।23
मानापमानयोस्तुल्यः
तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी
गुणातीतः स उच्यते।।24
मां च योऽव्यभिचारेण
भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्
ब्रह्मभूयाय कल्पते।।25
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहम्
अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य
सुखस्यैकान्तिकस्य च।
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ज्ञानं -- चेतना / consciousness
सत् - Awareness
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Sunday, 3 November 2019

लिखते लिखते याद आया ...

संबुद्ध और समबुद्धि 
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पिछले पोस्ट की अंतिम पंक्तियाँ :
संबद्ध संबुद्ध नहीं होता,
और संबुद्ध संबद्ध नहीं होता ।
लिखते लिखते याद आया :
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। 
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।4 
यह है श्रीगीताजी के अध्याय 12 का श्लोक।
संबुद्ध समबुद्धि अवश्य होता है।
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--निर्विषय चिंतन --

गीता अध्याय 6 :
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26
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यह कुछ दुरूह है।
पहली दृष्टि में ऐसा आभास होता है कि यह बहुत सरल है और इसका तात्पर्य समझ में आ रहा है, किन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि जिसे 'मन' कहा जा रहा है, वह भले ही विचार / वैचारिक मनन, बुद्धि / निश्चयात्मक संकल्प-विकल्प, चित्त / भावप्रवणता, भावात्मकता, भावुकता, भावातिरेक, या भावना हो; या कि वह बस केवल अहं / स्व / ( 'मुझे लग रहा है', 'मैं सोचता हूँ', 'मैं सुखी हूँ' 'मैं चिन्तित हूँ', 'मुझे डर / आशा / आशंका है कि', मुझे अच्छा लग रहा है, आदि वाक्यों में जिसका उल्लेख 'मैं' की तरह किया जाता है,   .. ) हो, सदैव वर्तमान में हो रही गतिविधि होता है।  फिर भले ही वह अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना या अनुमान ही क्यों न हो। 
इस प्रकार मन जब किसी विषय (वस्तु, स्थान, व्यक्ति, समय या घटना इन्द्रियग्राह्य अनुभव) से संबद्ध होता है तब मन को 'विषयी' तथा उस वस्तु, स्थान, व्यक्ति, समय या घटना आदि इन्द्रियग्राह्य अनुभव को मन का 'विषय' कहा जाता है।
फिर मन, जो इधर-उधर भटकता है (निश्चरति से जिसका उल्लेख है), उसे वहाँ-वहाँ से खींचकर पुनः आत्मा / स्व के वश में लाए जाने का अभिप्राय यहाँ क्या हो सकता है?
क्या वास्तव में यह संभव है कि मन इस प्रकार 'विषय-विषयी' में विभाजित होता हो, या इस प्रकार से उसे  विभाजित किया जा सके? क्या ऐसा विभाजन कृत्रिम / सतही नहीं है?
जब भी मन के बारे में कुछ कहा जाता है तो क्या स्वयं मन ही अपने अतीत को स्मरण कर, या भविष्य में स्वयं को प्रक्षेपित कर ऐसा नहीं कहता? क्या उसी कल्पित अतीत या भविष्य के सन्दर्भ में ऐसा नहीं कहा जाता ?
इस नितान्त वर्तमान क्षण में भी कभी-कभी मन की स्थिति के संबंध में कोई वक्तव्य दिया जाता है किन्तु स्पष्ट है कि इस स्थिति में भी मन स्वयं ही स्वयं को दो टुकड़ों में बाँटकर ऐसा करता है, -जिनमें से एक टुकड़ा वह होता है जो उल्लेख करता है और दूसरा वह, जिसका उल्लेख हो रहा होता है।
इसी प्रकार उपरोक्त श्लोक में भी बिलकुल इसी तरह से मन के दोनों रूपों को एक ही साथ मन कहा गया है।
किन्तु इससे कोई विशेष स्पष्टता नहीं होती जो हमें सहायक हो सके।
यदि यहाँ मन को एक अर्थ में मन, और दूसरे अर्थ में उस 'ध्यान' के रूप में ग्रहण किया जाए, जिसके माध्यम से विषयी-मन इन्द्रियों के विभिन्न विषयों में संलग्न होता है, तो उस ध्यान-रूपी मन को विषयों से लौटाकर पुनः पुनः आत्मा / मन के अधिष्ठान पर लाया जाना ही इंगित है ऐसा कहा जा सकता है।
यह हुआ निर्विषय चिंतन।
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संबद्ध संबुद्ध नहीं होता,
और संबुद्ध संबद्ध नहीं होता ।
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Saturday, 2 November 2019

