धृति, धर्म / अधर्म
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गीता का उल्लेख होते ही धर्म, कर्म, आत्मा, परमात्मा, बुद्धि, यज्ञ, योग, ज्ञान, भक्ति, कर्तव्य आदि शब्दों का भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, किन्तु जिस शब्द का विशेष उल्लेख नहीं होता वह है :
"धृति"
गीता के अध्याय 15 में संसार और दो प्रकार की प्रकृतियों (जड तथा चेतन) और 'पुरुष' के दो रूपों क्रमशः जीव (भूतप्रकृति) तथा परमात्मा (चेतनता / चेतना -- अध्याय 10 /22) का वर्णन पाया जाता है।
अध्याय 15 इस अर्थ में एक ऐसा मोड़ है जिसके बाद गीता में एक भिन्न शैली महत्वपूर्ण हो जाती है, और जहाँ गुण, धर्म / अधर्म, कर्म, यज्ञ, आदि का विशेष वर्गीकरण किया गया है।
बुद्धि और धृति (mindset) के माध्यम से कार्य करनेवाले तीन गुणों की विशेषताओं का वर्णन अध्याय 18 के श्लोक 29 से श्लोक 35 तक है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।29
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
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यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
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अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
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इस प्रकार बुद्धि / Intellect (और बुद्धिजीवियों) की भूमिका की ओर संकेत किया गया।
अब धृति (mindset) अर्थात् संस्कार से प्रेरित मनोवृत्ति के बारे में कहा जाता है :
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।33
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तीन पुरुषार्थों का वर्णन किसी एक श्लोक में देखना हो तो एक उदाहरण है अध्याय 18 का यह श्लोक :
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ सारथी।।34
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तथा अंत में :
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।35
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इस प्रकार उपरोक्त श्लोक 33 के प्रथमार्द्ध में 'धृति' (mindset) को परिभाषित किया गया है।
श्लोक 34 से यह स्पष्ट है कि 'धर्म' चार पुरुषार्थों के क्रम में पहला है।
यह 'धर्म' अपने आप में सम्प्रदायनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता है और अधर्म का विपरीत भी है।
'अधर्म' वह है जो विवेकहीनता (अज्ञान, आलस्य, उन्माद, विषाद आदि तमोगुणी प्रवृत्ति) और प्रमाद (लोभ, भय, अनवधानता अर्थात् रजोगुणी प्रवृत्ति) से उत्पन्न होता है।
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गीता का उल्लेख होते ही धर्म, कर्म, आत्मा, परमात्मा, बुद्धि, यज्ञ, योग, ज्ञान, भक्ति, कर्तव्य आदि शब्दों का भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, किन्तु जिस शब्द का विशेष उल्लेख नहीं होता वह है :
"धृति"
गीता के अध्याय 15 में संसार और दो प्रकार की प्रकृतियों (जड तथा चेतन) और 'पुरुष' के दो रूपों क्रमशः जीव (भूतप्रकृति) तथा परमात्मा (चेतनता / चेतना -- अध्याय 10 /22) का वर्णन पाया जाता है।
अध्याय 15 इस अर्थ में एक ऐसा मोड़ है जिसके बाद गीता में एक भिन्न शैली महत्वपूर्ण हो जाती है, और जहाँ गुण, धर्म / अधर्म, कर्म, यज्ञ, आदि का विशेष वर्गीकरण किया गया है।
बुद्धि और धृति (mindset) के माध्यम से कार्य करनेवाले तीन गुणों की विशेषताओं का वर्णन अध्याय 18 के श्लोक 29 से श्लोक 35 तक है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।29
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
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यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
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अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
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इस प्रकार बुद्धि / Intellect (और बुद्धिजीवियों) की भूमिका की ओर संकेत किया गया।
अब धृति (mindset) अर्थात् संस्कार से प्रेरित मनोवृत्ति के बारे में कहा जाता है :
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।33
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तीन पुरुषार्थों का वर्णन किसी एक श्लोक में देखना हो तो एक उदाहरण है अध्याय 18 का यह श्लोक :
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ सारथी।।34
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तथा अंत में :
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।35
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इस प्रकार उपरोक्त श्लोक 33 के प्रथमार्द्ध में 'धृति' (mindset) को परिभाषित किया गया है।
श्लोक 34 से यह स्पष्ट है कि 'धर्म' चार पुरुषार्थों के क्रम में पहला है।
यह 'धर्म' अपने आप में सम्प्रदायनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता है और अधर्म का विपरीत भी है।
'अधर्म' वह है जो विवेकहीनता (अज्ञान, आलस्य, उन्माद, विषाद आदि तमोगुणी प्रवृत्ति) और प्रमाद (लोभ, भय, अनवधानता अर्थात् रजोगुणी प्रवृत्ति) से उत्पन्न होता है।
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