धरती, धर्म, संस्कृति और पुरुषार्थ

ये उपनिषत्सु धर्माः ते मयि सन्तु।
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पुरुष और प्रकृति के सन्दर्भ में धरती, धर्म, संस्कृति और पुरुषार्थ के महत्व को समझने के लिए हमें 'पुरुष' और 'प्रकृति' के तात्पर्य पर ध्यान देना होगा। 
गीता अध्याय 15 में वर्णन है :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16
लोक में क्षर तथा अक्षर ये दो पुरुष हैं। 
समस्त भूत (भू -- भवति जो 'होता' है) तो क्षर (निरंतर परिवर्तनशील, विकारशील, अनित्य रूप तथा नामयुक्त) पुरुष है, जबकि इनमें जो अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
'स्व' से बाह्य समस्त विषय इस प्रकार परिवर्तनशील इसलिए इस अर्थ में बनने-मिटनेवाले पुरुष का प्रकार है, जबकि 'स्व' अपरिवर्तनशील (अविकारी, नित्य और सनातन शाश्वत और काल से अछूता) कूटस्थ है, वह अविनाशी होने से अक्षर कहा जाता है।
भूर्भुवः स्वः अर्थात् भू भुवः तथा स्वः ये उसी कूटस्थ पुरुष की क्रमिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
भू अर्थात् पृथ्वी तत्व आधारभूत अभिव्यक्ति है जो भुवः / भुवन का आधार / सहारा / आश्रय है।
भू धातु को 'होने' के अर्थ में प्रयोग किया जाता है।
'होना' पुनः 'है' तथा 'होता है' के रूप में व्यक्त होता है।
'है' अचल अटल काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि 'होता है' काल-स्थान के अंतर्गत तथा काल-स्थान 'होता है' के अंतर्गत है, इस प्रकार ये दोनों सत्य परस्पर सापेक्ष हैं। 'होता है' सतत बदलता रहता है और उसे 'जाननेवाला' सदैव अचल-अटल है।
इस प्रकार यह भुवः / लोक / संसार 'जाने गए' दृश्य और 'जाननेवाले' / दृक् के दो ध्रुवों के बीच गतिशील है।
भू से भुवः और भुवः से स्वः यह वैसा ही क्रम है जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से फल-फूल की उत्पत्ति।शरीर अपना होता है जो लोक का अत्यंत छोटा हिस्सा होते हुए भी उन्हीं तत्वों से बना होता है जिनसे लोक / जगत / बना है।
यह लोक 'जाना जाता' है।
इसे जाननेवाला यद्यपि किसी जीवित शरीर से संबद्ध चेतन सत्ता है किन्तु जिसे 'जाना जाता' है वह स्वयं जड प्रकृति है जो भौतिक विज्ञान के नियमों से अन्धी की तरह बँधी होती है।
इसलिए प्रकृति उन अचल अटल नियमों से संचालित होती है जिन्हें विज्ञान प्रयोग और परीक्षण से पुष्ट कर सिद्धांत की तरह स्थापित करता है।
इस प्रकार समस्त ज्ञात (known) प्रकृति के ही अंतर्गत और उससे सीमित है।
'जाननेवाले' के बारे में क्या ?
'जानना' पुरुष है।
शरीर की दृष्टि से कोई भले ही स्त्री या पुरुष हो, उसके भीतर यह 'जाननेवाला' तत्व अचल अटल स्वरूप का होने से उसे ही गीता में 'पुरुष' कहा गया है, जो किसी विशिष्ट शरीर से जुड़ा होने से शरीर के गुण-धर्मों से बँधा होता है। गुण-धर्म 'प्रकृति' है।
इस प्रकार धर्म प्राणिमात्र को जन्म से ही प्राप्त हुआ होता है।
जाने गए शरीर और लोक के रूप में वह जड-प्रकृति (ज्ञेय) होता है, जबकि 'जाननेवाली सत्ता' की तरह वही 'पुरुष' / ज्ञाता होता है।
यह ज्ञाता जिसे भी जानता है वह ज्ञेय उससे भिन्न होता है, और इसलिए ज्ञाता स्वयं को उस अर्थ में कभी नहीं जान सकता जिस अर्थ में वह भू और भुवः की तरह प्रकृति को 'जानता' है।
यही ज्ञाता वह पुरुष है जिसे 'स्व' कहा जाता है।
हर कोई अनायास ही अपने आपको 'मैं' की तरह जानता है।
इस 'स्व' का उद्भव ही प्रत्येक प्राणी का स्वभाव / स्वाभाविक 'धर्म' है।
जब इस प्रकार स्व अपना लोक से पृथक प्रतीत होनेवाला जीवन जीते हुए सुख दुःख, अनुकूल प्रतिकूल आदि के 'अनुभव' को प्राप्त करता है तो वह 'अनुभवकर्ता' के सातत्य के रूप में स्व की प्रतिमा / परिभाषा गढ़ लेता है। स्पष्ट है कि सुख का अनुभवकर्ता सुखी और दुःख का अनुभवकर्ता एक दूसरे से भिन्न स्वरूप के होते हैं और स्व की स्मृति ही उन सबमें उन्हें एक सूत्र की तरह पिरोती है।
इस प्रकार 'स्व' इस भ्रम से ग्रस्त होता है कि वह कभी सुखी तो कभी दुःखी होता है।
इस भ्रम के फलस्वरूप वह स्थायी सुख की खोज में संलग्न होता है।
किन्तु सुख और दुःख अनुभव के ही भिन्न भिन्न दिखलाई देनेवाले रूप मात्र हैं।
इसलिए स्थायी सुख की कल्पना ही त्रुटिपूर्ण विचार है।
जीवन या स्व का जीवन अनुभव से परे का सत्य है क्योंकि न तो उसे 'ज्ञेय' की तरह जाना जा सकता है, और न अनुभव की तरह जिया जा सकता है।
यह जीवन यद्यपि धर्म, संस्कृति, और पुरुषार्थ / पराक्रम की तरह ज्ञेय अवश्य है।
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पुरुषार्थ का अभिप्राय है कर्म; - जिसके माध्यम से स्व इस संसार में कुछ लक्ष्यों को प्राप्तव्य समझकर उस दिशा में प्रयास करता है। यह कर्म उसके गुण-धर्मों / संस्कारों से प्रेरित होता है।
स्त्री और पुरुष के शरीर की रचना प्रकृति का कार्य है इसलिए किसी भी स्त्री या पुरुष में जन्म से ही विशिष्ट प्रवृत्तियाँ होती हैं और कर्म उनके अनुकूल, प्रतिकूल या स्वतंत्र हो सकता है।
इसलिए जब इस बारे में सावधानी नहीं रखी जाती तो समाज में असंतुलन पैदा होता है।
धर्म इसी असंतुलन को दूर करने का उपाय है।
धर्म किसी पर बलपूर्वक आरोपित नहीं किया जा सकता।
केवल कर्म को ही किसी पर आरोपित किया जा सकता है।
इसलिए अपना धर्म क्या है इसे जानना और समझना हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है।
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